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Thursday, November 12, 2015

Life is freedom

AN OLD FABLE has it that when God was creating the world he was approached by four questioning angels. ’How are you doing it?’ the first one asked. The second queried, ’Why?’ The third one said, ’May I have it when you finish?’ The fourth one said, ’Can I help?’

The first one was the question of the scientist, the second, the philosopher’s, the third, the politician’s, and the fourth was the question of the religious one.

The scientific inquiry into existence is that of detached observation. The scientist has to be objective. To be objective he has to remain uninvolved; he cannot participate, because the moment he becomes a participant he becomes involved. Hence the scientist can only know the outer circumference of life and existence. The innermost core will remain unavailable to science; its very methodology prohibits it.

The philosopher only speculates, he never experiments. He goes on asking AD infinitum, ’Why?’ And the question is such that whatsoever the answer, it can be asked again – ’Why?’ There is no possibility of any conclusion through philosophy. Philosophy remains in a state of non-conclusion. It is a futile activity; it leads nowhere.

The politician simply wants to possess the world, to own it. He is the most dangerous of all because he is the most violent. His interest in life is not in life itself but in his own power. He is power-hungry, power-mad; he is a maniac, he is destructive. The moment you possess something alive, you kill it, because the moment something becomes a property it is no more alive. Possess a tree, and it is no more alive. Possess a woman or a man, and you have killed them. Possess anything, and death is the outcome, because only death can be possessed.

Life is freedom. It remains basically free. You cannot possess it, you cannot put it into the bank, you cannot draw a line around it. You cannot say, ’This is mine’; to say so is disrespectful, to say so is egoistic, to say so is mad.

Life possesses us. How can we possess it? We have to be possessed by life more and more.
The whole gestalt has to change: from being possessive, one has to become capable of being possessed by the whole.

The politician never comes to know the truth of life.

The religious person participates. He dances with life. He sings with existence. He helps life. He is surrendered to existence, and he is not detached and aloof. He does not really ask any question, he is not after knowledge; his whole effort is how to be in harmony with existence, how to be totally one with it. Hence the Eastern word for the ultimate experience: SAMADHI.

It comes from two words. SAM – SAM means together with. The same root SAM has moved
into English, too; it is in ’sympathy’, it is in ’symphony’. A little bit changed, it is in ’synthesis’, ’synchronicity’. SAM means together with. ADHI means the lord, God. SAMADHI means union with God, to be one with God. And that is exactly the meaning of the English word ’religion’. It means to become one with existence; not to be divided, not to remain separate but to become one. And only in this oneness does one come to know, see, experience, and be.

Religion is also a great experiment – the greatest, in fact – but with a difference. Science
experiments with the object, religion experiments with the subject itself. Its whole concern is: Who am I?

The Secret of Secrets 

Osho

Monday, October 26, 2015

वास्तविक खोज

जो जानते है वे सुख तो नहीं खोजते, बल्कि दुःख को मिटाने का कोई उपाय करते है। दुःख मिटाया जा  सकता है, सुख नहीं पाया जा सकता। और जो सुख पाने में जाएगा वह ज्यादा से ज्यादा दुःख को भुलाने में समर्थ हो सकता है। थोड़ी देर के लिए विस्मरण हो सकता है, थोड़ी देर के लिए भूल सकता है, लेकिन दुःख मिटेगा नहीं। दुःख तो मिटाना है तो दुःख के कारण को जानकार, कारण को नष्ट करने से दुःख नष्ट हो जाएगा और जो दुःख तो नष्ट कर देता है, वह जरूर सुख को उपलब्ध हो जाता है, और जो सुख को खोजता है वह दुःख को कभी नहीं मिटा पाता।

मैं आपसे कहूं, हम सरे लोग सुख खोज रहे है, यह वास्तविक बात नहीं है - वास्तविक खोज नहीं है। हमारी वास्तविक खोज है की हम दुःख को मिटाना चाहते है। लेकिन उस वास्तविक खोज को हम एक भ्रांत मार्ग से पकड़ते है और हमें लगता है की हम सुख को पाना चाहते है।

क्या मैं आपको याद दिलाऊ, दुनिया में दो ही तरह के लोग होते है- एक वे जो सुख को खोजते है, एक वे लोग जो दुःख को मिटाने को खोजते है और यह ज़मीन आसमान का फर्क है दोनों मैं। ये शब्द एक से मालूम हो सकते है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगेगा जो सुख को खोज रहा है वह भी वही खोज रहा है, जो दुःख को मिटने को खोजता है वह भी वही खोज रहा है। नहीं, बिलकुल नहीं। ज़मीन और आसमान में भी इतना फर्क नहीं है जितना इन दो बातो में फर्क है। 

जो सुख खोजता है, वह दुःख में पड़ जाता है। और जो दुःख को मिटाने को खोजता है, वह सुख को उपलब्ध होता चला जाता है।  

क्या कारण है? क्यों हम इस तथ्य को नहीं देखते की हमारे भीतर दुःख है? आप क्यों सुख को खोज रहे हैं? निश्चित ही जब आप सुख को खोज रहे है, यह इस बात का प्रमाण है और सबूत है की आप दुःखी हैं।  अगर कोई आदमी दुःखी नहीं है तो सुख को क्या खोजेगा? अगर कोई आदमी निर्धन है तो धन क्यों खोजेगा? इसलिए जो आदमी जितना ज्यादा धन खोजता हो, जानना चाहिए उतना ही गहरा वह निर्धन होगा। नहीं तो क्यों खोजेगा?  जो आदमी बीमार नहीं है, वह स्वास्थ्य को क्यों खोजेगा? और जो ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्य को खोजता हो, जानना चाहिए वह उतना ही गहरा बीमार है।


आँखो देखि सांच

ओशो

Saturday, October 10, 2015

आप तामसी लोगो को भी संन्यास देते है?

