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Thursday, November 19, 2015

वृद्धावस्था और समाधी २

बच्चे भविष्य में रहते हैं। अतीत तो बच्चों का कुछ होता ही नहीं जो पीछे लौटकर देखें। पीछे लौटकर देखने को कुछ होता ही नहीं। इसलिए तुम भी अगर याद करोगे, बहुत याद करोगे, तो पीछे ज्यादा से ज्यादा जा सकोगे तीन चार साल की उम्र तक; उसके बाद पीछे नहीं जा सकोगे। क्योंकि तीन चार साल की उम्र तक तुमने पीछे लौटकर देखा ही नहीं था, इसलिए हिसाब नहीं रखा है। तीन चार साल की उम्र तक कोई पीछे लौटकर देखता ही नहीं आगे देखने को इतना है, कौन पीछे लौटकर देखता है! बच्चे के सामने आगे द्वार पर द्वार खुलते चले जाते हैं। बच्चे भविष्यमुखी होते हैं।

और बच्चे ही नहीं, जो समाज नए होते हैं, वे भी भविष्यमुखी होते हैं जैसे अमरीका। अभी बच्चा है। इसलिए भविष्यमुखी है। अभी उम्र ही कोई तीन सौ साल की है। अब तीन सौ साल की क्या गणना, भारत जैसे मुल्क के सामने, जो वैज्ञानिकों के हिसाब से कम से कम दस हजार साल पुरानी संस्कृति का है। और अगर वैज्ञानिकों को छोड़ दें और भारत के पंडितों की सुनें, तो वे तो कहते हैं कोई नब्बे हजार साल पुराना! लेकिन दस हजार साल तो पक्का ही समझो। दस हजार साल का पुराना, बूढ़ा भारत तीन सौ साल की उम्र भी कोई उम्र है! अमरीका आगे की तरफ देखता है, चांदत्तारों की तरफ देखता है, आकाश की तरफ देखता है। भारत? भारत पीछे की तरफ देखता है। भारत का स्वर्णयुग हो चुका, सतयुग हो चुका, बीत चुका रामराज्य सब हो चुका, भारत बूढ़ा हो गया है। सब श्रेष्ठ हो चुका, आगे देखने को कुछ भी नहीं है। आगे सिर्फ दुर्दिन है, दुर्दशा है। रोज हालत बिगड़ती जाती है। आगे से बचना चाहता है। आगे से बचने के लिए एक ही उपाय है कि पीछे की सोचता रहे। कुरेद—कुरेद कर पुरानी स्मृतियों का मजा लेता रहता है।…अब भी तुम बैठे देख रहे हो! हर साल वही रामलीला। तुमने कितनी दफा रामलीला देख ली! कुछ फर्क भी नहीं होता उस रामलीला में।

एक गांव में कुछ लोगों ने फर्क किया था, दंगा फसाद हो गया। रीवा से खबर आई थी कि रीवा कालेज में लड़कों ने सोचा कि रामलीला रामलीला होते होते कितने दिन हो गए, कुछ इसमें नया जोड़ें! कुछ इसको आधुनिक करें! इसको नई शैली दें! तो झगड़ा फसाद हो गया।

नई शैली क्या दोगे? नई शैली यह कि रामचंद्र जी टाई बांधे हुए! सूट बूट पहने हुए! और जब सीता मैया आईं, ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए, तो जनता एकदम खड़ी हो गई! अब यह बहुत हो गया! रामचंद्र जी टाई बांधें, यहां तक भी लोगों ने बर्दाश्त कर लिया था किसी तरह कि चलो ठीक है, एक मजाक है, चलेगा! मगर सीता मैया ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए जब आईं, तो फिर जूते चल गए! फिर कुर्सियां टूट गईं। फिर रामलीला आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि लोगों ने कहा अब पता नहीं आगे और क्या हो? जब शुरुआत यह है, तो आगे हालत खराब होने वाली है।

हम उसी रामलीला को देखते रहते हैं। वे ही राम, वही सीता का चोरी जाना, वही राम का जाकर युद्ध करना, वही सीता को वापस ले आना। दुनिया बदल गई, सब बदल गया, हमारी आंखें पीछे अटकी हैं।

