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Tuesday, November 10, 2015

भगवान, क्या आप पतियों को सच ही निपट गधे मानते हैं?

सूरजमल, मैं तो ऐसा कैसे मान सकता हूं! मेरे आधे संन्यासी पति हैं। इतने संन्यासियों को नाराज नहीं कर सकता।

नहीं फिर सभी पति गधे भी नहीं होते। और न सभी गधे पति होते हैं। लेकिन पत्नियां ऐसा ही समझती हैं।

मैं तो जो उस दिन कह रहा था, वह पत्नियों की दृष्टि तुम्हें समझा रहा था। अपनी तरफ से कुछ नहीं कह रहा था। पत्नियां ऐसा ही समझती हैं कि सब पति गधे होते हैं। कहतीं नहीं! या कभी कभी प्रकरांतर से कहती भी है।
पति पत्नी से कह रहा है, अब समझाओ अपने लाड़ले को! जिद्द कर रहा है कि गधे की पीठ पर बैठकर सवारी करेगा। पत्नी ने कहा, तो बिठाकर अपनी पीठ पर घुमा क्यों नहीं देते?

सीधे नहीं कहती। परोक्ष। सीधे तो कहती है: पति परमात्मा। कि मैं आपके चरणों की दासी। मगर भीतर भलीभांति जानती हैं कि चरणों के दास। पत्नियां होशियार हैं। कहती हैं चरणों की दासी और बनाए रखती हैं चरणों का दास।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी चिट्ठी लिख रही थी। चिट्ठी पूरी हुई तो उसके बेटे ने कहा कि लाओ, मम्मी, मैं जाकर पोस्ट आफिस डाल आऊं। उसने कहा कि नहीं बेटा, देखते नहीं, बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही है। ऐसे में तो गधे भी छिप जाते हैं। सड़क पर गधा तक भी दिखाई नहीं दे रहा है, कुत्ते तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। ऐसे धुआंधार पानी में और तू चिट्ठी डालने जाएगा? नहीं, ठहर! तेरे पापा को आने दे, वह डाल आएंगे।

चंदूलाल की पत्नी कविता करती है। कवि सम्मेलन है और चंदूलाल की पत्नी कविता पढ़ रही है, और बड़ी हूट की जा रही है। लोग शोरगुल मचा रहे हैं, जूते पटक रहे हैं, हू हल्ला कर रहे हैं। चंदूलाल भी पीछे से खड़े बहुत बेचैन हो रहे हैं। वह बार बार पीछे से कहते हैं, अपनी पत्नी से कि मुन्नू की मां, अरे, वह कविता क्यों नहीं पढ़तीं गधे के सिर पर कितने सींग? हास्य रस की कविता है। चंदूलाल सोच रहे हैं कि वह कविता पढ़े यह, तो अभी प्रभाव बढ़ जाए, अभी लोग मस्त हो जाएं; यह हू हल्ला, शोर शराबा, हूटिंग बंद हो जाए। मगर पत्नी परेशान है हूटिंग से और साथ में परेशान है चंदूलाल की इस आवाज से बार बार वह कह रहे हैं पीछे से: मुन्नू की मां, अरे, वह कविता क्यों नहीं पढ़तीं? गधे के सिर पे कितने सींग? आखिर बर्दाश्त क बाहर हो गया मुन्नू की मां के और मुन्नू की मां ने कहा कि मुन्नू के पापा, जरा खड़े हो जाओ, यहां से मुझे दिखाई नहीं पड़ता। सिर ही दिखाई नहीं पड़ता तो गिनती कैसे करूं कि गधे के सिर पर कितने सींग?

ऐसे परोक्ष। प्रत्यक्ष नहीं।

मैं तो पत्नियों का दृष्टिकोण समझा रहा था। लगता है सूरजमल को दुख हुआ। पति होंगे। और सोचा होगा, यह क्या बात हुई है? पति और गधे! पति को तो शास्त्र परमात्मा कहते हैं। पतियों ने ही लिखे होंगे शास्त्र! जरा पत्नियों से पूछकर लिखे होते।

सच तो यह है कि पति और पत्नी, ऐसा नाता बनाना ही एक तरह की मूढ़ता है। प्रेम ठीक, पर्याप्त, नैसर्गिक। बाकी नाते रिश्ते जो हम बनाते हैं, वह व्यावहारिक, सामाजिक, कृत्रिम। संस्थाएं हैं वे, उनका कोई बहुत मूल्य नहीं है।