मैंने सुना है कि चीन में एक बहुत बड़ा सदगुरु हुआ, हुवांग पो। उसके पांच सौ शिष्य थे। बड़ा आश्रम था। पांच सौ भिक्षु उसके पास रहते थे। लेकिन एक भिक्षु बहुत उपद्रवी था। चोर भी था, और भी अनेक तरह की नशे की आदतें थीं। किसी तरह योग्य न था भिक्षु होने के। कई बार पकड़ा भी गया, रंगे हाथों भी पकड़ा गया। सारा आश्रम परेशान था। कि वह चोरी भी करता, नशा भी करता। कभी शराब पीए हुए चला आता है। बदनामी फैलती पूरे इलाके में कि यह किस तरह का संन्यासी है! शराबघरों में पाया गया है, जुआघरों में बैठा मिला है और भिक्षु है!

गुरु के पास बहुत शिकायतें आती रहीं। हुवांग पो सुनता और बात टाल देता। लेकिन एक दिन तो हद हो गई। वह शराब पीकर बाजार में किसी से लड़ा, मारपीट की, किसी का सिर फोड़ दिया। वहां से लोग उसे पकड़े हुए लाए, लहूलुहान, और नशे में धुत और गालियां बकता हुआ। उस दिन तो बाकी शिष्यों ने कहा, आज कुछ निर्णय हो ही जाना चाहिए। अब यह आदमी एक क्षण भी भीतर नहीं रखा जा सकता।

उन चार सौ निन्यानबे शिष्यों ने गुरु से एक स्वर से प्रार्थना की कि अब हम सब एक स्वर से प्रार्थना करते हैं, इसे यहां नहीं रखा जा सकता। गुरु ने कहा, तुम सब अच्छे लोग हो, तुम कहीं और भी चले जाओगे, तो शायद वहां से भी तुम सत्य को खोज लोगे, लेकिन इसका क्या होगा? तो तुम जा सकते हो, इसे छोड़ दो। इसको तो मेरी बहुत जरूरत है। तुम मेरे बिना भी खोज लोगे, यह मेरे बिना न खोज पाएगा। इसे छोड़ना तो ऐसे होगा, जैसे कि चिकित्सक बीमार को छोड़ दे और स्वस्थ का इलाज करे। तुम भले चंगे हो; तुम जा सकते हो।

मेरे पास तो सब तरह के लोग आएंगे। अगर मैं उनके लिए हूं जो स्वस्थ हैं, तो मेरे होने का कोई अर्थ ही नहीं है। मैं उनके लिए भी हूं जो अस्वस्थ हैं। वस्तुत: तो उन्हीं के लिए हूं।

मेरे पास रोज ऐसे मामले आते हैं। कोई आकर कहता है, फलां संन्यासी ऐसा काम करता पाया गया। आप कुछ कहते क्यों नहीं हैं? आप प्रोत्साहन देते हैं। आप चुप हैं।

वह जो करता हुआ पाया गया है, वह तो स्थिति है, वह कोई नियति नहीं है। उस स्थिति को बदलना है। और वह अकेला नहीं बदल सकता, इसलिए तो मेरे पास आया है, नहीं तो खुद ही बदल लेता। वह अपने पैर से नहीं चल सका, इसलिए तो मेरे सहारे आया है। अब मैं सहारा खींच लूं?

और दुनिया में बुराई बढ़ती है, क्योंकि भले लोग बुरे आदमियों के हाथ से सहारा छीन लेते हैं; उनको बुरा होने के लिए छोड़ देते हैं। जो उनकी स्थिति है, उसको उनकी नियति मान लेते हैं।

जब भी मैं देखता हूं कि कोई आदमी कुछ बुरा कर रहा है, तो मेरी इच्छा यह नहीं होती कि उससे कहूं कि तू बुरा मत कर। क्योंकि यह तो बहुत बार उससे कहा गया है। अगर यही सुनकर वह ठीक हो सकता, तो ठीक हो गया होता। यह कहना तो व्यर्थ की पुनरुक्ति होगी। यह तो मूढ़ता होगी। यह तो कितने लोगों ने उससे नहीं कहा है कि बुरा मत कर।

मैं उससे बुरे की बात ही नहीं करता। मैं उससे कुछ और करने को कहता हूं। निषेध पर मेरा जोर नहीं है। मैं उससे कहता हूं ध्यान कर, प्रार्थना कर, पूजा कर। मैं उसे कुछ करने में लगाना चाहता हूं। न करने की बात नहीं करता। जैसे जैसे ध्यान गहरा होगा, कुछ चीजें छूटनी शुरू हो जाती हैं।

आदमी शराब पीता है, ध्यान गहरा होगा, छूट जाएगी। क्योंकि मेरा अनुभव यही है कि वह शराब भी इसीलिए पीता है कि एक तरह की ध्यान की आकांक्षा है। कोई और अमृतरूपी ध्यान उसे पता नहीं है। शराब सस्ती है, बाजार में मिल जाती है। वह शराब पीकर अपने को भुलाने की कोशिश में लगा है।

भुलाने की कोशिश वहां है। अगर उसे ध्यान की कोई विधि मिल जाए, जिसमें वह सरलता से अपने को डुबा दे, तो शराब छूट जाएगी। उसका प्रयोजन ही न रहा। धीरे धीरे तो वह पाएगा कि ध्यान में वह इतना ड़ब जाता है कि दुनिया की कोई शराब नहीं डुबा सकती। तब दुनिया की सब शराबें छूट जाएंगी। 

