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Saturday, November 16, 2019

प्रार्थना:एक जीवंत प्रक्रिया


प्रार्थना अकेली एक घटना है, जिसमें आदमी पूरा डूब पाता है-पूरा। जिसमें कुछ भी बाहर शेष नहीं रह जाता। प्रार्थना करने वाला भी बाहर शेष नहीं रह जाता, तभी प्रार्थना पूरी होती है। अगर प्रार्थना करने वाला मौजूद है और प्रार्थना आप कर रहे हैं, तो प्रार्थना एक बाहरी कृत्य है। वह आपको छुएगा नहीं। आप अछूते रह जाएंगे। लेकिन प्रार्थना इतनी गहरी हो जाती है, हो सकती है कि प्रार्थना करने वाला पीछे बचता ही नहीं, प्रार्थना ही बचती है। तब उस प्रार्थना के आंदोलन में, उस प्रार्थना के कंपन में घटना घटती है और सन्मार्ग की यात्रा शुरू हो जाती है। रुख बदल जाता है। नीचे की यात्रा की तरफ से चेहरा फिर जाता है, ऊपर की तरफ चेहरा हो जाता है।


अग्नि को इसीलिए पुकारते हैं कि वह ऊर्ध्वगामी है। अग्नि को इसीलिए पुकारते हैं कि वह अशुद्धि को जला देने वाली है। अग्नि को इसीलिए पुकारते हैं कि उसमें कोई अस्मिता नहीं है, वह बहुत जल्दी आकाश में लीन हो जाती है।


जब कोई प्रार्थना से भरता है पूरा, तो अग्नि की एक लपट बन जाता है ए फ्लेम। और एक ऐसी लपट, जिसमें धुआ नहीं होता। पहले तो होता है। पहले जब कोई प्रार्थना शुरू करता है, तो अग्नि सीधी नहीं होती, धुआ बहुत होता है। क्योंकि ईंधन हमारा बड़ा गीला होता है। जितनी ज्यादा वासनाएं होती हैं, उतना ईंधन गीला होता है। जैसे लकड़ी पर पानी पड़ा हो, तो आग लग भी जाए तो धुआ ही धुआ पैदा होता है। इसलिए घबरा मत जाना। प्रार्थना की यात्रा पर निकले व्यक्ति को पहले अग्नि का साक्षात्कार नहीं होता, धुएं का ही साक्षात्कार होता है। क्योंकि हमारे पास ईंधन बहुत गीला है।


इसलिए दूसरी बात ऋषि ने उसमें कही है कि मेरे पिछले किए हुए कर्म, उनको भी तू जला दे। क्योंकि वे पिछले किए हुए कर्म ही हमारा ईंधन है। और वे बड़े गीले हैं।


कर्म सूखा कब होता है और गीला कब होता है? किस कर्म को गीला कहें और किस कर्म को सूखा कहें?


सूखा कर्म अगर हो तो ऊपर की यात्रा बड़ी आसान हो जाती है, क्योंकि वह ठीक ईंधन बन जाता है। और गीला कर्म अगर हो तो ऊपर की यात्रा मुश्किल हो जाती है। क्योंकि गीला ईंधन कैसे जले! धुआं ही पैदा होता है। सूखा कर्म क्या है? गीला कर्म क्या है? जिस कर्म को करके आप उसके बिलकुल बाहर हो जाते हैं, वह कर्म सूखा होता है। जिस कर्म को करके भी आप उसके भीतर जुड़े रह जाते हैं, वह गीला होता है। जिस कर्म को करते समय आप साक्षी हो पाते हैं, विटनेस हो पाते हैं, वह सूखा हो जाता है। और जिस कर्म को करते वक्त आप साक्षी नहीं हो पाते, कर्ता बन जाते हैं, वह गीला हो जाता है। जिस कर्म के करते वक्त अहंकार खड़ा हो जाता है और कहता है, मैं कर रहा हूं कर्म गीला हो जाता है। जिस कर्म को करते वक्त आप कहते हैं, परमात्मा करवा रहा है, प्रकृति करवा रही है; मैं तो देख रहा हूं ऐसा कहते ही नहीं हैं, ऐसा जानते हैं, ऐसा जीते हैं, ऐसा अनुभव करते हैं तो कर्म सूखा हो जाता है।


