Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Monday, November 30, 2015

कोई इंसान इंसान को भला क्या देता है..

शिरडी के साईं बाबा के जीवन की कहानी है: उनके पास एक ब्राह्मण रोज भोजन लेकर आता था। वे रहते मस्जिद में थे। किसी को पता नहीं वे हिंदू थे कि मुसलमान। ऐसे लोगों के बाबत पता लगाना मुश्किल भी होता है। अब तुम मेरे बाबत कभी पता लगा पाओगे कि मैं हिंदू हूं कि मुसलमान; कि ईसाई, कि बौद्ध, कि यहूदी, कि पारसी! तुम कभी पता न लगा पाओगे। क्यों? क्योंकि ऐसे व्यक्ति तो किसी सीमा में आबद्ध होते ही नहीं।…रहते थे मस्जिद में और यह ब्राह्मण रोज भोजन लाता। इसका नियम था: जब तक साईं बाबा को भोजन न करा ले, तब तक खुद भोजन न करे। कभी देर भी हो जाती। कभी साईं बाबा मस्त हैं भजन में! और कभी मस्त हैं लोगों को पत्थर मारने में, डंडे लेकर दौड़ने में! कभी मस्त हैं लोगों को गालियां देने में! भीड़ भाड़ मच गई है! तो देर अबेर हो जाती।

एक दिन साईं बाबा ने कहा कि तू नाहक पांच मील चल कर आता है। पहुंचते पहुंचते सांझ हो जाती है, तब तू भोजन कर पाता है। कल से मैं ही आ जाऊंगा। तू कल मत आना। बड़ा खुश हुआ ब्राह्मण! कल तो उसने खूब सुस्वादु भोजन बनाए, मिष्ठान्न बनाए। सुबह से ही जल्दी जल्दी उठ कर सब तैयारी कर डाली कि पता नहीं कब आ जाएं। नौ बजे, दस बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे, एक बजे…कोई पता नहीं! दो बज गए, कोई पता नहीं। चार बज गए, कोई पता नहीं भागा थाली लेकर! सांझ होते होते पहुंचा। साईं बाबा से कहा: आप भूल गए क्या? साईं बाबा ने कहा: मैं और भूल जाऊं! तू सोचता है, मैं कुछ भूल सकता हूं! मैं आया था, मगर नासमझ, तूने मुझे बाहर से ही दुतकार दिया! दुतकारा ही नहीं, तू डंडा लेकर मुझे मारने दौड़ा! उस ब्राह्मण ने कहा, हद हो गई, क्या बातें कर रहे हैं आप! होश में हैं? बैठा हूं सुबह से थाली सजाए, एक आदमी नहीं फटका! साईं बाबा ने कहा, मैंने कब कहा कि मैं आदमी की शकल में आऊंगा? एक कुत्ता नहीं आया था? वह तो भूल ही गया था ब्राह्मण; उसे याद आया कि हां, एक कुत्ता आया था। न केवल आया था बल्कि कई बार आने की कोशिश की…और एकदम थाली की तरफ ही जाता था! उसने कहा, हां एक कुत्ता आया था और एकदम थाली की तरफ ही जाता था। साईं बाबा ने कहा, मैंने सोचा कि थाली तूने मेरे लिए सजाई तो मैं थाली की तरफ जाता था। और तू एकदम डंडा मारता था! तूने घुसने ही न दिया घर में, तो मैं लौट आया।

ब्राह्मण ने कहा: मुझे माफ करें। मुझसे भूल हो गई। मुझे क्या पता, कि आपने मुझे एक अदभुत संदेश दिया, कि वही, एक ही सब में विराजमान है! कल, कल आ आएं! ऐसा नहीं होगा।

कल बैठा ब्राह्मण थाली लगाए…कुत्ते का आगमन कब हो? मगर कुत्ते का कोई पता नहीं। मुहल्ले में जाकर चक्कर भी मार आया कि कहीं कुत्ता भटक न गया हो। एक दो कुत्ते मिले भी ऐसे आवारा, उनको लाने की भी कोशिश की, मगर वे आएं न! धमकाया, डंडा भी बताया, मगर वे और भाग गए! बड़ा हैरान…! फिर वही सांझ होने लगी, फिर आया और कहा कि महाराज, दिन भर हो गया, परेशान हो गया, गांव के आवारा कुत्तों को खदेड़ता फिर रहा हूं, यह मैंने कभी सोचा नहीं था कि गांव के आवारा कुत्ते और सुस्वादु भोज लेने से इनकार कर देंगे! मैं उनको बुलाते जाता हूं, वे भागते हैं। जैसे कि किसी जाल में फंसा रहा हूं।

साईं बाबा ने कहा: मैं तो आया था, मगर तूने मुझे दुतकार दिया। मैं एक भिखमंगे की तरह आया था। अरे, उसने कहा, तो कल ही क्यों नहीं कहा! आज मैं कुत्ते की राह देखता रहा और आपको भिखमंगे की तरह आने की सूझी! एक भिखमंगा जरूर दोत्तीन बार आया, मैं तो उस पर इतना नाराज हुआ कि तू रास्ता पकड़ता है कि नहीं? यह भोजन तेरे लिए नहीं बनाया है। तो आप भिखमंगे की शक्ल में आए थे? कल!

साईं बाबा ने कहा: तुझे नहीं चलेगा। कल तू भिखमंगे की राह देखेगा। मेरा क्या भरोसा कल मैं किस शक्ल में आऊं! तू ही ले आया कर! वही आसान है। इसमें तू और झंझट में पड़ गया, और उलझन में पड़ गया।

विराट है अस्तित्व।

जो जानते हैं, उनके लिए, उनके ओंठों पर यही शब्द, हरि भारती, और अर्थ रखेंगे:

कोई इंसान इंसान को भला क्या देता है
आदमी सिर्फ बहाना है, बस खुदा देता है।


सपना यह संसार 


ओशो 



Sunday, November 29, 2015

हां और ना

 डेल कारनेगी कहता है कि अगर किसी को प्रभावित करना हो, किसी को बदलना हो, किसी का विचार रूपांतरित करना हो, तो ऐसी बात मत कहना जिसको वह पहले ही मौके पर ना  कह दे। क्योंकि अगर उसने पहले ही ना कह दी, तो उसका न का भाव मजबूत हो गया। अब दूसरी बात जों हो सकता था, पहले कही जाती, तो वह ही भी कह देता अब उस बात पर भी वह ना कहेगा। इसलिए पहले दो चार ऐसी बात करना उससे जिसमें वह हां कहे, फिर वह बात उठाना जिसमें साधारणत: उसने ना कही होती। चार हां कहने के बाद न कहने का भाव कमजोर हो जाता है। और जिस आदमी की हमने चार बात में हां भर दी, वृत्ति होती है उसकी पांचवीं बात में भी हां भर देने की। और जिस आदमी की हमने चार बात में ना कह दी, पांचवी बात में भी ना  कहने का भाव प्रगाढ़ हो जाता है।

डेल कारनेगी ने एक संस्मरण लिखा है, कि एक गांव में वह गया। जिस मित्र के घर ठहरा था, वह इंश्योरेंस का एजेंट था। और उस मित्र ने कहा कि तुम बड़ी किताबें लिखते हो कैसे जीतो मित्रता, कैसे प्रभावित करो। इस गाव में एक बुढ़िया है, अगर तुम उसका इंश्योरेंस करवा दो, तो हम समझें, नहीं तो सब बातचीत है।

डेल कारनेगी ने बुढ़िया का पता लगाया। बड़ा मुश्किल काम था, क्योंकि उसके दफ्तर में ही घुसना मुश्किल था। जैसे ही पता चलता कि इंश्योरेंस एजेंट, लोग उसे वहीं से बाहर कर देते। बुढ़िया अस्सी साल की विधवा थी, करोड़पति थी, बहुत कुछ उसके पास था, लेकिन इंश्योरेंस के बिलकुल खिलाफ थी। जहां घुसना ही मुश्किल था, उसको प्रभावित करने का मामला अलग था।

डेल कारनेगी ने लिखा है कि सब पता लगा कर, पाच बजे सुबह मैं उसके बगीचे की दीवाल के बाहर के पास घूमने लगा जाकर। बुढिया छह बजे उठती थी। वह अपने बगीचे में आई, मुझे अपनी दीवाल के पास फूलों को देखते हुए खड़े होकर उसने पूछा कि फूलों के प्रेमी हो? तो मैंने उससे कहा कि फूलों का प्रेमी हूं जानकार भी हूं; बहुत गुलाब देखे सारी जमीन पर, लेकिन जो तुम्हारी बगिया में गुलाब हैं, इनका कोई मुकाबला नहीं है। बुढ़िया ने कहा, भीतर आओ दरवाजे से। बुढ़िया साथ ले गई बगीचे में, एक एक फूल बताने लगी! मुर्गियां बताईं, कबूतर बताए, पशु पक्षी पाल रखे थे, वे सब बताए.। और डेल कारनेगी ने यस मूड पैदा कर लिया।

रोज सुबह का यह नियम हो गया। दरवाजे पर बुढ़िया उसके स्वागत के लिए तैयार रहती। दूसरे दिन बुढ़िया ने चाय भी पिलाई, नाश्ता भी करवाया। तीसरे दिन बगीचे में घूमते हुए उस बुढ़िया ने पूछा कि तुम काफी होशियार और कुशल और जानकार आदमी मालूम पड़ते हो, इंश्योरेंस के बाबत तुम्हारा क्या खयाल है? इंश्योरेंस के लोग मेरे पीछे पड़े रहते हैं, यह योग्य है करवाना कि नहीं? तब डेल कारनेगी ने उससे इंश्योरेंस की बात शुरू की। लेकिन अभी भी कहा नहीं कि मैं इंश्योरेंस का एजेंट हूं क्योंकि उससे ना  का भाव पैदा हो सकता है। जिंदगी भर जिसने इंश्योरेंस के एजेंट को इनकार किया हो, उससे ना का भाव पैदा हो सकता है। लेकिन सातवें दिन इंश्योरेंस डेल कारनेगी ने कर लिया। जिससे हा का संबंध बन जाए, उस पर आस्था बननी शुरू होती है। जिस पर आस्था बन जाए, भरोसा बन जाए, उसको ना कहना मुश्किल होता चला जाता है। अंगुली पकड़ कर ही पूरा का पूरा हाथ पकड़ा जा सकता है।

तो श्रुति अज्ञानी से ऐसी भाषा में बोलती है कि उसे हां  का भाव पैदा हो जाए। तो ही आगे की यात्रा है। अगर सीधे कहा जाए. न कोई संसार है, न कोई देह है, न तुम हो। अज्ञानी कहेगा, तो बस अब काफी हो गया, इसमें कुछ भी भरोसे योग्य नहीं मालूम होता।

इसलिए श्रुति कहती है अज्ञानी से कि देह आदि सत्य है, तुम्हारा संसार बिलकुल सत्य है। अज्ञानी की रीढ़ सीधी हो जाती है, वह आश्वस्त होकर बैठ जाता है कि यह आदमी खतरनाक नहीं है, और हम एकदम गलत नहीं हैं। क्योंकि किसी को भी यह लगना बहुत दुखद होता है कि हम बिलकुल गलत हैं। थोडे तो हम भी सही हैं! थोड़ा जो सही है, उसी के आधार पर आगे यात्रा हो सकती है।

अध्यात्म उपनिषद 

ओशो 


निर्गुण निष्क्रियं सूक्ष्‍मं निर्विकल्प निरंजनम्

आप भी मानते हैं कि आत्मा अमर है, यद्यपि आप जानते हैं कि मैं शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं हूं। किस आत्मा की बात कर रहे हैं जो अमर है, जिसका आपको कोई अनुभव नहीं है! जिसकी किंचित मात्र प्रतीति नहीं हुई, वह अमर है, आप कह रहे हैं! आपका भय आपका सिद्धात बन जाता है। जितने भयभीत लोग होते हैं, जल्दी आत्मवादी हो जाते हैं।

इसलिए हमारे मुल्क में दिखाई पड़ती है यह घटना, कि पूरा मुल्क आत्मवादी है और अंधेरे में जाने से डर लगता है, और आत्मा का पक्का भरोसा है! मौत से प्राण कंपते हैं, आत्मा का पक्का भरोसा है! आत्मवादियो का मुल्क एक हजार साल तक गुलाम रहा! आत्मवादियों के मुल्क पर कोई भी छोटी मोटी कौम हावी हो गई! और आत्मवादी आत्मा को मानते रहे कि आत्मा अमर है, लेकिन युद्ध के मैदान पर जाने में डरते रहे!

भय आपके सिद्धात का आधार है अनुभव नहीं, ज्ञान नहीं। नहीं तो आत्मवादी को तो कोई गुलाम बना ही नहीं सकता। उसको तो कोई भय ही नहीं है। आखिर गुलामी बनती ही भय के कारण है कि मार डालेंगे अगर नहीं गुलाम बनोगे तो। तो आदमी इस कीमत पर, जिंदा रहने की कीमत पर, गुलाम रहना भी पसंद कर लेता है, मरना नहीं चाहता है।

अगर यह मुल्क सच में आत्मवादी होता, जैसा कि लोग कहते फिरते हैं, तो यह मुल्क कभी गुलाम नहीं हो सकता था। यह पूरा मुल्क कट जाता, और कहता कि न शस्त्रों से हमें छेदा जा सकता है नैनम् छिन्दति शस्त्राणि न आग से हमें जलाया जा सकता है। तो जलाओ और छेदो! इस मुल्क को गुलाम बनाना असंभव था, अगर यह आत्मवादी होता। लेकिन यह आत्मवादी वगैरह नहीं है, परिपूर्ण देहवादी है। लेकिन भय के कारण आत्मा को माने चला जाता है।

आपकी प्रतीति तो देह की है कि मैं देह हूं और ज्ञानी  की प्रतीति है कि देह है ही नहीं। तो कहां बने मिलन, जहां आप एक दूसरे की भाषा समझ सकें? तो श्रुति ने एक उपाय खोजा है, शास्त्र ने एक विधि खोजी है, वह यह, कि आपको बिलकुल इनकार करना उचित नहीं होगा कि देह है ही नहीं। वह इनकार तो आपका दरवाजा बंद कर देगा, फिर तो आपकी समझ मुश्किल हो जाएगी। तो आपके लिए कहते हैं कि देह है। इससे अज्ञानी आश्वस्त हो जाता है कि हम बिलकुल गलत नहीं हैं, देह है, हमारी मान्यता भी ठीक है। इससे यस मूड पैदा होता है। इससे ही का भाव पैदा होता है।


अध्यात्म उपनिषद 

ओशो 

समावेश का प्रयोग

जीसस कहते है: ‘अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो।’ 

फ्रायड कहता करता था: ‘मैं क्‍यों अपने शत्रु को अपने समान प्रेम करूं?’ यह मेरा शत्रु है; फिर क्‍यों में उसे स्‍वयं की भांति प्रेम करूं? और मैं उसे प्रेम कैसे कर सकता हूं?

