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Sunday, December 6, 2015

काम आलिंगन में आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो

कई कारणों से काम कृत्‍य गहन परितृप्‍ति बन सकता है और वह तुम्‍हें तुम्‍हारी अखंडता पर, स्‍वभाविक और प्रामाणिक जीवन पर वापस पहुंचा सकता है। उन कारणों को समझना होगा।

एक कारण यह है कि काम कृत्‍य समग्र कृत्‍य है। इसमें तुम अपने मन से बिलकुल अलग हो जाते हो। छूट जाते हो। यही कारण है कि कामवासना से इतना डर लगता है। तुम्‍हारा तादात्‍म्‍य मन के साथ है और काम अ-मन का कृत्‍य है। उस कृत्‍य में उतरते ही तुम बुद्धि-विहीन हो जाते हो। उसमे बुद्धि काम नहीं करती। उसमे तर्क की जगह नहीं है। कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मानसिक प्रक्रिया चलती है तो काम कृत्‍य सच्‍चा और प्रामाणिक नहीं हो सकता। तब आर्गाज्‍म संभव नहीं है। गहन परितृप्‍ति संभव नहीं है। तब काम-कृत्‍य उथला हो जाता है। मानसिक कृत्‍य हो जाता है। ऐसा ही हो गया है।

सारी दुनिया में कामवासना की इतनी दौड़ है, काम की इतनी खोज है, उसका कारण यह नहीं है कि दुनिया ज्‍यादा कामुक हो गई है। उसका कारण इतना ही हे कि तुम काम-कृत्‍य को उसकी समग्रता में नहीं भोग पाते हो। इसीलिए कामवासना की इतनी दौड़ है। यह दौड़ बताती है कि सच्‍चा काम खो गया है। और उसकी जगह नकली काम हावी हो गया है। सारा आधुनिक चित कामुक हो गया है। क्‍योंकि काम कृत्‍य ही खो गया है। काम कृत्‍य भी मानसिक कृत्‍य बन गया है। काम मन में चलता रहता है और तुम उसके संबंध में सोचते रहते हो।

मेरे पास अनेक लोग आते है और कहते है कि हम काम के संबंध में सोच-विचार करते है, पढ़ते है, चित्र देखते है। अश्‍लील चित्र देखते है। वही उनका कामानंद है, सेक्‍स का शिखर अनुभव है। लेकिन जब काम का असली क्षण आता है तो उन्‍हें अचानक पता चलता है कि उसमे उनकी रूचि नहीं है। यहां तक कि वे उसमे अपने को नापुंसग अनुभव करते है। सोच-विचार के क्षण में ही उन्‍हें काम उर्जा का एहसास होता है। लेकिन जब वे कृत्‍य में उतरना चाहते है तो उन्‍हें पता चलता है कि उसके लिए उनके पास ऊर्जा नहीं है। तब उन्‍हें कामवासना का भी पता नहीं चलता है। उन्‍हें लगता है कि उनका शरीर मुर्दा हो गया है।

उन्‍हें क्‍या हो गया है?यही हो रहा है कि उनका काम-कृत्‍य भी मानसिक हो गया है। वे इसके बारे में सिर्फ सोच विचार कर सकते है। वे कुछ कर नहीं सकते। क्‍योंकि कृत्‍य में तो पूरे का पूरा जाना पड़ता है। और जब भी पूरे होकर कृत्‍य में संलग्‍न होने की बात उठती है। मन बेचैन हो जाता है। क्‍योंकि तब मन मालिक नहीं रह सकता, तब मन नियंत्रण नहीं कर सकता।

