Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Sunday, December 11, 2016

परमात्मा का जन्म



दुनिया में दूसरे धर्म हैं, जो भारत के बाहर पैदा हुए: ईसाइयत, यहूदी, इस्लाम, वे तीन बड़े धर्म भारत के बाहर रौदा हुए हैं। तीन बड़े धर्म भारत में पैदा हुए हैं: हिंदू, बौद्ध, जैन। इन दोनों के बीच एक बुनियादी फर्क है। और वह बुनियादी फर्क है कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम परमात्मा को पीछे देखते हैं—आदि कारण की तरह—जिसने जगत को बनाया। हम परमात्मा को आगे देखते हैं—अंतिम फल की तरह। इससे बड़ा फर्क पड़ता है। परमात्मा भविष्य है, अतीत नहीं। परमात्मा बीज नहीं है, फूल है। इसलिए हमने बुद्धों को फूल पर बिठाया है कमल का फूल, सहस्रदल जिसके खिल गये हैं।

अगर परमात्मा पीछे है, दुनिया को उसने बनाया, तो वह एक है। तब दुनिया एक तरह की तानाशाही होगी। और इस दुनिया में मोक्ष घटित नहीं हो सकता; क्योंकि स्वतंत्रता कैसी जब तुम बनाये गये हो। बनाये हुए की कोई स्वतंत्रता होती है? जिस दिन बनानेवाला मिटाना चाहेगा, मिटा देगा। जब वह बना सका तो मिटाने में क्या बाधा पड़ेगी? तब तुम खेल—खिलौने हो, कठपुतलियां हो। तब तुम्हारी आत्‍मा और स्वतन्‍त्रता का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए हम परमात्मा को स्रष्टा की तरह नहीं देखते, हम परमात्मा को अंतिम निष्पत्ति की तरह देखते हैं। वह तुम्हारा अंतिम विकास है।


तो परमात्मा विकास का प्रथम चरण नहीं, अंतिम शिखर है। वह गौरीशंकर है। वह कैलाश है। वह आखिरी शिखर है जहां सभी चेतनाएं अंततः पहुंच जायेगी, जिस तरफ सभी की यात्रा चल रही है। देर अबेर सभी को वहां पहुंच जाना है। तुम रोज रोज हो रहे परमात्मा हो।


तो परमात्मा कोई एक घटना नहीं है जो घट गयी; परमात्मा एक प्रवाह है जो प्रतिपल घट रहा है। परमात्मा प्रति क्षण हो रहा है। वह तुम्हारे भीतर बढ़ रहा है। तुम परमात्मा के गर्भ हो।


इसलिए यह शिव सूत्र पूरा होता है इस अंतिम बात पर। यहीं सारे शास्त्र पूरे होते हैं। तुमसे शुरू होते हैं, परमात्मा पर पूरे होते हैं। तुम जैसे अभी हो, वह पहला चरण है; तुम जैसे अंततः हो जाओगे, वह अंतिम चरण है। बीज की तरह तुम हो, वह तुम्हारा भटकाव है, वृक्ष की तरह तुम जब खिल जाओगे अपनी समग्रता में, वह तुम्हारी निष्पत्ति है, वह तुम्हारा फुलफिलमेंट है; तुम्हारा आप्तकाम होना है, सब पूरा हो गया।

फूल जब खिलता है तो वृक्ष के प्राण पूरे हो गये। उसके खिलने में वृक्ष ने अपनी पूरी सुगंध पा ली। वृक्ष जिस चीज के लिए पैदा हुआ था, वह घटित हो गया। फूल के खिलने के साथ वृक्ष एक नृत्य से भर जाता है। उसका रोआं—रोआं पुलकित है। वह व्यर्थ नहीं गया, सार्थक हुआ, फलीभूत हुआ; सुगंध, सौंदर्य उसमें खिल गये!