उसका प्रश्‍न संगत मालूम होता है। लेकिन फ्रायड को पता नहीं है कि क्‍यों जीसास कहते थे कि अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो। यह किसी सामाजिक राजनीति की बात नहीं है, यह कोई समाज सुधार की, एक बेहतर समाज बनाने की बात नहीं है, यह तो सिर्फ तुम्हारे जीवन और तुम्हारे चैतन्य को विस्तार देने की बात है।

अगर तुम शत्रु को अपने में समाविष्ट कर सको तो वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता, वह तुम्हारी हत्या कर सकता है, लेकिन वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता है। चोट तो तब लगती है जब तुम उसे अपने से बाहर रखते हो। जब तुम उसे अपने से बाहर रखते हो, तुम अहंकार हो जाते हो, पृथक और अकेले हो जाते हो, तुम अस्तित्व से विच्छिन्न हो जाते हो, कट जाते हो। अगर तुम शत्रु को अपने भीतर समाविष्ट कर सको तो सब समाविष्ट हो जाता है। जब शत्रु समाविष्ट हो सकता है तो फिर वृक्ष और आकाश क्यों समाविष्ट नहीं हो सकते?

शत्रु पर जोर इसलिए है कि अगर तुम शत्रु को सम्मिलित कर सकते हो तो तुम सब को सम्मिलित कर सकते हो। तब किसी को बाहर छोड़ने की जरूरत न रही। और अगर तुम अनुभव कर सको कि तुम्हारा शत्रु भी तुममें समाविष्ट है तो तुम्हारा शत्रु भी तुम्हें शक्ति देगा, ऊर्जा देगा। वह अब तुम्हारे लिए हानिकारक नहीं हो सकता। वह तुम्हारी हत्या कर सकता है, लेकिन तुम्हारी हत्या करते हुए भी वह तुम्हें हानि नहीं पहुंचा सकता। हानि तो तुम्हारे मन से आती है, जब तुम किसी को पृथक मानते हो, अपने से बाहर मानते हो।

लेकिन हमारे साथ तो बात पूरी तरह विपरीत है, बिलकुल उलटी है। हम तो मित्रों को भी अपने में सम्मिलित नहीं करते। शत्रु तो बाहर होते ही हैं; मित्र भी बाहर ही होते हैं। तुम अपने प्रेमी प्रेमिकाओं को भी बाहर ही रखते हो। अपने प्रेमी के साथ होकर भी तुम उसमें डूबते नहीं, एक नहीं होते, तुम पृथक बने रहते हो, तुम अपने को नियंत्रण में रखते हो। तुम अपनी अलग पहचान गंवाना नहीं चाहते हो।

और यही कारण है कि प्रेम असंभव हो गया है। जब तक तुम अपनी अलग पहचान नहीं छोड़ते हो, अहंकार को विदा नहीं देते हो, तब तक तुम प्रेम कैसे कर सकते हो? तुम तुम बने रहना चाहते हो और तुम्हारा प्रेमी भी अपने को बचाए रखना चाहता है। तुम दोनों में कोई भी एक दूसरे में डूबने को, समाविष्ट होने को राजी नहीं है। तुम दोनों एक दूसरे को बाहर रखते हो, तुम दोनों अपने अपने घेरे में बंद रहते हो। परिणाम यह होता है कि कोई मिलन नहीं होता है, कोई संवाद नहीं होता है। और जब प्रेमी भी समाविष्ट नहीं हैं तो यह सुनिश्चित हैं कि तुम्हारा जीवन दरिद्रतम जीवन हो। तब तुम अकेले हो, दीन हीन हो, भिखारी हो। और जब सारा अस्तित्व तुममें समाविष्ट होता है तो तुम सम्राट हो।

इसे स्मरण रखो। समाविष्ट करने को अपनी जीवन शैली बना लो। उसे ध्यान ही नहीं, जीवनशैली, जीने का ढंग बना लो। अधिक से अधिक को सम्मिलित करने की चेष्टा करो। तुम जितना ज्यादा सम्मिलित करोगे तुम्हारा उतना ही ज्यादा विस्तार होगा। तब तुम्हारी सीमाएं अस्तित्व के ओर छोर को छूने लगेंगी। और एक दिन केवल तुम होगे, समस्त अस्तित्व तुममें समाविष्ट होगा। 

यही सभी धार्मिक अनुभवों का सार सूत्र है।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

जल्दी क्या है! 2

मैंने एक कहानी सुनी है। एक चर्च के लोग पादरी से बहुत ऊब गए थे। और एक क्षण आया जब कि चर्च के सदस्यों ने पादरी से सीधे —सीधे कहा: ‘अब आपको यहां से जाना होगा।’ पादरी ने कहा. ‘मुझे एक और मौका दीजिए, बस एक मौका और; उसके बाद भी यदि आप कहेंगे तो मैं चला जाऊंगा।’

अगले रविवार को सारा शहर चर्च में जमा हुआ कि देखें अब वह पादरी क्या करता है, जब उसे सिर्फ एक और मौका दिया गया है। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी, उन्हें कभी खयाल भी नहीं था कि उस दिन ऐसा सुंदर प्रवचन होने वाला है। उन्होंने ऐसा प्रवचन कभी नहीं सुना था। आश्चर्यचकित होकर, मग्न होकर उन्होंने प्रवचन का रस लिया। और जब प्रवचन समाप्त हुआ तो उन्होंने पादरी को घेरकर उससे कहा : ‘अब आपको जाने की जरूरत नहीं है। आप यहीं रहें। हमने ऐसा प्रवचन पहले कभी नहीं सुना, पूरी जिंदगी में नहीं सुना। आप यहीं रहें और आपकी तनख्वाह भी बढ़ाई जाती है।’

लेकिन तभी एक व्यक्ति ने, जो धर्ममंडली का प्रमुख सदस्य था, पादरी से पूछा. ‘मुझे बस एक बात बताने की कृपा करें। जब आपने व्याख्यान शुरू किया तो आपने अपना बायां हाथ उठाया और दो उंगलिया दिखाईं और जब आपने व्याख्यान समाप्त किया तो फिर आपने दायां हाथ उठाया और दो अंगुलियां दिखाईं। इस प्रतीक का क्या अर्थ है?’ पादरी ने कहा: ‘अर्थ आसान है। वे उद्धरणचिह्न के प्रतीक हैं। वह प्रवचन मेरा नहीं था, वह उधार था।’

उन उद्धरणचिह्नों को सदा स्मरण रखो। उनको भूल जाना अच्छा लगता है। लेकिन तुम जो कुछ भी जानते हो वह सब उद्धरणचिह्नों के भीतर है। वह तुम्हारा नहीं है। और तुम उन उद्धरणचिह्नों को तभी छोड़ सकते हो जब कोई चीज तुम्हारा अपना अनुभव बन जाए। ये विधियां जानकारी को अनुभव में बदलने की विधियां हैं।

ये विधियां परिचय को समझ में रूपांतरित करने के लिए हैं। वह जो बुद्ध का अनुभव है, कृष्ण का अनुभव है, क्राइस्ट का अनुभव है, वह इन विधियों के द्वारा तुम्हारा हो जाएगा, तुम्हारा अपना ज्ञान हो जाएगा। और जब तक यह तुम्हारा अनुभव नहीं बनता, तब तक कोई सत्य सत्य नहीं है। वह एक खूबसूरत असत्य हो सकता है, एक सुंदर झूठ हो सकता है, लेकिन कोई सत्य सत्य नहीं है जब तक वह तुम्हारा अनुभव न हो जाए तुम्हारा निजी, प्रामाणिक अनुभव न हो जाए।

तो ये तीन बातें सदा ध्यान में रहें। पहली बात कि सदा स्मरण रखो कि मेरा घर जल रहा है। दूसरी बात कि शैतान की मत सुनो। वह हमेशा तुम्हें कहेगा कि जल्दी क्या है! और तीसरी बात स्मरण रहे कि परिचय बोध नहीं है, समझ नहीं है।

मैं यहां जो कुछ कह रहा हूं वह तुम्हें उसका थोड़ा परिचय देगा। वह जरूरी है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। वह तुम्हारी यात्रा का आरंभ है, अंत नहीं है। कुछ करो कि परिचय परिचय ही न रहे, स्मृति ही न रहे, वह तुम्हारा अनुभव बन जाए, तुम्हारा जीवन बन जाए।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

 

कोई जल्दी नहीं है !

एक बार ऐसा हुआ कि शैतान वर्षों वर्षों प्रतीक्षा करता रहा और एक आदमी भी नरक नहीं आया। वह स्वागत के लिए तैयार था, लेकिन संसार इतने ढंग से चल रहा था और लोग इतने नेक थे कि कोई आदमी नरक नहीं आया। स्वभावत:, शैतान बहुत चिंतित हो उठा। उसने एक विशेष सभा बुलाई; उसके सर्वश्रेष्ठ शिष्य इस स्थिति पर विचार करने के लिए इकट्ठे हुए। नरक बहुत बड़े संकट से गुजर रहा था और यह बात बरदाश्त नहीं की जा सकती थी। कुछ करना जरूरी था। तो उसने सलाह मांगी ‘हमें क्या करना चाहिए?’

एक शिष्य ने सुझाव दिया ‘मैं पृथ्वी पर जाऊंगा और लोगों से बातें करूंगा, उन्हें समझाने की कोशिश करूंगा कि कोई ईश्‍वर नहीं है और सभी घर्म झूठे है और बाइबिल, कुरान और वेद जो भी कहते हैं वह सब बकवास है।’
शैतान ने कहा. ‘इससे कुछ हल नहीं होगा, क्योंकि यह तो हम शुरू से ही करते आ रहे हैं और इससे लोग बहुत प्रभावित नहीं हुए। ऐसी शिक्षा से तुम सिर्फ उन्हें ही समझा सकते हो जो समझे ही हुए हैं। यह उपाय किसी काम का नहीं है, यह बहुत काम का नहीं है।’

तब दूसरे शिष्य ने, जो पहले से ज्यादा कुशल था, कहा: ‘मैं जाऊंगा और लोगों को यह सिखाने की, समझाने की कोशिश करूंगा कि बाइबिल, कुरान और वेद जो भी कहते हैं वह सही है। स्वर्ग है, परमात्मा भी है। लेकिन कोई शैतान नहीं है, इसलिए तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। और अगर हम उन्हें कम भयभीत बना सके तो वे धर्म की बिलकुल फिक्र नहीं करेंगे; क्योंकि सभी धर्म भय पर खड़े हैं।’

शैतान ने कहा. ‘तुम्हारा प्रस्ताव थोड़ा बेहतर है। तुम थोड़े से लोगों को समझाने में सफल हो सकते हो, लेकिन बहुसंख्यक लोग तुम्हारी नहीं सुनेंगे। वे नरक से उतने भयभीत नहीं हैं जितने वे स्वर्ग में प्रवेश पाने की कामना से भरे हुए हैं। यदि तुमने उन्हें समझा भी लिया कि नरक नहीं है, तो भी वे स्वर्ग की कामना करेंगे और उसके लिए वे नेक बनने की चेष्टा करेंगे।’

तब तीसरा शिष्य, जो सबसे बुद्धिमान था, बोला ‘मेरा एक सुझाव है, मुझे उसे प्रयोग करने का मौका दें। मैं जाऊंगा और कहूंगा कि धर्म जो भी कहता है वह बिलकुल सच है, ईश्वर भी है और स्वर्ग भी है और नरक भी है, लेकिन कोई जल्दी नहीं है।’

और शैतान ने कहा : ‘बिलकुल ठीक, तुम्हारे पास सही उपाय है। तुम जाओ।’

और कहा जाता है कि तब से फिर कभी नरक में कोई संकट पैदा नहीं हुआ। बल्कि वे अति भीड़ भाड़ की समस्या से परेशान हैं।

हमारा मन भी इसी भांति काम करता है। हम सदा सोचते हैं कि कोई जल्दी नहीं है। और ये विधियां जिनकी हम चर्चा कर रहे हैं, किसी काम की न होंगी, यदि तुम्हारा मन कहता है कि कोई जल्दी नहीं है। तब तुम स्थगित करते रहोगे और मृत्यु पहले पहुंच जाएगी और वह दिन नहीं आएगा जब तुम सोचो कि जल्दी करनी है, कि अब समय आ गया है। तुम निरंतर स्थगित करते रह सकते हो। यही हम अपने जीवन के साथ कर रहे हैं।

तुम्हें कुछ करने की दिशा में निर्णायक होना है। तुम संकट में हो घर जल रहा है। जीवन सदा जल रहा है, क्योंकि मृत्यु सदा पीछे छिपी है। किसी भी क्षण तुम नहीं हो सकते हो। और तुम मृत्यु के साथ तर्क—वितर्क नहीं कर सकते; तुम कुछ नहीं कर सकते। जब मृत्यु आती है, आ जाती है। समय बहुत कम है। अगर तुम सत्तर साल जीओगे, या सौ साल जीओगे, तो भी समय बहुत कम है। और तुम्हें रूपांतरित होने के लिए, आमूल क्रांति से गुजरने के लिए अपने ऊपर जो काम करना है, वह बहुत बड़ा है। इसलिए स्थगित मत करते रहो।

जब तक तुम्हें आपातस्थिति का, गहन संकट का बोध नहीं होगा, तुम कुछ नहीं करोगे। जब तक धर्म तुम्हारे लिए जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, जब तक तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि रूपांतरण के बिना मेरा सारा जीवन व्यर्थ है, तब तक कुछ नहीं होगा, तुम व्यर्थ ही जीओगे। जब तुम इस बात को बहुत तीव्रता से, बहुत गंभीरता से और बहुत ईमानदारी से अनुभव करोगे तो ही ये विधियां काम की हो सकती हैं। तुम उन्हें समझ सकते हो, लेकिन समझने से क्‍या होगा? समझ किसी काम की नहीं है; यदि तुम उसके संबंध में कुछ कहते नहीं हो। दरअसल तुम जब तक उस दिशा में कुछ करते नहीं, समझना कि तुमने समझा ही नहीं। क्योंकि समझ को कृत्य बनाना जरूरी है; अगर समझ कृत्य नहीं बनती है तो वह परिचय भर है, वह समझ नहीं है।

इस फर्क को समझने की कोशिश करो। परिचय समझ नहीं है। परिचय तुम्हें कृत्य में उतरने को मजबूर नहीं करेगा, परिचय तुम्हें अपने में बदलाहट लाने के लिए विवश नहीं करेगा। उससे तुम कुछ करने के लिए बाध्य नहीं होगे। तुम उसे मन में इकट्ठा कर लोगे और वह तुम्हारी जानकारी बन जाएगा। तुम ज्यादा पंडित हो जाओगे, ज्यादा जानकार हो जाओगे। लेकिन मृत्यु के सामने सब खो जाता है, समाप्त हो जाता है। तुम बहुत सी चीजें इकट्ठी करते रहते हो, लेकिन उनके संबंध में कुछ करते नहीं; फिर वे तुम्हारे ऊपर बोझ बन कर रह जाती हैं।

समझ का अर्थ कृत्य है, करना है। जब तुम किसी चीज को समझ लेते हो तो तुम तुरंत उस दिशा में कुछ करने लगते हो। तुम्हें उसके संबंध में कुछ करना ही होगा। क्योंकि अगर वह बात ठीक है और तुम समझते हो कि वह ठीक है तो तुम्हें उसके लिए कुछ करना ही होगा। अन्यथा वह उधार ज्ञान बनकर रह जाता है, और उधार ज्ञान समझ नहीं बन सकता।

तुम भूल सकते हो कि यह ज्ञान उधार है तुम भूलना चाहोगे कि यह उधार है क्योंकि यह प्रतीति कि यह उधार है, तुम्हारे अहंकार को चोट पहुंचाती है। इसलिए तुम भूल भूल जाते हो कि यह उधार है। और धीरे धीरे तुम मानने लगते हो कि यह मेरा अपना ज्ञान है। और यह बात बहुत खतरनाक है।


तंत्र सूत्र 

ओशो

Thursday, November 26, 2015

मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण?