तंत्र काम-कृत्‍य को, संभोग को तुम्‍हें अखंड बनाने के लिए उपयोग में लाता है। लेकिन तब तुम्‍हें इसमे बहुत ध्‍यानपूर्वक उतरना होगा। तब तुम्‍हें काम के संबंध में वह सब भूल जाना होगा जो तुमने सुना है, पढ़ा है, जो समाज ने, संगठित धर्मों ने, धर्म गुरूओं ने तुम्‍हें सिखाया है। सब कुछ भूल जाओ। दिया है। और समग्रता से इसमे उतरो। भूल जाओ कि नियंत्रण करना है। नियंत्रण ही बाधा है। उचित है कि तुम उस पर नियंत्रण करने की बजाय अपने को उसके हाथों में छोड़ दो। तुम ही उसके बस में हो जाओ। संभोग में पागल की तरह जाओ। अ-मन की अवस्‍था पागलपन जैसी मालूम पड़ती है। शरीर ही बन जाओ। पशु ही बन जाओ। क्‍योंकि पशु पूर्ण है।

जैसा आधुनिक मनुष्‍य है। उसे पूर्ण बनाने की सबसे सरल संभावना केवल काम में है। सेक्‍स में है, क्‍योंकि काम तुम्‍हारे भीतर गहन जैविक केंद्र है। तुम उससे ही उत्‍पन्‍न हुए हो। तुम्‍हारी प्रत्‍येक कोशिका काम-कोशिका है। तुम्‍हारा समस्‍त शरीर काम-उर्जा की घटना है।

यह पहला सूत्र कहता है: ‘’काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’

इसी में सारा फर्क है, सारा भेद है। तुम्‍हारे काम-कृत्‍य, संभोग महज राहत का, अपने को तनाव-मुक्‍त करने का उपाय है। इसलिए जब तुम संभोग में उतरते हो तो तुम्‍हें बहुत जल्‍दी रहती है। तुम किसी तरह छुटकारा चाहते हो। छुटकारा यह कि जो ऊर्जा का अतिरेक तुम्‍हें पीडित किए है वि निकल जाए और तुम चैन अनुभव करो। लेकिन यह चैन एक तरह की दुर्बलता है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है। उतैजना पैदा करती है। और तुम्‍हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो। और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्‍योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्‍त हो गई उतैजना जाती रही, इसलिए तुम्‍हें विश्राम मालूम पड़ता है।

लेकिन यह विश्राम नकारात्‍मक विश्राम है। अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्‍त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है। और तो भी यह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा। वह आध्‍यात्‍मिक नहीं होगा।

यह पहला सूत्र कहता है कि जल्‍द बाजी मत करो और अंत के लिए उतावले मत बनो, आरंभ में बने रहो। काम-कृत्‍य के दो भाग है: आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्‍यादा विश्राम पूर्ण है। ज्‍यादा उष्‍ण है। लेकिन अंत पर पहुंचने की जल्‍दी मत करो। अंत को बिलकुल भूल जाओ।

तीन संभावनाएं है। दो प्रेमी प्रेम में तीन आकार, ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते है। शायद तुमने इसके बारे में पढ़ा भी होगा। या कोई पुरानी कीमिया, की तस्‍वीर भी देखो। जिसमें एक स्‍त्री और एक पुरूष तीन ज्‍यामितिक आकारों में नग्‍न खड़े है। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है, और तीसरा वर्तुल है। यक अल्केमी और तंत्र की भाषा में काम क्रोध का बहुत पुराना विश्‍लेषण है।

आमतौर से जब तुम संभोग में होते हो तो वहां दो नहीं, चार व्‍यक्‍ति होते है। वही है चतुर्भुज। उसमे चार कोने है, क्‍योंकि तुम दो हिस्‍सों में बंटे हो। तुम्‍हारा एक हिस्‍सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्‍सा भावुक हिस्‍सा है। वैसे ही तुम्‍हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्‍यक्‍ति हो दो नहीं। चार व्‍यक्‍ति प्रेम कर रहे है। यह एक भीड़ है, और इसमें वस्‍तुत: प्रगाढ़ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने है और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम होता है। लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना नहीं है। क्‍योंकि तुम्‍हारा गहन भाग दबा पडा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही है। भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित है। वे दबी छीपी है।