और उनकी हानि तो स्पष्ट है।

जैसे ही तुमने किसी स्त्री को अपनी पत्नी समझा कि तुम उसकी तरफ देखना बंद कर देते हो। तुम मान ही लेते हो कि वह तुम्हारी चीज वस्तु। कहते हैं: स्त्री धन। इससे ज्यादा और अपमानजनक शब्द क्या होगा? स्त्री को और धन! और जैसे ही कोई किसी को पति मान लेता, बस बात स्वीकृत हो गई। जैसे एक पक्का बंधा हुआ सेवक मिल गया। अब इस पर निर्भर रहा जा सकता है।

प्रेम तो महिमा देता है एक दूसरे को। और यह पति पत्नी का नाता सारी महिमा छीन लेता है। पति पत्नी निरंतर कलह करते रहते हैं। झगड़ते ही रहते हैं। एक दूसरे के गले के पीछे पड़े रहते हैं। यह किस तरह का प्रेम है, जिसमें से कलह ही उपजती है! और जो जीवन में केवल विषाद ही विषाद लाता है!

दिखावा जरूर हम और करते हैं।

पति पत्नी लड़ रहे हों और कोई पड़ोसी आ जाए, एकदम झगड़ा शांत हो जाता है, पत्नी मुस्कुराने लगती है, पति प्रेम से बातें करने लगते हैं अभी एक क्षण पहले मारपीट की नौबत थी!

पड़ोसियों को हम एक चेहरा दिखाते हैं। एक धोखा बांधे रखते हैं। इस धोखे के कारण दुनिया में बड़ी भ्रांति है। प्रत्येक परिवार यही सोचता है कि दूसरे परिवार बड़े शांति और प्रेम से रह रहे हैं। दुख में तो हमीं हैं। भूल में तो हमीं हैं। मगर जिस तरह तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो, वह भी तुम्हें धोखा दे रहे हैं।

इस जगत में लोगों के चेहरे दो हैं। एक उनका असली चेहरा है, जो वे कभी नहीं दिखाते। और एक उनका नकली चेहरा है, वह दिखाते हैं। इस नकली चेहरे के कारण प्रत्येक व्यक्ति राजनैतिक हो गया है।

 मैंने सुना है, होली के दिन थे और गांव के लोगों ने नेताजी को पकड़ लिया गांव के नेताजी। दिल में तो बहुत दिन से लगी थी कि नेताजी को ठिकाने लगाना है नेताजी को कौन ठिकाने नहीं लगाना चाहता! नेताजी की अकड़ बर्दाश्त के बाहर हो रही थी गांव को। तो दिल खोलकर लोगों ने नेताजी के मुंह पर रंग नहीं, डामल पोता। दिल खोलकर डामल पोता! और नेताजी भी एक पहुंचे हुए नेताजी! कि वे खीसें निपोर कर हंसते ही रहे! लागों ने भी कहा: है पहुंचा हुआ, है सिद्धपुरुष, है योगी! कि हम डामल पोत रहे हैं, नालियों का कीचड़ पोत रहे हैं इसके चेहरे पर, मगर इसका मुंह है कि हंस ही रहा है!

सांझ को जरा वह देखने गए लोग पास पड़ोस के कि क्या हालत हुई? क्योंकि डामल ऐसा पोता था उन्होंने कि महीना भर तो छूट ही नहीं सकता था। लेकिन देखा तो नेताजी बैठे हैं, चेहरा बिलकुल साफ सुथरा, न कहीं डामल का कोई चिह्न है, न कुछ। तो वे चकित हुए, उन्होंने कहा कि नेताजी, इतने जल्दी आपने डामल कैसे धो डाला? नेताजी ने कोने में पड़ा हुआ मुखौटा दिखलाया, कि वह देखो, जिस पर तुम डामल पोत रहे थे, वह मेरा असली चेहरा नहीं है। वह तो मैं बाहर पहनकर जाता हूं।

प्रत्येक व्यक्ति के मुखौटे हैं। पति पत्नी मुखौटे पहनकर बाहर निकलते हैं, मुखौटे पहनकर बच्चों के सामने प्रगट होते हैं, जब कोई नहीं होता तब सब मुखौटे उतार देते हैं, तब उनके असली चेहरे दिखाई पड़ते हैं। तब तुम बड़े हैरान होओगे कि प्रेम तो कहीं दूर कि ध्वनि भी नहीं मालूम होती। मनुष्य जाति बड़ी अप्रेम की अवस्था में जी रही है। और अप्रेम की अवस्था मनुष्य में मूढ़ता पैदा करती है। प्रेम प्रतिभा लाता है, प्रखार लाता है, चैतन्य को जगाता है। प्रेम तो परमात्मा का प्रसाद है। लेकिन प्रेम में जो लोग जीते हैं, उनके भीतर धूल जम जाती है, जंग खा जाती है, जीवन बोझ हो जाता है।