देह शूद्र है। मन वैश्य है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है।

देह शूद्र है। क्यों? क्योंकि देह में कुछ और है भी नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो, पी लो, भोग कर लो, सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है! शूद्र की सीमा है यही। जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआ. देह के साथ तादात्म्य। मैं देह हूं? ऐसी भावदशा. शूद्र।

मन वैश्य है। मन खाने पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता होती है। देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मतों नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने लेने को मिल जाए। बस, शरीर की मांगें सीधी साफ हैं, थोड़ी हैं, सीमित हैं। देह की मांगें सीमित हैं। देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती, जो असंभव है। देह को असंभव में कुछ रस नहीं है। देह बिलकुल प्राकृतिक है।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह पैदा होते हैं। जब और और की वासना उठती है, तो वैश्य। वैश्य का मतलब है और धन चाहिए।

फोर्ड अपने बुढ़ापे तक हेनरी फोर्ड और नए धंधे खोलता चला गया। किसी ने उसकी अत्यंत वृद्धावस्था में, मरने के कुछ दिन पहले ही पूछा उससे कि आप अभी भी धंधे खोलते चले जा रहे हैं! आप के पास इतना है; इतने और नए धंधे खोलने का क्या कारण है?

वह नए उद्योग खोलने की योजनाएं बना रहा था। बिस्तर पर पड़ा हुआ भी! मरता हुआ भी! हेनरी फोर्ड ने क्या कहा, मालूम? हेनरी फोर्ड ने कहा. मैं नहीं जानता कि कैसे रुकूं। मैं रुकना नहीं जानता। मैं जब तक मर ही न जाऊं, मैं रुक नहीं सकता। 

यह वैश्य की दशा है। वह कहता है, और। इतना है, तो और। ऐसा मकान है, तो और थोड़ा बड़ा। इतना धन है, तो और थोड़ा ज्यादा धन। 

देह शूद्र है, और सरल है। शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज, चालाक, होशियार, हिसाब बिठाने वाला है। मन की सब दौडे हैं। मन किसी चीज से राजी नहीं है। मन व्यवसायी है। वह फैलाए चला जाता है। वह जानता ही नहीं, कहा रुकना। वह अपनी दुकान बड़ी किए चला जाता है! बड़ी करते करते ही मर जाता है।

आत्मा क्षत्रिय है। क्यों? क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं; जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें छोड़ने को राजी है। और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और और। अगर क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो, तो जानना कि वह वैश्य है, क्षत्रिय नहीं है।
 
क्षत्रिय का मतलब ही यह होता है संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव। महा संकल्प का आविर्भाव। और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि मैं कौन हूं इसे जान लूं।

शूद्र शरीर को जानना चाहता है। उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। मन को पहचानना चाहता है। क्षत्रिय, मैं कौन हूं इसे जानना चाहता है। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं, तुम क्षत्रिय होने लगे। अब तुम्हारी धन इत्यादि दौड़ो में कोई उत्सुकता नहीं रही। एक नयी यात्रा शुरू हुई अंतर्यात्रा शुरू हुई।

तुम यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए सब क्षत्रिय थे। बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण सब क्षत्रिय थे! क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है!

और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली।

इस देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध सब क्षत्रिय थे। इसके पीछे कुछ कारण है। सिर्फ एक परशुराम को छोड़कर, कोई ब्राह्मण अवतार नहीं है। और परशुराम बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे! उन्होंने क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट काटकर। वे काम ही जिंदगीभर काटने का करते रहे। उनका नाम ही परशुराम पड़ गया, क्योंकि वे फरसा लिए घूमते रहे। हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे। परशु वाले राम ऐसा उनका नाम है।

वे क्षत्रिय ही थे। उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है, जरा भी ठीक नहीं है। उनसे बडा क्षत्रिय खोजना मुश्किल है! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से कई दफे मार डाला और हटा दिया, अब उससे बड़ा क्षत्रिय और कौन होगा?

संकल्प यानी क्षत्रिय।

ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण। जब तुम अपना सब कर लो, तभी तुम झुकोगे। उसी झुकने में असलियत होगी। जब तक तुम्हें लगता है मेरे किए हो जाएगा, तब तक तुम झुक नहीं सकते। तुम्हारा झुकना धोखे का होगा, झूठा होगा, मिथ्या होगा।

अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती, चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर। अपने टिका रहे हो ऐसा नहीं, झुक रहे हो ऐसा नहीं, झुके जा रहे हो। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित होता है, उस दिन समर्पण।

समर्पण यानी ब्राह्मण। समर्पण यानी ब्रह्म। जो मिटा, उसने ब्रह्म को जाना।

ये चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो। ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं। तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो, किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है।

ये चारों तुम्हारे भीतर हैं। देह तुम्हारे भीतर है। मन तुम्हारे भीतर है। आत्मा तुम्हारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर।

अगर तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया, तो तुम शूद्र हो गए।

स्वभावत:, बच्चे सभी शूद्र होते हैं। क्योंकि बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे देह से ज्यादा गहरे में जा सकेंगे। मगर के अगर शूद्र हों, तो अपमानजनक है। बच्चों के लिए स्वाभाविक है। अभी जिंदगी जानी नहीं, तो जो पहली पर्त है, उसी को पहचानते हैं। लेकिन का अगर शूद्र की तरह मर जाए, तो निंदायोग्य है। सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं, लेकिन किसी को शूद्र की तरह मरने की आवश्यकता नहीं है।

अगर तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया; तुमने अपने ध्यान को वासना तृष्णा में लगा दिया, लोभ में लगा दिया, तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया, तो क्षत्रिय हो जाओगे। तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा दिया, तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे।

ध्यान कुंजी है। कुछ भी बनो, ध्यान कुंजी है। शूद्र के पास भी एक तरह का ध्यान है। उसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया। अब जो स्त्री दर्पण के सामने घंटों खड़ी रहती है बाल संवारती है; साड़ी संवारती है, पावडर लगाती है यह शूद्र है। ये जो दो तीन घंटे दर्पण के सामने गए, ये शूद्रता में गए। इसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया है। यह राह पर चलती भी है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान है। यह दूसरों को भी देखती है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान होगा। जब यह अपने शरीर को ही देखती है, तो दूसरे के शरीर को ही देखेगी। और कुछ नहीं देख पाएगी। यह अगर अपनी साड़ी को घंटों पहनने में रस लेती है, तो बाहर निकलेगी, तो इसको हर स्त्री की साड़ी दिखायी पड़ेगी और कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा।

जो व्यक्ति बैठा बैठा सोचता है कि एक बड़ा मकान होता, एक बड़ी कार होती; बैंक में इतना धन होता क्या करूं? कैसे करूं? वह अपने ध्यान को वैश्य पर लगा रहा है। धीरे धीरे ध्यान वहीं ठहर जाएगा। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर तुम एक ही रेडियो में एक ही स्टेशन सदा सुनते हो, तो धीरे धीरे तुम्हारे रेडियो का कांटा उसी स्टेशन पर ठहर जाएगा, जड़ हो जाएगा। अगर तुम दूसरे स्टेशन को कभी सुने ही नहीं हो और आज अचानक सुनना भी चाहो, तो शायद पकड़ न सकोगे। क्योंकि हम जिस चीज का उपयोग करते हैं, वह जीवित रहती है। और जिसका उपयोग नहीं करते, वह मर जाती है।

इसलिए कभी कभी जब सुविधा बने शूद्र से छूटने की, तो छूट जाना। वैश्य से छूटने की, तो छूट जाना। जब सुविधा मिले, तो कम से कम ब्राह्मण दूर कम से कम थोड़ी देर को क्षत्रिय होना, संकल्प को जगाना। और कभी कभी मौके जब आ जाएं, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, प्रफुल्लित हो, तो कभी कभी क्षणभर को ब्राह्मण हो जाना। सब समर्पित कर देना। लेट जाना पृथ्वी पर चारों हाथ पैर फैलाकर, जैसे मिट्टी में मिल गए, एक हो गए। झुक जाना सूरज के सामने या वृक्षों के सामने। झुकना मूल्यवान है, कहां झुकते हो, इससे कुछ मतलब नहीं है। उसी झुकने में थोड़ी देर के लिए ब्रह्म का आविर्भाव होगा।

ऐसे धीरे धीरे, धीरे  धीरे अनुभूति बढ़ती चली जाए, तो हर व्यक्ति अंततः मरते  मरते ब्राह्मण हो जाता है।

जन्म तो शूद्र की तरह हुआ है, ध्यान रखना, मरते समय ब्राह्मण कम से कम हो जाना। मगर एकदम मत सोचना कि हो सकोगे।

कई लोग ऐसा सोचते हैं कि बस, आखिरी घड़ी में हो जाएंगे। जिसने जिंदगीभर अभ्यास नहीं किया, वह मरते वक्त आखिरी घड़ी में रेडियो टटोलेगा, स्टेशन नहीं लगेगा फिर! पता ही नहीं होगा कि कहा है! और मौत इतनी अचानक आती है कि सुविधा नहीं देती। पहले से खबर नहीं भेजती कि कल आने वाली हूं। अचानक आ जाती है। आयी कि आयी! कि तुम गए! एक क्षण नहीं लगता। उस घड़ी में तुम सोचो कि राम को याद कर लेंगे, तो तुम गलती में हो। तुमने अगर जिंदगीभर कुछ और याद किया है, तो उसकी ही याद आएगी।

इसलिए तैयारी करते रहो, साधते रहो। जब सुविधा मिल जाए, ब्राह्मण होने का मजा लो। उससे बडा कोई मजा नहीं है। वही आनंद की चरम सीमा है।

 एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 

क्या मैं शूद्र होकर भी आपका शिष्य हो सकता हूं? क्या मुझ एकलव्य को आप स्वीकार करेंगे?

हली तो बात मैं द्रोणाचार्य नहीं हूं। द्रोणाचार्य, मेरे लिए, थोड़े से गंदे नामों में से एक है। और गंदा इसीलिए नाम हो गया : एकलव्य को अस्वीकार करने के कारण।

द्रोणाचार्य को गुरु भी नहीं कहना चाहिए। और अगर वे गुरु रहे होंगे, तो उसी अर्थों में जिस तरह स्कूल के मास्टर को हम गुरु कहते हैं। उनमें कुछ गुरुत्व नहीं था। शुद्ध राजनीति थी।

एकलव्य को इनकार कर दिया, क्योंकि वह शूद्र था। लेकिन उससे भी ज्यादा भीतर राजनीति थी। वह थी कि वह अर्जुन से आगे निकल सकता था, ऐसी क्षमता थी उसकी। राजपुत्र से कोई आगे निकल जाए, और शूद्र आगे निकल जाए क्षत्रिय से यह द्रोणाचार्य के ब्राह्मण को बर्दाश्त न था।

फिर नौकर थे राजा के। उसके बेटे को ही दुनिया में सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना था। जिसका नमक खाया, उसकी बजानी थी। गुलाम थे। एकलव्य को इनकार किया यह देखकर कि इस युवक की क्षमता दिखायी पड़ती थी कि यह अर्जुन को पानी पिला दे! इसने पानी पिलाया होता। इसने वैसे भी पानी पिला दिया। इनकार करने के बाद भी पिला दिया पानी।

तो इनकार कर दिया। यह तो बहाना था कि शूद्र हो। इस बहाने के पीछे गहरा राजनैतिक दाव था। वह यह था कि मेरा विशिष्ट शिष्य अर्जुन दुनिया में सर्वाधिक प्रथम हो। सबसे ऊपर हो।

फिर राजपुत्र ऊपर हो, तो मुझे कुछ लाभ है। यह शूद्र अगर ऊपर भी हो गया, तो इससे मिलना क्या है? इनकार कर दिया।

लेकिन एकलव्य अदभुत था। द्रोणाचार्य, मेरे लिए गंदे नामों में से एक है। एकलव्य, मुझे बहुत प्यारे नामों में से एक है। अपूर्व शिष्य था, शिष्य जैसे होने चाहिए। द्रोणाचार्य ऐसे गुरु, जैसे गुरु नहीं होने चाहिए। एकलव्य ऐसा शिष्य, जैसे शिष्य होने चाहिए।

कोई फिकर न की। मन में शिकायत भी न लाया। यह राजनीति दिखायी भी पड़ गयी होगी। लेकिन जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, उसके संबंध में क्या शिकायत करनी! जाकर मूर्ति बना ली जंगल में। मूर्ति के सामने ही कर लूंगा।..

जरा भी शिकायत नहीं है! क्रोध नहीं है। जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया। अगर गुरु अस्वीकार कर दे, तो भी शिष्य कैसे अस्वीकार कर सकता है? शिष्य ने तो सोचा होगा. शायद इसमें ही मेरा हित है! इसीलिए उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

गुरु राजनीतिज्ञ था। शिष्य धार्मिक था। उसने सोचा : मेरा इनकार किया, तो जरूर मेरा हित ही होगा। इससे कुछ लाभ ही होने वाला होगा। नहीं तो वे क्यों इनकार करते!

मूर्ति बनाकर मूर्ति की पूजा करने लगा और मूर्ति के सामने ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया। इतनी भावना हो, ऐसी आस्था, ऐसी श्रद्धा हो, तो गुरु की जरूरत भी क्या है? श्रद्धा की कमी है, इसलिए गुरु की जरूरत है।

तो बिना गुरु के भी पहुंच गया। मूर्ति से भी पहुंच गया। श्रद्धा हो, तो मूर्ति जीवंत हो जाती है। और श्रद्धा न हो, तो जीवित गुरु भी शइrत ही रह जाता है। सब तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर है।

इस मूर्ति को ही मान लिया कि यही गुरु है। तुम देखते रहना मूर्ति को कहता होगा मैं अभ्यास करता हूं; कहीं भूल चूक हो, तो चेता देना। कहीं जरूरत पड़े, तो रोक देना।

इस अपूर्व प्रक्रिया में वह उस जगह पहुंच गया, जहां अर्जुन फीका पड़ गया। खबरें उड़ने लगीं कि एकलव्य का निशाना अचूक हो गया है। ऐसा अचूक निशाना कभी किसी का देखा नहीं!

