Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Showing posts with label ओशो. Show all posts
Showing posts with label ओशो. Show all posts

Saturday, December 12, 2015

कोई पशु आत्महत्या नहीं करता है। कोई वृक्ष आत्महत्या नहीं करता है।ऐसा क्यों हो गया है?

मैंने सुना है, एक बार चीन के एक सम्राट ने अपने प्रधान मंत्री को फांसी की सजा दे दी। जिस दिन प्रधान मंत्री को फांसी दी जाने वाली थी, सम्राट उससे मिलने आया, उसे अंतिम विदा कहने आया। वह उसका बहुत वर्षों तक वफादार सेवक रहा था, लेकिन उसने कुछ किया जिससे सम्राट बहुत नाराज हो गया और उसे फांसी की सजा दे दी। लेकिन यह याद करके कि यह उसका अंतिम दिन है, सम्राट उससे मिलने आया।

जब सम्राट आया तो उसने देखा कि प्रधान मंत्री रो रहा है, उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह सोच भी नहीं सकता था कि मृत्यु उसके रोने का कारण हो सकती है, क्योंकि प्रधान मंत्री बहुत बहादुर आदमी था। उसने कहा. ‘यह कल्पना करना भी असंभव है कि तुम मृत्यु को निकट देखकर रो रहे हो। यह सोचना भी असंभव है। तुम बहादुर आदमी हो और मैंने अनेक बार तुम्हारी बहादुरी देखी है। अवश्य कोई और बात है। क्या बात है? यदि मैं कुछ कर सकता हूं तो जरूर करूंगा।’

प्रधान मंत्री ने कहा : ‘अब कुछ भी नहीं किया जा सकता; और बताने से भी कुछ लाभ नहीं होगा। लेकिन अगर आप जिद करेंगे तो मैं अभी भी आपका सेवक हूं आपकी आज्ञा मानकर बता दूंगा।’

सम्राट ने जिद की और प्रधान मंत्री ने कहा : ‘मेरे रोने का कारण मृत्यु नहीं है; क्योंकि मृत्यु कोई बड़ी बात नहीं है। मनुष्य को एक दिन मरना ही है; किसी भी दिन मृत्यु हो सकती है। मैं तो बाहर खड़े आपके घोड़े को देखकर रो रहा हूं।’

सम्राट ने पूछा. ‘घोड़े के कारण रोते हो? लेकिन क्यों?’

प्रधान मंत्री ने कहा. ‘मैं जिंदगी भर इसी तरह के घोड़े की तलाश में रहा; क्योंकि मैं एक प्राचीन कला जानता हूं। मैं घोड़ों को उड़ना सिखा सकता हूं लेकिन उसके लिए एक खास किस्म का घोड़ा चाहिए। यह उसी किस्म का घोड़ा है। और यह मेरा अंतिम दिन है। मुझे अपनी मृत्यु की फिक्र नहीं है; मैं रोता हूं कि मेरे साथ एक प्राचीन कला भी मर जाएगी।’

सम्राट की उत्सुकता जगी घोड़ा उड़े, यह कितनी बड़ी बात होगी उसने कहा : ‘घोड़े को उड़ना सिखाने में कितने दिन लगेंगे?

प्रधान मंत्री ने कहा : कम से कम एक वर्ष और यह घोड़ा उड़ने लगेगा।’

सम्राट ने कहा. ‘बहुत अच्छा! मैं तुम्हें एक वर्ष के लिए आजाद कर दूंगा। लेकिन स्मरण रहे, यदि एक वर्ष में घोड़ा नहीं उड़ा तो तुम्हें फिर फांसी दे दी जाएगी। और यदि घोड़ा उड़ने लगा तो तुम्हें माफ कर दिया जाएगा। और माफ ही नहीं, मैं तुम्हें अपना आधा राज्य भी दे दूंगा। क्योंकि मैं इतिहास का पहला सम्राट होऊंगा जिसके पास उड़ने वाला घोड़ा होगा। तो जेल से बाहर आ जाओ और रोना बंद करो।’

प्रधान मंत्री घोड़े पर सवार, प्रसन्न और हंसता हुआ अपने घर पहुंचा। उसकी पत्नी अभी भी रो धो रही थी। उसने कहा : ‘मैंने सब सुन लिया है। तुम्हारे आने के पहले ही मुझे खबर मिल गई है। लेकिन बस एक वर्ष? और मैं जानती हूं तुम्हें कोई कला नहीं आती है और यह घोड़ा कभी उड़ नहीं सकता। यह तो तरकीब है, धोखा है। तो अगर तुम एक साल का समय मांग सकते थे तो दस साल का समय क्यों नहीं माग लिया?’

प्रधान मंत्री ने कहा : ‘वह जरा ज्यादा हो जाता। जो मिला है वही बहुत ज्यादा है। घोड़े के उड़ने की बात ही अविश्वसनीय है, फिर दस साल का समय मांगना सरासर धोखा होता। लेकिन रोओ मत।’ 

लेकिन पत्नी ने कहा : ‘यह तो मेरे लिए और बड़े दुख की बात है कि मैं तुम्हारे साथ भी रहूंगी और भीतर भीतर मुझे पता भी है कि एक वर्ष के बाद तुम्हें फांसी लगने वाली है। यह एक वर्ष तो भारी दुख का वर्ष होगा।’ 

प्रधान मंत्री ने कहा. ‘अब मैं तुम्हें एक प्राचीन भेद की बात बताता हूं जिसका तुम्हें पता नहीं है। इस एक वर्ष में सम्राट मर सकता है, घोड़ा मर सकता है, मैं मर सकता हूं। या कौन जाने घोड़ा उड़ना ही सीख जाए। एक वर्ष!’

बस आशा मनुष्य आशा के सहारे जीता है, क्योंकि वह इतना ऊबा हुआ है। और जब ऊब उस बिंदु पर पहुंच जाती है जहां तुम और आशा नहीं कर सकते, जहां निराशा परिपूर्ण होती है, तब तुम आत्महत्या कर लेते हो। ऊब और आत्महत्या, दोनों मानवीय घटनाएं हैं।

 कोई पशु आत्महत्या नहीं करता है। कोई वृक्ष आत्महत्या नहीं करता है।ऐसा क्यों हो गया है? इसके पीछे कारण क्या है? क्या आदमी बिलकुल भूल गया है कि कैसे जीया जाता है, कि कैसे जीवन का उत्सव मनाया जाता है? जब कि सारा अस्तित्व उत्सवपूर्ण है, यह कैसे संभव हुआ कि केवल मनुष्य उससे बाहर निकल गया है और उसने अपने चारों ओर विषाद का एक वातावरण निर्मित कर लिया है?