कोई व्यक्ति धन के पीछे पागल है, तो उसे रोकने का क्या प्रयोजन है? धन में ही उसने कुछ चीज देखी है, कोई शाश्वत की थोडीसी झलक देखी है। बाकी सब चीजें तो बदल जाती हैं; इस संसार में धन थोड़ासा स्थिर मालूम पड़ता है। प्रेम का भरोसा नहीं है, आज करे व्यक्ति, कल न करे। प्रियजनों का भरोसा नहीं है, आज जिंदा हैं, कल मर जाएं। आज मुंह है अपनी तरफ, कल पीठ कर लें। धन साथी मालूम पड़ता है।

यह आदमी किसी साथी की तलाश में है। बाकी कोई भी साथी भरोसे योग्य नहीं मिलता। तो इसने धन से साथ जोड़ लिया है। इसको तुम कंजूस कहते हो, कृपण कहते हो। लेकिन गालियों से यह नहीं बदलने वाला। इसकी खोज भी बहुत गहरे में संगसाथ की चल रही है। कोई ऐसा साथी चाहता है जो कभी न छूटे। यह परमात्मा की खोज करना चाहता है। परमात्मा की छोटीसी झलक, गलत ही सही, इसे धन में दिखाई पड़ी है। इसलिए तो ज्ञानियों ने परमात्मा को परम धन कहा है।

मैं तुमसे कहता हूं, तुम कैसे हो, इसकी मैं चिंता नहीं करता, क्योंकि तुम जैसे हो, वह तुम्हारी स्थिति है तुम्हारा स्वभाव नहीं। मैं तुम्हारे स्वभाव को देखता हूं। तुम्हारा स्वभाव परम है। तुम्हारा स्वभाव परमात्मा का स्वभाव है। उस पर कितनी ही राख की पर्तें जमी हों, मैं तुम्हारे भीतर के अंगार को देखता हूं। तुम्हारी राख की पर्तों को झाड़ देंगे। राख की पर्तें हैं, कुछ बहुत झाड़ने में समय भी नहीं लगता। राख ही है, जरा सा हवा का झोंका भी झाड़ देगा; भीतर का अंगार साफ हो जाएगा।

गीता दर्शन 

ओशो

Friday, October 9, 2015

सहज विद्या

आत्मज्ञान दूसरे से सीखने की कोई सुविधा नहीं है; वह भीतर सफुरित होता है। जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, जैसे झरने बहते हैं ऐसा तुम्हारे भीतर जो बह रहा है, कलकल नाद कर रहा है, वह तुम्हारा ही है सहज उसे किसी से लेना नहीं। कोई गुरु उसे दे नहीं सकता; सभी गुरु उस तरफ इशारा करते हैं। जब तुम पाओगे, तब तुम पाओगे कि यह भीतर ही छिपा था; यह अपनी ही संपदा है। इसलिए ‘सहज विद्या’ कहा है।

दो तरह की विद्याएं है। संसार की विद्या सीखनी है तो दूसरे से सीखनी पड़ेगी; वह सहज नहीं है। कितना ही बुद्धिमान आदमी हो, संसार की विद्या दूसरे से सीखनी पड़ेगी। और, कितना ही छू आदमी हो, तो भी आत्मविद्या दूसरे से नहीं सीखनी पड़ेगी। वह तुम्हारे भीतर है। बाधा मोह की है। मोह कट जाता है—बादल छंट जाते हैं, सूर्य निकल आता है!

ऐसे जागृत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का परित्कृरण है  ‘ऐसा बोध होता है। और, जिस दिन सहज विद्या का जन्म होता है, जागृति आती है तो दिखाई पड़ता है कि ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है।’
तब तुम केंद्र हो जाते हो। तुम बहुत चाहते थे कि सारे जगत के केंद्र हो जाओ, लेकिन अहंकार के सहारे वह हीं  हो पाया। हर बार हारे। और अहंकार खोते ही तुम केंद्र हो जाते हो। तुम जिसे पाना चाहते हो, वह तुम्हें मिल जायेगा; लेकिन तुम गलत दिशा में खोज रहे हो। तुम प्रांत मार्ग पर चल रहे हो। तुम जो पाना चाहते हो, वह मिल सकता है; लेकिन जिसके सहारे तुम पाना चाहते हो, उसके सहारे नहीं मिल सकता; क्योंकि तुमने गलत सारथी चुना है। तुमने वाहन गलत चुन लिया है। 

अहंकार से तुम कभी भी विश्व के केंद्र न बन पाओगे। और, निरहंकारी व्यक्ति तख्ता विश्व का केंद्र बन जाता है। बुद्धत्व प्रगट होता है बोधिवृक्ष के नीचे, सारी दुनियां परिधि हो जाती है; सारा जगत परिधि हो जाता है; बुद्धत्व केंद्र हो जाता है। सारा जगत फिर मेरा ही फैलाव है। फिर सभी किरणें मेरी हैं। सारा जीवन मेरा है लेकिन, यह ‘मेरा’ तभी फलित होता हैं, जब ‘मैं’ नहीं बचता। यही जटिलता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक तुम कितना ही बड़ा कर लो ‘मेरे’ के फैलाव को; कितना ही बड़ा साम्राज्य बना लो तुम धोखा दे रहे हो।
 
काफी चल चुके हो। अनेक अनेक जन्मों में भटक चुके हो, फिर भी सजग नहीं हो! 