ऐसी श्रद्धा हो, तो निशाना अचूक होगा ही। यह श्रद्धा का निशाना है, यह चूक ही कैसे सकता है? और जिसको मूर्ति पर इतनी श्रद्धा है, स्वभावत: उसे अपने पर इतनी ही श्रद्धा है।

तुम्हारी श्रद्धा दूसरे पर तभी होती है, जब तुम्हें आत्म श्रद्धा होती है। तुम्हारी श्रद्धा उतनी ही होती है दूसरे पर, जितनी तुम्हारे भीतर होती है, जितनी तुम्हें स्वयं पर होती है। जिस आदमी को अपने पर श्रद्धा नहीं है, उसको अपनी श्रद्धा पर भी कैसे श्रद्धा होगी? जिस आदमी को अफ्ते पर श्रद्धा है, वही अपनी श्रद्धा पर श्रद्धा कर सकेगा। वहीं से सब चीजें शुरू होंगी। श्रद्धा पहले भीतर होनी चाहिए।

एकलव्य अपूर्व रहा होगा। इसी श्रद्धा को देखकर ही तो द्रोण चौंके होंगे कि यह आदमी खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसकी आंखों में उन्हें झलक दिखायी पड़ी होगी, लपट दिखायी पड़ी होगी।

लेकिन वे भूल में थे। जिसमें इतनी आत्मश्रद्धा हो, उसे गुरु इनकार कर दे, तो भी वह पहुंच जाता है। और जिसमें इतनी आत्मश्रद्धा न हो। गुरु लाख स्वीकार करे, तो भी कहां पहुंचेगा!

एकलव्य की खबरें आने लगीं कि एकलव्य पहुंच गया, पा लिया उसने अपने गंतव्य को। जिस गुरु ने एकलव्य को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया था, वह दक्षिणा लेने पहुंच गया!

बेईमानी की भी एक सीमा होती है! शर्म भी न खायी। चुल्लभर पानी में डूब मरना चाहिए था द्रोण को। ऐसे शिष्य के पैर जाकर छूने चाहिए थे। लेकिन फिर राजनीति आती है, फिर चालबाजी आती है।

अब वे यह इरादा करके गए हैं कि जाकर उसके दाएं हाथ का अंगूठा माग लूंगा। वे जानते हैं कि वह देगा। उसकी आंखों में उन्होंने वह झलक देखी है कि वह जान दे दे उन लोगों में से है। उसको शूद्र कहना तो बिलकुल गलत है। वह अर्जुन से ज्यादा क्षत्रिय है। वह इनकार नहीं करेगा, जो मांगता। अगर गरदन मांगता, तो गरदन दे देगा। क्योंकि खबरें आती थीं कि उसने आपकी मूर्ति बना ली है। मूर्ति के सामने अभ्यास करता है।

द्रोण पहुंच गए। देखी उसकी निशानेबाजी, छाती कैप गयी। उनके सारे शिष्य फीके थे। वे खुद फीके थे। इस एकलव्य के मुकाबले वे कहीं नहीं थे। खुद भी नहीं थे। तो उनके शिष्य अर्जुन इत्यादि तो कहा होंगे! बहुत भय आ गया होगा। उससे कहा कि ठीक, तू सीख गया। मैं तेरा गुरु। मैं गुरुदक्षिणा लेने आया।

एकलव्य की आंखों में आंसू आ गए होंगे। उसके पास देने को कुछ भी नहीं है। गरीब आदमी है। उसने कहा. आप जो मांगें; जो मेरे पास हो, ले लें। ऐसे मेरे पास देने को क्या है!

एकलव्य इसलिए भी अदभुत है कि जिस गुरु ने इनकार किया था, उस गुरु को दक्षिणा देने को तैयार है। और जो मागेबेशर्त!

गुरु चालबाज है। कूटनीतिज्ञ है। शिष्य बिलकुल सरल और भोला है। और द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा महा लिया दाएं हाथ का अनूठा। क्योंकि अंगूठा कट गया, तो फिर कभी वह धनुर्विद नहीं हो सकेगा। उसकी धनुर्विद्या को नष्ट करने के लिए अंगूठा मांग लिया।

उसने अंगूठा दे भी दिया। यह अपूर्व व्यक्ति था। यह क्षत्रिय था, जब आया था। शूद्र इसको मैं नहीं कह सकता। यह क्षत्रिय था, जब यह आया था गुरु के पास। अंगूठा देकर ब्राह्मण हो गया। समर्पण अपूर्व है! जानता है कि यह अंगूठा गया कि मैंने जो वर्षों मेहनत करके धनुर्विद्या सीखी है, उस पर पानी फिर गया। लेकिन यह सवाल ही कहां है? यह सवाल ही नहीं उठा उसे। एक दफा भी संदेह नहीं उठा मन में कि यह तो बात जरा चालबाजी की हो गयी!

तो मैं द्रोण नहीं हूं तुमसे कह दूं।

तुम पूछते हो ‘क्या मैं शूद्र होकर भी आपका शिष्य हो सकता हूं?’

शूद्र सभी हैं। शूद्र की तरह ही सभी पैदा होते हैं। और जिस शूद्र में शिष्य बनने की कल्पना उठने लगी, वह बाहर निकलने लगा शुद्रता से। उसकी यात्रा शुरू हो गयी। इस भाव के साथ ही क्राति की शुरुआत है। चिनगारी पड़ी।
तुम शिष्य बनना चाहो और मैं तुम्हें अस्वीकार करूं, यह असंभव है। मैं तो कभी कभी उनको भी स्वीकार कर लेता हूं जो शिष्य नहीं बनना चाहते। ऐसे ही भूल चूक से कह देते हैं कि शिष्य बनना है। उनको भी स्वीकार कर लेता हूं।

द्रोण ने एकलव्य को अस्वीकार किया। मैं उनको भी स्वीकार कर लेता हूं, जिनमें एकलव्य से ठीक विपरीत दशा है, जो हजार संदेहों से भरे हैं; हजार रोगों से भरे हैं, हजार शिकायतों से भरे हैं, जिन ने कभी प्रार्थना का कोई स्वर नहीं सुना और श्रद्धा का जिनके भीतर कोई अंकुर नहीं फूटा है कभी। जो जानते नहीं कि श्रद्धा शब्द का अर्थ क्या होता है।

नास्तिकों को भी मैं स्वीकार कर लेता हूं। मैं इसलिए स्वीकार कर लेता हूं कि जो किसी भी कारण से सही, शिष्य बनने को उत्सुक हुआ है, चलो, एक खिडकी खुली। फिर बाकी द्वार—दरवाजे भी खोल लेंगे। एक रंध्र मिली। जरा सा भी छिद्र मुझे तुममें मिल जाए, तो मैं वहीं से प्रविष्ट हो जाऊंगा। जरा सा रंध्र मिल जाए, तो सूरज की किरण यह थोड़े ही कहेगी कि दरवाजे खोलो, तब मैं भीतर आऊंगी। जरा खपड़ों में जगह खाली रह जाती है, सूरज की किरण वहीं से प्रवेश कर जाती है।

तुम्हारी खोपड़ी के खपड़ों में कहीं जरा सी भी संध मिल गयी, तो मैं वहीं से आने को तैयार हूं। मैं तुमसे सामने के दरवाजे खोलने को नहीं कहता। मैं तुमसे बैंडबाजे बजाने को भी नहीं कहता। तुम बड़ी उदघोषणा करो, इसकी भी चिंता नहीं करता। तुम किसी भी क्षण में, किसी ब्राह्मण क्षण में…।

अब यह प्रश्न किसी ब्राह्मण क्षण में उठा होगा। शूद्र को तो यह उठता ही नहीं। शूद्र तो यहां आता ही कैसे? शूद्र तो मेरे खिलाफ है। तुम यहां आ गए, यह किसी ब्रह्ममुहूर्त, किसी ब्राह्मण क्षण में हुआ होगा।

तुम्हारे मन में शिष्य होने का भाव भी उठा अच्छा है।

द्रोण मैं नहीं हूं। और तुमसे मैं चाहूंगा कि तुम अगर एकलव्य होना चाहो, तो उस पुराने एकलव्य की सारी हालात समझकर होना। क्योंकि नए एकलव्य बड़ी उलटी बातें कर रहे हैं!

मैंने सुना है :
कलियुग के शिष्यों ने गुरुभक्ति को ऐसा मोड़ दिया कि नकल करते हुए एकलव्य ने, द्रोणाचार्य का ही अंगूठा तोड़ दिया!

तुम आधुनिक एकलव्य नहीं बनना। जमाना बदल गया है। अब शिष्य, द्रोणाचार्य का अंगूठा तोड़ देते हैं!
न मैं द्रोण हूं न तुम्हें एकलव्य कम से कम आधुनिक एकलव्य बनने की कोई जरूरत है। और चूंकि मैं द्रोण नहीं हूं इसलिए तुम्हें इनकार नहीं करूगा। और तुम्हें जंगल में कोई मूर्ति बनाकर धनु र्विद्या नहीं सीखनी होगी। मैं ही तुम्हे सिखाऊंगा। और जो मेरे पास है, वह बांटने से घटता नहीं। इसलिए क्या कंजूसी करनी! कि इसको बनाएंगे शिष्य, उसको नहीं बनाएंगे! क्या शर्तें लगानी! नदी के तट पर तुम जाते हो, तो नदी नहीं कहती कि तुम्हें नहीं पानी पीने दूंगी। जो आए, पीए। नदी राह देखती है कि कोई आए, पीए।

फूल जब खिलता है, तब यह नहीं कहता कि तुम्हारी तरफ न बहूंगा। तुम्हारी तरफ गंध को न बहने दूंगा। शूद्र! तू दूर हट मार्ग से! मैं तो सिर्फ ब्राह्मणों के लिए हूं। जब फूल खिलता है, तो सुगंध सब के लिए है। और जब सूरज निकलता है, तो सूरज यह भी नहीं कहता कि पापियों पर नहीं गिरूंगा, पुण्यात्माओं के घर पर बरसूंगा। पुण्यात्माओं के घर और पापियों के घर में सूरज को कोई भेद नहीं है। और जब मेघ घिरते हैं और वर्षा होती है, तो महात्माओं के खेतों में ही नहीं होती, सभी के खेतों में हो जाती है।

तुम मुझे एक मेघ समझो। तुम अगर लेने को तैयार हो, तो तुम्हे कोई नहीं रोक सकता। और यह कुछ संपदा ऐसी है कि देने से घटती नहीं, बढ़ती है। जितना तुम लोगे, उतना शुभ है। नए स्रोत खुलेंगे। नए द्वार से और ऊर्जा बहेगी। लो! लूटो!

तुम यह पूछो ही मत कि तुम कौन हो, क्या हो। मैं भी नहीं पूछता। तुम्हारे भीतर प्यास है, बस, काफी योग्यता है।

पी लो! जो कलश छलक रहा है, अंजुलि भर लो!

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

भगवन, भारत ने बहोत बड़े शिखर देखेँ , विश्वगुरु हुआ, उस भारत का पतन होता क्यों दिखता है?

स्वाभाविक ही था। अस्वाभाविक कभी होता भी नहीं। जो होता है, स्वाभाविक है। यह अनिवार्य था। यह होकर ही रहता। क्योंकि जब भी कोई जाति, कोई समाज एक अति पर चला जाता है, तो अति से लौटना पड़ेगा दूसरी अति पर। जीवन संतुलन में है, अतियों में नहीं। जीवन मध्य में है और आदमी का मन डोलता है पेंडुलम की भांति। एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। भोगी योगी हो जाते हैं; योगी भोगी हो जाते हैं। और दोनों जीवन से चूक जाते हैं।

जीवन है मध्य में, जहां योग और भोग का मिलन होता है, जहां योग और भोग गले लगते हैं। जो शरीर को ही मानता है, वह आज नहीं कल अध्यात्म की तरफ यात्रा शुरू कर देगा। पश्चिम में अध्यात्म की बड़ी प्रतिष्ठा होती जा रही है रोज। कारण? कारण वही है शाश्वत कारण।

तीन सौ वर्षों से निरंतर पश्चिम पदार्थवादी है। पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। देह सब कुछ है। इन तीन सौ साल की इस धारणा ने एक अति पर पश्चिम को पहुंचा दिया, पदार्थवाद की आखिरी ऊंचाई पर पहुंचा दिया। धन है; वितान है, सुख  सुविधाएं हैं।

लेकिन अति पर जब आदमी जाता है, तो उसकी आत्मा का गला घुटने लगा। शरीर तो सब तरह से संपन्न है, आत्मा विपन्न होने लगी। और कितनी देर तक तुम आत्मा की विपन्नता को झेल पाओगे? आज नहीं कल आत्मा बगावत करेगी और तुम्हें दूसरी दिशा में मुड़ना ही पड़ेगा।

इसलिए अगर पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है, तो तुम यह मत सोचना कि यह पूरब की कोई खूबी है। ऐसा तुम्हारे तथाकथित महात्मा समझते हैं। तुम्हारे राजनेता भी यही बकवास करते रहते हैं। वे सोचते हैं पश्चिम के लोग पूरब की तरफ आ रहे हैं, देखो, हमारी महिमा!