मगर ऐसा ही हो गया है। पशु वृत्तियों के द्वारा जीते हैं; वे बोध से नहीं जीते। वे प्रकृति द्वारा संचालित होते हैं, वे यंत्रवत जीते हैं। उन्हें कुछ सीखना नहीं है; वे उसे लेकर ही जन्म लेते हैं जो सीखने योग्य है। उनका जीवन वृत्तियों के तल पर निर्बाध चलता रहता है। उन्हें कुछ सीखना नहीं है। उन्हें जीने और सुखी होने के लिए जो भी चाहिए वह उनकी कोशिकाओं में बिल्ट इन है, उसका ब्‍लूप्रिंट पहले से तैयार है। इसलिए वे यंत्रवत जीए जाते हैं।

मनुष्य ने अपने वृत्तिया खो दी हैं, अब उसके पास कोई ब्‍लूप्रिंट नहीं है। तुम बिना किसी ब्लूप्रिंट के, बिना किसी बिल्ट इन प्रोग्रेम के जन्म लेते हो। तुम्हारे लिए कोई बनी बनाई यांत्रिक रेखाएं उपलब्ध नहीं हैं, तुम्हें अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना है। तुम्हें वृत्ति की जगह कुछ ऐसी चीजें निर्मित करनी हैं जो वृत्ति नहीं हैं, क्योंकि वृत्ति तो जा चुकी। तुम्हें वृत्ति की जगह विवेक से काम लेना है; तुम्हें वृत्ति की जगह बोध से काम लेना है। तुम यंत्र की भांति नहीं चल सकते हो।

 तुम उस अवस्था के पार चले गए हो जहां यांत्रिक जीवन संभव है; यांत्रिक जीवन तुम्हारे लिए संभव नहीं है। समस्या यह है कि तुम पशु की भांति नहीं जी सकते और तुम यह भी नहीं जानते कि जीने का और कोई ढंग भी है यही समस्या है।

तंत्र सूत्र 

ओशो

Monday, December 7, 2015

जगत में विज्ञान है, चमत्‍कार नहीं

मैंने सुना है कि एक गांव के बहार एक फकीर रहता था। एक रात उसने देखा की एक काली छाया गांव में प्रवेश कर रही हे। उसने पूछा कि तुम कौन हो। उसने कहां, मैं मोत हुं ओर शहर में महामारी फैलने वाली है। इसी लिये में जा रही हूं। एक हजार आदमी मरने है, बहुत काम है। मैं रूक न सकूँगा। महीने भर में शहर में दस हजार आदमी मर गये। फकीर ने सोचा हद हो गई झूठ की मोत खुद ही झूठ बोल रही है। हम तो सोचते थे कि आदमी ही बेईमान है ये तो देखो मौत भी बेईमान हो गई। कहां एक हजार ओर मार दिये दस हजार। मोत जब एक महीने बाद आई तो फकीर ने पूछा की तुम तो कहती थी एक हजार आदमी ही मारने है। दस हजार आदमी मर चुके और अभी मरने ही जा रहे है।

उस मौत ने कहां, मैंने तो एक हजार ही मारे है। नौ हजार तो घबराकर मर गये हे। मैं तो आज जा रही हूं, और पीछे से जो लोग मरेंगे उन से मेरा कोई संबंध नहीं होगा और देखना अभी भी शायद इतनी ही मेरे जाने के बाद मर जाए। वह खुद मर रहे है। यह आत्‍म हत्या है। जो आदमी भरोसा करके मर जाता है। यदि मर गया वह भी आत्‍म हत्या हो गयी। ऐसी आत्‍मा हत्‍याओं पर मंत्र काम कर सकते है ताबीज काम कर सकते है, राख काम कर सकती है। उसमें संत वंत को कोई लेना-देना नहीं है। अब हमें पता चल गया है कि उसकी मानसिक तरकीबें है, तो ऐसे अंधे है।

एक अंधी लड़की मुझे भी देखने को मिली,जो मानसिक रूप से अंधी है। जिसको डॉक्टरों ने कहा कि उसको कोई बीमारी नहीं है। जितने लोग लक़वे से परेशान है, उनमें से कोई सत्‍तर प्रतिशत लो लगवा पा जाते है। पैरालिसिस पैरों में नहीं होता। पैरालिसिस दिमाग में होता है। सतर प्रतिशत।

सुना है मैंने एक घर में दो वर्ष से एक आदमी लक़वे से परेशान है उठ नहीं सकता है, न हिल ही सकता है। सवाल ही नहीं है उठने का सूख गया है। एक रात आधी रात, घर में आग लग गयी हे। सारे लोग घर के बाहर पहुंच गये पर प्रमुख तो घर के भीतर ही रह गया। पर उन्‍होंने क्‍या देखा की प्रमुख तो भागे चले आ रहे है। यह तो बिलकुल चमत्‍कार हो गया। आग की बात तो भूल ही गये। देखा ये तो गजब हो गया। लकवा जिसको दो साल से लगा हुआ था। वह भागा चला आ रहा है। अरे आप चल कैसे सकते है। और वह वहीं वापस गिर गया। मैं चल ही नहीं सकता।

अभी लक़वे के मरीजों पर सैकड़ों प्रयोग किये गये। लक़वे के मरीज को हिप्रोटाइज करके, बेहोश करके चलवाया जा सकता है। और वह चलता है, तो उसका शरीर तो कोई गड़बड़ नहीं करता। बेहोशी में चलता है। और होश में नहीं चल पाता। चलता है, चाहे बेहोशी में ही क्‍यों न चलता हो एक बात का तो सबूत है कि उसके अंगों में कोई खराबी नहीं है। क्‍योंकि बेहोशी में अंग कैसे काम कर रहे है। अगर खराब हो। लेकिन होश में आकर वह गिर जाता है। तो इसका मतलब साफ है।

बहुत से बहरे है, जो झूठे बहरे है। इसका मतलब यह नहीं है कि उनको पता नहीं है क्‍योंकि अचेतन मन ने उनको बहरा बना दिया है। बेहोशी में सुनते है। होश में बहरे हो जाते है। ये सब बीमारियाँ ठीक हो सकती है। लेकिन इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है। चमत्‍कार नहीं है, विज्ञान जो भीतर काम कर रहा है। साइकोलाजी, वह भी पूरी तरह स्‍पष्‍ट नहीं है। आज नहीं कल, पूरी तरह स्‍पष्‍ट हो जायेगा और तब ठीक ही बातें हो जायें।

आप एक साधु के पास गये। उसने आपको देखकर कह दिया,आपका फलां नाम है? आप फलां गांव से आ रहे है। बस आप चमत्‍कृत हो गये। हद हो गयी। कैसे पता चला मेरा गांव, मेरा नाम, मेरा घर? क्‍योंकि टेलीपैथी अभी अविकसित विज्ञान है। बुनियादी सुत्र प्रगट हो चुके है। अभी दूसरे के मन के विचार को पढ़ने कि साइंस धीरे-धीरे विकसित हो रही है। और साफ हुई जा रही है। उसका सबूत है, कुछ लेना देना नहीं है। कोई भी पढ़ सकेगा,कल जब साइंस हो जायेगी, कोई भी पढ़ सकेगा। अभी भी काम हुआ है। और दूसरे के विचार को पढ़ने में बड़ी आसानी हो गयी हे। छोटी सी तरकीब आपको बता दूँ, आप भी पढ़ सकते है। एक दो चार दिन प्रयोग करें। तो आपको पता चल जायेगा, और आप पढ सकते है। लेकिन जब आप खेल देखेंगे तो आप समझेंगे की भारी चमत्‍कार हो रहा है।
एक छोटे बच्‍चे को लेकर बैठ जायें। रात अँधेरा कर लें। कमरे में। उसको दूर कोने में बैठा लें। आप यहां बैठ जायें और उस बच्‍चे से कह दे कि हमारी तरफ ध्‍यान रख। और सुनने की कोशिश कर, हम कुछ ने कुछ कहने की कोशिश कर रहे है। और अपने मन में एक ही शब्‍द ले लें और उसको जोर से दोहरायें। अंदर ही दोहरायें, गुलाब, गुलाब, को जोर से दोहरायें, गुलाब, गुलाब, गुलाब…….दोहरायें आवाज में नहीं मन में जोर से। आप देखेंगे की तीन दिन में बच्‍चे ने पकड़ना शुरू कर दिया। वह वहां से कहेगा। क्‍या आप गुलाब कह रहे है। तब आपको पता चलेगा की बात क्‍या हो गयी।