जिनके पास सूखे कर्मों का ईंधन है, उनकी जीवन की ज्योति, उनकी जीवन की लपट तत्काल ब्रह्म में छलांग लगा लेती है। जिनके पास गीले कर्मों का ईंधन है, उन्हें कठिनाई होती है। ऋषि जानता है कि बहुत कर्म गीले हैं। बहुत कर्म गीले हैं। हम सबके बहुत कर्म गीले हैं। 


तो एक तो कर्म को सूखा करने की कोशिश करना, क्योंकि अकेली प्रार्थना से कुछ भी न होगा। कर्म को सूखा करने की कोशिश करना। अतीत के कर्मों से भी अपने अहंकार को तोड़ लेना। आज के कर्मों से तो तोड़ ही डालना। आने वाले कल के कर्मों से तो अपने को जोड़ना ही मत। तो कर्म सूखे हो जाएंगे। और अगर प्रार्थना की लपट जोर से पकड़ ले, तो प्रार्थना की अग्नि उन्हें जला देगी, भस्मीभूत कर देगी।


लेकिन आप यह स्मरण सदा ही रखना कि कोई और आकर आपकी प्रार्थना को पूरा नहीं कर जाएगा। आपकी प्रार्थना के करने में ही आप बदल जाते हैं। प्रार्थना करना ही रूपांतरण है। रूपांतरण पीछे से आता नहीं। प्रार्थना में ही फलित हो जाता है। इसलिए प्रार्थना का फल मत देखना, प्रार्थना स्वयं फल है। प्रार्थना करके चुपचाप भूल जाना। प्रार्थना स्वयं ही फल है। आप कर सके, यही बड़ी बात है।


लेकिन हमारे खयाल गलत हैं। हम सोचते हैं कि प्रार्थना कर दी हमने, अब कोई प्रार्थना को पूरा करेगा। तो अब हमें प्रतीक्षा करनी है। तो हमने कह दिया, अब हमें प्रतीक्षा करनी है।


प्रार्थना बहुत जीवंत क्रिया है आग ही जैसी। प्रार्थना के तीन पहलू हैं, वह मैं आपको कह दूं तभी खयाल में आ सकेगा। एक, जब आप प्रार्थना करते हैं, तब आप अहंकार को विदा देते हैं। क्योंकि अहंकार के रहते प्रार्थना नहीं हो सकती। जब ऋषि कहता है, हे अग्नि, हे देवता, मुझे सन्मार्ग दिखा, क्योंकि मुझे कुछ पता नहीं है, तब उसने अपने अहंकार को विदा दे दी। तो जब तक आपका अहंकार है, आप प्रार्थना न कर पाएंगे। तो जब आप प्रार्थना करेंगे, तब आपको अहंकार को विदा देनी पड़ेगी। प्रार्थना अपनी द्युमिलिटी, अपनी विनम्रता की पूर्ण स्वीकृति है। आप प्रार्थना नहीं कर सकते, प्रार्थना करने में आपको मिटना पड़ेगा। आप मिटेंगे तो ही प्रार्थना हो सकेगी।


तो पहली बात, प्रार्थना करना इस बात की सूचना है कि मैं अपनी हंबलनेस को, अपनी विनम्रता को स्वीकार करता हूं। अपनी असहाय अवस्था को, हेल्पलेसनेस को स्वीकार करता हूं। मैं कहता हूं कि मुझसे कुछ नहीं हो सकता। मैं घोषणा करता हूं कि मैं कुछ भी करने में समर्थ नहीं। मैं अंगीकार करता हूं कि जो भी मैंने किया वह नीचे ले गया। जो भी मैंने किया उससे मैं उलझा और उलझन में पड़ा। मेरा किया हुआ ही मेरा नर्क बन गया है।


मेरे किए हुए कर्मों के जाल ने ही मेरी छाती के ऊपर पत्थर रख दिए हैं। अब मैं और नहीं करता। अब मैं कहता हूं हे देवता, हे प्रभु, अब तू ही कर। अब तू मुझे ले चल।


फिर भी मैं कहता हूं कि इसका यह मतलब नहीं है कि देवता आपको ले जाएगा। यह प्रार्थना ही अगर पूरे हृदय से की गई और अहंकार निशेष हो गया, तो ले जाएगी। यह प्रार्थना ही ले जाएगी।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो


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