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Saturday, November 25, 2017

जो जानता है वह बोलता नहीं; और जो बोलता है वह जानता नहीं।




यह तो बड़ी पहेली है। क्योंकि लाओत्से बोलता है। उपनिषद भी यही कहते हैं कि जो जानता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह जानता नहीं। और उपनिषद भी बोलते हैं।


सुकरात भी यही कहता है। मैं भी यही कहता हूं, और रोज बोले चला जाता हूं। इस पहेली को ठीक से समझ लें, अन्यथा भूल होनी आसान है।


इसका क्या अर्थ है? क्या गूंगे जानते हैं, क्योंकि वे बोलते नहीं? और क्या बोलने वाले नहीं जानते, क्योंकि बुद्ध बोलते हैं, कृष्ण बोलते हैं, मोहम्मद बोलते हैं, जीसस बोलते हैं? तब तो गूंगे उनसे आगे पहुंच गए होंगे। और मजा यह है कि ये सब बोलने वाले यही कहते हैं कि वह गूंगे का गुड़ है, गूंगे केरी सरकरा! उसे जो खाता है वह चुप होता है, मुस्कुराता है, बोलता नहीं। फिर ये सारे लोग क्यों बोले चले जाते हैं?


यह बात तो बड़ी अतक्र्य मालूम होती है। अगर ये सही कहते हैं तो ये सही नहीं हो सकते। अगर ये सही हैं तो ये जो कहते हैं वह सही नहीं हो सकता। अगर लाओत्से को हम समझें कि इसने पा लिया है तो इसे चुप हो जाना चाहिए। और अगर हम समझें कि यह बोल रहा है तो जाहिर है कि इसने पाया नहीं है। अगर हम लाओत्से की ही मानें तो लाओत्से गलत हो जाता है। हम करें क्या?


नहीं, बोलने और न बोलने का जो अर्थ लाओत्से, उपनिषद और सुकरात का है वह हम समझ नहीं पाए। हमें उस न बोलने का पता ही नहीं है, जिसकी तरफ वे इशारा कर रहे हैं। हम तो जिस बोलने को और न बोलने को जानते हैं उसी को समझ रहे हैं। तुम बोलते हो दूसरे से। वहां तक तो ठीक है, क्योंकि दूसरे से बोले बिना कोई उपाय नहीं। शब्द दूसरे से जुड़ने का सेतु है, संवाद का मार्ग है। स्वाभाविक है। अगर यह भी लाओत्से को कहना हो कि जानने वाला नहीं बोलता तो भी शब्द में ही कहना पड़ेगा, बोल कर ही कहना पड़ेगा। असंगत होना पड़ेगा, क्योंकि कुछ भी नहीं कहा जा सकता बिना बोले। बोलने के विपरीत भी बोलना हो तो बोलना ही एक उपाय है।


लेकिन तुम जब अकेले हो तब तुम क्यों बोलते हो? दूसरे से जुड़ने का उपाय है शब्द, अपने से जुड़ने का नहीं। जब तुम अकेले बैठे हो तब भी तुम्हारे भीतर बोलना क्यों चलता रहता है?


वही बोलना रुक जाता है जानने वाले का। जो जान लेता है उसके भीतर बोली रुक जाती है--भीतर, याद रखना। वह भीतर नहीं बोलता। वह अपने से नहीं बोलता। अपने से बोलने का क्या अर्थ है? दूसरे से बोलने की तो सार्थकता है, अपने से बोलना तो विक्षिप्तता है। वह तो पागलपन का लक्षण है। लेकिन तुम खाली बैठे हो और अपने से बोले चले जाते हो; भीतर ही बात करते हो। अपने को ही दो हिस्सों में तोड़ लेते हो; एक बोलता है, एक जवाब देता है, एक पूछता है। सारा विचार विक्षिप्तता है।
जो जान लेता है वह नहीं बोलता, इसका अर्थ है कि वह विचार नहीं करता। जब वह अकेला है तो निश्चित ही बिलकुल अकेला है। उसका एकांत परिशुद्ध एकांत है। उस एकांत में कोई भी नहीं है; वही है। शब्द भी नहीं है; वहां परम मौन है। जब दूसरे के साथ है तो जरूरत हो तो बोलता है। जब अपने साथ है तो बोलना तो बिलकुल ही गैर-जरूरी है। अपने साथ तो बोलने की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ती। अपने साथ क्या बोलना है? कौन बोलेगा? कौन सुनेगा? वहां तो द्वैत नहीं है, वहां तो तुम अकेले हो।