जब आप भीतर जोर से गुलाब दोहराते है। तो दूसरे तक उसकी विचार तरंगें पहुंचनी शुरू हो जाती है। बस वह जरा सा रिसेप्‍टिव होने की कला सीखने की बात है। बच्‍चे रिसेप्‍टिव है। फिर इससे उलट भी किया जा सकता है। बच्‍चे को कहे कि वह एक शब्‍द मन में दोहरायें और आप उसे तरफ ध्‍यान रखकर, बैठकर पकड़ने की कोशिश करेंगें। बच्‍चा तीन दिन में पकड़ा है तो आप छह दिन में पकड़ सकते है। कि वह क्‍या दोहरा रहा है। और जब एक शब्‍द पकड़ा जा सकता है। तो फिर कुछ भी पकड़ा जा सकता है।

हर आदमी के अंदर विचार कि तरंगें मौजूद है, वह पकड़ी जा रही है। लेकिन इसका विज्ञान अभी बहुत साफ न होने की वजह से कुछ मदारी इसका उपयोग कर रह है। जिनको यह तरकीब पता है वह कुछ उपयोग कर रहे है। फिर वह आपको दिक्‍कत में डाल देते है।

यह सारी की सारी बातों में कोई चमत्‍कार नहीं है। न चमत्‍कार कभी पृथ्‍वी पर हुआ नहीं। न कभी होगा। चमत्‍कार सिर्फ एक है कि अज्ञान है, बस और कोई चमत्‍कार नहीं है। इग्‍नोरेंस हे, एक मात्र मिरेकल है। और अज्ञान में सब चमत्‍कार हिप्‍नोटिक होते रहते हे।  प्रत्‍येक चीज का कार्य है, कारण है, व्‍यवस्‍था है। जानने में देर लग सकती है। जिस दिन जान जी जायेगी उस दिन हल हो जायेगी उस दिन कोई कठिनाई नहीं रह जायेगी।

भारत के जलते प्रश्न 

ओशो 

Wednesday, November 25, 2015

सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा

तुमने कभी गौर किया, बाएं हाथ का उपयोग करने वाले लोगों को दबा दिया जाता है! अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो तुरंत पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता है माता पिता, सगे संबंधी, परिचित, अध्यापक सभी लोग एकदम उस बच्चे के खिलाफ हो जाते हैं। पूरा समाज उसे दाएं हाथ से लिखने को विवश करता है। दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है। कारण क्या है? ऐसा क्यों है कि दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है? बाएं हाथ में ऐसी कौन सी बुराई है, ऐसी कौन सी खराबी है? और दुनिया में दस प्रतिशत लोग बाएं हाथ से काम करते हैं। दस प्रतिशत कोई छोटा वर्ग नहीं है। दस में से एक व्यक्ति ऐसा होता ही है जो बाएं हाथ से कार्य करता है। शायद चेतनरूप से उसे इसका पता भी नहीं होता हो, वह भूल ही गया हो इस बारे में, क्योंकि शुरू से ही समाज, घर परिवार, माता पिता बाएं हाथ से कार्य करने वालों को दाएं हाथ से कार्य करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा क्यों है?

दायां हाथ सूर्यकेंद्र से, भीतर के पुरुष से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ चंद्रकेंद्र से भीतर की स्त्री से जुड़ा हुआ है। और पूरा का पूरा समाज पुरुषकेंद्रित है।

हमारा बायां नासापुट चंद्रकेंद्र से जुड़ा हुआ है। और दायां नासापुट सूर्यकेंद्र से जुड़ा हुआ है। तुम इसे आजमा कर भी देख सकते हो। जब कभी बहुत गर्मी लगे तो अपना दायां नासापुट बंद कर लेना और बाएं से श्वास लेना और दस मिनट के भीतर ही तुमको ऐसा लगेगा कि कोई अनजानी शीतलता तुम्हें महसूस होगी। तुम इसे प्रयोग करके देख सकते हो, यह बहुत ही आसान है। या फिर तुम ठंड से कांप रहे हो और बहुत सर्दी लग रही है, तो अपना बायां नासापुट बंद कर लेना, और दाएं से श्वास लेना; दस मिनट के भीतर तुम्हें पसीना आने लगेगा।

योग ने यह बात समझ ली और योगी कहते हैं और योगी ऐसा करते भी हैं प्रात: उठकर वे कभी दाएं नासापुट से श्वास नहीं लेते। क्योंकि अगर दाएं नासापुट से श्वास ली जाए, तो अधिक संभावना इसी बात की है कि दिन में व्यक्ति क्रोधित रहेगा, लड़ेगा झगड़ेगा, आक्रामक रहेगा शांत और थिर नहीं रह सकेगा। इसलिए योग के अनुशासन में यह भी एक अनुशासन है कि सुबह उठते ही सबसे पहले व्यक्ति को यह देखना होता है कि उसका कौन सा नासापुट क्रियाशील है। अगर बायां क्रियाशील है तो ठीक है, .वही ठीक क्षण होता है बिस्तर से बाहर आने का। अगर बायां नासापुट क्रियाशील नहीं है तो अपना दायां नासापुट बंद करना और बाएं से श्वास लेना। धीरे धीरे जब बायां नासापुट क्रियाशील हो जाए, तभी बिस्तर से बाहर पाव रखना।

हमेशा सुबह उसी समय बिस्तर से बाहर आना जब बायां नासापुट क्रियाशील हो, और तब तुम पाओगे कि तुम्हारी पूरी की पूरी दिनचर्या में अंतर आ गया है। तुम कम क्रोधित होगे, चिड़चिडाहट कम होगी और अधिकाधिक शांत, थिर और ठंडे अनुभव करोगे। ध्यान में अधिक गहरे जा सकोगे। अगर लड़ना झगड़ना चाहते हो, तो उसके लिए दायां नासापुट अच्छा है। अगर प्रेमपूर्ण होना चाहते हो, तो उसके लिए बायां नासापुट एकदम ठीक है।

और हमारी श्वास हर क्षण, हर पल बदलती रहती है। तुमने शायद कभी ध्यान नहीं दिया होगा, लेकिन इस पर ध्यान देना। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को इसे समझना होगा, क्योंकि रोगी के इलाज में इसका प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। ऐसे बहुत से रोग हैं, ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जिनके ठीक होने में चंद्र की मदद मिल सकती है। और ऐसे रोग भी हैं जिनके ठीक होने में सूर्य से मदद मिल सकती है। अगर इस बारे में ठीक ठीक मालूम हो, तो श्वास का उपयोग व्यक्ति. के इलाज के लिए किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक चिकित्साशास्त्र की अभी तक इस तथ्य से पहचान नहीं हुई है।

श्वास निस्तर परिवर्तित होती रहती है. चालीस मिनट तक एक नासापुट क्रियाशील रहता है, फिर चालीस मिनट दूसरा नासापुट क्रियाशील रहता है। भीतर सूर्य और चंद्र निरंतर बदलते रहते हैं। हमारा पेंडुलम सूर्य से चंद्र की ओर, चंद्र से सूर्य की ओर आताजाता रहता है। इसीलिए हमारी भावदशा अकसर ही बदलती रहती है। कई बार अकस्मात चिडचिडाहट होती है बिना किसी कारण के, अकारण ही। बात कुछ भी नहीं है, सभी कुछ वैसा का वैसा है, उसी कमरे में बैठे हो  कुछ भी नहीं हुआ है  अचानक चिड़चिड़ाहट आने लगती है।