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन हवाई जहाज में सवार हुआ। अपनी कुर्सी पर बैठते ही उसने परिचारिका को बुलाया और कहा कि ‘सुनो! तेल, पानी, हवा, पेट्रोल, सब ठीक ठीक हैं न? ‘उस परिचारिका ने कहा कि ‘तुम अपनी जगह शांति से बैठो। यह तुम्हारा काम नहीं। यह हमारी चिंता है।’ नसरुद्दीन ने कहा कि ‘फिर बीच में उतरकर धक्का देने के लिए मत कहना।’

मुझे किसी ने बताया तो मैंने नसरुद्दीन को पूछा, ‘ऐसी बात घटी?’ उसने कहा, ‘घटी। दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। बस का जला हवाई जहाज में भी चिंता रखता है बीच में उतरकर धक्का न देना पड़े।’ तुम बहुत बार जल चुके हो। छाछ को भी फूंक फूंक कर पीना तो दूर, तुमने अभी दूध को भी फूंक फूंक कर पीना नहीं सीखा।

जीवन की बड़ी से बड़ी दुविधा यही है कि हम अनुभव से सीख नहीं पाते। लोग कहते हैं कि हम अनुभव से सीखते हैं; लेकिन दिखाई नहीं पडता। कोई अनुभव से सीखता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। फिर फिर तुम वही भूलें करते हो। नयी भी करो, तो भी कुछ कुशलता है। नयी भी करो तो भी कुछ जीवन में गति आए, प्रौढ़ता आए। वही वही भूलें बार बार करते हो, पुनरुक्ति करते हो।

चित्त एक वर्तुल है। तुम उसी उसी में घुमते रहते हो चाक की तरह और वह चाक चलता है तुम्हारे मोह से। मोह को तोड़ो, चाक रुक जायेगा। चाक के रुकते ही तुम पाओगे कि तुम केंद्र हो। तुम्हें केंद्र बनने की जरूरत नहीं है, तुम हो। तुम्हें परमात्मा बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम हो ही। इसलिए वह विद्या सहज है।

ऐसे जाग्रत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्कुरण है’ ऐसा बोध होता है। और, इस बोध का परम आनंद है। इस बोध में परम अमृत है। इस बोध के आते ही तुम्हारे जीवन से सारा अंधकार खो जाता है सारा सुख, सारी चिंता; तुम एक हर्षोन्माद से भर जाते हो; एक मस्ती, एक गीत का जन्म होता है तुम्हारे जीवन में; तुम्हारी श्वांस श्वांस पुलकित हो जाती है, सुगंधित हो जाती है किसी अज्ञात के स्रोत से।

वह सहज विद्या है; कोई शास्त्र उसे सिखा नहीं सकता। कोई गुरु उसे सिखा नहीं सकता। लेकिन, गुरु तुम्हें बाधाएं हटाने में सहयोगी हो सकता है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना।

उस परम विद्या को सीखने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन परम विद्या के मार्ग में जो जो बाधाएं है, उनको दूर करने का उपाय सीखना पड़ता है। ध्यान से वह परम संपदा नहीं मिलेगी; ध्यान से केवल दरवाजे की चाबी मिलेगी। ध्यान से केवल दरवाजा खुलेगा। वह परम संपदा तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो वह तत्वमसि! वह ब्रह्म तुम ही हो।

सब उपाय बाधाएं हटाने के लिए हैं मार्ग के पत्थर हट जाएं। मंजिल, मंजिल तुम अपने साथ लिए चल रहे हो। सहज है ब्रह्म; कठिनाई है तुम्हारे मोह के कारण। कठिनाई यह नहीं है कि ब्रह्म को मिलने में देर है; कठिनाई यह है कि संसार को तुमने इतने जोर से पक्का है कि जितनी देर तुम छोड़ने में लगा दोगे, उतनी ही देर उसके मिलने में हो जाएगी। इस क्षण छोड़ सकते हो इसी क्षण उपलब्धि है। रुकना चाहो जन्मों जन्मों से तुम रुके हो, और भी जन्म जन्म रुक सकते हो। वैसे काफी हो गया, जरूरत से ज्यादा रुक लिये। अब और रुकना जरा भी अर्थपूर्ण नहीं है।

समय पक गया है; अब संसार के वृक्ष से तुम्हें गिर जाना चाहिए। और, डरो मत कि वृक्ष से गिरेंगे तो खो जाएंगे। खो जाओगे, लेकिन तुम्हारा जो व्यर्थ है वही खोएगा जो सार्थक है, वह अनंत गुना होकर उपलब्ध हो जाता है।



शिव सूत्र 

ओशो 

मोह जय

मोह के आवरण का अर्थ होता है कि तुम्हारी आत्मा कहीं और बंद है। वह पत्नी में हो, धन में हो, पद में हो—वह कहीं भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारी आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है मोह का यह अर्थ है। और शाश्वत, स्थायी रूप से मोह जय का अर्थ है कि तुमने सारी परतंत्रता छोड़ दी। अब तुम किसी और पर निर्भर होकर नहीं जीते; तुम्हारा जीवन अपने पर निर्भर है। तुम स्वकेंद्रित हुए। तुमने अपने अस्तित्व को ही अपना केंद्र बना लिया। अब पली न रहे, धन न रहे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा वे ऊपर की लहरें है तो भी तुम उद्विग्र न हो जाओगे। सफलता रहे कि विफलता, सुख आये कि दुख कोई अंतर न पड़ेगा। क्योंकि, अंतर पड़ता था इसलिए कि तुम उन पर निर्भर थे।

मोह जय का अर्थ है: परम स्वतंत्र हो जाना; मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं ऐसी प्रतीति; मैं अकेला काफी हूं पर्याप्त हूं ऐसी तृप्ति। मेरा होना पूरा है, ऐसा भाव मोह जय है। जब तक दूसरे के होने पर तुम्हारा होना निर्भर है, तब तक मोह पकड़ेगा; तब तक तुम दूसरे को जकडोगे कि कहीं छूट न जाये, कहीं खो न जाये रास्ते में; क्योंकि उसके बिना तुम कैसे रहोगे!