दूसरी कोटी काम मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के कोने और किसी क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्‍मिक क्षण में तुम्‍हारी दुई मिट जाती है। और तुम एक हो जाते है। यह मिलन चतुर्भुजी मिलन से बेहतर है। क्‍योंकि कम से कम एक क्षण के लिए ही सही , एकता सध जाती है। वह एकता तुम्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य देती है। शक्‍ति देती है। तुम फिर युवा और जीवंत अनुभव करते हो।

लेकिन तीसरा मिलन सर्वश्रेष्‍ठ है। और यह तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षण भर के लिए नहीं है, वस्‍तुत: यह मिलन समयातित है। उसमें समय नहीं रहता। और यह मिलन तभी संभव है जब तुम स्‍खलन नहीं खोजते हो। अगर स्‍खलन खोजते हो तो फिर यह त्रिभुजीय मिलन हो जाएगा। क्‍योंकि स्‍खलन होते ही संपर्क का बिंदु मिलन का बिंदू खो जाता है।

आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो। इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें ख्‍याल में लेने जैसी है। पहली बात कि काम कृत्‍य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्‍यम मत बनाओ। संभोग को साधन की तरह मत लो, वह आपने आप में साध्‍य है। उसका कहीं लक्ष्‍य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्‍य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम संभोग के आरंभिक भाग में वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते। क्‍योंकि काम कृत्‍य की प्रकृति ही ऐसी है। कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।

तो वर्तमान में रहो। दो शरीरों के मिलन का सुखा लो, दो आत्‍माओं के मिलने का आनंद लो। और एक दूसरे में खो जाओ। एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्‍हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओं, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक दूसरे से मिलकर एक हो जाओ। उष्‍णता और प्रेम वह स्‍थिति बनाते है जिसमें दो व्‍यक्‍ति एक दूसरे में पिघलकर खो जाते है। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो तो संभोग जल्‍दबाजी का काम हो जाता है। तब तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो। दूसरे में डूब नहीं रहे हो। प्रेम के साथ तुम दूसरे में डूब सकते हो।

आरंभ का यह एक दूसरे में डूब जाना अनेक अंतदृष्‍टियां प्रदान करता है। अगर तुम संभोग को समाप्‍त करने की जल्‍दी नहीं करते हो तो काम-कृत्‍य धीरे-धीरे कामुक कम और आध्‍यात्‍मिक ज्‍यादा हो जाता है। जननेंद्रियों भी एक दूसरे में विलीन हो जाती है। तब दो शरीर ऊर्जाओं के बीच एक गहन मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह सहवास समय के साथ-साथ गहराता जाता है। लेकिन सोच-विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्‍ध कर सके तो तुम्‍हारा कामुक चित अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है।

यह वक्‍तव्‍य विरोधाभासी मालूम होता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है। क्‍योंकि हम सदा से सोचते आए है कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है। तो उसे विपरीत यौन के सदस्‍य को नहीं देखना चाहिए। उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्‍म का ब्रह्मचर्य घटित होता है। जब चित विपरीत यौन के संबंध में सोचने में संबंध में सोचने में संलग्‍न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्‍यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे। क्‍योंकि काम मनुष्‍य की बुनियादी आवश्‍यकता है, गहरी आवश्‍यकता है।

तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्‍टा मत करो, बचना संभव नहीं है। अच्‍छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ों मत प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्वीकार करो।

अगर तुम्‍हारी प्रेमिका या तुम्‍हारी प्रेमी के साथ इस मिलन को अंत की फिक्र किए बिना लंबाया जा सके तो तुम आरंभ में ही बने रहे सकते हो। उतैजना ऊर्जा है और शिखर पर जाकर तुम उसे खो सकते हो। ऊर्जा के खोन से गिरावट आती है। कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो। लेकिन वह उर्जा का अभाव है।