थोड़ा ध्यान देना। अपने हाथ को अपने नाक के निकट ले आना और उसे अनुभव करना. तुम्हारी श्वास बायीं ओर से दायीं ओर चली गयी होगी। अभी थोड़ी देर पहले तो सभी कुछ ठीक था, और क्षण भर के बाद ही सभी कुछ बदल गया, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। बस, लड़ने को, झगड़ने को और कुछ भी करने के लिए तैयार हो।

ध्यान रहे, हमारा पूरा शरीर दो भागों में विभक्त है। हमारा मस्तिष्क भी दो मस्तिष्कों में विभाजित है। हमारे पास एक मस्तिष्क नहीं है; दो मस्तिष्क हैं, दो गोलार्ध हैं। बायीं ओर का मस्तिष्क सूर्य मस्तिष्क है, दायीं ओर का मस्तिष्क चंद्र मस्तिष्क है। तुम थोडी उलझन में पड़ सकते हो, क्योंकि ऐसे तो बायीं ओर सब कुछ चंद्र से संबंधित होता है, तो फिर दायीं ओर के मस्तिष्क का चंद्र से क्या संबंध! दायीं ओर का मस्तिष्क शरीर के बाएं हिस्से से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ दायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, दायां हाथ बायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, यही कारण है। वे एक दूसरे से उलटे जुडे हुए हैं।

दायीं ओर का मस्तिष्क कल्पना को, कविता को, प्रेम को, अंतर्बोध को जन्म देता है। मस्तिष्क का बाया हिस्सा बुद्धि को, तर्क को, दर्शन को, सिद्धांत को, विज्ञान को जन्म देता है।

और जब तक व्यक्ति सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा के बीच संतुलन नहीं पा लेता है, अतिक्रमण संभव नहीं है। और जब तक बाया मस्तिष्क दाएं मस्तिष्क से नहीं मिल जाता है और उनमें एक सेतु निर्मित नहीं हो जाता है, तब तक सहस्रार तक पहुंचना संभव नहीं है। सहस्रार तक पहुंचने के लिए दोनों ऊर्जाओं का एक हो जाना आवश्यक है, क्योंकि सहस्रार परम शिखर है, आत्यंतिक बिंदु है। वहां न तो पुरुष की तरह पहुंचा जा सकता है, न ही वहा स्त्री की तरह पहुंचा जा सकता है। वहा एकदम शुद्ध चैतन्य की तरह होकर, समग्र और संपूर्ण होकर पहुंचना संभव होता है।

पुरुष की कामवासना सूर्यगत है, स्त्री की कामवासना चंद्रगत है। इसीलिए स्त्रियों के मासिक धर्म का चक्र अट्ठाइस दिन का होता है, क्योंकि चंद्र का मास अट्ठाइस दिन में पूरा होता है। स्त्रियां चंद्रमा से प्रभावित होती हैं  चंद्र का वर्तुल अट्ठाइस दिन का होता है।

और इसीलिए बहुत सी स्त्रिया पूर्णिमा की रात थोड़ा पागलपन का अनुभव करती हैं। जब पूर्णिमा की रात आए, तो अपनी पत्नी या अपनी प्रेयसी से सावधान रहना। वह थोड़ी परेशान और अस्तव्यस्त हो जाती है। जैसे पूर्णिमा की रात समुद्र में ज्वार भाटा आने लगता है और समुद्र प्रभावित हो जाता है, ऐसे स्त्रियां भी उत्तप्त हो जाती हैं।

क्या तुमने कभी ध्यान दिया है? पुरुष खुली आंखों से प्रेम करना चाहता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि प्रकाश भी पूरा चाहता है। अगर किसी तरह की बाधा न हो, तो पुरुष दिन में प्रेम करना पसंद करता है। और उन्होंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है विशेषकर ‘अमेरिका में, क्योंकि उस तरह की बाधाएं और समस्याएं अब वहां पर समाप्त हो गयी हैं। वहा लोग रात्रि की अपेक्षा सुबह प्रेम अधिक करते हैं। स्त्री अंधकार में प्रेम करना पसंद करती है, जहां थोड़ी भी रोशनी न हो और अंधेरे में भी वे अपनी आंखें बंद कर लेती हैं।

चंद्रमा रात्रि में, अंधकार में चमकता है, उसे अंधकार से प्रेम है रात्रि से।

इसीलिए स्त्रियां अश्लील साहित्य में उत्सुक नहीं हैं। अब नारी मुक्ति आंदोलन के कारण, कुछ पत्रिकाओं ने प्लेबाय और इसी तरह की पत्रिकाओं के साथ प्रतिस्पर्धा की शुरुआत की है इसी प्रतिस्पर्धा के कारण प्लेगर्ल पत्रिका सामने आयी है। लेकिन मूल रूप से स्त्रियां अश्लील साहित्य में, अश्लील पत्रिकाओं में जरा भी उत्सुक नहीं होतीं। असल में तो स्त्रियों को यह समझ ही नहीं आता है कि आखिर पुरुष क्यों इतना अधिक नग्न स्त्रियों के चित्र देखने में उत्सुक रहता है। इस तथ्य को समझने में उन्हें कठिनाई अनुभव होती है।

पुरुष सूयोंमुन्धी होता है, उसे प्रकाश अच्छा लगता है। आंखें सूर्य का हिस्सा हैं, इसीलिए आंखें देखने में सक्षम होती हैं। आंखों का तालमेल सूर्य ऊर्जा के साथ रहता है। तो पुरुष आंखों से, दृष्टि से अधिक जुड़ा हुआ है। इसीलिए पुरुष को देखना अच्छा लगता है और स्त्री को प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। पुरुषों को यह समझ में ही नहीं आता है कि आखिर स्त्रियां स्वयं को इतना क्यों सजाती  संवारती हैं?

मैंने सुना है, एक दंपति हनीमून मनाने के लिए किसी पहाड़ी स्थान पर गए। युवक बिस्तर पर लेटा हुआ पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। और पत्नी थी कि अपने श्रृंगार करने में लगी हुई थी, अपने को सजाने संवारने में लगी हुई थी। उसने अपने शरीर पर पाउडर लगाया, बाल संवारे, नाखूनों पर नेल पालिश लगाई, इत्र की कुछ बूंदें कान के पीछे लगाई, बस वह अपने को सजाती ही जा रही थी। आखिरकार जब उस युवक से न रहा गया, तो वह बिस्तर से झटके से उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने पूछा, क्या बात है? आप कहां जा रहे हो? वह अपने सूटकेस की तरफ दौड़ा और बोला, अगर यह एक औपचारिक प्रेम ही रहने वाला है तो कम से कम मैं अपने कपड़े तो पहन लूं।

स्त्रियों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है वे चाहती हैं कोई उन्हें देखे। और यह एकदम ठीक भी है, क्योंकि इसी तरह से तो पुरुष और स्त्रियां एक दूसरे के अनुकूल बैठ पाते हैं पुरुष देखना चाहता है, स्त्री दिखाना चाहती है। वे एक दूसरे के अनुरूप हैं, यह एकदम ठीक है। अगर स्त्रियों को प्रदर्शन में उत्सुकता न होगी, तो वे दूसरी कई मुसीबत खड़ी कर देती हैं। और अगर पुरुष स्त्री को देखने में उत्सुक नहीं है, तो फिर स्त्री किसके लिए इतना श्रृंगार करेगी, आभूषण पहनेगी, सजेगी संवरेगी आखिर किसके लिए? फिर तो कोई भी उनकी तरफ नहीं देखेगा। प्रकृति में हर चीज एक दूसरे के अनुरूप होती है, उनमें आपस में सिन्क्रानिसिटी, लयबद्धता होती है।