तुम्हारी महिमा का इससे कोई संबंध नहीं है। पश्चिम अगर पूरब की तरफ आ रहा है, तो पदार्थवाद की अति के कारण आ रहा है। एक अति देख ली, वहां कुछ पाया नहीं। वहां शरीर तो ठीक रहा, आत्मा घुट गयी।

और आदमी दोनों का जोड़ है। आदमी दोनों का मिलन है। आदमी न तो शरीर है, न आत्मा है। आदमी, दोनों के बीच जो स्वर पैदा होता है, वही है। दोनों के बीच जो लयबद्धता है, वही है। शरीर और आत्मा का नाच है आदमी। साथ —साथ दोनों नाच रहे हैं। उस नृत्य का नाम आदमी है। और जब नृत्य पूरा होता है, शरीर और आत्मा दोनों संयुक्त होते हैं, तब तृप्ति है।

ऐसा ही पूरब में घटा। आत्मा आत्मा आत्मा। संसार माया है, झूठ है, असत्य है। शरीर है ही नहीं, सपना है। एक अति पैदा कर दी। तो आत्मा की ऊंचाई को तो छुआ, लेकिन शरीर तडुफने लगा, जैसी मछली तड़फती है प्यासी धूप में, रेत पर ऐसी भारत की देह घुटने लगी। उस देह की घुटन का यह परिणाम हुआ, जो आज सामने है।

तो आदमी का संतुलन जब भी टूटेगा, तब विपरीत दिशा की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है।

इसलिए फिर दोहराता हूं यहां योगी भोगी हो जाते हैं, भोगी योगी हो जाते हैं। दोनों चूक जाते हैं। क्योंकि दोनों रोगी हैं। रोग का मतलब अति। योगी आत्मा की अति .से पीड़ित है। भोगी शरीर की अति से पीड़ित है। दोनों में भेद नहीं है। दोनों अतियों से पीड़ित हैं। एक ने शरीर को घोंट डाला है, एक ने आत्मा को घोंट डाला है। लेकिन दोनों ने जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार नहीं किया है।

मैं तुम्हें वही सिखा रहा हूं कि जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार करो। इनकार मत करना कुछ। तुम देह भी हो; तुम आत्मा भी हो। और तुम दोनों नहीं भी हो। तुम्हें दोनों में रहना है और दोनों में रहकर दोनों के पार भी जाना है। तुम न तो भौतिकवादी बनना, न अध्यात्मवादी बनना। दोनों भूलें बहुत हो चुकीं हैं। जमीन काफी तड़फ चुकी है। तुम अब दोनों का समन्वय साधना, दोनों के बीच संगीत उठाना। दोनों का मिलन बहुत प्यारा है। दोनों के मिलन को मैं धर्म कहता हूं।

ये तीन शब्द समझो. भौतिकवादी नास्तिक। तथाकथित आत्मवादी  आस्तिक। दोनों के मध्य में, जहां न तो तुम आस्तिक हो, न तो नास्तिक, जहां ही और ना का मिलन हो रहा है जैसे दिन और रात मिलते हैं संध्या में, जैसे सुबह रात और दिन मिलते हैँ ऐसे जहां हा और ना का मिलन हो रहा है, जहां तुम नास्तिक भी हो, आस्तिक भी, क्योंकि तुम जानते हो तुम दोनों का जोड़ हो। देह को इनकार करोगे, आज नहीं कल देह बगावत करेगी। आत्मा को इनकार करोगे, आत्मा बगावत करेगी। और बगावत ही पतन का कारण होता है।

प्रश्न सार्थक है। पूरब ने बड़ी ऊंचाइयां पायीं, लेकिन ऊंचाइयां अपंग थीं। जैसे कोई पक्षी एक ही पंख से आकाश में बहुत ऊपर उड़ गया। कितने ऊपर जा सकेगा? और कितनी दूर जा सकेगा एक ही पंख से? शायद थोड़ा तड़फ ले। थोड़ा हवाओं के रुख पर चढ़ जाए। शायद थोड़ी दूर तक अपने को खींच ले। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं होने वाला है। तुम एक पंख देखकर ही कह सकते हो कि यह पक्षी गिरेगा। इसका गिरना अनिवार्य है।

उडान होती है दो पंखों पर। लंगडा आदमी भी चल लेता है। मगर उसका चलना और दो पैर से चलने में बड़ा फर्क है। लंगड़े आदमी का चलना कष्टपूर्ण है। लंगड़ा आदमी मजबूरी में चलता है। और जिसके पास दोनों पैर हैं और स्वस्थ हैं, वह कभी कभी बिना कारण के दौडता है, नाचता है। कहीं जाना नहीं है, तो भी घूमने के लिए निकलता है।

उन दो पैरों के मिलन में जो आनंद है, वह आनंद अपने आप में परिपूर्ण है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। संसार छोड़कर देख लिया गया। जिन्होंने संसार छोड़ा वे बड़ी बुरी तरह गिरे, मुंह के बल गिरे। मैं अपने संन्यासी को संसार ही सब कुछ है, ऐसा भी नहीं कह रहा हूं। जिन्होंने संसार को सब कुछ माना, वे भी बुरी तरह गिरे।

मैं तुमसे कहता हूं. संसार और संन्यास दोनों के बीच एक लयबद्धता बनाओ। घर में रहो, और ऐसे जैसे मंदिर में हो। दुकान पर बैठो, ऐसे जैसे पूजागृह में। बाजार में और ऐसे जैसे हिमालय पर हो। भीड़ में और अकेले। चलो संसार में और संसार का पानी तुम्हें छुए भी नहीं, ऐसे चलो। ऐसे होशपूर्वक चलो। तब स्वास्थ्य पैदा होता है।

परमात्मा ने तुम्हें शरीर और आत्मा दोनों बनाया है। और तुम्हारे महात्मा तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम सिर्फ आत्मा हो! लाख तुम्हारे महात्मा समझाते रहें कि तुम सिर्फ आत्मा हो, कैसे झुठलाओगे इस सत्य को जो परमात्मा ने तुम्हें दिया है कि तुम देह भी हो!

तुम्हारा महात्मा भी इसको नहीं झुठला पाता। जब भूख लगती है, तब वह नहीं कहता कि मैं देह नहीं हूं। तब चला भिक्षा मांगने! उससे कहो कि संसार माया है, कहां जा रहे हो? वहा है कौन भिक्षा देने वाला? भिक्षा की जरूरत क्या है? आप तो देह हैं ही नहीं। शिवोऽहं आप तो शिव हैं, आप कहां जा रहे हैं? देह है कहां? देह तो सपना है।

अगर महात्मा से यह कहोगे, तब तुम्हें पता चलेगा। महात्मा को भी भिक्षा मांगने जाना पड़ता है। भोजन जुटाना पड़ता है। सर्दी लगती है, तो कंबल ओढ़ना पड़ता है। और सब माया है! शरीर पाया! कंबल माया! गर्मी लगती है. तो पसीना आता है, प्यास लगती है। बीमारी होती है, तो औषधि की जरूरत होती है।

यह महात्मा किस झूठ में जी रहा है जो कहता है कि शरीर माया है? इससे बड़ा और झूठ क्या होगा?

और फिर दूसरी तरफ लोग हैं, जो कहते हैं कि शरीर ही सब कुछ है, आत्मा कुछ भी नहीं है। इनसे जरा पूछो कि जब कोई तुम्हें गाली दे देता है, तो तकलीफ क्यों होती है? पत्थर को गाली दो, पत्थर को कोई तकलीफ नहीं होती है। और जब कोई वीणा पर संगीत छेड़ देता है, तब तुम प्रफुल्लित और मग्न क्यों हो जाते हो? पत्थर तो नहीं होता मग्न और प्रफुल्लित!

तुम्हारे भीतर कुछ होना चाहिए, जो पत्थर में नहीं है, जो प्रफुल्लित होता है, मग्न होता है। सुबह सूरज को देखकर जो आह्लादित होता है। रात आकाश में चांद तारों को देखकर जिसके भीतर एक अपूर्व शाति छा जाती है।

यह कौन है? देह के तो ये लक्षण नहीं हैं। देह को तो पता भी नहीं चलता, कहां चांद, कहां सूरज! कहा सौंदर्य; कहां शाति!

तुम्हारे भीतर एक और आयाम भी है। तुम्हारे भीतर कुछ और भी है।

ऐसा समझो चट्टान है। यह बाहर ही बाहर है। इसके भीतर कुछ भी नहीं है। तुम इसको कितना ही खोदो, इसके भीतर नहीं जा सकोगे। इसके भीतर जैसी चीज है ही नहीं। चट्टान तो बस बाहर ही बाहर है।

फिर चट्टान के बाद गुलाब का फूल है। गुलाब में थोड़ा भीतर कुछ है। पखुडी ही पखुडी नहीं है। पखुडियों से ज्यादा कुछ है। जब तुम चट्टान को देखते हो, तो चट्टान साफ सुथरी है। सीधी साफ है। एकागी है। जब तुम गुलाब के फूल को देखते हो, तो वह इतना एकांगी नहीं है। कुछ और है। जीवन की झलक है। सौंदर्य है। एक सलाम है।

फिर तुम एक पक्षी को उड़ते देखते हो। इसमें कुछ और ज्यादा है। पक्षी अगर तुम्हारे पास आ जाएगा, तो तुम पाओगे : इसमें कुछ और ज्यादा है। ज्यादा पास आने में डरता है। गुलाब का फूल नहीं डरता। तुम पकड़ने की कोशिश करो, पक्षी उड़ जाता है। गुलाब का फूल नहीं उड़ जाता। पक्षी की आंखें तुम्हारी तरफ देखती हैं, तो तुम जानते हो, इसके भीतर कुछ है, कोई है।

फिर एक मनुष्य है। जब तुम एक मनुष्य को देखते हो, तो तुम जानते हो देह ही सब कुछ नहीं है। भीतर गहराई है। इसकी आंखों में झांको, तो तुम्हें पता चलता है देह ही नहीं है, आत्मा है।

और फिर कभी एक बुद्ध जैसा व्यक्ति है, जिसके भीतर अनंत गहराई है कि तुम झांकते जाओ, झांकते जाओ और पार नहीं है। चट्टान में कुछ भी भीतर नहीं है। बुद्ध में भीतर और भीतर और भीतर। इस भीतर का नाम ही आत्मा है। यह जो भीतर का आयाम है, इसका नाम ही आत्मा है।

जो कहता है. मैं सिर्फ शरीर हूं, वह अपनी गहराई को इनकार कर रहा है। वह परेशानी में पड़ेगा। जो कहता है? मैं सिर्फ आत्मा हूं, वह अपने बाहर को इनकार कर रहा है। यह परेशानी में पडेगा। तुम बाहर  भीतर का मेल हो। और अपूर्व मेल घट रहा है तुम्हारे भीतर।

यही तो रहस्य है इस जगत का कि यहां विरोधाभास मिल जाते हैं; एक दूसरे में डूब जाते हैं। यहां विरोधाभास आलिंगन करते हैं।

भारत नष्ट हुआ, होना ही था। अमरीका भी नष्ट हो रहा है, होना ही है। क्योंकि अब तक मनुष्य समग्र संस्कृति पैदा नहीं कर पाया। अब तक मनुष्य पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं कर पाया ऐसी संस्कृति जहां सब स्वीकार हो। जहां प्रेम भी स्वीकार हो और ध्यान भी स्वीकार हो।

खयाल रखना ध्यान यानी आत्मा, ध्यान यानी भीतर जाने का मार्ग। और प्रेम यानी बाहर जाने का मार्ग। जब तुम प्रेम करते हो, तो किसी से करते हो। और जब ध्यान करते हो, तो सबसे टूट जाते हो, अकेले हो जाते हो। ध्यान यानी एकांत। जब तुम ध्यान में हो, तब तुम आंख बंद कर लेते हो। तुम बाहर को भूल जाते हो। तुम अपनी देह को भी विस्मृत कर देते हो। संसार गया। तुम अपने भीतर जीते हो, भीतर धड़कते हो। चैतन्य में और गहरे उतरते जाते हो।

जब तुम प्रेम में उतरते हो, तो अपने को भूल जाते हो, तब दूसरे पर आंख टिक जाती है। तुम्हारी प्रेयसी या तुम्हारा प्रेमी, तुम्हारा बेटा या तुम्हारी मां, तुम्हारा मित्र, जिससे तुम प्रेम करते हो, वही सब कुछ हो जाता है। सारी आंख उस पर टिक जाती है। तुम अपने को विस्मृत कर देते हो। स्व को भूल जाते हो, पर को याद करते हो प्रेम में। ध्यान में पर को भूल जाते हो, स्व को याद करते हो।

पूरब ने ध्यान की ऊंचाई पायी, प्रेम में चूक गया। प्रेम में चूक गया, तो पतन होना निश्चित था। क्योंकि प्रेम भोजन है, अत्यंत जरूरी, अत्यंत पौष्टिक भोजन है। उसके बिना कोई नहीं जी सकता।

प्रेम ऐसे ही है, जैसे सांस लेना। बाहर से ही लोगे न सांस! और तो कोई उपाय नहीं है। अगर बाहर से सांस लेना बंद कर दोगे, तो शरीर घुट जाएगा। और बाहर से प्रेम आना बंद हो जाएगा और जाना बंद हो जाएगा, तो आत्मा घुट जाएगी। भारत की आत्मा घुट गयी प्रेम के अभाव में।

पश्चिम ने प्रेम को तो खूब फैलाया है, लेकिन ध्यान का उसे कुछ पता नहीं है। इसलिए प्रेम छिछला है, उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है। उसमें गहराई हो ही नहीं सकती, क्योंकि आदमी स्वीकार ही नहीं करता है कि हमारे भीतर कोई गहराई है। तो प्रेम ऐसे ही है, जैसे और सारे छोटे मोटे काम हैं। एक मनोरंजन है, शरीर का थोड़ा विश्राम, उलझनों से थोड़ा छुटकारा। लेकिन कोई गहराई की संभावना नहीं है, आंतरिकता नहीं है।

दो प्रेमी बस एक दूसरे की शारीरिक जरूरत पूरी कर रहे हैं, आत्मिक कोई जरूरत है ही नहीं। तो जिस दिन शरीर की जरूरतें पूरी हो गयीं या शरीर थक गया, तो एक दूसरे से अलग हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। क्योंकि भीतर तो कोई जोड़ हुआ ही नहीं था। आत्माएं तो कभी मिली नहीं थीं। आत्माएं तो स्वीकृत ही नहीं हैं। तो बस, हड्डी मास मज्जा का मिलन है। गहरा नहीं हो सकता।

पश्चिम ने ध्यान को छोड़ा है, तो प्रेम उथला है। पश्चिम भी गिरेगा, गिर रहा है। गिरना शुरू हो गया है। एक शिखर छू लिया अति का, अब भवन खंडहर हो रहा है। यह अति का परिणाम है।

मैं तुम्हें चाहूंगा कि तुम जानो कि तुम्हारे भीतर ध्यान की क्षमता हो और तुम्हारे भीतर प्रेम की क्षमता हो। ध्यान तुम्हें अपने में ले जाए; प्रेम तुम्हें दूसरे में ले जाए। और जितना ध्यान तुम्हारा अपने भीतर गहरा होगा, उतनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता बढ़ जाएगी, योग्यता बढ़ जाएगी। और जितनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता और योग्यता बढ़ेगी, उतना ही तुम पाओगे तुम्हारा ध्यान में और गहरे जाने का उपाय हो गया। इन दोनों पंखों से उडो, तो परमात्मा दूर नहीं है।

अब तक कोई संस्कृति नहीं बन सकी, दुर्भाग्य से, जो दोनों को स्वीकार करती हो। नहीं बनी, नहीं बनाने का उपाय हुआ, उसका भी कारण है। क्योंकि दोनों को मिलाने के लिए मुझ जैसा पागल आदमी चाहिए!