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी तो वह औपचारिक रूप से रो रहा था। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र था, वह बहुत ही ज्यादा शोरगुल मचाकर रो रहा था छाती पीट रहा है, आंसू बहा रहा है। मुल्ला नसरुद्दीन से भी न रहा गया। उसने कहा, ‘मेरे भाई, मत इतना शोरगुल कर, मैं फिर शादी कर लूंगा। तुम इतने ज्यादा दुखी मत होओ।’ वे मित्र जो थे, वे मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी के प्रेमी थे। नसरुद्दीन के प्राण वहां न थे, लेकिन उनके प्राण वहां थे। उसने ठीक ही कहा कि तुम इतना शोरगुल मत करो, मैं फिर शादी करूंगा।

कौनसी चीज तुम्हें रुलाती है वही तुम्हारा मोह है। कौन सी चीज के खो जाने से तुम अभाव अनुभव करते हों वही तुम्हारा मोह है। सोचना, कौन सी चीज खो जाए कि तुम एकदम दीन दीन हो जाओगे वह तुम्हारे मोह का बिंदु है। और, इसके पहले कि वह खोए, तुम उस पर से अपनी पकड़ छोड़ना, क्योंकि वह खोएगी। इस संसार में कोई भी चीज स्थिर नहीं है न मित्रता, न प्रेम कोई भी चीज स्थिर नहीं है। यहां सब बदलता हुआ है। संसार का स्वभाव प्रतिक्षण परिवर्तन है। यह एक बहाव है नदी की तरह बह रहा है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं। तुम लाख उपाय करो, तो भी कुछ ठहरा हुआ नहीं हो सकता। तुम्हारे उपाय के कारण ही तुम परेशान हो। जो सदा चल रहा है, उसको तुम ठहरना चाहते हो; जो बह रहा है, उसे तुम रोकना चाहते हो, जमाना चाहते हो वह जमनेवाला नहीं है। वह उसका स्वभाव नहीं है।,

परिवर्तन संसार है और वहां तुम चाहते हो कि कुछ स्थायी सहारा मिल जाये, वह नहीं मिलता। इसलिए तुम, प्रतिपल दुखी हो। हर क्षण तुम्हारे सहारे खो जाते हैं।

एक बात खोजने की चेष्टा करना कि कौन सी चीजें हैं जो खो जायें तो तुम दुखी होओगे। इसके पहले कि वे खोये, तुम अपनी पकड़ हटाना शुरू कर देना। यह मोह जय का उपाय है। पीड़ा होगी; लेकिन यह पीड़ा झेलने जैसी है; यह तपश्‍चर्या है। कुछ छोड्कर भाग जाने की जरूरत नन्हीं कि तुम अपनी पत्नी को छोड्कर हिमालय भाग जाना। तुम जहां हो, वहीं रहना। लेकिन पत्नी पर निर्भरता को धार धीरे काटते जाना। कोई जरूरत नहीं कि इससे पली को दुख दो। पत्नी को पता भी नहीं चलेगा; कोई कारण भी नहीं पता चलाने का किसी को।

शिव सूत्र 

ओशो


मोह का नशा ४

अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा? जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका, उसकी प्रशंसा मांगकर तुम क्या करोगे? जो खुद भटक रहा है, उसके तुम नेता हो जाओगे? उसके सम्मान का कितना मूल्य है?

सुना है मैंने, एक सूफी फकीर हुआ; फरीद। वह जब बोलता था तो कभी लोग ताली बजाते थे तो वह रोने लगता। एक दिन उसके शिष्यों ने पूछा कि लोग ताली बजाते हैं तो तुम रोते किसलिए हो। तो फरीद ने कहा कि वे ताली बजाते हैं, तब मैं समझता हूं कि मुझसे कोई गलती हो गयी होगी। अन्यथा, वे ताली कभी न बजाते। ये इतने लोग! जब वे ताली नहीं बजाते, उनकी समझ में नहीं आता, तब मैं समझता हूं कि कुछ ठीक बात कह रहा हूं।

आखिर, गलत आदमी की ताली का मूल्य क्या है? तुम किसके सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो? अगर तुम संसार के सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो तो तुम नासमझों की प्रशंसा के लिए आतुर हो। तुम अभी नासमझ हो। और, अगर दुम सोचते हो कि परमात्मा के सामने तुम अपने को सिद्ध करना चाह रहे हो कि मैं सिद्ध हूं तो तुम और महा नासमझ हो; क्योंकि उसके सामने तो विनम्रता चाहिए। वहां तो अहंकार काम न करेगा। वहां पर तो तुम मिटकर जाओगे तो ही स्वीकार हो पाओगे। वहां तुम अकड़ लेकर गये तो तुम्हारी अकड़ ही बाधा हो जायेगी।

इसलिए, तथाकथित सिद्ध परमात्मा’ तक नहीं पहुंच पाते। बहुतसी सिद्धियां उनकी हो जाती हैं, लेकिन असली सिद्धि चूक जाती है। वह असली सिद्धि है: आत्मज्ञान। क्यों आत्मज्ञान चूक जाता है? क्योंकि सिद्धि भी दूसरे की तरफ देख रही है, अपनी तरफ नहीं। अगर कोई भी न हो दुनिया में, तुम अकेले होओ तो तुम सिद्धियां चाहोगे? तुम चाहोगे कि पानी को रू और औषधि हो जाए? मरीज को क्यूं, स्वस्थ हो जाये? मुर्दे को छूऊं, जिंदा हो जाए? कोई भी न हो पृथ्वी पर, तुम अकेले होओ तो तुम ये सिद्धियां चाहोगे? तुम कहोगे, क्या करेंगे; देखनेवाले ही न रहे। देखनेवाले के लिए ही सिद्धियां हैं।

जब तक दूसरे पर तुम्हारा ध्यान है, तब .तक अपने पर तुम्हारा ध्यान नहीं आ सकता। और, आत्मज्ञान तो उसे फलित होता है, जो दूसरे की तरफ से आंखें अपनी तरफ मोड लेता है। 