एक गांव में रामलीला हो रही थी। युद्ध खतम हो गया, सीता वापस ले आई गईं, बस पुष्पक विमान पार बैठकर राम, सीता और लक्ष्मण वापस लौटने को हैं अयोध्या…अब पुष्पक विमान क्या? एक रस्सी में एक झूलासा लटकाया हुआ है। मगर इसके पहले कि रामचंद्र जी चढ़ पाएं, कुछ भूल चूक से खींचने वाले ने रस्सी खींच दी, झूला ऊपर उठ गया; उड़ान खटोला जा चुका, लक्ष्मण जी और रामचंद्र जी सीता मैया, तीनों ऊपर की तरफ देखते रह गए अब क्या करें? गांव के छोटे छोटे बच्चे थे जो ये बने थे, लक्ष्मण ने कहा: बड़े भैया, आपके पास टाइम टेबल अगर हो तो देखकर बताएं कि दूसरा विमान कब छूटेगा? टाइम टेबल! आखिर बच्चा तो आज का ही है! उसने सोचा कि जैसे रेलगाड़ी का टाइम टेबल होता है…एक गाड़ी छूट गई, कोई बात नहीं…तो अब यह पुष्पक विमान तो गया, अब दूसरा कब छूटेगा? कभी कभी ऐसी छोटी—मोटी नई बातें हो जाती हैं अन्यथा तो राम कथा वही की वही चलती रहती है, लोग देखते रहते हैं। लोग गुणगान करते रहते हैं। लोग अभी भी प्रतीक्षा करते हैं कि रामराज्य आ जाए!

हमारे पास भविष्य नहीं। अमरीका के पास अतीत नहीं।

बच्चों के साथ भी यही होता है, समाजों के साथ भी, सभ्यताओं के साथ भी, राष्ट्रों के साथ भी। बच्चे भविष्य में देखते हैं और बूढ़े अतीत में देखते हैं। बूढ़ा आदमी बैठकर अपनी आरामकुर्सी पर सोचा करता है: वे दिन जब वह डिप्टी कलेक्टर था! अहह! क्या दिन थे वे भी साहबियत के! जहां से निकल जाओ, वहीं नमस्कार नमस्कार हो जाता था! सब याद आते हैं वे दिन, बड़े इत्र सुगंध से भरे। सम्मान, सत्कार, डालियां सजी हुई आती थीं। आम के मौसम में आम चले आ रहे हैं। दिन थे मौज के! आगे देखे भी तो क्या? आगे देखने को कुछ है नहीं। आगे तो सब सन्नाटा है। मौत की पगध्वनि सुनाई पड़ रही है। मौत को देखना कौन चाहता है! पीछे की सोचता है कि क्या दिन थे! रुपए का बत्तीस सेर दूध मिलता था, सोलह सेर घी मिलता था, अहा!. ..अब फिर से स्वाद और चटखारे ले लेता है। दिल बाग बाग हो जाता है। फिर सुगंध आने लगती है पुराने दिनों की। ऐसे अपने को भरमाए रखता है। बूढ़ा अतीत में जीता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं: जिस दिन से तुम अतीत के संबंध में ज्यादा विचार करने लगो, समझ लेना कि बूढ़े हो गए। बुढ़ापे की यह मनोवैज्ञानिक परिभाषा है। जिस दिन से तुम्हें अतीत के ज्यादा विचार आने लगें और तुम पीछे की बातें करने लगो, कि वे दिन, अब क्या रखा है, अब दुनिया वह दुनिया न रही!

अमरीका का एक बहुत बड़ा न्यायशास्त्री पेरिस गया था। पचास साल पहले भी वे पेरिस आए थे, पति पत्नी दोनों, हनीमून मनाने आए थे। पचास साल बाद एक जिज्ञासा फिर मन में उठी कि मरने के पहले एक बार पेरिस और देख लें। क्योंकि पेरिस में जो देखा था पचास साल पहले, फिर वैसा कहीं न देखने मिला! पचास साल बाद बूढ़े हो गए हैं अब वे; पति अस्सी साल का है, पत्नी पचहत्तर साल की है; जिंदगी बह गई, गंगा की धार में बहुत पानी बह गया है; पचास साल लंबा वक्त होता है पचास साल बाद पेरिस आए, बहुत चौंका बूढ़ा! उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब पेरिस वैसा पेरिस नहीं मालूम होता! वह बात नहीं रही अब! पत्नी हंसने लगी और उसने कहा, पेरिस तो अब भी पेरिस है जरा नए नए जोड़ों की नजरों से देखो हम बूढ़े हो गए हैं। अब हम हम नहीं हैं। पेरिस तो अब भी पेरिस है। जो सुहागरात मनाने आए हैं, उनसे पूछो। अब हम पचास साल जीकर आए हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा आगे जीने को, अब जीने को भी क्या है?