दोनों विरोधी हैं। दोनों तर्क में बैठते नहीं हैं! एक के साथ तर्क बिलकुल ठीक बैठ जाता है। एक को चुनो तो बात बिलकुल रेखाबद्ध, साफ सुथरी मालूम होती है। दोनों को चुनो, तो दोनों विपरीत हैं, तो फिर व्यवस्था नहीं बनती, दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं होता।

इसलिए मैं कोई दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ जीवन को एक छंद दे रहा हूं दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को एक काव्य दे रहा हूं दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को प्रेम करता हूं सिद्धांतों को नहीं। अगर सिद्धांतों में मेरा रस हो, तो मुझे भी उसी जाल में पड़ना पड़ेगा, जिस जाल में पहले सारे लोग पड़ चुके हैं। क्योंकि सिद्धांत की अपनी एक व्यवस्था है।

सिद्धांत कहता है : शरीर है, तो आत्मा नहीं हो सकती। क्योंकि तब सिद्धांत के ऊपर शरीर की सीमा आरोपित हो जाती है। तब सिद्धांत कहता है : अगर आत्मा भी हो, तो शरीर जैसी ही होनी चाहिए। कहां है? दिखायी नहीं पड़ती, जैसा शरीर दिखायी पड़ता है। कहां है? शरीर का तो वजन तौला जा सकता है, आत्मा किसी तराजू पर तुलती नहीं। कहां है तुम्हारी आत्मा? हम शरीर को छिन्न भिन्न करके देख डालते हैं, हमें कहीं उसका पता नहीं चलता।

जिसने कहा शरीर है, उसने एक तर्क स्वीकार कर लिया कि जो भी होगा, वह शरीर जैसा होना चाहिए, तो ही हो सकता है। अब आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा बिलकुल भिन्न है, विपरीत है।

जिसने मान लिया कि आत्मा है, वह भी इसी झंझट में पड़ता है। जब आत्मा को मान लिया, कहा. अदृश्य सत्य है, तो फिर दृश्य झूठ हो जाएगा।

तर्क को सुव्यवस्थित करने की ये अनिवार्यताए हैं। अगर अदृश्य सत्य है, असीम सत्य है, तो फिर सीमित का क्या होगा? फिर जो दिखायी पड़ता है, दृश्य है, उसका क्या होगा? जो छुआ जा सकता है, स्पर्श किया जा सकता है, उसका क्या होगा? तुमने अगर अदृश्य को स्वीकार किया, तो दृश्य को इनकार करना ही होगा।

इसलिए तुम यह बात जानकर चौंकोगे कि कार्ल मार्क्स और शंकराचार्य में बहुत भेद नहीं है.। कार्ल मार्क्स कहता है : शरीर है केवल। और शंकराचार्य कहते हैं. आत्मा है केवल! दोनों में कुछ भेद नहीं है। दोनों का तर्क एक ही है कि एक ही हो सकता है। दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों की तर्क—सरणी में जरा भी भेद नहीं है। यद्यपि दोनों एक दृस्रे से विपरीत बात कह रहे हैं, लेकिन मेरे हिसाब से दोनों एक ही स्कूल के हिस्से हैं; एक ही संप्रदाय के हिस्से हैं। क्यों? क्योंकि दोनों ने एक बात स्वीकार कर ली है कि एक ही हो सकता है। और जब एक हो सकता है, तो उससे विपरीत कैसे होगा?

और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन विपरीत पर खड़ा है। जैसे कि राज जब मकान बनाता है, तो दरवाजों में देखा है, ईंटें चुनता है; दोनों तरफ से विपरीत ईंटें लगाता है। विपरीत ईंटों को लगाकर ही दरवाजा बनता है। नहीं तो बन ही नहीं सकता। अगर एक ही दिशा में सब ईंटें लगा दी जाएं, मकान गिरेगा। खडा नहीं रह सकेगा। विपरीत ईंटें एक दूसरे को सम्हाल लेती हैं। एक दूसरे की चुनौती, एक दूसरे का तनाव ही उनकी शक्ति है।

जीवन को तुम सब तरफ से देखो, हर जगह द्वंद्व पाओगे। स्त्री है और पुरुष है। द्वंद्व है। उन दोनों के बीच ही बच्चे का जन्म है। नया जीवन उन्हीं के बीच बहता है। जैसे नदी दो किनारों के बीच बहती है। ऐसे स्त्री पुरुष के किनारों के बीच जीवन की नयी धारा बहती रहती है।

परमात्मा को अकल होती, तो पुरुष ही पुरुष बनाता! अकल होती, तो स्त्रियां ही स्त्रियां बनाता। अगर शंकराचार्य को बनाना पड़े, तो वे एक ही बनाएंगे। मार्क्स को बनाना पड़े, वह भी एक ही बनाएंगे। ये दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों में कुछ भेद नहीं है। एक घोषणा करता है : परमात्मा माया है; संसार सत्य है। एक घोषणा करता है. परमात्मा सत्य है, संसार माया है। मगर तर्क एक ही है।

जीवन को देखो जरा। यहां सब द्वंद्व पर खड़ा है। जन्म और मृत्यु साथ साथ हैं। जुड़े हैं। उलटे हैं और जुड़े हैं! रात और दिन साथ साथ हैं। गर्मी और सर्दी साथ साथ हैं। उलटे हैं और जुड़े हैं! यहां तुम जहां भी जीवन को खोजोगे, वहीं तुम पाओगे. द्वंद्व मौजूद है। जीवन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है।

मैं जीवन का पक्षपाती हूं। जीवन जैसा है, वैसा तुम्हें खोलकर कह देता हूं। मुझे कोई जीवन पर सिद्धांत नहीं थोपना है। सिद्धांत हो, तो आदमी हमेशा ही सिद्धांत का पक्षपाती होता है। उसके सिद्धांत के अनुकूल जो पड़ता है, वह चुन लेता है, जो अनुकूल नहीं पड़ता, वह छोड़ देता है।

मेरा कोई सिद्धांत नहीं है। मेरी आंख कोरी है। मैं कुछ तय करके नहीं चला हूं कि ऐसा होना चाहिए। मेरे पास कोई तर्क नही है, कोई तराजू नहीं है। जीवन जैसा है, वैसा का वैसा तुमसे कह रहा हूं। और जीवन विरोधाभासी है, इसलिए मैं विरोधाभासी हूं। इसलिए मेरे वक्तव्य सब विरोधाभासी हैं। मैंने जीवन को झलकाया है। मैंने दर्पण का काम किया है।

अब तक समग्र संस्कृति पैदा नहीं हो सकी, क्योंकि दार्शनिकों के हाथ से संस्कृतियां पैदा हुई हैं। संस्कृति पैदा होनी चाहिए कवियों के द्वारा; और तब उनमें एक समग्रता होगी। सिद्धांतवादी कभी समग्र नहीं हो सकते।

इसलिए मैं समस्त सिद्धांतों के त्याग का पक्षपाती हूं। छोड़ो सिद्धांतों को, जीवन को देखो। और जैसा जीवन है, वैसा जीवन है, इसको अंगीकार करो। इसी अंगीकार में गति है, विकास है। और इसी अंगीकार में तुम्हारे भीतर परम घटेगा। और वह परम दरिद्र नहीं होगा, दीन नहीं होगा।

शंकराचार्य का परम दरिद्र है। उसमें पदार्थ को झेलने की क्षमता नहीं है। वह पदार्थ को इनकार करता है। मार्क्स का परम भी गरीब है, दीन है, दरिद्र है। उसमें आत्मा को स्थान नहीं है। मेरा परम, परम समृद्ध है। मैं इसीलिए उसे ईश्वर कहता हूं। ईश्वर से मेरा मतलब है ऐश्वर्यवान। परम समृद्ध है। सब द्वंद्वों का मेल है।

ईश्वर इकतारा नहीं है; जैसा कि तुम्हारे साधु संन्यासी इकतारा लिए घूमते हैं! उसका कारण है, इकतारा रखने का। एक की खबर देने के लिए एक तार रखते हैं। ईश्वर बहुतात है। उसके बहुत तार हैं। बड़े रंग, बड़े रूप हैं। ईश्वर सतरंगा है, इंद्रधनुषी है। तुम अपने स्थली आग्रहों को अगर न थोपो, तो तुम्हें जीवन में इतने रंग दिखायी पड़ेंगे! इतनी विविधता है जीवन में कि जिसका हिसाब नहीं। और इस विविधता में ही ऐश्वर्य है। इस विविधता में ही ईश्वर छिपा है।

अगर ईश्वर इकतारा हो, तो उबाने वाला होगा। ऊब पैदा करेगा। रस चुकता ही कहां है जीवन का! कभी नहीं चुकता। ऊब कभी पैदा होती ही नहीं जीवन से। जिसको हो जाती है, उसने कुछ इकतारा ले रखा होगा। जिसने खुली आंखें रखीं और जीवन के सतरंगे रूप देखे; सब रूप देखे शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा, प्रीतिकर  अप्रीतिकर सब अंगीकार किया, मधुशाला से लेकर मंदिर तक जिसे सब स्वीकार है, ऐसा व्यक्ति ईश्वर के इंद्रधनुष को देखने में समर्थ हो पाता है। शराबी से लेकर साधु तक जिसे सब स्वीकार है।

क्योंकि हैं तो सब उसी के रूप। वह जो शराबी जा रहा है लड़खड़ाता हुआ, वह भी उसी का रूप है। और वह जो साधु बैठा है वृक्ष के शांत, मौन, एकांत में, वह भी उसी का रूप है। महावीर भी उसी के रूप हैं, और मजनू में भी वही छिपा है।

इतनी विराट दृष्टि हो, तो समग्र संस्कृति पैदा हो सकती है।

इसीलिए तो यहां जो एकांगी संस्कृति के लोग हैं, वे आ जाते हैं, उनको बड़ी अड़चन होती है। कभी कभी कोई कम्युनिस्ट आ जाता है। वह मुझसे कहता है और तो सब बात ठीक है, लेकिन आप अगर आत्मा, ईश्वर की बात न करें.। और सब बात ठीक है। ये उत्सव, ये नृत्य, ये सब ठीक हैं; मगर ईश्वर, परमात्मा को क्यों बीच में लाते हैं? अगर ये आप बीच में न लाएं, तो हम भी आ सकते हैं।

पुराने ढब का साधु संन्यासी भी कभी कभी आ जाता है। वह कहता है और सब तो ठीक है, आप ईश्वर आत्मा की जो बात करते हैं, वह बिलकुल जमती है। मगर यह नृत्य गान, यह प्रेम की हवा, यह माहांल; ये युवक युवतियां हाथ में हाथ डाले हुए चलते हुए, नाचते हुए, यह जरा जंचता नहीं! अगर यह आप बंद करवा दें, तो हम सब आपके शिष्य होने को तैयार हैं।

ये एकागी लोग हैं। इनमें से दोनों का मुझसे कोई संबंध नहीं बन सकता। यह जो प्रयास यहां हो रहा है, आज तुम्हें इसकी गरिमा समझ में नहीं आएगी। हजारों साल लग जाते हैं किसी बात को समझने के लिए।

यह जो प्रयोग यहां चल रहा है, अगर यह सफल हुआ, जिसकी संभावना बहुत कम है, क्योंकि वे एकागी लोग काफी शक्तिशाली हैं। उनकी भीड़ है। और सदियां उनके पीछे खड़ी हैं। अगर यह प्रयोग सफल हुआ, तो हजारों साल लगेंगे, तब कहीं तुम्हें दिखायी पड़ेगा कि क्या मैं कर रहा था! जब यह पूरा भवन खडा होगा.। अभी तो नींव भी नहीं भरी गयी है। मुझे दिखायी पड़ता है पूरा भवन कि अगर बन जाएगा, तो कैसा होगा। तुम्हें तो सिर्फ इतना ही दिख पाता है कि कुछ गड्डे खोदे जा रहे हैं; कुछ नींवें भरी जा रही हैं; कुछ ईंटें लायी जा रही हैं। तुम्हें कुछ और दिखायी नहीं पड़ता। हजारों साल लगते हैं।

लेकिन समय आ गया है।

विक्टर बहे का एक प्रसिद्ध वचन है. जब किसी विचार के लिए समय आ जाता है, तो दुनिया की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। समय की बात है। 

वसंत आ गया है इस फूल के खिलने का। दुनिया थक गयी है प्रयोग कर करके एकांगी। और हर बार एकांगी प्रयोग असफल हुआ है। अब हमें बहुरंगी प्रयोग कर लेना चाहिए। अब हम ऐसा संन्यासी पैदा करें, जो संसारी हो। और ऐसा संसारी पैदा करें, जो संन्यासी हो।

अब हम ऐसे ध्यानी पैदा करें, जो प्रेम कर सकें। और ऐसे प्रेमी पैदा करें, जो ध्यान कर सकें।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

Wednesday, November 25, 2015

शिव और शक्ति का परम मिलन

जब सूर्य और चंद्र का मिलन हो जाता है, तब उस पागल की तरह हो जाते हैं। ऊपर की ओर यात्रा प्रारंभ हो जाती है। और तब हंसी भी आएगी, क्योंकि यह सच में ही अजीब बात है। 

तुमने सुना है न कि एक बार न्यूटन बगीचे में बैठा हुआ था और एक सेब आकर गिरा। सेब का मनुष्य के साथ कुछ ज्यादा ही संबंध मालूम होता है  यही वह सेब था जब अदम सांप के द्वारा फंसा दिया गया था। और फिर यह बेचारा न्यूटन एक बगीचे में बैठा था और एक सेब आकर गिरा और न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज निकाला।

लेकिन जब भीतर के सूर्य और चंद्र मिल जाते हैं तो अकस्मात ही व्यक्ति एक अलग ही आयाम में पहुंच जाता है उसकी ऊर्जा ऊपर की ओर उठने लगती है। यह न्यूटन की अवज्ञा है, यह न्यूटन का अपमान है  इसके सामने गुरुत्वाकर्षण व्यर्थ हो जाता है। तुम ऊपर की ओर खींचे जाने लगते हो! और निस्संदेह अभी तक का पूरा प्रशिक्षण इसी बात का है कि अगर कोई भी चीज ऊपर फेंको तो वह नीचे गिरती है और सभी कुछ नीचे ही गिरता है। तो फिर हंसी का कारण ठीक ही है।

एक झेन फकीर होतेई के बारे में ऐसा कहा जाता है कि संबोधि को उपलब्ध होने के बाद उसकी हंसी फिर कभी बंद ही न हुई। फिर वह हंसता ही रहा, हंसता ही रहा, अपनी मृत्यु के समय भी वह हंस रहा था। वह हंसते हंसते एक गांव से दूसरे गांव तक घूमा करता था। उसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि जब वह सोता भी था, तो उसकी हंसी की आवाज सुनी जा सकती थी। लोग होतेई से पूछते भी थे, आप हमेशा हंसते क्यों रहते हैं? वह कहता, मैं कैसे बताऊं। लेकिन कुछ हुआ है  कुछ अदभुत हुआ है। कुछ ऐसा जो नहीं होना चाहिए था, जिसका होना अपेक्षित नहीं था ऐसा कुछ हुआ है।

वह पागल आदमी ठीक कह रहा था। अगर किसी दिन तुम अपने बिस्तर से गिर जाओ और अचानक तुम स्वयं को छत के ऊपर पाओ, तो तुम हसोगे नहीं तो क्या करोगे। लेकिन ऐसा होता है, और वह पागल आदमी कोई साधारण पागल नहीं है। यह एक सूफी कथा है। वह पागल आदमी जरूर कोई सदगुरु रहा होगा।

यह सूत्र कहता है ‘मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्।’

जिस क्षण चेतना का मिलन सहस्रार से होता है, अचानक तुम पार के जगत के लिए उपलब्ध हो जाते हो  सिद्धों के जगत के लिए उपलब्ध हो जाते हो।