इस तरह की अब तक की परंपरा रही है।

और अब तक आदमी ने पृथ्वी को खूब नर्क जैसा बना डाला है। भविष्य में हमें किसी और ढंग की व्यवस्था खोजनी होगी। न तो किसी को पत्नी होने की जरूरत है, न पति होने की। प्रेमी होना काफी है। और अगर प्रेम पर्याप्त नहीं है तो कोई और चीज उसको पर्याप्त कर सकती कानून का सहारा कमी को पूरा नहीं कर सकता।

लोग साथ रह रहे हैं कई कारणों से। पत्नियां इसलिए पतियों के साथ हैं क्योंकि उनको हमने आर्थिक रूप से बिलकुल ही पंगु कर दिया है। न शिक्षित होने दिया सदियों से, न इतनी हिम्मत दी और साहस दिया कि वह समाज में खड़ी हो सकें। पति ने डर के कारण कि कहीं पत्नी किसी और के प्रेम में न पड़ जाए, उसे घर में छिपा कर रखा है। उसे परदों की ओट में छिपा कर रखा है। उसे समाज से विदा ही कर दिया है। उसको घर के आंगन में बंद कर दिया है, कारागृह दे दिया है घर क्या है, कारागृह है! हां, कभी कभी उसको लेकर पति निकलता है। वह केवल सजावटी निकलना है। कहीं किसी के यहां शादी हो रही है तो चला जाता है, पत्नी भी गहने इत्यादि पहनकर प्रदर्शनी बनकर पहुंच जाती है। प्रदर्शनी भी पति की ही है वह। क्योंकि वे जो गहने इत्यादि हैं, उससे पता चलता है कि पति कितना धन कमा रहा है, कितना धनी है। पत्नी तो केवल एक माध्यम है पति के धन की प्रदर्शनी का। हां, कभी—कभी सिनेमागृह में और कभी कभी मंदिर में मगर ये सब प्रदर्शनी स्थल हैं। जहां पत्नी को अपनी साड़ियां दिखलानी हैं और अपने गहने दिखलाने हैं और पति को अपनी पत्नी दिखलानी है, और पत्नी पर चढ़े हुए गहने दिखलाने हैं। मगर अन्यथा समाज से स्त्रियों को हमने बिलकुल तोड़ दिया। इतना तोड़ दिया कि उनको मजबूरी में पतियों पर निर्भर होकर रहना पड़ता है। वह कल्पना भी नहीं कर सकतीं पति से अलग होने की।

यह जबर्दस्ती है। इस जबर्दस्ती का नाम प्रेम नहीं है। प्रेम तो तब जब कोई स्वेच्छा के साथ रहे। साथ रहने के आनंद के लिए साथ रहे। हमने हजार कानून बांध दिए हैं। विवाह करते समय हम कोई कानून नहीं अटकाते…दो आदमियों को विवाह करना है, हम एकदम तैयार, बैंडबाजा बजाने लगते हैं। सब बड़े उत्सुक; फूलमालाएं चढ़ाने लगते हैं। अजीब बात है! और अगर किसी को तलाक देना है, तो पुलिस और अदालत और कानून और वकील और इतना लंबा सिलसिला है कि आदमी तीन चार साल उपद्रव, अदालतों के धक्के खाने के बजाय यह सोचता है कि अब पत्नी ही के धक्के खाते रहना बेहतर है, कि पति के ही धक्के खाते रहना बेहतर है। सार क्या है इतने उपद्रव में पड़ने से? और तलाक के बाद पूरे समाज में प्रतिष्ठा गिरती है, सो अलग। कि समझा जाता है कि तुम मनुष्यता से नीचे गिर गए। तलाक! इतना अपमान कौन सहे? झेल लो, जिंदगी कोई बहुत लंबी थोड़े ही है, पचास साल तो गुजर ही गए, बीस पच्चीस साल और जीना है तो किसी तरह गुजार लेंगे जब पचास गुजार दिए तो पच्चीस भी गुजार देंगे।