लेकिन अगर सहस्रार तक पहुंचना हो, तो द्वैत को गिराना होगा। परमात्मा तक पुरुष या स्त्री की भांति नहीं पहुंचा जा सकता है। परमात्मा तक तो सहज रूप में, शुद्ध अस्तित्व के रूप में ही पहुंचा जा सकता है, स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं।

‘सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्त सिद्धों के अस्तित्व से जुड्ने की क्षमता मिल जाती है।
ऊर्जा को अगर ऊपर की ओर गतिमान करना है, तो इसकी विधि संयम है। पहली बात, अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हें तुम्हारे सूर्य के प्रति तुम्हारे सूर्य ऊर्जा के केंद्र के प्रति, तुम्हारे काम केंद्र के प्रति, पूरी तरह होशपूर्ण होना होगा। तुम्हें मूलाधार में रहना होगा, अपने संपूर्ण चैतन्य को, अपनी पूरी ऊर्जा को मूलाधार पर बरसा देना होगा। जब मूलाधार पर पूरा होश आ जाता है तो तुम पाओगे कि ऊर्जा हारा केंद्र की ओर उठ रही है, चंद्र की ओर बढ़ रही है।

और जब ऊर्जा चंद्रकेंद्र की ओर गतिमान होगी, तो तुम बहुत संतृप्ति, बहुत आनंदित अनुभव करोगे। सारी कामवासना के आनंद इसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं कुछ भी नहीं हैं। जब सूर्य ऊर्जा अपनी ही चंद्रऊर्जा में उतरती है, तो उस आनंद की सघनता उससे हजारों गुना अधिक होती है। तब सच में पुरुष और स्त्री का मिलन घटित होता है। बाहर किसी भी स्त्री से कितनी भी निकटता क्यों न हो, कितने भी करीब क्यों न हो, तुम अपने को पृथक और अलग ही अनुभव करते हो। बाहर का मिलन तो बस सतही और औपचारिक ही होता है दो सतह, दो परिधियां ही आपस में मिलती हैं। दो सतह एक दूसरे को स्पर्श करती हैं, बस इतना ही होता है। लेकिन जब सूर्यऊर्जा चंद्रऊर्जा की ओर गतिमान होती है, तब दो ऊर्जा केंद्रों की ऊर्जा आपस में मिल जाती है और जिस व्यक्ति के सूर्य और चंद्र एक हो जाते हैं, वह परम रूप से आनंदित और संतृप्त हो जाता है  और फिर वह हमेशा आनंदित और संतृप्त बना रहता है, क्योंकि इसको खोने का कोई उपाय ही नहीं है। यह आनंद और मिलन सनातन है।

अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हें अपनी संपूर्ण चेतना को हारा तक ले आना होगा, और तब तुम्हारी ऊर्जा सूर्य केंद्र की ओर बढ़ने लगेगी। 

प्रत्येक व्यक्ति में एक केंद्र निष्किय होता है और एक केंद्र सक्रिय होता है। सक्रिय केंद्र को निष्किय केंद्र के साथ जोड़ दो, तो निष्‍क्रिय केंद्र सक्रिय हो जाता है।

और जब दोनों ऊर्जाओं का मिलन होता है जब सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा एक हो रहे होते हैं, तो ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है। तब व्यक्ति ऊर्ध्वगमन की ओर बढ़ने लगता है।

पतंजलि योगसूत्र 


ओशो

Sunday, November 22, 2015

बुद्ध और सर्पराज :

जंगल में बुद्ध बैठे हैं ध्यान करने और एक सर्पराज सर्पों का राजा फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसने झुककर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किए। बुद्ध ने आंख खोली उन्होंने कहा महाराज क्योंकि देखा उसके माथे पर अदभुत मणि है जो सिर्फ नागों में सम्राटों के माथे पर होती है तो बुद्ध ने कहा महाराज क्या चाहते हैं? तो उस नाग ने कहा मैं जन्मों जन्मों से भटक रहा हूं। जो भी किया सब उलटा चला गया। कब तक सरकता रहूंगा जमीन पर? कब तक सरकता रहूंगा खाई खंदकों में अंधेरी गलियों में? कब तक सरकता रहूंगा? कब उठूंगा? कब उड़ सकूंगा? तुम्हें मैने उड़ते देखा। तुम्हारे प्राणों की ऊर्जा को कहीं जाते देखा। इसलिए पूछता हूं मुझे कुछ उपदेश है? 

‘सभी पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना और अपने चित्त का शोधन करते रहना,यही बुद्धों का शासन है। ‘

‘तितिक्षा और क्षांति परम तप हैं, बुद्ध निर्वाण को परम रहते हैं, दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता और दूसरों को सताने वाला श्रमण नहीं है। ‘ 

‘निंदा न करना, घात न करना, पातिमोक्ष में सम्बर रखना, भोजन में मात्रा जानना, एकातवास करना और चित्त योग में लगाना यही बुद्धों का शासन है।’ ये उस सर्पराज को कहे गए थे।

सोचना इसे थोड़ा। हम भी सब जमीन पर सरकते हुए सर्प हैं। अभी हमने सिर भी उठाकर कहां आकाश की तरफ देखा? अभी तो अंधी गलियो कूचों में, पोलों में, कोने कातते में हम सरकते फिरते हैं। फिर सर्प का प्रतीक ही क्यों चुना होगा? क्योंकि सर्प जन्म से ही दूसरे को चोट पहुंचाने का जहर लेकर आता है, इसलिए। उसके जहर की गांठ जन्म से ही उसके भीतर है। वह दूसरे को मारने में ही, दूसरे का घात करने में ही रस लेता है। यही तो गांठ हम भी लेकर आए हुए हैं। यह प्रतीक प्यारा है। और सर्प का प्रतीक सारे धर्मों ने चुना है। उसमें कुछ कारण है।

ईसाई कहते हैं कि सर्प ने भटकाया आदमी को। ईव को समझाया कि खा ले यह फल जो भगवान ने वर्जित किया है। ईव को फुसलाया सर्प ने। बुद्ध की इस कथा में सर्प कहता है कि कब तक मैं सरकता रहूंगा जमीन पर? हिंदू कहते हैं, कुंडलिनी जो ऊर्जा है मनुष्य के भीतर, वह सर्पाकार है। वह सर्प जैसी है। जब उठती है फन उठाकर तो उसका फन जब चोट करता है सहस्रार में तो सारे कमल खिल जाते हैं।

सर्प का प्रतीक आदमी के बहुत करीब है। उसमें कई खूबियां हैं। पहली बात, उसकी खूबी है कि सर्प बहुत चालाक। उस चालाकी के कारण ईसाइयों ने उसका प्रतीक बनाया कि उसने स्त्री को भरमाया, ईव को समझाया और अदम को ईश्वर की बगांवत में जाने का प्रोत्साहन दिया। सर्प बड़ा शैतान, क्योंकि बड़ा चालाक प्राणी है। बड़ा चालबाज। भरोसे का नहीं। उस प्रतीक का उपयोग किया।

बुद्ध की इस कथा में सर्प का प्रयोग हो रहा है इस अर्थ में कि सबकी दशा ऐसी है। कि हम जन्म से ही जहर की ग्रंथि लेकर पैदा हुए। दूसरे को चोट पहुंचाने में ही समाप्त हुए जा रहे हैं। दूसरे को मार डालने में ही हमने अपना जीवन समझा है। इसलिए। लेकिन एक दिन सर्प भी थक जाता है। तुम कब थकोगे? एक दिन सर्प भी बुद्ध से पूछता है कि मैं कब तक ऐसे ही सरकता रहूंगा! तुम कब पूछोगे? इसलिए प्रतीक चुना।