तंत्र तुम्‍हें उच्‍चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे में विलीन होकर एक दूसरे को शक्‍ति प्रदान करते है। तब वे एक वर्तुल बन जाते है। और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वह दोनों एक दूसरे को जीवन ऊर्जा दे रहे है। नव जीवन दे रहे है। इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता है। वरन उसकी वृद्धि होती है। क्‍योंकि विपरीत यौन के साथ संपर्क के द्वारा तुम्‍हारा प्रत्‍येक कोश ऊर्जा से भर जाता है। उसे चुनौती मिलती हे।

यदि स्‍खलन न हो, यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो संभोग ध्‍यान बन जाता है। और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्‍हारा विभाजित व्‍यक्‍तित्‍व अविभाजित हो जाता है। अखंड हो जाता है। चित की सब रूग्‍णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्‍चे हो जाते हो। निर्दोष हो जाते हो।

और एक बार अगर तुम इस निर्दोषता का उपलब्‍ध हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्‍यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्‍हारा यह व्‍यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्‍त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमे नहीं हो। तुम मात्र एक अभिनय कर रहे हो। तुम्‍हें झूठा चेहरा लगाना होगा। क्‍योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्‍यथा संसार तुम्‍हें कुचल देगा, मार डालेगा।

हमने अनेक सच्‍चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्‍योंकि वे सच्‍चे मनुष्‍य की तरह व्‍यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्‍त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया। क्‍योंकि वह भी सच्‍चे मनुष्‍य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्‍यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्‍चे स्‍वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्‍हें फिर रूग्‍ण नहीं कर सकता, विक्षिप्‍त नहीं कर सकता।

‘’काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’

अगर स्‍खलन होता है तो ऊर्जा नष्‍ट होती है। और तब अग्‍नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्‍त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।



विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो 

Monday, November 9, 2015

काम, क्रोध, मद, लोभ

काम का अर्थ है: यह मिले, वह मिले, मिलता ही रहे। जो नहीं है, उसके पीछे दौड़। क्रोध का अर्थ है: तुम्हारी दौड़ में जो भी बाधा पैदा करके, उसके प्रति रोष, उसे मिटा डालने की आकांक्षा। मद का अर्थ है: तुम जो चाहते हो मिल जाए, तो अहंकार, अकड़। और लोभ का अर्थ है: जो मिल गया है, वह और मिले, और मिले। ये सब काम के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। काम में ही बाधा पड़े तो क्रोध, काम पूरा हो जाए तो मद। और पूरे हो जाने पर भी कुछ पूरा नहीं होता। वासना कोई भरती नहीं।

एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया और उस युवक ने कहा कि कैसे परमात्मा को पा सकता हूं? सूफी फकीर ने कहा कि अभी तो मैं जा रहा हूं कुएं पर पानी भरने, तुम मेरे साथ आओ। हो सका तो वहीं उत्तर भी हो जाएगा। मगर एक शर्त खयाल रखना। कसम खाओ। यह पहली कसौटी है कि तुम विद्यार्थी होने के योग्य हो भी या नहीं। मैं कुएं पर कुछ भी करूं, तुम प्रश्न मत उठाना; तुम चुपचाप देखते रहना। तुम्हारा काम निरीक्षण का है, तुम्हारा काम साक्षी का।

