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Sunday, November 15, 2015

जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना

जब भी कोई परमात्मा को अनुभव करेगा, तो पहली घटना तो यह घटेगी कि चारों तरफ लोग इनकार करने लगेंगे कि इस आदमी ने पाया-वाया नहीं है। यह सब बातचीत है। अब कहां कलियुग में कोई पा सकता है? वे हो गयीं सतयुग की बातें। वे हजार तरह के छिद्रान्वेषण करेंगे। वे हजार तरह के उपाय निकालेंगे कि सिद्ध कर दें कि इसने कुछ पाया नहीं।

अगर वे असफल हुए–जो कि वे असफल होंगे–अगर पाया है, तो कोई सिद्ध करने का उपाय नहीं। न आचरण से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न व्यवहार से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न कपड़े-लत्तों से, न खाने-पीने से, फिर कोई चीज से तुम सिद्ध नहीं कर सकते कि नहीं पाया। जिसने पा लिया है, उसकी रोशनी सब तरफ से दिखाई पड़ेगी।

तब क्या करोगे? तब दूसरा उपाय है कि तुम्हारे बीच जो सचमुच सर्वाधिक अहंकार और स्पर्धा से भरे लोग हैं, वे घोषणा करेंगे कि हमने भी पा लिया है। अहंकार पहले तो इनकार करेगा, कि तुम कैसे पा सकते हो मुझ से पहले, जब मैं मौजूद हूं? जब देखेगा कि कोई उपाय असिद्ध करने का नहीं है, तो अहंकार दूसरी घोषणा करेगा कि मैंने भी पा लिया है।

तो नानक कहते हैं कि क्षुद्र लोग भी–सब से बड़ी क्षुद्रता अहंकार है, और कोई क्षुद्रता नहीं है–कीड़ों की तरह क्षुद्र लोग भी स्पर्धा से भर जाते हैं। और तब वे झूठी डींगें हांकने लगते हैं।

तो दुनिया में अगर एक सदगुरु होता है, तो कम से कम निन्यान्नबे असदगुरु होते हैं। इसी अनुपात में घटना घटती है। और मजा यह है कि असदगुरु तुम्हें ज्यादा आसानी से आकर्षित कर सकता है, बजाय सदगुरु के। क्योंकि असदगुरु तुम्हारी ही भाषा बोलता है। और असदगुरु तुम्हें भलीभांति पहचानता है। और वही सब करता है जो तुम चाहते हो, जो तुम्हारी भीतरी मनोकांक्षा है। अगर तुम चाहते हो कि हाथ से राख प्रकट हो, तो राख प्रकट करवा देता है। अगर तुम चाहते हो कि ताबीज हाथ में आ जाए आकाश से, तो ताबीज ला देता है।

यही धंधा तुम मदारी का सड़क पर देखते हो, लेकिन जरा भी प्रभावित नहीं होते हो। यही धंधा जब कोई साधु-संत करता है, तब तुम दीवाने हो जाते हो। कि बस, मिल गया सदगुरु! तुम जो चाहते हो; तुम चाहते हो कि बीमारी मिट जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो बेटा पैदा हो जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो मुकदमा जीत जाएं, तो आशीर्वाद देता है। तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करता है। इसलिए तुम असदगुरु के पास लाखों की संख्या में इकट्ठे हो जाओगे। क्योंकि वह तुम्हारी ही जिंदगी का हिस्सा है।

सदगुरु को पहचानना तुम्हें मुश्किल है। क्योंकि उसकी पहचान का तो मतलब ही है, जीवन में रूपांतरण! तुम बदलो। असदगुरु तुम्हें कुछ देगा। सदगुरु तो तुमसे सब छीन लेगा। असदगुरु तो तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करेगा।

और मजा यह है जिंदगी का–और गणित बड़ा महत्वपूर्ण है–अगर तुम भी बैठ जाओ धूनी रमा कर, और जो भी आएं सब को आशीर्वाद देते जाओ, तो कम से कम पचास प्रतिशत आशीर्वाद तो सही होंगे ही। यह तो सीधा गणित है। इसमें कुछ करने जाने की जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ आशीर्वाद देते जाओ। जो भी मुकदमे वाला आए, कहो कि जीतोगे। पचास प्रतिशत तो जीतेंगे ही। वे तुम्हारे बिना आशीर्वाद के भी जीतते। लेकिन अब तुम्हारी तरफ ध्यान रखेंगे कि तुम्हारे आशीर्वाद के कारण जीते हैं। जो पचास हार जाएंगे, वे किसी दूसरे बाबा को, किसी दूसरे गुरु को खोजेंगे। क्योंकि यह उनके काम का नहीं है। लेकिन जो पचास जीत जाएंगे, वे तुम्हारे पास आते रहेंगे। और इन पचास की जो भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होगी, जब नया कोई ग्राहक आएगा, तो यह सारी भीड़ उसको प्रभावित करेगी। कि इतने लोगों की घटनाएं घट चुकी हैं–कोई मुकदमा जीत गया, किसी की खोयी पत्नी मिल गयी, किसी का प्रेम सफल हुआ, किसी की बीमारी चली गयी, किसी का बच्चा बच गया, किसी का कुछ हुआ। इनकी भीड़ तुम पाओगे। क्योंकि जो हार गए हैं, वे तो कहीं और जा चुके हैं। वे तो वहां रुकेंगे जहां जीतेंगे। वे भी किसी के पास कभी न कभी रुक जाएंगे। संयोग कहीं न कहीं घटेगा। कहीं न कहीं उनकी भी वासना पूरी होगी, वहां रुकेंगे।

