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Monday, November 16, 2015

सहज होओ, स्वाभाविक होओ, स्वस्फूर्त जीवन जीओ

झेन फकीर बोकोजू के पास एक आदमी ने आकर कहा कि तुम अपने गुरु की बड़ी तारीफ करते हो, तुम्हारे गुरु में खूबी क्या है? मेरा गुरु चमत्कारी है! अब अपनी आंखों देखा चमत्कार तुम्हें बताता हूं। एक दिन गुरु ने मुझसे कहा कि पूर आई नदी में तू उस तरफ चला जा! नाव में बैठकर मैं उस तरफ गया। मुझे एक कोरा कागज दे दिया और कहा कि उस तरफ तू कोरा कागज ऊंचा करके खड़ा हो जाना, और मैं इस किनारे से लिखूंगा अपनी कलम से और तेरे कागज पर अक्षर उभरेंगे। और उभरे! गुरु उस तरफ, कोई आधा मील फासले पर, मैं इस तरफ, गुरु ने लिखा वहां से अपनी कलम से और अक्षर उभरे मेरे कागज पर। ऐसा चमत्कार गुरु ने मुझे दिखाया। तुम्हारे गुरु ने क्या किया, तुम्हारे गुरु का चमत्कार क्या है? बोकोजू ने जो वचन कहा, सोने के अक्षरों में लिख लेने जैसा है, हृदय में खोद लेने जैसा है। बोकोजू ने कहा कि मेरे गुरु का चमत्कार यह है कि वे चमत्कार कर सकते हैं और नहीं करते।

चमत्कार कर सकते हैं और नहीं करते! इतनी उनकी सामर्थ्य है! कठिन सामर्थ्य है। चमत्कार तुम कर सको और न करो! जरासी कला आ जाएगी, दिखाने का मोह आता है, प्रदर्शन का भाव जगता है, क्योंकि अहंकार की पूजा तो तभी होगी जब प्रदर्शन होगा। हाथ से राख निकाल सको, फिर तुमसे न रुका जाएगा। फिर तुम चलोगे तलाश में कि मिलें कोई बुद्धू जो राख देखने को उत्सुक हों, हाथ से राख गिरे और वे चमत्कार मानें। तुम कुछ छोटा कुछ खेल कर पाओ, कुछ मदारीगिरी कर पाओ, तो बस करना शुरू कर दोगे। लोग ऐसे मूढ़ हैं कि व्यर्थ में लेकिन अप्राकृतिक में उनकी उत्सुकता है, सहज स्वाभाविक में नहीं।

बोकोजू ने यह भी कहा कि मेरे गुरु से मैंने पूछा था कि आपके जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है? तो मेरे गुरु ने कहा कि जब मुझे भूख लगती तब मैं भोजन करता और जब मुझे प्यास लगती तब मैं पानी पीता और जब मुझे नींद आ जाती तो मैं सो जाता। इतना ही उत्तर उन्होंने मुझे दिया था और अब मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं है।

मैं भी अपने अनुभव से तुमसे कहता हूं कि सहज और स्वाभाविक होने से बड़ा चमत्कार और कोई नहीं है। मगर वह दुनिया में दिखाई नहीं पड़ता सहज और स्वाभाविक होना। अस्वाभाविक दिखाई पड़ता है, असहज दिखाई पड़ता है। इसलिए जो चीजें जितनी अस्वाभाविक हैं उतनी मूल्यवान हो गईं। उपवास मूल्यवान हो गया, क्योंकि भूख सहज है, स्वाभाविक है। बिना भूख के आदमी जी ही नहीं सकता। बिना भोजन के आदमी जी नहीं सकता। भूख स्वाभाविक है, भोजन अनिवार्य है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। इसीलिए सारी दुनिया में उपवास का महत्व हो गया। क्योंकि उपवास उलटा है। जो आदमी उपवास करे, उसके प्रति तुम्हारे मन में सम्मान पैदा होता है। क्यों? क्योंकि वह प्रकृति के प्रतिकूल जा रहा है। सिर के बल खड़ा हो रहा है। इसलिए उपवासी जगह जगह पूजे जाते हैं। कौन कितना बड़ा उपवासी है उतना बड़ा महात्मा है। कर रहा है केवल शरीर के साथ अत्याचार; कर रहा है केवल आत्महिंसा; सता रहा है अपने को, मार रहा है अपने को, आत्मघाती है, लेकिन पंडित पुरोहितों ने तुम्हें तरकीबें दी हैं। ये ईंटें हैं जिनसे अहंकार की दीवाल मजबूत होती चली जाती है, बड़ी होती चली जाती है।

एक तो भूख, दूसरी कामवासना सहज स्वाभाविक है। क्योंकि उससे ही तो मनुष्य पैदा हुआ है। उसको भी पकड़ लिया पंडित पुरोहितों ने। दबाओ कामवासना को! तो ब्रह्मचर्य का बड़ा मूल्य हो गया। अपनी कामवासना को बिलकुल दबा डालो तो तुम महान पुरुष हो गए। दबी रहेगी भीतर, आग की तरह सुलगेगी भीतर, लेकिन दबा दो गहरे में, अपने अचेतन में। सड़ाएगी तुम्हें वहां से, तुम्हारी आत्मा को गंदा करेगी—जितनी दबी हुई कामवासना आत्मा को गंदा करती है और परमात्मा से दूर करती है व्यक्ति को, उतनी कोई और चीज नहीं। क्योंकि जिसने कामवासना को दबाया है, वह चौबीस घंटे कामवासना ही कामवासना से भरा रहता है। जिसने उपवास किया है, वह चौबीस घंटे भोजन ही भोजन की सोचता है, रात सपने भी भोजन के देखता है।

