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Sunday, November 29, 2015

समावेश का प्रयोग

जीसस कहते है: ‘अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो।’ 

फ्रायड कहता करता था: ‘मैं क्‍यों अपने शत्रु को अपने समान प्रेम करूं?’ यह मेरा शत्रु है; फिर क्‍यों में उसे स्‍वयं की भांति प्रेम करूं? और मैं उसे प्रेम कैसे कर सकता हूं?

उसका प्रश्‍न संगत मालूम होता है। लेकिन फ्रायड को पता नहीं है कि क्‍यों जीसास कहते थे कि अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो। यह किसी सामाजिक राजनीति की बात नहीं है, यह कोई समाज सुधार की, एक बेहतर समाज बनाने की बात नहीं है, यह तो सिर्फ तुम्हारे जीवन और तुम्हारे चैतन्य को विस्तार देने की बात है।

अगर तुम शत्रु को अपने में समाविष्ट कर सको तो वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता, वह तुम्हारी हत्या कर सकता है, लेकिन वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता है। चोट तो तब लगती है जब तुम उसे अपने से बाहर रखते हो। जब तुम उसे अपने से बाहर रखते हो, तुम अहंकार हो जाते हो, पृथक और अकेले हो जाते हो, तुम अस्तित्व से विच्छिन्न हो जाते हो, कट जाते हो। अगर तुम शत्रु को अपने भीतर समाविष्ट कर सको तो सब समाविष्ट हो जाता है। जब शत्रु समाविष्ट हो सकता है तो फिर वृक्ष और आकाश क्यों समाविष्ट नहीं हो सकते?

शत्रु पर जोर इसलिए है कि अगर तुम शत्रु को सम्मिलित कर सकते हो तो तुम सब को सम्मिलित कर सकते हो। तब किसी को बाहर छोड़ने की जरूरत न रही। और अगर तुम अनुभव कर सको कि तुम्हारा शत्रु भी तुममें समाविष्ट है तो तुम्हारा शत्रु भी तुम्हें शक्ति देगा, ऊर्जा देगा। वह अब तुम्हारे लिए हानिकारक नहीं हो सकता। वह तुम्हारी हत्या कर सकता है, लेकिन तुम्हारी हत्या करते हुए भी वह तुम्हें हानि नहीं पहुंचा सकता। हानि तो तुम्हारे मन से आती है, जब तुम किसी को पृथक मानते हो, अपने से बाहर मानते हो।

लेकिन हमारे साथ तो बात पूरी तरह विपरीत है, बिलकुल उलटी है। हम तो मित्रों को भी अपने में सम्मिलित नहीं करते। शत्रु तो बाहर होते ही हैं; मित्र भी बाहर ही होते हैं। तुम अपने प्रेमी प्रेमिकाओं को भी बाहर ही रखते हो। अपने प्रेमी के साथ होकर भी तुम उसमें डूबते नहीं, एक नहीं होते, तुम पृथक बने रहते हो, तुम अपने को नियंत्रण में रखते हो। तुम अपनी अलग पहचान गंवाना नहीं चाहते हो।

और यही कारण है कि प्रेम असंभव हो गया है। जब तक तुम अपनी अलग पहचान नहीं छोड़ते हो, अहंकार को विदा नहीं देते हो, तब तक तुम प्रेम कैसे कर सकते हो? तुम तुम बने रहना चाहते हो और तुम्हारा प्रेमी भी अपने को बचाए रखना चाहता है। तुम दोनों में कोई भी एक दूसरे में डूबने को, समाविष्ट होने को राजी नहीं है। तुम दोनों एक दूसरे को बाहर रखते हो, तुम दोनों अपने अपने घेरे में बंद रहते हो। परिणाम यह होता है कि कोई मिलन नहीं होता है, कोई संवाद नहीं होता है। और जब प्रेमी भी समाविष्ट नहीं हैं तो यह सुनिश्चित हैं कि तुम्हारा जीवन दरिद्रतम जीवन हो। तब तुम अकेले हो, दीन हीन हो, भिखारी हो। और जब सारा अस्तित्व तुममें समाविष्ट होता है तो तुम सम्राट हो।

इसे स्मरण रखो। समाविष्ट करने को अपनी जीवन शैली बना लो। उसे ध्यान ही नहीं, जीवनशैली, जीने का ढंग बना लो। अधिक से अधिक को सम्मिलित करने की चेष्टा करो। तुम जितना ज्यादा सम्मिलित करोगे तुम्हारा उतना ही ज्यादा विस्तार होगा। तब तुम्हारी सीमाएं अस्तित्व के ओर छोर को छूने लगेंगी। और एक दिन केवल तुम होगे, समस्त अस्तित्व तुममें समाविष्ट होगा। 

यही सभी धार्मिक अनुभवों का सार सूत्र है।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

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