ताओ उपनिषद 

ओशो

जब आप पूना आए। तब यहां कुछ तोते थे; लेकिन अब एक वर्ष में ही न जाने कितने प्रकार के पक्षी यहां आ गए। क्या ये आपके कारण आ गए हैं? क्या आपका उनसे भी कोई विगत जन्म का वादा है?




जीवन एक गहन प्रयोजन है। और वह प्रयोजन मनुष्य तक ही सीमित नहीं है, सीमित हो भी नहीं सकता। या तो प्रयोजन है तो पूरे अस्तित्व में है, या प्रयोजन कहीं भी नहीं है।

मनुष्य अलग-थलग नहीं है; मनुष्य एक है। अगर पत्थर व्यर्थ ही हैं तो मनुष्य भी व्यर्थ है और अगर मनुष्य के जीवन में कोई सार्थकता है, तो पत्थरों के जीवन में भी सार्थकता होनी ही चाहिए।

परमात्मा है तो उसका हस्ताक्षर सभी चीजों पर है। आदमी विशिष्ट नहीं है; सारी प्रकृति विशिष्ट है। तुम ही नहीं कोई विकास कर रहे हो; सारा अस्तित्व विकासमान है। पौधे, पक्षी, पत्थर-सभी ऊंचाइयों के शिखर को छूने के लिए यात्रा पर चल रहे हैं। धीमी होगी किसी की गति, तेज होगी किसी की गति, कोई बेहोश पड़ा होगा, कोई होश से चल रहा होगा; लेकिन मंजिल है। मंजिल का नाम ही परमात्मा है। और जब तक मंजिल न मिल जाए, तब तक एक बेचैनी बनी ही रहेगी। वह बेचैनी मनुष्य के भीतर ही है, ऐसा नहीं; वह सारे अस्तित्व में है।

कठिनाई होती है हमें यह सोचकर, क्योंकि मनुष्य का अंहकार ऐसा मान लेता है कि परमात्मा सत्य, प्रेम, बस हमारी बपौती है। तो हमें अड़चन होती है।

बुद्ध ने अपने पिछले जीवन की कहानियां कही हैं। वह जमाना था जब उस तरह की बातें कही जा सकती थीं; लोग उनका लाभ ले सकते थे। लोग सरल थे और मनुष्य अहंकारी न था। आज अगर कोई उस तरह की अतीत जीवन की कहानियां कहेगा तो भरोसा मुश्किल हो जाएगा। लोग बहुत जटिल हैं और लोगों का अहंकार बहुत प्रगाढ़ है।

बुद्ध ने कहा है, कभी मैं जंगल में एक हाथी था। जंगल में आग लग गई थी। सारे पशु-पक्षी भागे जा रहे थे।

दुःख से कौन नहीं बचना चाहता है? तुमने पशु-पक्षियों को दुःख से बचने के लिए भागते देखा है, क्या उससे तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि जो दुःख से बचना चाहते हैं वे सुख भी चाहते होंगे। जो दुःख से बचना चाहता है और सुख चाहता है, क्या तुम्हें खयाल नहीं आता कि कभी अनजाने-जाने उसके हृदय में भी वह आकांक्षा जगती होगी, जो आनंद की है? पशु भी जानते हैं सुख, पशु भी जानते हैं दुःख, और उस पीड़ा को भी जानते हैं जो सुख-दुःख में उलझ कर मिलती है। कभी उनकी चेतना में भी वह क्षण आता है, जब दोनों के पार हो जाने का भाव उठता होगा। निश्चित ही वह विचार उतना स्पष्ट नहीं हो सकता जितना मनुष्य का। मनुष्य को भी कहां बहुत स्पष्ट है? कितने थोड़े-से मनुष्यों को स्पष्ट है! अधिक मनुष्यता तो पशु पक्षियों जैसी ही जीती है।