और जब एक वृक्ष एक फूल के खिलने पर इतना आनंदित होता है, जो कि क्षणभर टिकेगा और गिर जायेगा; जो फूल अभी खिला और सांझ के पहले मुरझा जायेगा! कितना आनंद है कि जब कोई वर्द्धमान 'महावीर' होता है—जब फूल खिलता है, जब कोई गौतम सिद्धार्थ 'बुद्ध' होता है—जब फूल खिलता है! और ऐसा फूल जो कभी नहीं मुरझायेगा, उस फूल को ही हम शिवत्व कहते हैं। वही परमात्मा है।


तुम्हारे भीतर परमात्मा को छिपाये तुम चल रहे हो; सम्हाल कर चलना, सावधानी से चलना। जैसे गर्भणी सी संभल कर चलती है, वैसा साधक संभलकर चलता है। क्योंकि तुम्हारे ही जीवन का सवाल नहीं है, तुम्हारे भीतर सारे अस्तित्व ने दांव लगाया है। सारा अस्तित्व तुम्हारे भीतर खिलने को आतुर है। उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है, बहुत सावधानी से, संभलकर, होशपूर्वक एक—एक कदम रखना, क्योंकि तुमसे परमात्मा का जन्म होना है।


शिव सूत्र 

ओशो 

क्या कारण हैं कि दूसरे के लिए तुम इतने समझदार क्यों होते हो?

कोई आदमी दुख में है तो तुम कहते हो कि इतने परेशान क्यों होते हो! यह सब चलता रहता है; संसार है! अपने को जरा दूर रखो। और यही दुख तुम पर आयेगा तो बडे मजे की बात है कि हो सकता है, यही आदमी, जिसको तुम सलाह दे रहे हो वह तुम्हें सलाह दे कि भाई, सुख दुख तो बाहर की वृत्तियां हैं।

बात क्या है? कारण क्या है? कारण यह है कि जब दूसरे पर दुख आता है, तब तुम साक्षी हो। इसलिए ज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे पर दुख आ रहा है, तुम पर तो आ नहीं रहा है। तुम सिर्फ देखनेवाले हो। इतने ही देखनेवाले जब तुम अपने दुख के लिए हो जाओगे, तब इतना ही ज्ञान तुम्हें अपने प्रति भी बना रहेगा। तुमने अभी अपना ज्ञान बांटा है।


मुल्ला नसरुद्दीन एक मनोचिकित्सक के पास गया और उसने कहा कि मेरी पत्नी की हालत अब खराब है, कुछ आपको करना ही पडेगा। मनोचिकित्सक ने अध्ययन किया उसकी पली का कुछ सप्ताह तक और कहा कि इसका मस्तिष्क तो बिलकुल खत्म हो गया है। नसरुद्दीन ने कहा कि 'वह मुझे पता था। रोज मुझे बांटती थी, मुझे देती थी। आखिर हर चीज खत्म हो जाती है। रोज थोडा— थोड़ा करके अपनी बुद्धि मुझे देती रही, खत्म हो गयी।तुम दूसरों को तो बुद्धि बांट रहे हो; लेकिन उसी बुद्धि का प्रयोग तुम अपने पर ही नहीं कर पाते।


अब जब दुबारा तुम्हारे जीवन में सुख आये तो तुम उसे ऐसे देखना जैसे किसी और के जीवन में आया हो। तुम जरा दूर खड़े होकर देखने की कोशिश करना। जरा फासला चाहिए। थोड़ा—सा भी फासला काफी फासला हो जाता है। बिलकुल सटकर मत खड़े हो जाओ अपने से। तुम अपने पड़ोसी हो। इतने सटकर मत खड़े हो जाओ।


नसरुद्दीन से मैंने पूछा कि जो रास्ते के किनारे पर होटल है, उस होटल का मालिक कहता है कि तुम्हारा बहुत सगा—संबंधी है, बहुत निकट का। नसरुद्दीन ने कहा 'गलत कहता है। नाता है, लेकिन बहुत दूर का। बड़ा फासला है।मैंने पूछा. 'क्या नाता है?' तो नसरुद्दीन ने कहा कि हम एक ही बाप के बारह बेटे हैं। वह पहला है, मैं बारहवां हूं। बड़ा फासला है।