मैंने सुना है, एक आदमी अपनी पच्चीसवीं सालगिरह मना रहा था विवाह की। पच्चीस साल हो गए थे विवाह हुए। सारे मित्र इकट्ठे, सभी लोग हैरान हुए कि वह आदमी कहां गया? तो उसका एक बहुत निकट का मित्र बाहर आया खोजने, बगीचे में उसे बैठे देखा बड़ा उदास बैठा था! मित्र ने कहा, उदास और तुम और आज के दिन? शुभ घड़ी, पच्चीस वर्ष विवाह के पूरे हुए, हम सब तो तुम्हारे स्वागत में उत्सुक हुए हैं भेंटें लेकर और तुम यहां बैठे हो? उसने कहा कि आज मैं जितना दुखी हूं, उतना संसार में कोई आदमी दुखी नहीं। मित्र ने कहा, मैं समझा नहीं। तो उसने कहा कि सुनो, तुम्हीं कारण हो मेरे दुख के। मित्र और हैरान हुआ! उसने कहा, हद कर रहे हो, मैंने क्या बुराई की तुम्हारी? तो उस पति ने कहा कि आज से पच्चीस साल पहले जब मेरा विवाह हुआ था, विवाह के पंद्रह दिन बाद ही मैं तुम्हारे पास गया था, तुम वकील हो, तुमसे मैंने पूछा था: अगर मैं अपनी पत्नी को मार डालूं तो मेरा क्या होगा? क्योंकि पंद्रह दिन में ही उसने मुझे इस तरह सताया था कि मैं उसे मारने को उतारू हो गया था। तो तुमने मुझे इतना डरवाया, तुमने कहा कि अगर मारोगे तुम उसे, तो पच्चीस साल कम—से—कम सजा होगी। आज मैं उदास हूं, कि काश, मैंने तुम्हारी बात न मानी होती, तो आज में जेल से मुक्त हो गया होता! आज स्वतंत्रता की सांस लेता! आज यह चांद, यह खुली रात, यह तारे आज मुझसे ज्यादा प्रसन्न आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं होता। मगर तुम, तुमने मेरी जिंदगी बरबाद की!

लोग जेल से डर रहे हैं, अदालत से डर रहे हैं, कानून से डर रहे हैं, पुलिस वाले से डर रहे हैं, समाज से डर रहे हैं। फिर बच्चे पैदा हो जाते हैं। फिर बच्चों की फिक्र। फिर बच्चों का मोह। फिर इनका क्या होगा? इस तरह लोग भय के कारण बंधे हैं। सौ मैं निन्यानबे पति पत्नी भय के कारण बंधे हैं। और जहां भय है वहां आनंद कहां? और जहां भय है वहां प्रतिभा का जन्म कैसे होगा?

भय प्रेम से विपरीत अवस्था है। और जिससे हम भयभीत होते हैं, उससे हम घृणा करते हैं। और जिससे हम भयभीत होते हैं, उसको हम दिखाते कुछ और हैं, उसके संबंध में सोचते कुछ और हैं।

अब तक आदमी ने जो जीवन व्यवस्था बनाई है, वह मौलिक रूप से गलत है। भय पर खड़ी है। हमारा धर्म भी भय पर खड़ा है, हमारा भगवान भी भय पर खड़ा है, हमारे मंदिर मस्जिद भी भय पर खड़े हैं, हमारे राष्ट्र, हमारे राज्य भी भय पर खड़े हैं, हमारे परिवार, पति पत्नी, हमारे नाते रिश्ते भी भय पर खड़े हैं हमने भय का एक संसार बसाया है। और अगर हम इस भय में नर्क की तरह सड़ रहे हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
 
दुनिया बदलनी है। एक प्रेम का संसार बनाना है। जिस पर कोई भय आरोपित न किया जाए। प्रेम से ही सच्चा परमात्मा मिलता है। प्रेम से ही दो व्यक्तियों के बीच वह अपूर्व घटना घटती है कि प्रेम धीरे—धीरे प्रार्थना बन जाता है और परमात्मा का द्वार बन जाता है। प्रेम हो तो दुनिया में न हिंदू—मुसलमान—न ईसाई के झगड़े, न उनकी जरूरत। न मंदिर—मस्जिद—गिरजे के झगड़े, न उनकी जरूरत। प्रेम हो तो, न भारत, न पाकिस्तान, न चीन, न जापान देशों की कोई जरूरत। यह सारी पृथ्वी एक हो। और प्रेम हो, लोग लोग जरूर साथ रहेंगे। जरूर लोग जोड़ों में रहेंगे। पुरुष स्त्रियों को प्रेम करेंगे, स्त्रियां पुरुषों को प्रेम करेंगी, लेकिन प्रेम के कारण साथ रहेंगे। और तब गुणवत्ता और होगी। तब अहोभाव होगा और परमात्मा के प्रति एक कृतज्ञता होगी!

सपना यह संसार 

ओशो 

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