मगर फिर भी उन्होंने कोशिश की कि एक बार फिर से पुनरुज्जीवित कर लें। उसी होटल में ठहरे जिस होटल में पचास साल पहले ठहरे थे उसी कमरे को मांगा कि चाहे जो कीमत लगे। खाली करवाना पड़ा, दूसरा यात्री उसमें ठहरा था, लेकिन उसको रिश्वत देकर खाली करवाया कि हम आए ही इसीलिए हैं, उसी कमरे में ठहरेंगे। उसी खिड़की से दृश्य देखेंगे। वही भोजन, वही समय। रात जब दोनों सोने के करीब आए तो पत्नी ने कहा कि और तुम भूल गए; उस रात तुमने मुझे किस तरह आलिंगनबद्ध करके चूमा था? कमरा तो वही है, चूमोगे नहीं? उसने कहा, अब नहीं मानती तो ठीक है! अभी आया। उसने कहा, कहां जाते हो? तो उसने कहा कि बाथरूम। बाथरूम किसलिए जाते हो? उसने कहा, दांत तो ले आऊं? दांत तो बाथरूम में रख आया हूं। अब पचास साल बीत गए, अब दांत भी अपने न रहे, अब दांत भी सब उधार हो गए, अब ये पोपले सज्जन दांत लगाकर फिर चुंबन लेने जा रहे हैं! यह चुंबन वही होगा? यह कैसे वही हो सकता है! यह सिर्फ अभिनय होगा। थोथा, बासा, मुर्दा। लेकिन लोग अतीत में जीने की चेष्टा करते हैं।

बूढ़े अतीत में जीते हैं।

युवावस्था का मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है: वर्तमान में जीना। शुद्ध वर्तमान में जीना। अगर तुम ठीक से समझो तो इसीलिए हमने बुद्ध महावीर की युवा मूर्तियां बनाई हैं क्योंकि वे शुद्ध वर्तमान में जिए। युवा जिनको हम कहते हैं, वे भी वहां शुद्ध वर्तमान में जीते हैं? शुद्ध युवा सिवाय बुद्ध महावीर को कोई होता नहीं। हमारा युवक भी पीछे देखता है। वह भी कहता है, बचपन के दिन बड़े सुंदर थे। हमारा युवक भी भविष्य में देखता है। वह सोचता है, अगले साल बढ़ती होगी, बड़ी नौकरी मिलेगी। हमारा युवक भी कहां युवक होता है? ठीक—ठीक आध्यात्मिक अर्थों में युवा नहीं होता। कटा कटा होता है। आधा अतीत, आधा भविष्य। थोड़ा पीछे, थोड़ा आगे। बंटा बंटा होता है। खंडित होता है। इसलिए बेचैन भी होता है। उसमें तनाव भी होता है बहुत।

बुद्ध जैसे व्यक्ति, कबीर नानक पलटू जैसे व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। न कोई अतीत है, न पीछे की कोई याद है। धूल धवांस इकट्ठी ही नहीं करते ऐसे लोग। न कोई भविष्य है, न भविष्य की कोई चिंता है। कूड़ा करकट में रस ही नहीं लेते ऐसे लोग। यह क्षण, बस यह शुद्ध क्षण पर्याप्त है। इस क्षण के आर—पार कुछ भी नहीं है। इस क्षण में डुबकी मारते हैं वही समाधि ही। शुद्ध वर्तमान में डूब जाना समाधि है। अतीत में रहना मन में रहना; भविष्य में रहना मन में रहना। ये मन के रहने के ढंग हैं अतीत और भविष्य। वर्तमान में, शुद्ध वर्तमान में डूब जाना…जरा एक क्षण को अनुभव करो! जैसे बस यही क्षण है। मैं हूं, तुम हो, ये वृक्ष हैं, ये पक्षियों की चहचहाहट है, ये सन्नाटा है; बस यह क्षणमात्र, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में न पीछे की कोई याद है, न आगे का कोई हिसाब है, स्मृति छूट गई, फिर इस अंतराल में शाश्वत की प्रतीति होने लगेगी। यही अंतराल समाधि है।

नहीं रामकृष्ण, चिंता न करो! अभी भी भीतर तो वही जीवनधारा है, जो कल थी और कल रहेगी। दौड़ नहीं सकते अब पुराने ढंग से, नाच नहीं सकते अब पुराने ढंग से चिंता न करो! बैठ कर ही मस्त हुआ जा सकता है। वर्तमान में हो जाओ, मस्त हो जाओगे। वर्तमान में हो जाओ, बेहोश भी हो जाओगे, होश में भी आ जाओगे। वही समाधि है।

सपना यह  संसार 

ओशो 


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