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Saturday, November 30, 2019

सुख का सत्कार


घर में बच्चा बीमार हो जाए, तो सारे घर के ध्यान का केंद्र हो जाता है। बचपन से ही हम गलत बात सिखा देते हैं। बच्चे को हमने बीमार रहने की कला सिखा दी। कौन नहीं चाहता कि सब मुझ पर ध्यान दें? कौन नहीं चाहता कि मैं सबकी आंखों का तारा हो जाऊं? और बच्चा जानता है, सबकी आंखों का तारा मैं तभी होता हूं, जब अस्वस्थ होता हूं, बीमार होता हूं, रुग्ण होता हूं। जब स्वस्थ होता हूं, किसी की आंख का तारा नहीं होता। बल्कि उलटी बात घटती है। बच्चा स्वस्थ होगा, ऊर्जा से भरा होगा, नाचेगा, कूदेगा, चीजें तोड़ देगा, झाड़ पर चढ़ेगा। जो देखो वही डांटेगा। जो देखो वही कहेगा: मत करो ऐसा, चुप रहो, शांत बैठो। सम्मान पाना दूर रहा, सहानुभूति पानी दूर रही। उत्सव में आशीष पाना दूर रहा, उत्सव में मिलती है निंदा। नाचता है तो सारा घर विपरीत हो जाता है, सारा परिवारपड़ोस विपरीत हो जाता है। बीमार होकर पड़ रहता है, सारा घर अनुकूल हो जाता है।


हम एक गलत भाषा सिखा रहे हैं। हम बीमारी की राजनीति सिखा रहे हैं! हम यह कह रहे हैं कि जब तुम बीमार होओगे, हमारी सबकी सहानुभूति के पात्र होओगे। यह तो बड़ी रुग्ण प्रक्रिया हुई। जब बच्चा प्रसन्न हो, नाचता हो तब सहानुभूति देना, तो जीवनभर प्रसन्न रहेगा, नाचेगा।


लेकिन नहीं, ऐसा नहीं होता। इस कारण एक बहुत बेहूदी घटना मनुष्यजाति के इतिहास में घट गई। वह घटना क्या है, समझना! क्योंकि उसमें बहुत कुछ प्रत्येक के लिए कुंजियां छिपी हैंबड़ी कुंजियां छिपी हैं! हर बच्चे को दुख में, पीड़ा में, बीमारी में, परेशानी में सहानुभूति मिलती है; उत्सव में, आनंद में, मंगल में, नाच में, गान में विरोध मिलता है। इससे बच्चे को धीरेधीरे यह भाव होना शुरू हो जाता है पैदा कि सुख में कुछ भूल है और दुख में कुछ शुभ है। दुख ठीक है, सुख गलत है। दुख स्वीकृत है सभी को, सुख किसी को स्वीकार नहीं है।

इसी तर्क की गहन प्रक्रिया का अंतिम निष्कर्ष यह है कि परमात्मा को भी सुख स्वीकार नहीं हो सकता, दुख स्वीकार होगा। इसी से तुम्हारे साधुसंन्यासी स्वयं को दुख देने में लगे रहते हैं। उनकी धारणा यह है कि जब इस जगत के मातापिता दुख में सहानुभूति करते थे, तो वह जो सबका पिता है, वह भी दुख में सहानुभूति करेगा। जब इस जगत के मातापिता सुख में नाराज हो जाते थेउछलता था, कूदता था, नाचता था, प्रसन्न होता था, तो विपरीत हो जाते थेतो वह परम पिता भी सुख में विपरीत हो जाएगा। इस आधार पर सारे जगत के धर्म भ्रष्ट हो गए। इस आधार के कारण विषाद, उदासी, आत्महत्या, आत्मनिषेधये धर्म की सीढ़ियां बन गईं। अपने को सताओ!


तुम सोचते हो, जो आदमी काशी में कांटों की सेज बिछाकर उस पर लेटा है, वह क्या कह रहा है? यह छोटा बच्चा है। यह मूढ़ है। यह कोई ज्ञानी नहीं है, यह निपट मूढ़ है! यह उसी तर्क को फैला रहा है, कि देखो मैं कांटों पर लेटा हूं! अब तो हे परम पिता, अब तो मुझ पर ध्यान दो! अब तो आओ मेरे पास! अब और क्या चाहते हो? वह जो जैन मुनि उपवास कर रहा है, शरीर को गला रहा है, सता रहा है, वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि अब तो अस्तित्व मेरे साथ सहानुभूति करे! अब और क्या चाहिए! अब कितना और करूं! ईसाइयों में फकीर हुए जो रोज सुबह उठकर अपने को कोड़े मारते थे। और जब तक उनका शरीर लहूलुहान न हो जाए। यही उनकी प्रार्थना थी। और जो जितना अपने शरीर को लहूलुहान कर लेता था, नीलापीला कर लेता था, उतना ही बड़ा साधु समझा जाता था।


देखते हो इन पागलों को! विक्षिप्तों को! इनको पूजा गया है सदियोंसदियों में। तुम भी पूज रहे हो! इस देश में भी यही चल रहा है। यह तर्क बड़ा बचकाना है और बड़ा भ्रांत। परमात्मा उनसे प्रसन्न है जो प्रसन्न हैं। परमात्मा तुम्हारे मातापिता की प्रतिकृति नहीं है। तुम्हारे मातापिता तो उनके मातापिता द्वारा निर्मित किए गए हैं। यही जाल जो तुमने सीख लिया है, उन्होंने भी सीखा है।


यह समाज पूरा का पूरा, सुखी आदमी को सत्कार नहीं देता। तुम्हारे घर में आग लग जाए, पूरा गांव सहानुभूति प्रगट करने आता हैआता है न? दुश्मन भी आते हैं। अपनों की तो बात ही क्या, पराए भी आते हैं। मित्रों की तो बात क्या, शत्रु भी आते हैं। सब सहानुभूति प्रगट करने आते हैं कि बहुत बुरा हुआ। चाहे दिल उनके भीतर प्रसन्न भी हो रहे हों, तो भी सहानुभूति प्रगट करने आते हैंबहुत बुरा हुआ। तुम अचानक सारे गांव की सहानुभूति के केंद्र हो जाते हो।


तुम जरा एक बड़ा मकान बनाकर गांव में देखो! सारा गांव तुम्हारे विपरीत हो जाएगा। सारा गांव तुम्हारा दुश्मन हो जाएगा। क्योंकि सारे गांव की ईष्या को चोट पड़ जाएगी। तुम जरा सुंदर गांव में मकान बनाओ, सुंदर बगीचा लगाओ। तुम्हारे घर में बांसुरी बजे, वीणा की झंकार उठें। फिर देखें, कोई आए सहानुभूति प्रगट करने! मित्र भी पराए हो जाएंगे। शत्रु तो शत्रु रहेंगे ही, मित्र भी शत्रु हो जाएंगे। उनके भीतर भी ईष्या की आग जलेगी, जलन पैदा होगी। इसलिए हम सुखी आदमी को सम्मान नहीं दे पाते। इसलिए हम जीसस को सम्मान न दे पाए, सूली दे सके। हम महावीर को सम्मान न दे पाए, कानों में खीले ठोंक सके। हम सुकरात को सम्मान न दे पाए, जहर पिला सके।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 



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