शिव कहते है: स्थायी रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। 

स्थायी रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है मोह को जय करना है। 

मोह का क्या अर्थ है? मोह का अर्थ है. दूसरे के बिना मैं न जी सकूंगा; दूसरा मेरा केंद्र है। तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी, जिनमें कोई राजा होता है और जिसके प्राण किसी पक्षी में, तोते में, मैना में बंद होते हैं। तुम उस राजा को मारो, न मार पाओगे। गोली आरपार निकल जाएगी, राजा जिंदा रहेगा। तीर छिद जएगा हृदय में, राजा मरेगा न्हीं। जहर पिला दो, कोई असर न होगा। राजा जीवित रहेगा। तुम्हें पता लगाना पड़ेगा उस तोते का, मैना का, जिसमें उसके प्राण बैद हैं। उसे तुम मरोड़ दो, उसकी तुम गर्दन तोड़ दो उधर राजा मर जाएगा। ये बच्चों कि कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं; बूढ़ी के भी समझने योग्य हैं।

मोह का अर्थ है तुम अपने में नहीं जीते, किसी और चीज में जीते हो। समझो, किसी का मोह तिजोरी में है। तुम उसकी गर्दन मरोड़ दो, वह न मरेगा। तुम तिजोरी लूट लौ, वह मर गया। उनके प्राण तिजोरी में थे। उनका बैंकबैलेंस खो जाये वे मर गये। उन्हें तुम मारो, वे मरनेवाले नहीं। जहर पिलाओ वे जिंदा रहेंगे।

मोह का अर्थ है. तुमने अपने प्राण अपने से हटाकर कहीं और रख दिये हैं। किसी ने अपने बेटे में रख दिये हैं; किसी ने अपनी पत्नी में रख दिये हैं; किसी ने धन में रख दिये हैं; किसी ने पद में रख दिये हैं लेकिन, प्राण कहीं और रख दिये हैं। जहां होना चाहिए प्राण वहां नहीं हैं। तुम्हारे भीतर प्राण नहीं धड़क रहा है, कहीं और धड़क रहा है। तब तुम मुसीबत में रहोगे।

यही मोह संसार है; क्योंकि जहां जहां तुमने प्राण रख दिये, उनके तुम गुलाम हो जाओगे। जिस राजा के प्राण तोते में बंद हैं, वह तोते का गुलाम होगा; क्योंकि तोते के ऊपर सब कुछ निर्भर है। तोता मर जाये तो उसके प्राण गये। तो, वह तोते को संभालेगा।

जहां तुम अपने प्राण रख दो, उसकी तुम सेवा में लग जाओगे। लोगो को देखो: वे तिजोरी के पास कैसे जाते है। बिलकुल हाथ जोड़े, जैसे मंदिर के पास जाते है। तिजोरी पर ‘लाभ शुभ’, ‘ श्री गणेशाय नम: '। तिजोरी भगवान है! उसकी वे पूजा करते है।

दीवाली के दिन पागलों को देखो; सब अपनी अपनी तिजोरी की पूजा कर रहे हैं। वहां उनके प्राण हैं। किस भाव से वे करते हैं, वह भाव देखने जैसा है। दुकानदार हर साल अपनी खाताबही शुरू करता है, तो स्वस्तिक बनाता है।’लाभ शुभ’ लिखता है, ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखता है।

क्रमशः

शिव सूत्र

ओशो 

मोह का नशा ३

यह सूत्र कहता है कि मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता। वह कितनी ही बड़ी सिद्धियों को पा ले उसके छूने से मुर्दा जिंदा हो जाए, उसके स्पर्श से बीमारियां खो जाएं वह पानी को छू दे और औषधि हो जाए लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है।

 सच तो स्थिति उलटी है कि जितना ही वह व्यक्ति सिद्धियों से भरता जाता है, उतना ही आत्मज्ञान से दूर होता जाता है; क्योंकि जैसे जैसे अहंकार भरता है, वैसे वैसे आत्मा खाली होती है और जैसे जैसे अहंकार खाली होता है, वैसे वैसे आत्मा भरती है, तुम दोनों को साथ ही साथ न भर पाओगे।

दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो, अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जाएगा। तब तुम योग भी साधोगे तो वह भी राजनीति होगी, धर्म नहीं। और राजनीति एक जाल है। फिर येन केन प्रकारेण आदमी दूसरे को प्रभावित करना चाहता है। फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित करना चाहता है। लेकिन प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो, क्योंकि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो।

पाप की शुरुआत वहां से होती है, जहां मैं दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करना चाहता हूं।

क्योंकि अहंकार न शुभ जानता है, न अशुभ; अहंकार सिर्फ अपने को भरना जानता है। कैसे अपने को भरता है, यह बात गौण है। अहंकार की एक ही आकांक्षा है कि मैं अपने को भरूं और परिपुष्ट हो जाऊं। और, चूंकि अहंकार एक सूनापन है, सब उपाय करके भी भर नहीं पाता, खाली ही रह जाता है। जैसे जैसे उम्र हाथ से खोती है, वैसे वैसे अहंकार पागल होने लगता है; क्योंकि अभी तक भर नहीं पाया, अभी तक यात्रा अधूरी है और समय बीता जा रहा है। इसलिए ,बूढे आदमी चिड़चिड़े हो जाते हैं। वह. चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है; वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है। जो भरना चाहते थे, वे भर नहीं पाये। और बूढ़े आदमी की चिड़चिड़ाहट और बनी हो जाती है; क्योंकि उसे लगता है कि जैसे जैसे वह का हुआ है, वैसे वैसे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है; बल्कि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब समाप्त हो जाए।

मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था। मैंने उससे पूछा कि ‘क्या तुम कुछ कारण बता सकते हो, नसरुद्दीन। परमात्मा ने तुम्हें इतनी लंबी उम्र क्यों दी?’ तो उसने बिना कुछ झिझककर कहा, ‘संबंधियों के धैर्य की परीक्षा के लिए।’

सभी बूढ़े संबंधियों के धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं। वे चौबीस घंटे देख रहे हैं कि ध्यान उनकी तरफ से हटता जा रहा है। मौत तो उन्हें बाद में मिटायेगी, लोगों की पीठ उन्हें पहले ही मिटा देती है। उससे चिड़चिड़ापन पैदा होता है।

आदमी को उसकी याद आ जाए, जिसका न कोई शिखर होता, न कोई खाई होती; न कोई हार होती, न जीत होती; जिसको लोग देखें तो ठीक, न देखें तो ठीक; जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता; जो एकरस है।

उस एकरसता का अनुभव तुम्हें तभी होगा, जब तुम लोगों का ध्यान मांगना बंद कर दोगे। भिखमंगापन बंद करो। सिद्धियों से क्या होगा? लोग तुम्हें चमत्कारी कहेंगे। लाखों की भीड़ इकट्ठी होगी; लेकिन लाखों मूढ़ों को इकट्ठा करके क्या सिद्ध होता है कि तुम इन लाखों मूढ़ों के ध्यान के केंद्र हो! तुम महामूढ़ हो!

क्रमश:

शिव सूत्र 

ओशो 

मोह का नशा भाग २


तुम्हारे बिना बताये वह बोलता है.। वह तुम्हें प्रभावित करना चाहता है। ध्यान रखो जब तक तुम दूसरे को प्रभावित करना चाहते हो, तब तक तुम अहंकार से ग्रस्त हो। आत्मा किसी को प्रभावित करना नहीं चाहती। दूसरे को प्रभावित करने में सार भी क्या है! पानी पर बनायी हुई लकीरों जैसा है।

क्या होगा मुझे दस हजार लोग प्रभावित हों कि दस करोड़ लोग प्रभावित हों। इससे होगा क्या? उनको प्रभावित करके मैं क्या पा लूंगा। अज्ञानियों की भीड़ को प्रभावीत करने की इतनी उत्सुकता अज्ञान की खबर देती है। राजनेता दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होता है समझ में आता है; लेकिन धार्मिक व्यक्ति क्यों दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होगा?

जब भी तुम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हो, तब एक .बात याद रखना कि तुम आत्मस्थ नहीं हो। दूसरे को प्रभावित करने का अर्थ है कि तुम अहंकारस्थित हो। अहंकार दूसरे के प्रभाव को भोजन की तरह उपलब्ध करता है; उसी पर वह जीता है। जितनी आंखें मुझे पहचान लें, उतना मेरा अहंकार बड़ा होता है। अगर सारी दुनिया मुझे पहचान ले, मेरा अहंकार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है। कोई मुझे न पहचाने गांव से निकलूं सड़क से गुजरूं, कोई देखे न, कोई रेकगनीशन नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं; किसी की आंख में झलक न आये, लगे ऐसा जैसा कि मैं हूं ही नहीं बस, वहां अहंकार को चोट है।

अहंकार चाहता है कि दूसरे ध्यान दें। यह बड़े मजे की बात है अहंकार ध्यान नहीं करना चाहता; दूसरे उस पर ध्यान करें.., सारी दुनिया उसकी  तरफ देखे, वह केंद्र हो जाए।

धार्मिक व्यक्ति, दूसरा मेरी तरफ देखे, इसकी फिक्र नहीं करता; मैं अपनी तरफ देखूं क्योंकि अंततः वही मेरे साथ जाएगा। राह तो बच्चों की बात हुई। बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें। सटाफिकेट घर लेकर आते हैं तो नाचते—कूदते आते हैं। लेकिन बुढ़ापे में भी तुम सर्टिफिकेट  मांग रहे हो तब तुमने जिंदगी गंवा दी! सिद्धि की आकांक्षा दूसरे को प्रभावित करने में है। धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नहीं है। वही तो सांसारिक का स्वभाव है।

क्रमशः

शिव सूत्र

ओशो 

अहंकार के सुक्ष्म रूप

जब तुम एक बुराई को काटते हो, तो तुम दस बुराइयां पैदा भी कर रहे हो। एक बुराई काटते हो, निन्यानबे बुराइयां तो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। वे तुम्हारी एक भलाई को भी रंग देंगी,उसे भी बुरा कर देंगी। इसलिए, तुम पुण्य भी करते हो, तो वह भी पाप जैसा हो जाता है। तुम अमृत भी छूते हो तो जहर हो जाता है; क्योंकि शेष सब बुराइयां उस पर टूट पड़ती हैं। तुम मंदिर भी बनाओ तो भी उससे विनम्रता नहीं आती; उससे अहंकार भरता है। और, अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं! व्यर्थ से भी अहंकार भरता है।

मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक कुत्ता था। न उस कुत्ते की कोई नसल का ठिकाना था; न कोई डील डौल; देखने में बदशक्ल, कमजोर; हर समय डरा हुआ, भयभीत; पैर झुके हुए, शरीर दुर्बल; लेकिन, नसरुद्दीन उसकी भी तारीफ हांका करता था। मैंने उससे पूछा, ‘कुछ इस कुत्ते के संबंध में बताओ भी’।, नाम उसने उसका रखा था: एडोल्फ हिटलर। नसरुद्दीन ने कहा कि हिटलर की नसल का भला कोई ठीक ठीक पता न हो; लेकिन, बड़ा कीमती जानवर है। और, एक अजनबी कदम नहीं रख सकता घर के आसपास, बिना हमें खबर हुए। हिटलर फौरन खबर देता है।