साक्षी की शिक्षा! विद्यार्थी भी बड़ा उत्सुक हुआ, क्योंकि साक्षी ही तो सार है। सुना है शास्त्रों में, पढ़ा है शास्त्रों में, ज्ञानियों से जाना है साक्षी ही तो सार है! यह भी अदभुत गुरु है। पहले ही मौके पर बस आखिरी कुंजी देने लगा! चल पड़ा जल्दी उत्सुकता में, आतुर, मस्त कि कुछ हाथ लगने को है। कुएं पर पहुंच कर लेकिन बड़ी निराशा लगी हाथ, क्योंकि वह फकीर पागल मालूम पड़ा। उसने एक बाल्टी निकाली अपने झोले में से, जिसमें पेंदी थी ही नहीं। जब उस विद्यार्थी ने देखा कि बिना पेंदी की बाल्टी…मारे गए! और जब उसने डोरी बांधी और बिना पेंदी की बाल्टी उसने कुएं में डाली, तो बार बार उसके सामने सवाल उठने लगा कि पूछूं कि यह आप क्या कर रहे हैं? लेकिन याद था उसे, कसम खा ली थी कि पूछना मत, सिर्फ साक्षी रहना। यह भी बड़ी झंझट हो गई। जबान पर आ आ जाए सवाल। घोंट दे गर्दन में सवाल को। और वह फकीर पानी भरने लगा बिना पेंदी की बाल्टी से। खूब खड़खड़ाएं कुएं में। जितना वह खड़खड़ाए, उसकी छाती भी खड़खड़ाए विद्यार्थी की, कि मारा! यह कब पानी भरेगा? जब कुएं में पानी में बाल्टी रहे, तब तो भरी हुई मालूम पड़े, जब डूबी रहे पानी में; और जैसे ही वह खींचे कि खाली। ऊपर आ जाए, देखे कि खाली, तो फिर डाले। एक बार, दो बार, दस बार…आखिर भूल गया विद्यार्थी अपनी कसम। उसने कहा कि रुको जी! होश है? यह तो जिंदगी खराब हो जाएगी तुम्हारी और मेरी भी! मैं भी सिके चक्कर में पड़ गया! इस बाल्टी में कभी पानी नहीं भर सकता।

उस गुरु ने कहा: बात खतम हो गई! अब तुम अपने रास्ते लगो। तुम पहला वचन पूरा न कर पाए। बस एक बार और मैं डालने वाला था, बस एक बार और। तुम बस पहुंचते पहुंचते चूक गए, मैं क्या करूं? मैंने तय किया था: ग्यारह बार। दस बर तो हो चुका था। जरा और धीरज रख लेते, बस जरा और! मुझे मालूम है कि बड़ी तकलीफ तुम्हें हो रही थी। पसीना पसीना तुम हो रहे थे। तुम्हारा सब हाल मुझे मालूम है। बाल्टी खड़खड़ा रही, तुम भी खड़खड़ा रहे थे…सब मुझे मालूम है। बाल्टी से ज्यादा परेशान तुम थे। लेकिन अगर एक बार और धीरज रख लिया होता तो मैं तुम्हें शिष्य स्वीकार कर लेता। अब रास्ता नापो!

उसने बाल्टी रखी अपने झोले में और घर वापस लौट गया। विद्यार्थी ने भी सोचा कि हो तो गई गलती…पता नहीं यह क्या देने वाला था! एक ही बार और…खूब चूके! मगर यह आदमी भरोसे का नहीं है। हो सकता है हम और एक बार रहते, और तब भी यह यही कहता: इस आदमी का क्या पक्का! हम बीस बार भी चुप रहते, यह कहता, इक्कीसवीं बार…। इसने कुछ पहले से बताया तो था नहीं कि ग्यारह बार चुप रहना। हजार बार भी अगर हमने धीरज रखा होता तो यह कहता, बस एक…। यह आदमी बड़ा चालबाज है। पागल भी है और चालबाज भी है।

लौट तो गया घर, लेकिन बीच बीच में खयाल आने लगा कि चालबाज कितना ही हो, पागल कितना ही हो, आंखों में उसकी एक मस्ती तो थी ही, जो कहीं और नहीं देखी! उसके चारों तरफ एक आभा मंडल तो था, एक शीतलता तो थी! मैं चूक गया। मुझसे भूल हो गई।

रुक न सका, आधी रात वापस पहुंच गया। एकदम पैर पर गिर पड़ा और कहा: मुझे क्षमा कर दो, मुझसे भूल हो गई। उस फकीर ने कहा: अगर तुम समझ गए हो, समझकर क्षमा मांग रहे हो, समझकर कह रहे हो कि तुम से भूल हो गई, तो पाठ पूरा हो गया।