योग में मूलाधार के प्रतीक के रूप में, काम केंद्र को चार पंखुड़ियों वाला लाल कमल माना जाता है। चार पंखुड़ियां चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। लाल रंग, ऊष्मा का प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि वह सूर्य का केंद्र है। और सहस्रार प्रतिनिधित्व करता है सभी रंगों का, हजार पंखुड़ियों के कमल के रूप में। हजार पंखुड़ियों वाला कमल सहस्रार पदम सभी रंगों से परिपूर्ण एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल, क्योंकि सहस्रार में संपूर्ण अस्तित्व समाया हुआ है। सूर्य केंद्र केवल लाल होता है। सहस्रार इंद्रधनुषी होता है उसमें सभी रंग समाए होते हैं, उसमें समग्रता समाहित होती है।

सामान्यत: सहस्रार, एक हजार पंखुड़ियो वाला कमल सिर में नीचे की ओर लटका हुआ होता है। लेकिन जब इससे ऊर्जा गतिमान होती है, तो ऊर्जा से यह ऊपर की ओर हो जाता है। .पहले तो यह ऐसे ही है जैसे कोई कमल ऊर्जा रहित नीचे की ओर लटका हुआ हों उसका भार ही उसे नीचे की ओर लटका देता है  फिर जब वह ऊर्जा से भर जाता है, तो उसमें जीवन का संचार हो जाता है। वह ऊपर उठने लगता है, वह बियांड के, पार के, जगत के प्रति खुल जाता है।

जब कमल खिल जाता है, तो योगशास्त्र कहते हैं कि ‘तब वह दस लाख सूर्य और दस लाख चंद्र के रूप में देदीप्यमान हो उठता है।’ जब भीतर एक चंद्र और एक सूर्य परस्पर मिल जाते हैं, तो फिर वह बाहर के दस लाख सूर्य और दस लाख चंद्र के बराबर होते हैं। तब व्यक्ति उस परम आनंद की कुंजी को खोज लेता है, जहां दस लाख चंद्र दस लाख सूर्यों से मिलते हैं दस लाख स्त्रियों का दस लाख पुरुषों से मिलन होता है। तो उस परम आनंद की तुम थोड़ी बहुत कल्पना कर सकते हो, थोड़ा बहुत उस बारे में सोच सकते हो।

शिव जब अपनी पत्नी देवी के साथ प्रेम में पाए गए तो उसी आनंद अवस्था में रहे होंगे। वे सहस्रार में प्रतिष्ठित रहे होंगे। उनका प्रेम केवल कामवासना वाला प्रेम नहीं हो सकता वह प्रेम मूलाधार से नहीं हो सकता। वह उनके अस्तित्व के शिखर बिंदु से, ओमेगा पाइंट से आया होगा। इसीलिए कौन वहां खड़ा है, कौन उन्हें देख रहा है इसके प्रति वे पूरी तरह से बेखबर थे। वे समय और स्थान में स्थित नहीं थे। वे समय और स्थान के पार थे। योग का, तंत्र का, सारे आध्यात्मिक प्रयासों का यही तो एकमात्र लक्ष्य है।

पुरुष और स्त्री ऊर्जा का मिलन, शिव और शक्ति का परम मिलन, जीवन और मृत्यु के आत्यंतिक जोड़ की संभावना को निर्मित कर देता है। इस दृष्टि से हिंदुओं के परमात्मा बहुत अनूठे और अदभुत रूप से मानवीय हैं। थोड़ा ईसाइयों के परमात्मा के बारे में विचार करो। कोई पत्नी नहीं, कोई स्त्री नहीं साथ में! यह बात जड़, एकाकी, रिक्त, पुरुष प्रधान, सूर्यगत और कठोर मालूम होती है। अगर यहूदियों और ईसाइयों के परमात्मा की अवधारणा भयानक और डरावने परमात्मा की है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।

यहूदी कहते हैं, ‘परमात्मा से भयभीत रहो। ध्यान रहे, वह तुम्हारा चाचा नहीं है।’ लेकिन हिंदू कहते हैं, ‘चिंता की कोई बात नहीं, परमात्मा तुम्हारी मां है।’ यहूदियों ने बहुत ही क्रूर परमात्मा की कल्पना की है, जो हमेशा लोगों को अग्नि में जलाने और मारने को तैयार रहता है। और छोटा सा पाप भी, चाहे वह अनजाने में ही हो गया हो और यहूदियों का परमात्मा एकदम क्रुद्ध, आग बबूला हो जाता है। उनका परमात्मा विक्षिप्त मालूम होता है।

और ईसाइयों की पूरी की पूरी ट्रिनिटी की धारणा गॉड, होली घोस्ट और सन यह पूरी की पूरी ट्रिनिटी लड़कों की सभा मालूम पड़ती है होमोसेक्यूअल, समलैंगिक। कोई स्त्री नहीं। और ईसाई चंद्र ऊर्जा से, स्त्री से इतने भयभीत हैं कि उनके पास स्त्री की कोई अवधारणा ही नहीं है। आगे चलकर किसी तरह उन्होंने वर्जिन मेरी का नाम जोड़कर इसमें थोड़ा सुधार करने की कोशिश की है। किसी तरह से, क्योंकि यह बात उनके सिद्धांत के बिलकुल विपरीत पड़ती है, उनके सिद्धांत के एकदम खिलाफ है। और फिर भी ईसाई इस बात पर जोर देते हैं कि वह वर्जिन है, कुंआरी है।

ईसाई धारणा में सूर्य और चंद्र का मिलन एकदम अस्वीकृत है। चाहे वे वर्जिन मेरी का आदर करते हैं.. निश्चित ही यह एक द्वितीय श्रेणी की पदवी है, क्योंकि ट्रिनिटी में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। फिर उन्हें अपनी इस ट्रिनिटी की धारणा में कुछ अपूर्णता का अहसास हुआ, तो उन्होंने पीछे के द्वार से वर्जिन मेरी का प्रवेश करवाया। लेकिन फिर भी ईसाई इस बात पर जोर दिए चले जाते हैं कि वह वर्जिन है, कुंआरी है। आखिर इस बात पर इतना जोर क्यों? पुरुष और स्त्री ऊर्जा के मिलन में आखिर गलत क्या है?’

और अगर तुम बाह्य जगत में पुरुष और स्त्री की ऊर्जा के मिलन से इतने भयभीत हो, तो तुम अंतर्जगत में घटित होने वाले ऐसे ही मिलन के लिए कैसे तैयार हो सकोगे?

हिंदुओं के परमात्मा अधिक मानवीय हैं, अधिक मानवोचित हैं जीवन के यथार्थ के अधिक निकट हैं और निश्चित ही उनसे करुणा और प्रेम प्रवाहित होता है।

 पतंजलि योगसूत्र 

ओशो 

 

सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा

तुमने कभी गौर किया, बाएं हाथ का उपयोग करने वाले लोगों को दबा दिया जाता है! अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो तुरंत पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता है माता पिता, सगे संबंधी, परिचित, अध्यापक सभी लोग एकदम उस बच्चे के खिलाफ हो जाते हैं। पूरा समाज उसे दाएं हाथ से लिखने को विवश करता है। दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है। कारण क्या है? ऐसा क्यों है कि दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है? बाएं हाथ में ऐसी कौन सी बुराई है, ऐसी कौन सी खराबी है? और दुनिया में दस प्रतिशत लोग बाएं हाथ से काम करते हैं। दस प्रतिशत कोई छोटा वर्ग नहीं है। दस में से एक व्यक्ति ऐसा होता ही है जो बाएं हाथ से कार्य करता है। शायद चेतनरूप से उसे इसका पता भी नहीं होता हो, वह भूल ही गया हो इस बारे में, क्योंकि शुरू से ही समाज, घर परिवार, माता पिता बाएं हाथ से कार्य करने वालों को दाएं हाथ से कार्य करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा क्यों है?

दायां हाथ सूर्यकेंद्र से, भीतर के पुरुष से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ चंद्रकेंद्र से भीतर की स्त्री से जुड़ा हुआ है। और पूरा का पूरा समाज पुरुषकेंद्रित है।

हमारा बायां नासापुट चंद्रकेंद्र से जुड़ा हुआ है। और दायां नासापुट सूर्यकेंद्र से जुड़ा हुआ है। तुम इसे आजमा कर भी देख सकते हो। जब कभी बहुत गर्मी लगे तो अपना दायां नासापुट बंद कर लेना और बाएं से श्वास लेना और दस मिनट के भीतर ही तुमको ऐसा लगेगा कि कोई अनजानी शीतलता तुम्हें महसूस होगी। तुम इसे प्रयोग करके देख सकते हो, यह बहुत ही आसान है। या फिर तुम ठंड से कांप रहे हो और बहुत सर्दी लग रही है, तो अपना बायां नासापुट बंद कर लेना, और दाएं से श्वास लेना; दस मिनट के भीतर तुम्हें पसीना आने लगेगा।

योग ने यह बात समझ ली और योगी कहते हैं और योगी ऐसा करते भी हैं प्रात: उठकर वे कभी दाएं नासापुट से श्वास नहीं लेते। क्योंकि अगर दाएं नासापुट से श्वास ली जाए, तो अधिक संभावना इसी बात की है कि दिन में व्यक्ति क्रोधित रहेगा, लड़ेगा झगड़ेगा, आक्रामक रहेगा शांत और थिर नहीं रह सकेगा। इसलिए योग के अनुशासन में यह भी एक अनुशासन है कि सुबह उठते ही सबसे पहले व्यक्ति को यह देखना होता है कि उसका कौन सा नासापुट क्रियाशील है। अगर बायां क्रियाशील है तो ठीक है, .वही ठीक क्षण होता है बिस्तर से बाहर आने का। अगर बायां नासापुट क्रियाशील नहीं है तो अपना दायां नासापुट बंद करना और बाएं से श्वास लेना। धीरे धीरे जब बायां नासापुट क्रियाशील हो जाए, तभी बिस्तर से बाहर पाव रखना।

हमेशा सुबह उसी समय बिस्तर से बाहर आना जब बायां नासापुट क्रियाशील हो, और तब तुम पाओगे कि तुम्हारी पूरी की पूरी दिनचर्या में अंतर आ गया है। तुम कम क्रोधित होगे, चिड़चिडाहट कम होगी और अधिकाधिक शांत, थिर और ठंडे अनुभव करोगे। ध्यान में अधिक गहरे जा सकोगे। अगर लड़ना झगड़ना चाहते हो, तो उसके लिए दायां नासापुट अच्छा है। अगर प्रेमपूर्ण होना चाहते हो, तो उसके लिए बायां नासापुट एकदम ठीक है।

और हमारी श्वास हर क्षण, हर पल बदलती रहती है। तुमने शायद कभी ध्यान नहीं दिया होगा, लेकिन इस पर ध्यान देना। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को इसे समझना होगा, क्योंकि रोगी के इलाज में इसका प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। ऐसे बहुत से रोग हैं, ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जिनके ठीक होने में चंद्र की मदद मिल सकती है। और ऐसे रोग भी हैं जिनके ठीक होने में सूर्य से मदद मिल सकती है। अगर इस बारे में ठीक ठीक मालूम हो, तो श्वास का उपयोग व्यक्ति. के इलाज के लिए किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक चिकित्साशास्त्र की अभी तक इस तथ्य से पहचान नहीं हुई है।

श्वास निस्तर परिवर्तित होती रहती है. चालीस मिनट तक एक नासापुट क्रियाशील रहता है, फिर चालीस मिनट दूसरा नासापुट क्रियाशील रहता है। भीतर सूर्य और चंद्र निरंतर बदलते रहते हैं। हमारा पेंडुलम सूर्य से चंद्र की ओर, चंद्र से सूर्य की ओर आताजाता रहता है। इसीलिए हमारी भावदशा अकसर ही बदलती रहती है। कई बार अकस्मात चिडचिडाहट होती है बिना किसी कारण के, अकारण ही। बात कुछ भी नहीं है, सभी कुछ वैसा का वैसा है, उसी कमरे में बैठे हो  कुछ भी नहीं हुआ है  अचानक चिड़चिड़ाहट आने लगती है।

थोड़ा ध्यान देना। अपने हाथ को अपने नाक के निकट ले आना और उसे अनुभव करना. तुम्हारी श्वास बायीं ओर से दायीं ओर चली गयी होगी। अभी थोड़ी देर पहले तो सभी कुछ ठीक था, और क्षण भर के बाद ही सभी कुछ बदल गया, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। बस, लड़ने को, झगड़ने को और कुछ भी करने के लिए तैयार हो।

ध्यान रहे, हमारा पूरा शरीर दो भागों में विभक्त है। हमारा मस्तिष्क भी दो मस्तिष्कों में विभाजित है। हमारे पास एक मस्तिष्क नहीं है; दो मस्तिष्क हैं, दो गोलार्ध हैं। बायीं ओर का मस्तिष्क सूर्य मस्तिष्क है, दायीं ओर का मस्तिष्क चंद्र मस्तिष्क है। तुम थोडी उलझन में पड़ सकते हो, क्योंकि ऐसे तो बायीं ओर सब कुछ चंद्र से संबंधित होता है, तो फिर दायीं ओर के मस्तिष्क का चंद्र से क्या संबंध! दायीं ओर का मस्तिष्क शरीर के बाएं हिस्से से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ दायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, दायां हाथ बायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, यही कारण है। वे एक दूसरे से उलटे जुडे हुए हैं।

दायीं ओर का मस्तिष्क कल्पना को, कविता को, प्रेम को, अंतर्बोध को जन्म देता है। मस्तिष्क का बाया हिस्सा बुद्धि को, तर्क को, दर्शन को, सिद्धांत को, विज्ञान को जन्म देता है।

और जब तक व्यक्ति सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा के बीच संतुलन नहीं पा लेता है, अतिक्रमण संभव नहीं है। और जब तक बाया मस्तिष्क दाएं मस्तिष्क से नहीं मिल जाता है और उनमें एक सेतु निर्मित नहीं हो जाता है, तब तक सहस्रार तक पहुंचना संभव नहीं है। सहस्रार तक पहुंचने के लिए दोनों ऊर्जाओं का एक हो जाना आवश्यक है, क्योंकि सहस्रार परम शिखर है, आत्यंतिक बिंदु है। वहां न तो पुरुष की तरह पहुंचा जा सकता है, न ही वहा स्त्री की तरह पहुंचा जा सकता है। वहा एकदम शुद्ध चैतन्य की तरह होकर, समग्र और संपूर्ण होकर पहुंचना संभव होता है।

पुरुष की कामवासना सूर्यगत है, स्त्री की कामवासना चंद्रगत है। इसीलिए स्त्रियों के मासिक धर्म का चक्र अट्ठाइस दिन का होता है, क्योंकि चंद्र का मास अट्ठाइस दिन में पूरा होता है। स्त्रियां चंद्रमा से प्रभावित होती हैं  चंद्र का वर्तुल अट्ठाइस दिन का होता है।