हिंदुओं ने प्रतीक चुना है कि सर्प जब खड़ा हो जाता है. तो सर्प की बड़ी खूबियां हैं, उसमें हड्डी होती नहीं। उसके पास हड्डी बिलकुल नहीं है, लेकिन सर्प खड़ा हो जाता है बिना हड्डी के। होना नहीं चाहिए वैज्ञानिक ढंग से, लेकिन सर्प पूंछ के बल खड़ा हो जाता है, फन उठाकर। और उसके पास कोई हड्डी नहीं है। तो चमत्कार है। ऐसा ही चमत्कार मनुष्य के भीतर घटता कि जो ऊर्जा काम ग्रंथि में पड़ी है, बिना किसी सहारे के, बेसहारे, बिना माध्यम खड़ी हो जाती है, सर्प जैसी। फन जाकर चोट करता है ऊपर और आखिरी ‘खुल जाता है। इसलिए हिंदुओं ने उसका वैसा प्रयोग कर लिया है। लेकिन सर्प का प्रयोग प्रतीकात्मक है। ये सूत्र बुद्ध ने सर्प को कहे थे। सभी सूत्र बुद्धों ने सर्पों को कहे हैं। क्योंकि मनुष्य अभी सर्प ही है। और इन सर्पों में भी कुछ कम, थोड़े से भाग्यवान सर्प पूछते हैं। नहीं तो पूछते ही नहीं। वे तो सोचते हैं, जैसा जी रहे हैं, वही ठीक है।

ऐसा जब तुम्हें दिखायी पड़ जाए कि सरकते सरकते वीरान रास्तों पर थक गए हो, तब तुम किसी बुद्ध के चरणों में सिर झुकाकर पूछते हो, अब क्या करें? क्या सर्प ही बने रहेंगे हम, या उठने का कोई उपाय है? 
 
उपाय है: सुख मत खोजो, दुख को देखो, दुख का कारण खोजो, दुख का कारण जानते दुख से मुक्त होने का उपाय मिल जाता, उपाय मिलते ही कौन नासमझ होगा जो उसका उपयोग न कर ले! उपयोग होते ही दुख निरोध हो जाता है। वही दशा निर्वाण की है।

इस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

Thursday, November 19, 2015

वृद्धावस्था और समाधी २

बच्चे भविष्य में रहते हैं। अतीत तो बच्चों का कुछ होता ही नहीं जो पीछे लौटकर देखें। पीछे लौटकर देखने को कुछ होता ही नहीं। इसलिए तुम भी अगर याद करोगे, बहुत याद करोगे, तो पीछे ज्यादा से ज्यादा जा सकोगे तीन चार साल की उम्र तक; उसके बाद पीछे नहीं जा सकोगे। क्योंकि तीन चार साल की उम्र तक तुमने पीछे लौटकर देखा ही नहीं था, इसलिए हिसाब नहीं रखा है। तीन चार साल की उम्र तक कोई पीछे लौटकर देखता ही नहीं आगे देखने को इतना है, कौन पीछे लौटकर देखता है! बच्चे के सामने आगे द्वार पर द्वार खुलते चले जाते हैं। बच्चे भविष्यमुखी होते हैं।

और बच्चे ही नहीं, जो समाज नए होते हैं, वे भी भविष्यमुखी होते हैं जैसे अमरीका। अभी बच्चा है। इसलिए भविष्यमुखी है। अभी उम्र ही कोई तीन सौ साल की है। अब तीन सौ साल की क्या गणना, भारत जैसे मुल्क के सामने, जो वैज्ञानिकों के हिसाब से कम से कम दस हजार साल पुरानी संस्कृति का है। और अगर वैज्ञानिकों को छोड़ दें और भारत के पंडितों की सुनें, तो वे तो कहते हैं कोई नब्बे हजार साल पुराना! लेकिन दस हजार साल तो पक्का ही समझो। दस हजार साल का पुराना, बूढ़ा भारत तीन सौ साल की उम्र भी कोई उम्र है! अमरीका आगे की तरफ देखता है, चांदत्तारों की तरफ देखता है, आकाश की तरफ देखता है। भारत? भारत पीछे की तरफ देखता है। भारत का स्वर्णयुग हो चुका, सतयुग हो चुका, बीत चुका रामराज्य सब हो चुका, भारत बूढ़ा हो गया है। सब श्रेष्ठ हो चुका, आगे देखने को कुछ भी नहीं है। आगे सिर्फ दुर्दिन है, दुर्दशा है। रोज हालत बिगड़ती जाती है। आगे से बचना चाहता है। आगे से बचने के लिए एक ही उपाय है कि पीछे की सोचता रहे। कुरेद—कुरेद कर पुरानी स्मृतियों का मजा लेता रहता है।…अब भी तुम बैठे देख रहे हो! हर साल वही रामलीला। तुमने कितनी दफा रामलीला देख ली! कुछ फर्क भी नहीं होता उस रामलीला में।

एक गांव में कुछ लोगों ने फर्क किया था, दंगा फसाद हो गया। रीवा से खबर आई थी कि रीवा कालेज में लड़कों ने सोचा कि रामलीला रामलीला होते होते कितने दिन हो गए, कुछ इसमें नया जोड़ें! कुछ इसको आधुनिक करें! इसको नई शैली दें! तो झगड़ा फसाद हो गया।

नई शैली क्या दोगे? नई शैली यह कि रामचंद्र जी टाई बांधे हुए! सूट बूट पहने हुए! और जब सीता मैया आईं, ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए, तो जनता एकदम खड़ी हो गई! अब यह बहुत हो गया! रामचंद्र जी टाई बांधें, यहां तक भी लोगों ने बर्दाश्त कर लिया था किसी तरह कि चलो ठीक है, एक मजाक है, चलेगा! मगर सीता मैया ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए जब आईं, तो फिर जूते चल गए! फिर कुर्सियां टूट गईं। फिर रामलीला आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि लोगों ने कहा अब पता नहीं आगे और क्या हो? जब शुरुआत यह है, तो आगे हालत खराब होने वाली है।

हम उसी रामलीला को देखते रहते हैं। वे ही राम, वही सीता का चोरी जाना, वही राम का जाकर युद्ध करना, वही सीता को वापस ले आना। दुनिया बदल गई, सब बदल गया, हमारी आंखें पीछे अटकी हैं।

एक गांव में रामलीला हो रही थी। युद्ध खतम हो गया, सीता वापस ले आई गईं, बस पुष्पक विमान पार बैठकर राम, सीता और लक्ष्मण वापस लौटने को हैं अयोध्या…अब पुष्पक विमान क्या? एक रस्सी में एक झूलासा लटकाया हुआ है। मगर इसके पहले कि रामचंद्र जी चढ़ पाएं, कुछ भूल चूक से खींचने वाले ने रस्सी खींच दी, झूला ऊपर उठ गया; उड़ान खटोला जा चुका, लक्ष्मण जी और रामचंद्र जी सीता मैया, तीनों ऊपर की तरफ देखते रह गए अब क्या करें? गांव के छोटे छोटे बच्चे थे जो ये बने थे, लक्ष्मण ने कहा: बड़े भैया, आपके पास टाइम टेबल अगर हो तो देखकर बताएं कि दूसरा विमान कब छूटेगा? टाइम टेबल! आखिर बच्चा तो आज का ही है! उसने सोचा कि जैसे रेलगाड़ी का टाइम टेबल होता है…एक गाड़ी छूट गई, कोई बात नहीं…तो अब यह पुष्पक विमान तो गया, अब दूसरा कब छूटेगा? कभी कभी ऐसी छोटी—मोटी नई बातें हो जाती हैं अन्यथा तो राम कथा वही की वही चलती रहती है, लोग देखते रहते हैं। लोग गुणगान करते रहते हैं। लोग अभी भी प्रतीक्षा करते हैं कि रामराज्य आ जाए!