तो बुद्ध ने कहा, सारे जंगल के पशु भागने लगे, मैं भी भागा। थक गया था। एक वृक्ष के नीचे खड़ा हो गया क्षण भर विश्राम को। और जैसे ही मैंने पैर उठाया वहां से हटने को, एक खरगोश भागा हुआ आया, और जो जगह खाली हो गई थी मेरे पैर के उठाने से, उस जगह आकर बैठ गया। पैर उठा हुआ ऊपर हाथी का, खरगोश नीचे बैठ गया।


बुद्ध ने कहा, मेरे मन में हुआ, मैं भी भाग रहा हूं प्राण को बचाने को, यह खरगोश भी भाग रहा है प्राण को बचाने को--प्राण को बचाने के संबंध में किसी में कोई भेद नहीं है। मेरे पास बहुत बड़ी देह है, इस खरगोश के पास बड़ी छोटी देह है। मेरे पैर के पड़ते ही यह विनष्ट हो जाएगा। लेकिन दुःख से सभी बचना चाहते हैं। सुख की सभी की आकांक्षा है। उसमें तो कोई भेद नहीं है, छोटे-बड़े का कोई फर्क नहीं। करूणा का आविर्भाव हुआ!


और बुद्ध ने कहा कि मैं खड़ा रहा, जब तक कि यह खरगोश हट न जाए, क्योंकि मैं पैर रखूंगा तो यह मर जाएगा। आग बढ़ती गई, खरगोश भागा नहीं; वह सुरक्षित था। शायद उसने सोचा हो कि जब हाथी भी नहीं भाग रहा है तो कोई डर नहीं है। बड़ों के पीछे छोटे चलते हैं। तो वह बैठा ही रहा सुरक्षित। आग भयंकर हो गई और हाथी जल कर मर गया।


बुद्ध ने कहा है, उस जन्म में ही मैंने मनुष्यत्व को पाने की क्षमता पाई--उस घड़ी में जब मैंने खरगोश पर करूणा की और मैं पैर को रोके खड़ा रहा। उसी क्षण मैंने मनुष्य होने की क्षमता अर्जित कर ली। आज मैं मनुष्य हूं उसी घड़ी के वरदान-स्वरूप।


सारा जगत--पौधे भी. . . तुम्हें खयाल में न आते हो, लेकिन प्राण वहां संवादित है, प्राण वहां पुलकित है, वहां भी धड़कन है और वहां भी भाव की दशाएं हैं। 


अब तो पश्चिम में विज्ञान बड़ी खोज कर रहा है। और जिन खोजों को महावीर और बुद्ध ने सारी दुनिया को दिया, लेकिन अब तक जो काव्य मालूम पड़ती थी; अब विज्ञान के आधार से वे तथ्य बनती जा रही हैं।


पश्चिम में पिछले पांच वर्षो में बहुत से प्रयोग किए गए हैं, जिनसे यह पता चला कि पौधे बहुत संवेदनशील हैं। उनकी संवेदना अद्भुत है! और न केवल संवेदनशील है, बल्कि टेलीफैथिक हैं। और मनुष्य ने भी वह क्षमता खो दी है--दूसरों के विचार को पकड़ लेने की, दूसरे के विचार को पढ़ लेने की; उसमें भी पौधे सक्षम हैं। यह भरोसे की बात नहीं मालूम पड़ती। लेकिन अब तो विज्ञान ने बड़े प्रयोग कर लिए हैं।


पौधा पकड़ता है दूसरे के विचार को भी।


एक वैज्ञानिक पौधों पर काम कर रहा था कि उनमें संवेदना कितनी है। सर जगदीशचंद्र बसु ने जो काम अधूरा छोड़ दिया था, उसको वह पूरा कर रहा था--वह उनका एक शिष्य है, अमरीकी है--और चाहता था कि उन्होंने जो काम छोड़ दिए उसे आगे बढ़ाया जाए। तो एक पौधे के पास बैठा था, पौधे के साथ उसने तार जोड़ रखे थे विद्युत के। जैसे कि डाक्टर आपके हृदय की जांच करता है, कार्डियोग्राम लेता है, तो तार जोड़ देता है और फिर हृदय की धड़कन कागज पर ग्राफ बनाने लगती है--ऐसे उसने पौधे पर तार जोड़े दिए थे कि पौधे की क्या मनोदशा है, क्या धड़कन है उसके हृदय की? वह कागज पर ग्राफ बनने लगा था।