तुम्हारे साधु संन्यासी दो ही तरह के सपने देखते हैं भोजन के और कामवासना के। या तो सुंदर स्त्रियां उन्हें सताती हैं सपने में…अब किस सुंदर स्त्री को पड़ी है? और यह कोई नई बात नहीं है कि आजकल के कलियुग के साधुओं के संबंध में सच हो, सतयुग के साधुओं के साथ भी यही सच था और भी ज्यादा सच था। अप्सराएं सताती थीं उनको आकाश से उतर उतर कर। किस अप्सरा को पड़ी है! ये रूखे सूखे कंकाल ऋषिमुनि, वर्षों से नहाए नहीं, धोए नहीं, लक्स टायलेट साबुन का नाम नहीं सुना, इनके पास आओ तो बदबू आए, ये पसीने, धूल धवांस से भरे और इतने से इनकी तृप्ती नहीं होती और राख लपेटे, भभूत रमाए; इनके बालों में जितनी जूं हों उतनी किसी के बालों में नहीं…जब पशु पक्षी तक घोंसला बना लेते हैं इनके बालों में तो जूंए इत्यादि की तो गिनती क्या करनी, पिस्सू इत्यादि का तो हिसाब ही क्या लगाना! जब पक्षी में घोंसला बना लेते हों और ये टस से मस नहीं होते, फिर कहना ही क्या! इन पर स्वर्ग की अप्सराएं मोहित हो जाती हैं। इनमें क्या देखकर मोहित होती होंगी? उर्वशी चली, नाचती, सोलह शृंगार करके, ये मुनि महाराज को सताने!

न तो कहीं कोई अप्सराएं हैं, न कहीं कोई अप्सराएं किसी को सताने आती हैं। ये इनके ही अचेतन में दबाए गए भाव हैं। इतने दबा लिए हैं कि अब ये खुली आंख सपना देख सकते हैं। कम दबाओ तो बंद आंख सपना देख सकते हो, ज्यादा दबाओ तो खुली आंख सपना देख सकते हो। ये एक तरह के विभ्रम में पड़ गए हैं। ये संसार की माया तो छोड़ आए हैं, कहते हैं, लेकिन अब इन्होंने अपना माया जाल खड़ा कर लिया है। ये सपना देख रहे हैं इंद्र के सिंहासन पर होने का। और इसलिए ये इस तरह की परिकल्पना कर रहे हैं कि शायद इंद्र ने अपने सिंहासन को डांवाडोल होते देखकर अप्सराओं को भेजा है भ्रष्ट करने।

इन्हीं ऋषि मुनियों ने लिखा है: स्त्री नरक का द्वार है। अनुभव से लिखा होगा। क्योंकि ऋषि मुनि तो अनुभव की बात कहते हैं। गए होंगे नर्क में स्त्री के द्वार से। कैसे इन्होंने जाना कि स्त्री नरक का द्वार है? ऋषि मुनि स्वर्ग जाते हैं, इनको नर्क का अनुभव कैसे हुआ? इन्होंने इसी जिंदगी में नरक देख लिया है। स्त्री को दबाया है तो उसने नरक खड़ा कर दिया है। स्त्री पुरुष को दबाए तो पुरुष नरक का द्वार हो जाएगा।

मैंने सुना है…आगे की कहानी है…हेमामालिनी मरी। वैतरणी नदी पर पहुंची। चित्रगुप्त महाराज खड़े हैं प्रतीक्षा में। कहा: बिटिया, तख्ती लगी है, ठीक से पढ़ लो! बड़ी तख्ती लगी थी, जिस पर दो हड्डियों का क्रास बना और ऊपर एक आदमी की खोपड़ी और अंग्रेजी में लिखा: डेंजर और हिंदी में लिखा: खतरा। सावधान! जैसा स्प्रिट की बोतलों पर लिखा रहता है। या जहां बिजली का बहुत वोल्टेज होता है वहां लिखा रहता है। नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है कि वैतरणी पार करते समय एक बात ध्यान रहे: उनके लिए जिनके मन में कामवासना न उठे, वैतरणी छिछली है। घुटनों से ज्यादा पानी नहीं। लेकिन जैसे ही कामवासना उठी कि वैतरणी गहरी हो जाती है। एकदम डुबकी खा जाता आदमी! और डुबकी खाई कि गए नरक! तो कहा: बिटिया, ठीक से पढ़ ले! अनेक डूब गए हैं। हेमामालिनी ने कहा: आप फिक्र न करो। हेमामालिनी चली वैतरणी पार करने। आधी वैतरणी पार हो गई, तब अचानक धड़ाम की आवाज आई; पीछे लौटकर देखा, चित्रगुप्त महाराज डुबकी खा रहे हैं! उसने पूछा: अरे बापू, क्या हुआ? चित्रगुप्त महाराज ने कहा: ठीक रहा है शास्त्रों में कि स्त्री नरक का द्वार है। मार गए डुबकी, चले गए नरक!

जितना दबाओगे उतना उभरने की संभावना है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। और दमन अहंकार को परिपुष्ट करने की सबसे बड़ी प्रक्रिया है। सहज होओ, स्वाभाविक होओ, स्वस्फूर्त जीवन जीओ। प्रकृति के अनुकूल, सब अर्थों में। अपने की जबर्दस्ती सता कर स्वर्ग न ले जा सकोगे। परमात्मा आत्म हिंसकों को सम्मान नहीं दे सकता। कम से कम परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया है उसका सम्मान करो। उस जीवन में ही तो परमात्मा छिपा है।

सपना यह संसार 


ओशो 
ओशो 


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