हमारे पास भविष्य नहीं। अमरीका के पास अतीत नहीं।

बच्चों के साथ भी यही होता है, समाजों के साथ भी, सभ्यताओं के साथ भी, राष्ट्रों के साथ भी। बच्चे भविष्य में देखते हैं और बूढ़े अतीत में देखते हैं। बूढ़ा आदमी बैठकर अपनी आरामकुर्सी पर सोचा करता है: वे दिन जब वह डिप्टी कलेक्टर था! अहह! क्या दिन थे वे भी साहबियत के! जहां से निकल जाओ, वहीं नमस्कार नमस्कार हो जाता था! सब याद आते हैं वे दिन, बड़े इत्र सुगंध से भरे। सम्मान, सत्कार, डालियां सजी हुई आती थीं। आम के मौसम में आम चले आ रहे हैं। दिन थे मौज के! आगे देखे भी तो क्या? आगे देखने को कुछ है नहीं। आगे तो सब सन्नाटा है। मौत की पगध्वनि सुनाई पड़ रही है। मौत को देखना कौन चाहता है! पीछे की सोचता है कि क्या दिन थे! रुपए का बत्तीस सेर दूध मिलता था, सोलह सेर घी मिलता था, अहा!. ..अब फिर से स्वाद और चटखारे ले लेता है। दिल बाग बाग हो जाता है। फिर सुगंध आने लगती है पुराने दिनों की। ऐसे अपने को भरमाए रखता है। बूढ़ा अतीत में जीता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं: जिस दिन से तुम अतीत के संबंध में ज्यादा विचार करने लगो, समझ लेना कि बूढ़े हो गए। बुढ़ापे की यह मनोवैज्ञानिक परिभाषा है। जिस दिन से तुम्हें अतीत के ज्यादा विचार आने लगें और तुम पीछे की बातें करने लगो, कि वे दिन, अब क्या रखा है, अब दुनिया वह दुनिया न रही!

अमरीका का एक बहुत बड़ा न्यायशास्त्री पेरिस गया था। पचास साल पहले भी वे पेरिस आए थे, पति पत्नी दोनों, हनीमून मनाने आए थे। पचास साल बाद एक जिज्ञासा फिर मन में उठी कि मरने के पहले एक बार पेरिस और देख लें। क्योंकि पेरिस में जो देखा था पचास साल पहले, फिर वैसा कहीं न देखने मिला! पचास साल बाद बूढ़े हो गए हैं अब वे; पति अस्सी साल का है, पत्नी पचहत्तर साल की है; जिंदगी बह गई, गंगा की धार में बहुत पानी बह गया है; पचास साल लंबा वक्त होता है पचास साल बाद पेरिस आए, बहुत चौंका बूढ़ा! उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब पेरिस वैसा पेरिस नहीं मालूम होता! वह बात नहीं रही अब! पत्नी हंसने लगी और उसने कहा, पेरिस तो अब भी पेरिस है जरा नए नए जोड़ों की नजरों से देखो हम बूढ़े हो गए हैं। अब हम हम नहीं हैं। पेरिस तो अब भी पेरिस है। जो सुहागरात मनाने आए हैं, उनसे पूछो। अब हम पचास साल जीकर आए हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा आगे जीने को, अब जीने को भी क्या है?

मगर फिर भी उन्होंने कोशिश की कि एक बार फिर से पुनरुज्जीवित कर लें। उसी होटल में ठहरे जिस होटल में पचास साल पहले ठहरे थे उसी कमरे को मांगा कि चाहे जो कीमत लगे। खाली करवाना पड़ा, दूसरा यात्री उसमें ठहरा था, लेकिन उसको रिश्वत देकर खाली करवाया कि हम आए ही इसीलिए हैं, उसी कमरे में ठहरेंगे। उसी खिड़की से दृश्य देखेंगे। वही भोजन, वही समय। रात जब दोनों सोने के करीब आए तो पत्नी ने कहा कि और तुम भूल गए; उस रात तुमने मुझे किस तरह आलिंगनबद्ध करके चूमा था? कमरा तो वही है, चूमोगे नहीं? उसने कहा, अब नहीं मानती तो ठीक है! अभी आया। उसने कहा, कहां जाते हो? तो उसने कहा कि बाथरूम। बाथरूम किसलिए जाते हो? उसने कहा, दांत तो ले आऊं? दांत तो बाथरूम में रख आया हूं। अब पचास साल बीत गए, अब दांत भी अपने न रहे, अब दांत भी सब उधार हो गए, अब ये पोपले सज्जन दांत लगाकर फिर चुंबन लेने जा रहे हैं! यह चुंबन वही होगा? यह कैसे वही हो सकता है! यह सिर्फ अभिनय होगा। थोथा, बासा, मुर्दा। लेकिन लोग अतीत में जीने की चेष्टा करते हैं।

बूढ़े अतीत में जीते हैं।

युवावस्था का मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है: वर्तमान में जीना। शुद्ध वर्तमान में जीना। अगर तुम ठीक से समझो तो इसीलिए हमने बुद्ध महावीर की युवा मूर्तियां बनाई हैं क्योंकि वे शुद्ध वर्तमान में जिए। युवा जिनको हम कहते हैं, वे भी वहां शुद्ध वर्तमान में जीते हैं? शुद्ध युवा सिवाय बुद्ध महावीर को कोई होता नहीं। हमारा युवक भी पीछे देखता है। वह भी कहता है, बचपन के दिन बड़े सुंदर थे। हमारा युवक भी भविष्य में देखता है। वह सोचता है, अगले साल बढ़ती होगी, बड़ी नौकरी मिलेगी। हमारा युवक भी कहां युवक होता है? ठीक—ठीक आध्यात्मिक अर्थों में युवा नहीं होता। कटा कटा होता है। आधा अतीत, आधा भविष्य। थोड़ा पीछे, थोड़ा आगे। बंटा बंटा होता है। खंडित होता है। इसलिए बेचैन भी होता है। उसमें तनाव भी होता है बहुत।

बुद्ध जैसे व्यक्ति, कबीर नानक पलटू जैसे व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। न कोई अतीत है, न पीछे की कोई याद है। धूल धवांस इकट्ठी ही नहीं करते ऐसे लोग। न कोई भविष्य है, न भविष्य की कोई चिंता है। कूड़ा करकट में रस ही नहीं लेते ऐसे लोग। यह क्षण, बस यह शुद्ध क्षण पर्याप्त है। इस क्षण के आर—पार कुछ भी नहीं है। इस क्षण में डुबकी मारते हैं वही समाधि ही। शुद्ध वर्तमान में डूब जाना समाधि है। अतीत में रहना मन में रहना; भविष्य में रहना मन में रहना। ये मन के रहने के ढंग हैं अतीत और भविष्य। वर्तमान में, शुद्ध वर्तमान में डूब जाना…जरा एक क्षण को अनुभव करो! जैसे बस यही क्षण है। मैं हूं, तुम हो, ये वृक्ष हैं, ये पक्षियों की चहचहाहट है, ये सन्नाटा है; बस यह क्षणमात्र, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में न पीछे की कोई याद है, न आगे का कोई हिसाब है, स्मृति छूट गई, फिर इस अंतराल में शाश्वत की प्रतीति होने लगेगी। यही अंतराल समाधि है।

नहीं रामकृष्ण, चिंता न करो! अभी भी भीतर तो वही जीवनधारा है, जो कल थी और कल रहेगी। दौड़ नहीं सकते अब पुराने ढंग से, नाच नहीं सकते अब पुराने ढंग से चिंता न करो! बैठ कर ही मस्त हुआ जा सकता है। वर्तमान में हो जाओ, मस्त हो जाओगे। वर्तमान में हो जाओ, बेहोश भी हो जाओगे, होश में भी आ जाओगे। वही समाधि है।

सपना यह  संसार 

ओशो 


भगवान, मैं तो अब वृद्ध हो गया हूं। क्या अभी भी संभव है कि समाधि को पा सकूं?