तुम वासना से गुरु को पहचानते हो। तब तुम भटकोगे। क्योंकि गुरु का वासना से क्या लेना-देना है? गुरु तुम्हारी वासनाएं पूरी करने को नहीं है, तुम्हें जगाने को है। और जगाने का मतलब है, तुम्हारी वासनाएं जितनी टूट जाएं उतना बेहतर। उसकी उत्सुकता तुम्हारी बीमारी, तुम्हारी अदालत, तुम्हारी पत्नी और बच्चों में नहीं है। उसकी उत्सुकता तुम में और तुम्हारे परमात्मा में है। और वह रास्ता वासना का नहीं है, वह रास्ता तो निर्वासना का है। वह तुम्हें इसलिए आकर्षित कर भी नहीं पाएगा।

इसलिए अक्सर तुम भीड़ पाओगे। जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना। क्योंकि भीड़ अक्सर गलत जगह होती है। सही जगह तो तुम बहुत थोड़े लोगों को पाओगे। क्योंकि थोड़े लोगों को भी होना वहां मुश्किल है। वहां तुम चुने हुओं को पाओगे कि जिनकी आकांक्षा परमात्मा की है। वहां तुम भीड़ न पाओगे। क्योंकि भीड़ तो वासनाग्रस्त लोगों की है।

नानक कहते हैं, फिर झूठे लोग झूठी डींगें हांकने लगते हैं।

और मजा यह है कि उनकी डींगें भी सिद्ध होती मालूम पड़ती हैं। क्योंकि जीवन का ढंग ऐसा है। पचास प्रतिशत तो सभी सही हो जाएंगे। और जो गलत सिद्ध होते हैं, वे कहीं और चले जाते हैं। उन्हें तुम पाओगे न। जो साईं बाबा के पास गलत हुआ, वह किसी और साईं बाबा के पास होगा। जो सही हुआ, वह वहां रुकेगा। वही तुम को मिलेगा। वह खबर देगा कि मेरा यह हो गया है। मुझे यह लाभ हुआ, मुझे यह लाभ हुआ। उनकी भीड़ बढ़ती जाएगी। एक भीतरी गणित से चीजें फैलने लगती हैं। और जब तुम देखोगे हजारों लोगों को लाभ हुआ है…और तुम भी वासना के ही प्रेरित वहां तक आए हो। तुम भी श्रद्धा करते हो। और बहुत बार तुम्हारी श्रद्धा के कारण भी परिणाम होते हैं। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ बीमारियों में से सत्तर बीमारियां मानसिक हैं। अगर तुम्हें पूरा भरोसा आ जाए कि ठीक हो जाएंगे, तो ठीक हो जाती हैं।

बहुत से अस्पतालों में प्रयोग किए गए हैं। वैज्ञानिक उस प्रयोग को प्लस्बो कहते हैं, झूठी दवा। तो अगर एक ही बीमारी के दस मरीज हों, तो पांच को असली दवा देते हैं, पांच को सिर्फ पानी देते हैं। और मजा यह है कि तीन दवा वालों में से भी ठीक हो जाते हैं, तीन पानी पीने वालों में से भी ठीक हो जाते हैं। करो क्या? इसलिए तो इतनी पैथी चलती हैं दुनिया में। एलोपैथी है, आयुर्वेदिक है, हकीमी है, नैचरोपैथी है। हजार चीजें चलती हैं। और सभी से लोगों को लाभ होता है; नहीं तो चलेंगी कैसे?

ऐसा लगता है, दवा से आदमी कम ठीक होते हैं, श्रद्धा से ज्यादा ठीक होते हैं। वही दवा छोटा डाक्टर तुम्हें दे, जिस पर तुम्हें भरोसा नहीं, अभी-अभी मेडिकल कालेज से आया है, काम न करेगी। अगर तुम्हारा ही बेटा हो मेडिकल कालेज से लौटा, तो बिलकुल काम न करेगी। क्योंकि बाप बेटे पर कभी भरोसा कर सकता है? वही दवा बड़ा डाक्टर दे, और बड़ा डाक्टर यानी बड़ी फीस ले। जितनी ज्यादा फीस ले, उतना भरोसा आता है, क्योंकि उतना बड़ा डाक्टर है। ठीक होना ही पड़ेगा अब। अब इसके आगे जाने का कोई उपाय नहीं। आधा इलाज तो डाक्टर पर भरोसे से होता है। जिस डाक्टर पर तुम्हें भरोसा है, उस डाक्टर का इलाज काम करता है। जिस पर भरोसा नहीं, काम नहीं करता।

इसलिए डाक्टर अपने आफिस में अपने सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। बीमारों के लिए वह भी दवा है। जितने ज्यादा सर्टिफिकेट–लंदन से कोई सर्टिफिकेट है तो बात ही और! सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। उनको देख कर मरीज की काफी बीमारी तो ठीक हो जाती है।
 
तुमने कभी खयाल किया है कि जब डाक्टर तुम्हें परीक्षण करता है, तभी तुम्हारी आधी बीमारी ठीक हो जाती है। परीक्षण करते-करते। अभी उसने कोई दवा नहीं दी। नाड़ी देखी, स्टेथोस्कोप लगाया, ब्लडप्रेशर लिया, अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे कि काफी तो तुम ठीक ही हो गए। दर्द कम है, बुखार उतर रहा है।

भीड़ भरोसा दिलाती है। भरोसे से परिणाम होते हैं। और बीच में जो झूठा आदमी बैठा है, वह मुफ्त लाभ ले रहा है। तुम अपने ही मन के खेल में पड़े हो।

एक ओंकार सतनाम 

ओशो 

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