तुम अपने पड़ोसी हो, फासला काफी है। ज्यादा सटकर मत खडे होओ। जरा दूरी रखो। दूरी के बिना परिप्रेक्ष्य खो जाता है, पर्सपैक्टिव खो जाता है। कोई भी चीज देखनी हो तो थोड़ा—सा फासला चाहिए। तुम अगर बिलकुल फूल पर आंखें रख दो तो क्या खाक दिखाई पड़ेगा; कि तुम दर्पण में तुम बिलकुल सिर लगा दो, कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी चाहिए। अपने से थोड़ी दूरी ही सारी साधना है। जैसे—जैसे दूरी बढ़ती है, तुम हैरान होकर देखोगे कि तुम व्यर्थ ही परेशान थे। जो घटनाएं तुम पर कभी घटी ही न थीं, तुमसे बाहर घट रही थीं, सिर्फ करीब खडे होने के कारण प्रतिबिंब तुममें पड़ता था, छाया तुम पर पड़ती थी, धुन तुम तक आ जाती थी—उसी प्रतिध्वनि को तुम अपनी समझ लेते थे और परेशान होते थे।


एक मकान में आग लगी थी और मकान का मालिक स्वभावत: छाती पीटकर रो रहा था। लेकिन एक आदमी ने कहा कि तुम नाहक परेशान हो रहे हो; क्योंकि मुझे पता है कि कल तुम्हारे लड़के ने यह मकान बेच दिया है। उसने कहा. 'क्या कहा!' लड़का गांव के बाहर गया था। रोना खो गया। मकान में अब भी आग लगी है। वह बढ़ गयी बल्कि पहले से। लपटें उठ रही है, सब जल रहा है। लेकिन अब यह आदमी इस मकान से फासले पर हो गया। अब यह मकान—मालिक नहीं है। तभी लड़का भागता हुआ आया। उसने कहा 'क्या हुआ? यह मकान जल रहा है? सौदा तो हो गया था, लेकिन पैसे अभी मिले नहीं है। अब जले के कौन पैसे देगा?' फिर बाप अपनी छाती पीटने लगा। मकान वहीं का वहीं है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। मकान को पता ही नहीं कि यहां सुख हो गया, दुख हो गया। और फिर फर्क हो सकता है, अगर वह आदमी आकर कह दे कि कोई बात नहीं, मैं वचन का आदमी हूं; जल गया तो जल गया; खरीद लिया तो खरीद लिया; पैसे दूंगा। फिर बात बदल गयी।


सब बाहर हो रहा है। और तुम इतने करीब सटकर खड़े हो जाते हो, उससे कठिनाई होती है। थोड़ा फासला बनाओ। जब सुख आये तो थोड़ा दूर खड़े होकर देखना। जब दुख आये, तब भी दूर खड़े होकर देखना। और सुख से शुरू करना। ध्यान रहे दुख से शुरू मत करना।

शिव सूत्र 

ओशो

भारत की शिक्षा प्रणाली



मैं अध्यापक रहा हूं। और विश्वविद्यालय में मैंने पढ़ना छोड़ दिया है क्योंकि मैं अपनी अंतरात्मा के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता। और तुम्हारी पूरी शिक्षा प्रणाली मनुष्य की सहायता करने के लिए नहीं है, उसे पंगु बनाने के लिए है। तुम्हारी शिक्षा प्रणाली न्यस्त स्वार्थी को मजबूत करने के लिए बनी है। मैं यह करने मैं असमर्थ था। मैंने इसे करने से इनकार कर दिया। 


वास्तविक शिक्षा विद्रोही होगी, क्योंकि उसकी भविष्य की ओर होंगी, अतीत की ओर नहीं। प्रकृति ने तुम्हारे सिर में पीछे की और आंखें नहीं दी है। अगर प्रकृति यही चाहती कि तुम पीछे की ओर देखते रहो तो उसने तुम्हें आगे की ओर देखने के लिए व्यर्थ ही आंखें दीं। 