और इसीलिए बहुत सी स्त्रिया पूर्णिमा की रात थोड़ा पागलपन का अनुभव करती हैं। जब पूर्णिमा की रात आए, तो अपनी पत्नी या अपनी प्रेयसी से सावधान रहना। वह थोड़ी परेशान और अस्तव्यस्त हो जाती है। जैसे पूर्णिमा की रात समुद्र में ज्वार भाटा आने लगता है और समुद्र प्रभावित हो जाता है, ऐसे स्त्रियां भी उत्तप्त हो जाती हैं।

क्या तुमने कभी ध्यान दिया है? पुरुष खुली आंखों से प्रेम करना चाहता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि प्रकाश भी पूरा चाहता है। अगर किसी तरह की बाधा न हो, तो पुरुष दिन में प्रेम करना पसंद करता है। और उन्होंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है विशेषकर ‘अमेरिका में, क्योंकि उस तरह की बाधाएं और समस्याएं अब वहां पर समाप्त हो गयी हैं। वहा लोग रात्रि की अपेक्षा सुबह प्रेम अधिक करते हैं। स्त्री अंधकार में प्रेम करना पसंद करती है, जहां थोड़ी भी रोशनी न हो और अंधेरे में भी वे अपनी आंखें बंद कर लेती हैं।

चंद्रमा रात्रि में, अंधकार में चमकता है, उसे अंधकार से प्रेम है रात्रि से।

इसीलिए स्त्रियां अश्लील साहित्य में उत्सुक नहीं हैं। अब नारी मुक्ति आंदोलन के कारण, कुछ पत्रिकाओं ने प्लेबाय और इसी तरह की पत्रिकाओं के साथ प्रतिस्पर्धा की शुरुआत की है इसी प्रतिस्पर्धा के कारण प्लेगर्ल पत्रिका सामने आयी है। लेकिन मूल रूप से स्त्रियां अश्लील साहित्य में, अश्लील पत्रिकाओं में जरा भी उत्सुक नहीं होतीं। असल में तो स्त्रियों को यह समझ ही नहीं आता है कि आखिर पुरुष क्यों इतना अधिक नग्न स्त्रियों के चित्र देखने में उत्सुक रहता है। इस तथ्य को समझने में उन्हें कठिनाई अनुभव होती है।

पुरुष सूयोंमुन्धी होता है, उसे प्रकाश अच्छा लगता है। आंखें सूर्य का हिस्सा हैं, इसीलिए आंखें देखने में सक्षम होती हैं। आंखों का तालमेल सूर्य ऊर्जा के साथ रहता है। तो पुरुष आंखों से, दृष्टि से अधिक जुड़ा हुआ है। इसीलिए पुरुष को देखना अच्छा लगता है और स्त्री को प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। पुरुषों को यह समझ में ही नहीं आता है कि आखिर स्त्रियां स्वयं को इतना क्यों सजाती  संवारती हैं?

मैंने सुना है, एक दंपति हनीमून मनाने के लिए किसी पहाड़ी स्थान पर गए। युवक बिस्तर पर लेटा हुआ पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। और पत्नी थी कि अपने श्रृंगार करने में लगी हुई थी, अपने को सजाने संवारने में लगी हुई थी। उसने अपने शरीर पर पाउडर लगाया, बाल संवारे, नाखूनों पर नेल पालिश लगाई, इत्र की कुछ बूंदें कान के पीछे लगाई, बस वह अपने को सजाती ही जा रही थी। आखिरकार जब उस युवक से न रहा गया, तो वह बिस्तर से झटके से उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने पूछा, क्या बात है? आप कहां जा रहे हो? वह अपने सूटकेस की तरफ दौड़ा और बोला, अगर यह एक औपचारिक प्रेम ही रहने वाला है तो कम से कम मैं अपने कपड़े तो पहन लूं।

स्त्रियों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है वे चाहती हैं कोई उन्हें देखे। और यह एकदम ठीक भी है, क्योंकि इसी तरह से तो पुरुष और स्त्रियां एक दूसरे के अनुकूल बैठ पाते हैं पुरुष देखना चाहता है, स्त्री दिखाना चाहती है। वे एक दूसरे के अनुरूप हैं, यह एकदम ठीक है। अगर स्त्रियों को प्रदर्शन में उत्सुकता न होगी, तो वे दूसरी कई मुसीबत खड़ी कर देती हैं। और अगर पुरुष स्त्री को देखने में उत्सुक नहीं है, तो फिर स्त्री किसके लिए इतना श्रृंगार करेगी, आभूषण पहनेगी, सजेगी संवरेगी आखिर किसके लिए? फिर तो कोई भी उनकी तरफ नहीं देखेगा। प्रकृति में हर चीज एक दूसरे के अनुरूप होती है, उनमें आपस में सिन्क्रानिसिटी, लयबद्धता होती है।

लेकिन अगर सहस्रार तक पहुंचना हो, तो द्वैत को गिराना होगा। परमात्मा तक पुरुष या स्त्री की भांति नहीं पहुंचा जा सकता है। परमात्मा तक तो सहज रूप में, शुद्ध अस्तित्व के रूप में ही पहुंचा जा सकता है, स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं।

‘सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्त सिद्धों के अस्तित्व से जुड्ने की क्षमता मिल जाती है।
ऊर्जा को अगर ऊपर की ओर गतिमान करना है, तो इसकी विधि संयम है। पहली बात, अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हें तुम्हारे सूर्य के प्रति तुम्हारे सूर्य ऊर्जा के केंद्र के प्रति, तुम्हारे काम केंद्र के प्रति, पूरी तरह होशपूर्ण होना होगा। तुम्हें मूलाधार में रहना होगा, अपने संपूर्ण चैतन्य को, अपनी पूरी ऊर्जा को मूलाधार पर बरसा देना होगा। जब मूलाधार पर पूरा होश आ जाता है तो तुम पाओगे कि ऊर्जा हारा केंद्र की ओर उठ रही है, चंद्र की ओर बढ़ रही है।

और जब ऊर्जा चंद्रकेंद्र की ओर गतिमान होगी, तो तुम बहुत संतृप्ति, बहुत आनंदित अनुभव करोगे। सारी कामवासना के आनंद इसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं कुछ भी नहीं हैं। जब सूर्य ऊर्जा अपनी ही चंद्रऊर्जा में उतरती है, तो उस आनंद की सघनता उससे हजारों गुना अधिक होती है। तब सच में पुरुष और स्त्री का मिलन घटित होता है। बाहर किसी भी स्त्री से कितनी भी निकटता क्यों न हो, कितने भी करीब क्यों न हो, तुम अपने को पृथक और अलग ही अनुभव करते हो। बाहर का मिलन तो बस सतही और औपचारिक ही होता है दो सतह, दो परिधियां ही आपस में मिलती हैं। दो सतह एक दूसरे को स्पर्श करती हैं, बस इतना ही होता है। लेकिन जब सूर्यऊर्जा चंद्रऊर्जा की ओर गतिमान होती है, तब दो ऊर्जा केंद्रों की ऊर्जा आपस में मिल जाती है और जिस व्यक्ति के सूर्य और चंद्र एक हो जाते हैं, वह परम रूप से आनंदित और संतृप्त हो जाता है  और फिर वह हमेशा आनंदित और संतृप्त बना रहता है, क्योंकि इसको खोने का कोई उपाय ही नहीं है। यह आनंद और मिलन सनातन है।

अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हें अपनी संपूर्ण चेतना को हारा तक ले आना होगा, और तब तुम्हारी ऊर्जा सूर्य केंद्र की ओर बढ़ने लगेगी। 

प्रत्येक व्यक्ति में एक केंद्र निष्किय होता है और एक केंद्र सक्रिय होता है। सक्रिय केंद्र को निष्किय केंद्र के साथ जोड़ दो, तो निष्‍क्रिय केंद्र सक्रिय हो जाता है।

और जब दोनों ऊर्जाओं का मिलन होता है जब सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा एक हो रहे होते हैं, तो ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है। तब व्यक्ति ऊर्ध्वगमन की ओर बढ़ने लगता है।

पतंजलि योगसूत्र 


ओशो

पुरुष स्त्री को नहीं समझ सकता स्त्री पुरुष को नहीं समझ सकती


पुरुष मन हमेशा चीजों को तोड़  मरोड़कर देखता है।

कार्ल जंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक बार वह फ्रायड के साथ बैठा हुआ था और एक दिन अचानक उसके पेट में बहुत जोर का दर्द उठा। और उसे लगा कि कुछ न कुछ होकर रहेगा और तभी अचानक निकट की अलमारी में से विस्फोट की आवाज आई। दोनों चौकन्ने हो गए। क्या हुआ? जंग  ने कहा, इसका जरूर कुछ न कुछ संबंध मेरी ऊर्जा से है। फ्रायड हंसा और का की हंसी उड़ाता हुआ बोला, ‘कैसी नासमझी की बात है, इसका तुम्हारी ऊर्जा से कह संबंध हो सकता है?’ का बोला, थोड़ी प्रतीक्षा करो, अभी एक मिनट में ही फिर पहले जैसे विस्फोट की आवाज आएगी। क्योंकि उसे फिर से लगा कि उसके पेट में तनाव हो रहा है। और एक मिनट के बाद ठीक एक मिनट के बाद  एक और विस्फोट हुआ।

अब यह है स्त्री मन। और जंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है, ‘उस दिन के बाद फिर कभी फ्रायड ने मुझ पर भरोसा नहीं किया।’ यह बात खतरनाक है, क्योंकि इस बात का तर्क से कोई संबंध नहीं है। और जंग ने एक नए सिद्धांत के विषय में सोचना शुरू कर दिया, जिसे वह सिन्क्रानिसिटि, समक्रमिकता का सिद्धांत कहता है।

जो सिद्धांत सभी वैज्ञानिक प्रयासों का मूल आधार है वह है काजेलिटी कारण सभी कुछ कार्य और कारण से जुड़ा हुआ है। जो कुछ भी घटता है, उसका कोई न कोई कारण होता है। और अगर कारण हो, तो परिणाम उसके पीछे  पीछे चला आएगा। जैसे अगर हम पानी को गरम करते हैं तो वह वाष्पीभूत हो जाता है। पानी गरम करना एक कारण है अगर पानी को सौ डिग्री तक गरम किया जाए तो वह वाष्पीभूत हो जाएगा। पानी का वाष्पीभूत हो जाना परिणाम है। यह एक वैज्ञानिक आधार है। का कहता है एक और सिद्धांत है, वह है  सिन्क्रानिसिटी, समक्रमिकता का सिद्धांत। इसकी व्याख्या करना कठिन है, क्योंकि सभी व्याख्याएं वैज्ञानिक मन से आती हैं। लेकिन हा जो कह रहा है, उसको अनुभव करने का प्रयास किया जा सकता है।

जंग कहता है कि कार्य  कारण के साथ ही एक और सिद्धांत अस्तित्व रखता है। अगर कहीं कोई सृष्टि को बनाने वाला है, तो उसने सृष्टि की रचना इस ढंग से की है कि इस सृष्टि में ऐसा बहुत कुछ घटित होता है जिसका कार्य और कारण से कोई संबंध नहीं है।

तुमने किसी स्त्री को देखा और अचानक तुम्हारे हृदय में प्रेम उठ आता है। अब इस बात का कार्य और कारण से, या सिन्क्रानिसिटी से इसका कोई संबंध है? का ज्यादा ठीक प्रतीत होता है और सत्य के ज्यादा करीब लगता है। स्त्री पुरुष में प्रेम को उत्पन्न करने का कारण नहीं हो सकती, न ही पुरुष स्त्री में प्रेम के उत्पन्न करने का कारण हो सकता है। लेकिन पुरुष और स्त्री, सूर्य  ऊर्जा और चंद्र ऊर्जा का निर्माण इस ढंग से हुआ है कि उनके आपस में निकट आने से प्रेम का फूल खिल उठता है। यही है सिन्क्रानिसिटी, समक्रमिकता।

लेकिन फ्रायड इससे भयभीत हो गया। फिर फ्रायड व जंग  कभी आपस में एक दूसरे के निकट नहीं आ सके। फ्रायड ने जंग को अपना उत्तराधिकारी चुना था, लेकिन उस दिन उसने अपनी वसीयत को बदल दिया। फिर वे दोनों ए क दूसरे से अलग हो गए, एक दूसरे से दूर और दूर होते चले गए।

 स्त्री और पुरुष को समझना सूर्य और चांद को समझने जैसा ही है। जब सूर्य प्रकट होता तो चांद छिप जाता है, जब सूर्य अस्त होता है तो चांद प्रकट होता है, उनका आपस में कभी मिलन नहीं होता है। वे कभी एक दूसरे के आमने सामने नहीं आते। जब व्यक्ति की आंतरिक प्रज्ञा क्रियाशील होती है तो उसकी बुद्धि, तर्क शक्ति विलीन होने लगती है। स्त्रियों में पुरुष से अधिक अंतर्बोध होता है। उनके पास तर्क नहीं होता है, लेकिन फिर भी उनके पास कुछ अंतर्बोध, अंतर्प्रज्ञा होती है। और उन्हें जो अंतर्बोध होता है वह अधिकांशत: सच ही होता है।

बहुत से पुरुष मेरे पास आकर कहते हैं कि अजीब बात है। अगर हम किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं और अपनी पत्नी को नहीं बताते, तो भी किसी न किसी तरह उसे मालूम हो ही जाता है। लेकिन हमें कभी मालूम नहीं होता कि पत्नी किसी अन्य पुरुष के प्रेम में पड़ी है या नहीं?

ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति शीला और चिन्मय की है। चिन्मय किसी के प्रेम में है  और वे दोनों मेरे पास आए। चिन्मय आकर कहने लगा, ‘यह बहुत ही अजीब बात है। जब भी मैं किसी के प्रेम में होता हूं  तो तुरंत शीला चली आती है जहां कहीं भी वह होती है, वह तुरंत कमरे’ में चली आती है। ऐसे तो वह कभी नहीं आती। वह आफिस में काम कर रही होती है या कहीं और व्यस्त होती है। लेकिन जब भी मुझे कोई स्त्री अच्छी लगती है और मैं उसे अपने कमरे में ले जाता हूं चाहे सिर्फ बातचीत करने के लिए ही, तो शीला चली आती है। और ऐसा कई बार हुआ है।’ और मैंने पूछा ‘क्या कभी इससे विपरीत भी हुआ है?’ उसने कहा, ‘कभी नहीं।’

स्त्री अपनी अनुभूतियों से जीती है। वह तर्क से नहीं चलती, वह तर्क से नहीं जीती। वह तो अनुभव से जीती है और वह अनुभव उसकी इतनी गहराई से आता है कि वह उसके लिए करीब करीब सत्य ही हो जाता है। इसीलिए तो कोई पति तर्क में किसी स्त्री को नहीं हरा सकता। वे तुम्हारे तर्क सुनती ही नहीं हैं। वे अपनी बात पर ही अड़ी रहती हैं कि ऐसा ही है, ऐसा ही ठीक है। और तुम भी जानते हो कि ऐसा ही है, लेकिन फिर तुम अपना बचाव किए चले जाते हो। जितना तुम बचाव करते हो, उतना ही वे समझ लेती हैं कि ऐसा ही है।

पतंजलि योग सूत्र 

ओशो 

Popular Posts