वह ग्राफ बन रहा था, तभी उसने सोचा कि अगर मैं छुरी को उठाकर इस पौधे को आधा काट दूं तो क्या होगा? वह हैरान हो गया! ग्राफ पर तो खबर पहुंच गई। अभी उसने काटा नहीं है, अभी उसने छुरी उठाई नहीं है; सिर्फ एक भाव कि अगर मैं छुरी उठाकर आधा इसको काट दूं तो इसकी क्या भाव-दशा होगी? ग्राफ में तो घबड़ाहट आ गई। ग्राफ में तो कंपन आ गया--वैसा ही कंपन, जैसे कोई तुम्हारी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाता है, तब जैसा कंपन तुम्हारे कार्डियोग्राम में आ जाएगा, ठीक वैसा ही कंपन पौधे पर आ गया। लेकिन अभी कोई छुरा लेकर खड़ा भी न हुआ था। अभी किसी ने छुरा उठाया भी न था। अभी सिर्फ भाव में बात उठी थी। लेकिन पोधे ने भाव को पकड़ लिया। पौधा भाव से भयभीत हो गया।


इस वैज्ञानिक ने लिखा है कि पौधे को यह भूलने में कई दिन लगे, क्योंकि जब भी वह प्रयोगशाला के भीतर आता पौधा घबड़ा जाता। इस आदमी को पहचानने लगा कि यह आदमी खतरनाक है, इसके मन में एक बुरा विचार है।


यह बात आई-गई हो गई। न इसने छुरा उठाया, न पौधे को काटा। लेकिन जब भी यह अंदर आता तो पौधा थोड़ा शंकित हो जाता, उसके ग्राफ में फर्क पड़ जाता। कोई बीस दिन लगे पौधे को यह बात भूलने में कि यह आदमी बुरा नहीं है, बीस दिन इसने काटा नहीं है, काटने का विचार नहीं किया। तब कहीं जाकर पौधा आश्वस्त हुआ।


एक दूसरा वैज्ञानिक केंचुओं पर प्रयोग कर रहा था और केंचुओं को गर्म पानी में डाल रहा था, और यह देख रहा था वह कि गर्म पानी का क्या परिणाम होता है केंचुओं पर--तड़फते हैं, मर जाते हैं तत्क्षण, स्वीकार कर लेते हैं मरने को, या संघर्ष करते हैं बचने का? पास में ही एक कैक्टस का पौधा रखा था। उसके साथ तार जुड़े थे, उस पर भी प्रयोग चल रहा था। लेकिन यह तो आकस्मिक घटना घटी। जैसे ही उसने केंचुए को गर्म पानी में डाला, पौधा घबड़ा गया और पौधे का ग्राफ बदल गया। यह तो आकस्मिक था। यह किया नहीं था प्रयोग उसने। लेकिन यह जानकर वह हैरान हुआ कि न केवल तुम पौधों को हानि पहुंचाओ, तब पौधे के प्राण में पीड़ा होती है; तुम किसी भी जीवित चीज को नुकसान पहुंचाओ, पौधा कांपता है और घबड़ाता है।


अब तो बहुत काम पौधे पर किये गए हैं। और एक अनूठी किताब पश्चिम में प्रकाशित हुई है; "दि सिक्रेट लाइफ आफ दि प्लांट्स"। बाइबल और कुरान और धम्मपद की कीमत की किताब है। क्योंकि जो महावीर और बुद्ध कहे, उसे इस किताब ने परिपूर्ण रूप से सिद्ध करने की कोशिश की है कि पौधों का एक अज्ञात जीवन है जिसका हमें कोई पता नहीं।


और अगर पौधों का अज्ञात जीवन है, तो पक्षियों का तो कहना ही क्या! पक्षी तो बहुत विकसित अवस्था है।