भारत की शिक्षा प्रणाली वही है, जो अंग्रेज सरकार ने भारत के मन पर थोपी है। उनका उददेश्य केवल क्लर्क और गुलाम पैदा करने का था। और वही शिक्षा प्रणाली चलती है क्योंकि आज जो ताकत में हैं, अब वे क्लर्क और गुलाम तैयार करना चाहते हैं। कोई नहीं चाहता कि सत्य बोला जाए। भविष्य का निर्माण करने में किसी का रस नहीं है, बल्कि सभी अतीत का शोषण करना चाहते हैं। 


मैं चाहता हूं कि शिक्षा सरकार की अनुगामिनी न हो। शिक्षा इस सड़े हुए समाज की परिपुष्टि न करे बल्कि मनुष्य के प्रति, विकासमान बच्चों के प्रति समर्पित हो। 


मनुष्य का शरीर है, लेकिन शिक्षा मनुष्य के शरीर के लिए कुछ नहीं करती। जब कि हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर शक्तिशाली, स्वस्थ और युवा बना रहने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। लेकिन शरीर की किसी को फिक्र ही नहीं है। शिक्षा में ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है। 


मनुष्य का मन है, लेकिन शिक्षा सिर्फ इसकी फिकर करती है कि सत्ताधारीयों की सेवा करने के लिए मन को संस्कारित किया जाए, ताकि वह वह उनकी खिदमत कर सके। यह मनुष्यता के खिलाफ है। मन को स्वच्छ, पैना और बुद्धिमान बनाना चाहिए। लेकिन बुद्धिमान मन कोई नहीं चाहता। प्रखर चेतना कोई नहीं चाहता। ये खतरनाक बातें है। क्योंकि वे किसी भी मूढ़ता के आगे सिर नहीं झुकाएंगे। शिक्षा को इस अर्थ में विद्रोही होना चाहिए कि आदमी के पास अपने बल पर हां या ना कहने का ताकत होनी चाहिए।


 तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगी कि दक्षिण अमेरिका की एक सरकार—उरुग्वे—मुझे वहां स्थायी निवास देने के लिए राजी थी। वे मुझे वहां नागरिकता देना चाहते थे। क्योंकि उस देश का राष्ट्रपति एक बुद्धिमान आदमी है। जिस दिन वह कागजात पर दस्तखत करने वाला था, उस दिन अमेरिकन राष्ट्रपति से उसे संदेश मिला कि छत्तीस घंटे के भीतर इस आदमी को ऊरुग्वे से बाहर किया जाए; क्योंकि यह आदमी अति बुद्धिमान है। उन्होंने जो कारण बताया वह बड़ा हैरानी का था: वह आदमी अति बुद्धिमान है, और वह तुम्हारी युवा पीढ़ी और उसका मन बदल देगा। वह तुम्हारा धर्म, तुम्हारा अतीत नष्ट कर सकता है। और बाद में शायद तुम पछताओगे कि तुमने उस प्रवेश करने दिया। क्योंकि तुम्हारे राजनीतिक दल केवल कचरे के आधार पर जी रहे हैं। यह तुम्हारे अपने हित में है कि यह आदमी छत्तीस घंटे के भीतर यह देश छोड़ दे। और हर एक घंटे  बाद अमेरिकन राष्ट्रपति के सचिव का फोन बार—बार आता रहा: वहां आदमी गया कि नहीं?


