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Thursday, November 21, 2019

मित्र हैं मेरे पास, जो कहते हैं कि आप कुछ ऐसा क्यों नहीं करते कि हाथ से भस्म पैदा हो जाए?


ऐसा करें तो लाखों लोग आ जाएंगे। लेकिन वे गलत होंगे। लाखों आ जाएंगे, लेकिन लाखों ही गलत होंगे। और उन लाखों की भीड़ में जो ठीक थोड़े से मेरे पास हैं, वे भटक जाएंगे, वे खो जाएंगे। क्योंकि जो ठीक मेरे पास हैं, वे उस लाखों की भीड़ में आगे न टिक पाएंगे, वह भीड़ आगे आ जाएगी। क्योंकि वह महत्वाकांक्षियों की भीड़ होगी, वह पागलों की भीड़ होगी। वह जो राख हाथ से गिरती देखकर इकट्ठे होते हैं, वे पागल हैं, उनको पागलखाने में होना चाहिए था। रोगग्रस्त हैं। और एक बार रोगी को बुला लो, तो फिर स्वस्थ को वह वहां नहीं टिकने देगा।

अर्थशास्त्र का सीधा-सा नियम है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। अगर तुम्हारे खीसे में एक नकली रुपया है, तो पहले तुम उसको चलाओगे, असली को दबाकर रखोगे। तो नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं, उनको कोई चलाता नहीं, पहले नकली को चलाता है; वह न चले तो फिर असली को चलाता है। और जहां भी नकली आदमी आ जाए, असली आदमी को पीछे कर देगा। क्योंकि नकली पहले चलना चाहता है।

धर्म का लाखों से कोई संबंध भी नहीं है, धर्म का संबंध तो बहुत थोड़े से लोगों से है। लेकिन ध्यान रहे, एक आदमी भी धार्मिक हो जाए, तो लाखों लोगों के जीवन में शांति की अनजानी किरणें उतरनी शुरू हो जाती हैं। वह आदमी एक सूरज की भांति हो जाता है, जिससे प्रकाश बहने लगता है। एक आदमी भी संतुष्ट हो जाए, तो इस जगत के असंतुष्ट पागलपन में दरार पड़ जाती है। एक शृंखला टूट जाती है। एक आदमी भी बुद्ध हो जाए, तो सभी लोगों की विक्षिप्तता की मात्रा कम हो जाती है। क्योंकि बुद्ध का शांत हो जाना संक्रामक है, बुद्धत्व संक्रामक है।

जैसे रोग फैलते हैं और एक आदमी रोग से भर जाए, तो सारे गांव को रोग से भर देता है। वैसे ही बुद्धत्व संक्रामक है और एक आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाए, तो यह पूरी पृथ्वी और ढंग की होती है। इसकी सारी चाल, इसके जीवन की शैली, सब बदल जाती है। बुद्ध तुम्हारे गांव से भी निकल जाएं, तुम अपने घर में सोए रहो, तो भी तुम वही नहीं होते, जो तुम बुद्ध के निकलने के पहले थे। तुम वही हो नहीं सकते, तुम घर में ही सोए रहो। 
 
आज भारत असंतुष्ट है, बड़ी पीड़ा से भरा हुआ है, लेकिन फिर भी पश्चिम के लोग आकर तुममें भी शांति का अनुभव करते हैं। तुम खुद हैरान होओगे, पश्चिम के यात्री जाकर खबरें लिखते हैं, किताबें लिखते हैं कि अगर शांत देखना हो किसी व्यक्ति को तो भारत में व्यक्ति हैं।

बड़ी हैरानी की बात है। हमको भी चकित होना पड़ता है। क्योंकि तुममें कैसी शांति उन्हें दिखाई पड़ती होगी? तुममें कोई शांति नहीं है। लेकिन फिर भी तुम्हारे बीच से बहुत बुद्ध गुजरे हैं, उनकी छाया तुममें थोड़ी छूट गई है। उसका तुम्हें भी पता नहीं है। तुम्हारी हड्डी में, मांस-मज्जा में, तुम्हारे अनजाने, तुम्हारी बिना चेष्टा के, तुम्हारे विरोध के बावजूद, बुद्धों की छाया पड़ी है। जैसे कोई आदमी अनजाने बगीचे से गुजर जाए और उसके वस्त्रों में फूलों की सुगंध आ जाए, जिसका उसे पता भी न हो। यह भी हो सकता है, जिसकी उसे सुगंध ही न आती हो, क्योंकि उसकी नाक दुर्गंध की आदी हो।

तुम बुद्धों के पास से ऐसे ही निकल गए हो। मगर फिर भी, तुम्हारे अनजाने, तुम्हारे विरोध के बावजूद भी उनकी सुगंध तुम्हें पकड़ गई है। वह तुम्हारी हड्डी-मांस-मज्जा में हो गई। इसलिए पश्चिम के लोग आकर तुममें शांति देख लेते हैं। तुमको खुद शांति दिखाई नहीं पड़ती। उनकी तलाश है। वे बुद्ध की खोज पर निकले हैं। तुममें उन्हें थोड़ी सी भी किरण मिल जाती है, उन्हें लगता है...।