वे जो पक्षी तुम्हें गीत गाते दिखाई पड़ते हैं, वे भी आकस्मिक नहीं आ गए हैं। तुम भी आकस्मिक नहीं आ गए हो। आकस्मिक कुछ होता ही नहीं। इस संसार में आकस्मिक शब्द झूठा है। ऐक्सीडेंटल जैसी बात कुछ होती ही नहीं। यहां सभी चीजें तारतम्य में बंधी हैं। यहां जो भी घटता है, उसके आगे-पीछे बड़े सूत्रों का जाल है।


तुम अगर यहां हो तो ऐसे ही नहीं, जन्मों-जन्मों का हाथ होगा। तुम्हें पता न हो, क्योंकि तुम्हें अपना पता ही कहां है! इसलिए जो पक्षी वृक्ष पर बैठकर गीत गा रहा है, उसे पता न हो कि इसी वृक्ष को उसने क्यों चुन लिया है? आज की सुबह ही गीत गाने को क्यों चुन लिया है? तुम्हें भी पता नहीं, मनुष्य को पता नहीं तो पक्षी को तो पता क्या होगा!


लेकिन जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है, अकारण कुछ भी नहीं है; एक विराट प्रयोजन प्रवाहित है। पत्थर से भी उस प्रयोजन का संबंध है, पहाड़ से भी उस प्रयोजन का संबंध है, पक्षियों से भी, पौधों से भी। एक विराट प्रयोजन सारे जगत को एक बड़ी तीर्थयात्रा पर ले जा रहा है।


 कहे कबीर दीवाना 

ओशो 

कल आपने अकाम की सूक्ष्म विवेचना की। स्वप्न-अवस्था में भी अकाम आ जाए, इसकी कीमिया पर कुछ उपदेश दें।



तुम स्वप्न की चिंता न करो, तुम जाग्रत में ही साध लो। जाग्रत में जो सध जाएगा, वह स्वप्न में अपने आप उतरने लगता है। क्योंकि तुम्हारे स्वप्न तुम्हारे जाग्रत की प्रतिध्वनियां हैं। तुमने जाग्रत में जो किया है, वही स्वप्न में तुम फिर-फिर अनुगूंज सुन लेते हो उसकी। उसी की प्रतिध्वनि है। स्वप्न कुछ नया तो देता नहीं। स्वप्न भी क्या नया देगा


दिन भर धन इकट्ठा करते हो, तो रात रुपये गिनते रहते हो। दिन भर मन में कामवासना तिरती है, तो रात काम के स्वप्न चलते हैं। जिनके जीवन में भजन है, उनकी निद्रा में भी भजन प्रविष्ट हो जाता है; और जिनका दिन शांत और शून्य है, उनकी रात भी शांत और शून्य हो जाती है। रात तो पीछा करती है दिन का; वह दिन की छाया है। रात को बदलने की फिक्र ही मत करो। 


अगर रात के स्वप्नों में कामवासना परेशान करती है, तो यही समझो कि जाग्रत में कहीं धोखा हो रहा है। इशारा समझो। स्वप्न तो इंगित करते हैं--दिन में भी तुम जिन्हें समझने से चूक जाते हो, स्वप्न उन्हें स्पष्ट इशारा कर देते हैं। हो सकता है कि दिन में तुम बड़े साधु बने बैठे होओ। लेकिन वह साधुता बगुले जैसी है। एक टांग पर खड़ा है! उसको देख कर तो ऐसा ही लगेगा कि कोई तपस्वी है। और कितना शुभ्र है! अब बगुले से ज्यादा और सफेदी कहां खोजोगे? और कैसा खड़ा है! कौन योगी खड़ा होगा! हिलता भी नहीं! ऐसा बाहर को देख कर मत भूल में पड़ जाना। भीतर वह मछलियों का चिंतन कर रहा है, भीतर वह मछलियों की राह देख रहा है। यह सब आसन, यह सब सिद्धासन, मछलियों की आकांक्षा में साधा है। 


खैर बगुला दूसरे को धोखा दे दे, अपने को कैसे धोखा देगा? खुद तो जानता है कि किसलिए खड़ा है। यह श्वास साधे किसलिए खड़ा है उसे पता है। 