मैंने उस राष्ट्रपति से कहा, चिंता की कोई बात नहीं है, मैं खुद छत्तीस घंटों के भीतर चला जाऊंगा। और अमेरिकन राष्ट्रपति ने जो भी कहा है, वह मेरी निंदा नहीं है, वह तुम्हारी और तुम्हारे देश की निंदा है। जहां तक मेरा संबंध है, यह मेरी प्रशंसा है। यदि ज्यादा बुद्धिमत्ता खतरनाक है, तो हर देश, हर सरकार चाहती है कि लोग मानसिक रूप से अपंग हों। मानसिक अपंग लोग आज्ञाकारी होते हैं। 


फिर अमीरत की बूँद पड़ी 

ओशो 

आंधियो से डरना मत



जिसने जीवन को पूरा मौका दिया है, सब रंगों में, सब रूपों में। डरे डरे मत जीना, तूफानों से छिपकर मत जीना। आंधिया आएं तो घरों में मत छिप जाना। आंधी भी अकारण नहीं आती, कुछ धूल धवांस झाडू जाती है। आंधी भी अकारण नहीं आती, कोई चुनौती जगा जाती है; कोई भीतर सोए हुए तारों को छेड़ जाती है। एक बात तो सदा ही स्मरण रखना कि इस संसार में अकारण कुछ भी नहीं होता: तुम चाहे पहचानो, चाहे न पहचानो। देर अबेर कभी न कभी जागोगे तो समझोगे। जो अंगुलियां तुम्हें शत्रु जैसी मालूम पड़े, एक दिन तुम पाओगे कि उन्होंने भी तुम्हारे हृदय की वीणा को जगाया।

अंगुलियों की कृपा ही झंकार है
अन्यथा नीरव निरर्थक बीन है

वीणा अगर डर जाए और छिप जाए, अंगुलियों को छेड़ने न दे स्वयं के तारों को, तो वीणा मृत रह जाएगी। संगीत सोया रह जाएगा।

जैसे वृक्ष बीज में दबा रह गया। जैसे आवाज कंठ में अटकी रह गई। जैसे प्रेम हृदय में बंद रह गया। जैसे सुगंध खिलने को थी, खिल न पाई। कली खिली ही न, सुगंध बिखरी ही न।

एक ही दुख है संसार में एक ही मात्र और वह दुख है कि तुम जो होने को हो, वह न हो पाओ। जो तुम्हारी नियति थी, वह पूरी न हो। कहीं तुम चूक जाओ और तुम्हारी वीणा पर स्वर न गूंजे। हिम्मत रखनी होगी। आंधियों की अंगुलियां आएं, तो उन्हें भी छेड़ने देना अपनी बीन को। 

'जिसने मार्ग पूरा कर लिया है।

भगोड़ा कभी मार्ग पूरा नहीं करता। भगोड़ा तो पूरा होने के पहले भाग खड़ा होता है। भगोड़ा तो मार्ग की लंबाई से ही डर गया है; वह मुफ्त मंजिल चाहता है। पकना तो चाहता है, लेकिन पकने की पीड़ा नहीं झेलना चाहता। उस स्त्री जैसा है, जो मां तो बनना चाहती है, लेकिन गर्भ की पीड़ा नहीं झेलना चाहती।

नौ महीने ढोना होगा उस पीड़ा को। और अगर मां बनना है, अगर मां बनने की उस अपूर्व अनुभूति को पाना है कि मुझ से भी जीवन का जन्म हुआ; अकारथ नहीं हूं बांझ नहीं हूं; मुझ से भी जीवन की गंगा बही; मैं भी गंगोत्री बनी अगर उस अपूर्व अनुभव को, उस अपूर्व धन्यभाग को लाना है, तो नौ महीने की पीड़ा झेलनी पड़ेगी। प्रसव की पीड़ा झेलनी पड़ेगी। आंख से आंसू बहेंगे, चीत्कार निकलेगा। लेकिन उन्हीं चीत्कारों और आंसुओ के पीछे मां का अपूर्व रूप प्रगट होता है।

स्त्री सिर्फ स्त्री है, जब तक मां न बन जाए। स्त्री तब तक सिर्फ साधारण स्त्री है, जब तक मां न बन जाए। मां बनते ही वीणा को छेड़ दिया गया। मां बने बिना कोई भी स्त्री ठीक अर्थों में सुंदर नहीं हो पाती। स्रष्टा बने बिना सौंदर्य कहां? किसी को जन्म दिए बिना अहोभाग्य कहा?

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 


Popular Posts