मगर उसमें तुम्हारा कोई गुण-गौरव नहीं है। तुम तो अभागे हो इस अर्थ में कि जहां तुम खुद बुद्ध हो सकते थे, वहां तुम सिर्फ एक छाया लेकर घूम रहे हो। और उस छाया को भी बेचने को तैयार हो। कोई दो रुपए तुम्हें दे दे, तो तुम बुद्धत्व को बेचने को तैयार हो। अगर बुद्ध हमारे पास हों और पश्चिम खरीदना चाहे, तो हम उनको एक एटम बम में दे देंगे। एटम बम ले लेंगे और छोड़ देंगे बुद्ध को। करेंगे भी क्या बुद्ध का? कोई युद्ध लड़ा जाता है उनसे! कि बुद्धत्व से कोई खेती-बाड़ी होती है! कि बुद्धत्व से कोई फैक्टरी बनती है!

यह संकट है कि पूरब के पास बना हुआ मंदिर है, जिसमें हजारों बुद्धों की मेहनत है। पश्चिम के पास वैसा मंदिर नहीं है। पश्चिम की तलाश है और तुम बेहोश हो। तो या तो यह मंदिर जीवंत पश्चिम को दे दो। ध्यान रहे, मंदिर उसी का है, जो प्रार्थना करने को तैयार है। मंदिर की कोई बपौती नहीं होती।


एक चर्च था जबलपुर में। वह बहुत दिन से बंद पड़ा था। उस चर्च के जो पूजक थे, वे जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए, तो वे भी चले गए। थोड़े से ही लोग थे उस पंथ के, वह चर्च बंद ही पड़ा था। उसका प्रधान पुजारी तो लंदन में है। मेरे पास कुछ ईसाई आए, जो उस पंथ को, उस चर्च को नहीं मानते। पर उन्होंने कहा, हमारे पास कोई चर्च नहीं है। आप क्या कहते हैं, अगर हम इसमें पूजा शुरू कर दें? तो मैंने कहा कि चर्च तो उसी का है, जो वहां पूजा करता है। तुम शुरू करो।

 
मगर पुलिस तो नहीं मानती इस बात को, अदालत भी नहीं मानती। उन्होंने ताला खोलकर पूजा शुरू कर दी, मैं उनके चर्च का उदघाटन भी कर आया। फिर मुझे अदालत में जाना पड़ा। क्योंकि वह लंदन से उन्होंने दावा किया कि यह गैर-कानूनन है और हमने दूसरों की संपत्ति पर कब्जा कर लिया है।


अदालत से मैंने इतना ही कहा कि मैं इतना ही जानता हूं कि मंदिर उनका है, जो पूजा करते हैं। मंदिर की और क्या बपौती हो सकती है? मंदिर कोई जमीन-जायदाद है? जो लंदन में बैठे हैं, वे यहां पूजा तो कर नहीं सकते, ताला डालकर बैठे हैं। तो ताला डला हुआ मंदिर बेहतर है कि ताला खुला हुआ मंदिर, जिसमें कि लोग पूजा कर रहे हों?


मजिस्ट्रेट ने कहा कि इन गंभीर बातों में हम न पड़ेंगे। हमें कानून से मतलब है, यह जमीन-जायदाद किसी और की है। मैंने कहा, तुम्हें होगा कानून से मतलब, मुझे प्रार्थना से मतलब है। अब हम क्या करें?


अगर भारत न सम्हाल सकता हो इस मंदिर को, तो जीवंत उन्हें दे दे, जो इसकी खोज में हैं।


मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके पास बहुत से विदेशी दिखाई पड़ते हैं, उतने देशी नहीं दिखाई पड़ते!
इसमें मैं क्या करूं? मैं उनको मंदिर सौंप रहा हूं। मंदिर तुम्हारा है, मगर तुमने पूजा बंद कर दी है। और यह मंदिर कोई दिखने वाला नहीं है। दिखाई पड़ने वाला होता, तो अदालत में झंझट खड़ी होती। यह अदृश्य मंदिर है, इसको मैं सौंप दूंगा उनको। जो इसकी पूजा करना चाहते हैं, वे इसको ले जाएंगे। भारत ने जो खोजा है, उसे जीवंत पश्चिम पहुंचाना है। और या फिर भारत को सजग करना है। तो उसे पहुंचाने की कोई जरूरत न रह जाए।


मगर वह बचना चाहिए। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम की जो खोज है, वह बचनी चाहिए--उसे खोकर फिर पांच हजार साल मेहनत करनी पड़ेगी--यही मेरी चेष्टा है।

नहीं राम बिन ठाँव 

ओशो

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