लेकिन आदमी बगुले से भी ज्यादा बेईमान है। वह दूसरों को ही धोखा नहीं देता, दूसरों को धोखा देते-देते अपने को भी धोखा दे लेता है। जब दूसरे मानने लगते हैं उसकी बात, तो धीरे-धीरे खुद भी अपनी बात मानने लगता है। तब तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारे जाग्रत और स्वप्न में विरोध हो गया। तब तुम्हें जाग्रत में तो कोई कामवासना की तरंग उठती नहीं मालूम होती। क्योंकि तुमने बहुत बुरी तरह दबाया है; तुम उसकी छाती पर चढ़ बैठे हो; तुम उसे उठने नहीं देते। नहीं कि वह समाप्त हो गई है; बस तुम उठने नहीं देते। नहीं कि वह मिट गई है; तुम सिर्फ उसे प्रकट नहीं होने देते। उसे तुम दबाए हो छाती के कोनों में। रात जब तुम शिथिल हो जाते हो, दबाने वाला सो जाता है, तब जो लहर दिन भर दबाई थी, वह मुक्त होकर विचरण करने लगती है; वही तुम्हारे स्वप्न में कामवासना बन जाती है। जिन्होंने दमन किया है, स्वप्न में उसे पाएंगे।


स्वप्न को इशारा समझो; स्वप्न तुम्हारा मित्र है। वह यही कह रहा है कि दबाने से कुछ भी न होगा, रात हम प्रकट हो जाएंगे। दिन भर दबाओगे, रात हम फिर मौजूद हो जाएंगे। किसी तरह दूसरों को धोखा दे लोगे, अपने को भी धोखा दे लोगे, लेकिन हमसे छुटकारा ऐसे नहीं होगा। 


अब तुम पूछते हो कि स्वप्न में भी कामवासना से मुक्त होने के लिए क्या करें


इससे ऐसा लगता है कि जाग्रत में तो तुम मुक्त हो ही गए हो, अब रह गई है स्वप्न से मुक्त होने की बात। यहीं भ्रांति है। स्वप्न इतना ही कह रहा है कि जाग्रत में भी तुम मुक्त नहीं हुए हो। क्योंकि जिस दिन जाग्रत में मुक्त हो जाओगे, उस दिन स्वप्न में कुछ बचता ही नहीं। स्वप्न तो तुम्हारी ही सूक्ष्म कथा है। 


तुम मुझसे यह पूछ रहे हो कि जैसे हमने जाग्रत में दबा लिया, ऐसी कोई तरकीब हमें बता दें कि स्वप्न में भी दबा लें। फिर तो तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय न रह जाएगा। क्योंकि जो दबा है, वह सदा मौजूद रहेगा और कभी न कभी प्रकट होगा। वह तो धधकता हुआ ज्वालामुखी है। बाहर लपटें न आएं, इससे क्या होता है! भीतर तो तुम जलोगे और सड़ोगे; भीतर तो तुम गलोगे। कैंसर की तरह बढ़ेगा रोग; तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल जाएगा। 


नहीं, स्वप्न को समझो। स्वप्न की समझ इतना ही कह रही है कि दिन में तुमने कुछ चालबाजी की है, दिन में तुमने कुछ धोखा किया है। अब दिन को अपने समझने की कोशिश करो कि कहां तुम धोखा किए हो? कहां तुमने दबाया है? और जहां तुमने दबाया हो, वहां उसे उघाड़ो। 


मन का एक गहरा सूत्र समझ लो कि जैसे वृक्षों की जड़ें अगर अंधेरी भूमि में दबी रहें, तो ही अंकुरण जारी रहता है--पत्ते आते हैं, फूल लगते हैं, फल लगते हैं। अगर तुम वृक्ष की जड़ों को उखाड़ लो भूमि के बाहर--अंधेरे गर्त के बाहर निकाल लो, रोशनी में रख लो--वृक्ष मर जाता है। ठीक यही मन का सूत्र है: मन में जो भी रोग हों, उन्हें निकालो बाहर, रोशनी में लाओ। रोशनी मौत है रोग की। 


तुम उलटा करते रहे हो; और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें उलटा ही समझाते रहे हैं। वे कहते रहे हैं: और दबा दो! बिलकुल दबा दो; जड़ का पता ही न चले! 