यही तुम्हारी अब तक कि जिंदगी है। वासना बिना पेंदी की बाल्टी है। इसको संसार के कुएं में डालते रहे, डालते रहो, खड़खड़ाते रहो, हर बार भरी हुई मालूम होगी और जब खींच कर लाओगे घाट तक, खाली हो जाएगी। यह कभी भरने वाली नहीं। यह पहला पाठ। जो मैंने बाल्टी के साथ किया और तुम समझ गए, अब वही अपने साथ करो और समझो। जिस दिन यह बात तुम्हारी समझ में आ जाए, फिर आना, फिर दूसरा पाठ दूंगा। अब अपनी वासना की बाल्टी को रोज रोज देखो डालते हो कुएं में और खाली की खाली लौट आती है।

काम का अर्थ है: अंधी वासना। क्रोध का अर्थ है: तुम्हारी वासना में जो भी बाधा डाले। मद का अर्थ है: अगर कभी भूल चूक से किसी संयोगवशात तुम्हारी बाल्टी भर जाए, तो अहंकार पकड़ता है। और लोभ का अर्थ है: बाल्टी कितनी ही भर जाए, मन कहता है, और। मन कभी और की आवाज बंद करता ही नहीं। मन तो ऐसा समझो जैसे ग्रामोफोन का रिकार्ड है, जिस पर सुई एक ही जगह अटक गई है और वही, और वही, और वही दोहराए चली जाती है।

मैंने सुना है, एक नया हवाई जहाज बना। वह बिना पायलट के उड़ने वाला था। पूरा आटोमैटिक! न उसमें पायलट, न उसमें होस्टेस, न कोई स्टीवर्ट…कोई भी नहीं। बस यात्री। और मशीन ही सब करेगी। सब आटोमैटिक! एक बटन दबाओ, भोजन आए; दूसरी बटन दबाओ, चाय आए। एक बटन दबाओ, फौरन इंटरकाम पर आवाज आए कि कितनी ऊंचाई पर उड़ रहे हो, मंजिल कितनी दूर है, कितनी देर में पहुंच जाओगे।

यात्री बड़े खुश थे। लोगों ने बड़ी मुश्किल मुश्किल से टिकटें पाई थीं। बड़ी भीड़ मची थी कौन सबसे पहले उड़ता है बिना पायलट के हवाई जहाज में! हवाई जहाज उड़ा। हजारों फीट ऊपर उठ गया। तब इंटरकाम पर आवाज आई कि निश्चिंत हो जाइए। अपनी अपनी बेल्ट खोल लीजिए। विश्राम करिए। जरा भी चिंता मत रखिए कि पायलट नहीं है। कोई भूल कभी नहीं हो सकती, कोई भूल कभी नहीं हो सकती, कोई भूल कभी नहीं हो सकती, कोई भूल कभी नहीं हो सकती…!

बस, छाती बैठे गई यात्रियों की कि मारे गए! भूल तो यहीं हो गई। अब आगे क्या होगा, अब कुछ कहा नहीं जा सकता।

ऐसा ही मन है। वह कहता है: और, और, और…। उसकी और की मांग कभी समाप्त ही नहीं होती। दस हजार हैं, तो कहता है, दस लाख। दस लाख हैं, तो कहता है, दस करोड़। वह मांग बढ़ाए जाता है, फैलाए चला जाता है। इन्हीं में पिस रहा है आदमी। ये हैं पीसनहारे!

काम क्रोध मद लोभ चक्की के पीसनहारे।


तिरगुन डारै झोंक पकरिकै सबै निकारे।।


तृस्ना बड़ी छिनारि, जाइ उन सब घर घाला।

और यह जो तृष्णा है, यह तो वेश्या है। इसका कुछ भरोसा नहीं। यह कहां—कहां भटकाती है, कहां—कहां ले जाती है! कितने जन्मों में, कितनी योनियों में इसने भटकाया है!


सपना यह संसार 

ओशो 

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