मैंने पूछा कि क्या करता है तुम्हारा हिटलर, क्योंकि उसे देखकर संदेह होता था कि वह कुछ कर सकेगा भौकता है, चिल्लाता है, चीखता है, काटता है, क्या करता है? नसरुद्दीन ने कहा, ‘जी नहीं! जब भी कोई अजनबी आता है, हिटलर फौरन हमारे बिस्तर के नीचे आकर छिप जाता है। ऐसा कभी नहीं होता कि अजनबी आ जाए और हमें पता न हो। मगर उसका भी गुण गौरव है।’

तुम्हारा अहंकार मुल्ला नसरुद्दीन के हिटलर जैसा है न तो नसल का कोई पता है…। तुम्हें पता है कि तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? जो है ही नहीं, वह पैदा कैसे होगा? वह भांति है। उसकी नसल का कोई पता नहीं
तुम तो परमात्मा से पैदा हुए हो; तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? और, कभी तुमने अपने अहंकार को गौर से देखा कि भला नाम तुम एडोल्फ हिटलर रख लिये हो सभी सोचते हैं; लेकिन उसके पैर बिलकुल झुके है.. .दीन हीन!

बड़े से बडा अहंकार भी दीन हीन होता है। क्यों? क्योंकि, बड़े से बडा अहंकार भी नपुंसक होता है। उसमें तो कोई ऊर्जा तो होती नहीं; ऊर्जा तो आत्मा की होती है। ऊर्जा का स्रोत अलग है। इसलिए, अहंकार को चौबीस घंटे सम्हालना पड़ता है। वह अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं रह सकता; उसे और पैर हमें उधार देने पड़ते हैं। कभी पद से हम उसे सहारा देते हैं; कभी धन से सहारा देते हैं; कभी पुण्य से सहारा देते है, कुछ न बने तो पाप से सहारा देते हैं।

कारागृह में जाकर देखो! वहां लोग अपने पापों की झूठी चर्चा करते हैं, जो उन्होंने कभी किये ही नहीं। जिसने एक आदमी को मारा है, वह कहता है कि मैंने सैकडों का सफाया कर दिया; क्योंकि कारागृह में अहंकार के बड़े होने का वही उपाय है। छोटे मोटे आदमी वहां बड़े कैदी हैं जिन्होंने काफी उपद्रव किये हैं। जिन पर एकाध धारा में मुकदमा चला है, उनकी कोई कीमत है! जिन पर दस पच्चीस धाराएं लगी हैं; जिन पर सौ दो सौ मुकदमे चल रहे हैं; जो रोज अदालत में हाजिर होते हैं  आज इस मुकदमे के लिए, कल उस मुकदमे के लिए कारागृह में वे ही दादा गुरु हैं। वहां आदमी झूठे पापों की भी बात करता है, जो उसने कभी नहीं किये।

पुण्य से भी, पाप से भी; धन से, पद से हर चीज से अहंकार को तुम सहारा देते हो, तब भी वह खड़ा नहीं रहता; मौत उसे गिरा देती है। क्योंकि, जो नहीं है, मौत उसी को मिटाकी; जो है, उसके मिटने का कोई भी उपाय नहीं। तुम तो बचोगे लेकिन, ध्यान रखना जब मैं कहता हूं ‘तुम बचोगे’, तो मैं उस तत्व की बात कर रहा हूं जिसका तुम्हें कोई पता ही नहीं।

जिसे तुम समझते हो तुम्हारा होना, वह तो नहीं बचेगा; वह तुम्हारा अहंकार मात्र है। तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, तुम्हारा धन, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारी योग्यता तुमने जो कमाया, वह कुछ भी न बचेगा, उसको छोड्कर भी अगर तुम कुछ हो; अगर थोड़ी सी भी संधि रेखा उसकी मिलनी शुरू हो गयी जो तुम्हारी योग्यता से बाहर है; जो तुमने कमाया नहीं, जिसे तुम लेकर ही पैदा हुए थे; जो पैदा होने के पहले भी तुम्हारे साथ था वही केवल मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ रहेगा।

शिव सूत्र 

ओशो 

Friday, July 24, 2015

गुरु

गुरु कठोर भी होगा। गुरु चोट भी करेगा, तो ही तो जगा सकता है। इसलिए जो गुरु सिर्फ सांत्वना देता हो, बचना, सावधान रहना! वहां से तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटनेवाली नहीं है। जो गुरु तुम्हें सांत्वना देता हो, वह तुम्हें लोरी का गीत सुना रहा है। उससे तुम्हारी नींद और गहरी हो जाएगी। जो गुरु तुम्हें जगाना चाहता है, कठोर होगा, झकझोरेगा।

सुबह देखते हो न, तीन बजे रात उठना है, अलार्म बजता है, कैसा क्रोध आता है! अपनी ही घड़ी को पटक देते हैं लोग उठाकर! खुद ही अलार्म भर कर रात सोए थे, अलार्म दुश्मन जैसा मालूम पड़ता है। तुम्हीं जाकर गुरु से प्रार्थना करते हो मुझे जगाओ! लेकिन जब वह जगाएगा तो जन्मों जन्मों की नींद टूटेगी, बड़ी पीड़ा होगी, बड़े कष्ट होंगे। अगर अपने प्रण की याद रखी तो ही जग पाओगे, अन्यथा भाग जाओगे। करोड़ों में एक-आध गुरु के पास पहुंचता है। फिर जो पहुंचते हैं गुरु के पास, सब टिक नहीं पाते; उनमें से बहुसंख्यक भाग जाते हैं।

पुरानी तिब्बत में कहावत है : हजार बुलाए जाते हैं तो दस पहुंचते हैं; जो दस पहुंचते हैं, उनमें से नौ भाग जाते हैं, एक ही बचता है। मगर जो बच जाए, वह धन्यभागी है। वही ब्राह्मण हो पाता है।

ओशो 

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