लेकिन जड़ जितनी गहरी जम जाएगी, जितनी गहरी दबा दी जाएगी, उतना ही खतरा हो रहा है; उतना ही तुम्हारे जीवन में विष फैल जाएगा। 


उघाड़ो! अपने को अपनी आंखों के सामने लाओ! छिपो मत, भागो मत जागो! तो दिन में भी खोदो अपनी जड़ों को। लाओ रोशनी में, देखो। 


इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान कोई विधि थोड़े ही है कि तुमने कर ली और छुटकारा हुआ। ध्यान एक सतत प्रक्रिया है होश की। चौबीस घंटे, उठते, बैठते ध्यान रखो। 


भज गोविन्दम मूढ़मते 

ओशो

कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कि आप एक स्वप्न हैं....



यह सच है। अब तुम्हें और गहरा करना है इस अनुभूति को, ताकि कभी तुम अनुभव कर सको कि तुम भी एक स्वप्न हो। और गहरे उतरो इस अनुभूति में। एक घड़ी आती है जब तुम जान लेते हो कि जो भी है, सब सपना ही है। जब तुम यह जान लेते हो कि जो भी है सब सपना है, तो तुम मुक्त हो जाते हो।


यही तो अर्थ है हिंदुओं की माया की धारणा का। वह यह नहीं कहती कि सब कुछ झूठ है; वह इतना ही कहती है कि सब कुछ सपना है। सवाल सच या झूठ का नहीं है। तुम क्या कहोगे सपने को? वह सच है या झूठ? यदि वह झूठ है, तो कैसे दिखाई पड़ता है वह? यदि वह सच है, तो कैसे मिट जाता है वह इतनी आसानी से?  तुम अपनी आंखें खोलते हो और वह कहीं नहीं होता। सपना जरूर कहीं सच और झूठ के बीच होगा। उसमें जरूर कुछ न कुछ अंश होगा सच्चाई का और उसमें जरूर कुछ न कुछ अंश होगा झूठ का। सपना भी होता तो है, सपना एक सेतु है, न वह इस किनारे पर है और न उस किनारे पर है; न इधर है, न उधर है।

 
यदि तुम सपने को सच मान लेते हो, तो तुम सांसारिक हो जाओगे। यदि तुम सपने को झूठ मान लेते .हो तो तुम बच कर भागने लगोगे हिमालय की ओर; तुम असांसारिक हो जाओगे। और दोनों ही दृष्टिकोण अतियां हैं। सपना ठीक मध्य में है. वह सच और झूठ, दोंनों है। उससे भागने की कोई जरूरत नहीं है, वह एक झूठ है। उसे पकड़ने की भी कोई जरूरत नहीं है, वह एक झूठ है। सपनों के पीछे जिंदगी गंवाने की कोई जरूरत नहीं है, वे झूठ हैं। और उन्हें त्याग देने की भी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि कैसे तुम झूठ का त्याग कर सकते हो? उनका उतना भी अर्थ नहीं है।

और इसी समझ से संन्यास की मेरी धारणा का जन्म होता है. तुम सपने को यह जानते हुए जीते हो कि वह एक सपना है। तुम संसार में यह जानते हुए जीते हो कि वह एक सपना है। तब तुम संसार में होते हो, लेकिन संसार नहीं होता तुम में। तुम संसार में चलते हो, लेकिन संसार नहीं चलता है तुम में। तुम बने रहते हो संसार में। असल में, तुम अब उसका और भी आनंद लेते हो क्योंकि एक सपना ही है; तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। तब तुम गंभीर नहीं होते। असल में, तुम खेलने लगते हो बच्चों की भांति क्योंकि सपना ही है। तुम उसका आनंद ले सकते हो, उसका मजा ले सकते हो। अपराधी अनुभव करने जैसा कुछ नहीं है उसमें। एक उत्सव है जीवन का। संसार में रह कर भी संसार के न होना, संसार में जीना और फिर भी अलग थलग रहना; क्योंकि जब तुम जानते हो कि यह सपना है, तो तुम बिना किसी अपराध भाव के उसका आनंद ले सकते हो, और तुम बिना किसी समस्या के उससे अलिप्त रह सकते हो।


पतंजलि योगसूत्र

ओशो

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