  रामकृष्ण, समाधि का कोई संबंध समय से नहीं है। समयातीत है समाधि। देह बच्चे की है कि जवान की कि बूढ़े की, आप्रसांगिक है, आत्मा तो सदा वही की वही है। बच्चे के पास भी वही, जवान के पास भी वही, बूढ़े के पास भी वही। आत्मा की कोई उम्र नहीं होती। आत्मा शाश्वत है। उसकी उम्र कैसे हो सकती है? न उसका कोई जन्म है और न कोई मृत्यु, तो कैसा बुढ़ापा और कैसी जवानी! इसीलिए तो एक चौंकाने वाली बात अनुभव होती है जरा आंख बंद करके सोचो कि मेरे भीतर की उम्र कितनी है? और तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, कुछ तय नहीं होगा। भीतर की कोई उम्र होती ही नहीं, उम्र बाहर ही बाहर की होती है। उम्र वस्त्रों की होती है, तुम्हारी नहीं। देह बस वस्त्र मात्र है। 

इसलिए चिंतित मत होओ कि अब मैं बूढ़ा हो गया तो समाधि को पा सकूंगा या नहीं? संभावना तो इसकी है कि तुम पा सकोगे। जवानी में तो बड़े तूफान होते हैं। बुढ़ापे में तो तूफान धीरे—धीरे अपने—आप शांत हो गए होते हैं। तूफान शांत हो गए हैं, इसीलिए तो तुम्हारे मन में संन्यास का भाव जगा। तूफानों से ऊब गए हो, बहुत देख लिए, जो देखना था जिंदगी में सब देख लिया, अब देखने को बचा भी क्या है, अब तो देखने को सिर्फ परमात्मा बचा है, अब तो आंख एकाग्र होकर परमात्मा की तरफ चल सकती है। हर परिस्थिति के लाभ हैं, हर परिस्थिति की हानियां हैं याद रखना।

समझदार आदमी हर परिस्थिति से लाभ उठा लेता है, नासमझ हर परिस्थिति से हानि उठा लेता है।
 
जवानी का एक लाभ है: ऊर्जा। अपार ऊर्जा। गहन श्रम करने की सामर्थ्य। आकाश छूने की आकांक्षा। सपने देखने का साहस, दुस्साहस। वह जवानी का लाभ है। अगर उस तरंग पर चढ़ जाओ तो समाधि तक पहुंच जाओ। लेकिन कितने जवान उसका लाभ उठा पाते हैं? चढ़ते तो हैं तरंग पर, लेकिन वह तरंग उन्हें बाजार की तरफ ले जाती है। धन की तरफ, पद की तरफ, प्रतिष्ठा की तरफ। वह तरंग उन्हें राजनीति में ले जाती है। वह तरंग उन्हें क्षुद्र और क्षणभंगुर में ले जाती है। ऊर्जा तो है, लेकिन मटकी फूटीफूटी। छेदों से सब ऊर्जा बह जाती है।

 
जिंदगी विक्षिप्त हो जाती है जवानी में। लोग पागल की तरह जीते हैं। होश खोकर जीते हैं। सोचते हैं, चार दिन की जवानी है; आज है, कल तो नहीं होगी, कर लें जो करना है, भोग लें जो भोगना है; पी लें, पिला लें; जी लें, जिला लें, फिर तो मौत है। तो लोग एक त्वरा से जीते हैंमगर जीते क्या हैं, सिर्फ जीवन गंवाते हैं! हां, कोई बुद्ध ठीक युवावस्था में समाधि की तरफ चल पड़ता है। बस, लेकिन कोई बुद्ध, कभीकभी; अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग इतिहास में इतने कम हुए हैं जिन्होंने युवावस्था के ज्वार का उपयोग कर लिया, जिन्होंने युवावस्था की ऊर्जा को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया।

तब तो बड़ा अदभुत है, क्योंकि तुम्हारे पास शक्ति होती। शक्ति से कुछ भी हो सकता है। विनाश हो सकता है, सृजन हो सकता है।
         
ऐसे ही बुढ़ापे के भी लाभ हैं और हानियां हैं। हानि है, क्योंकि देह कमजोर हो गई। तो तुम उदास बैठ जाओ, हताश बैठ जाओ, क्योंकि अब तो मौत ही होनी है और क्या होना है, तो तुम मरने के पहले मरेमरे हो जाओ, ये हानि है। कि तुम देह के साथ इतना तादात्म्य कर लो कि देह की शक्ति होती क्षीण, समझो कि मेरी ही जीवनऊर्जा क्षीण हो रही है, कि मैं ही मर रहा हूं। और लाभ भी हैं बुढ़ापे के। जिंदगी देख चुके, तूफान देख चुके, आंधियां देख चुकेसब देख लिया, सब व्यर्थ पायाअब एक शांति अपनेआप सघन होने लगी। तूफान जा चुका, तूफान के बाद की शांति सघन होने लगी। संध्या आ गई, दोपहरी की धूप कट गई, अब सांझ की शीतलता आने लगी; इसका उपयोग कर लो तो यही शीतलता, यही शांति समाधि का द्वार बन जाए।

जो भी मिला, मिट्टी हो गया। और जो भी नहीं मिला, उसमें आशा अटकी रही, आंखें अटकी रहीं। मगर इतना पाने और गंवाने के बाद समझ में नहीं आता कि दूर के ढोल सुहावने! मृगमरीचिकाएं हैं। इतनी भागदौड़ के बाद दिखाई नहीं पड़ता कस्तूरी कुंडल बसै! कि अपने ही कुंडल में, कि कहीं अपने ही भीतर छिपा है रहस्य और हम बाहर दौड़ते दौड़ते व्यर्थ थक गए हैं!

जरूर अगर बाहर दौड़ना हो तो बुढ़ापा मुश्किल देगा। लेकिन बाहर दौड़ना नहीं है। बाहर क्या, दौड़ना ही नहीं है! समाधि तो रुक जाने का नाम है, ठहर जाने का नाम है, थिर हो जाने का नाम है। पड़े पड़े समाधि हो जाएगी। बैठे बैठे समाधि हो जाएगी। शरीर दौड़ कर थक चुका है, अब मन को भी कह दो कि तू भी थक! अब तू भी रुक! अब शरीर और मन दोनों की दौड़ को जाने दो। घिर जाए सन्नाटा! हो जाओ शून्य! रामकृष्ण, समाधि घट जाएगी। समाधि स्वभाव है। चुप होते ही स्वभाव का अनुभव होने लगता है। शोरगुल बुद्धि का, विचार का बंद होते ही स्वभाव की अनुभूति होने लगती है।

फिर जवानी और बुढ़ापा खयाल की बातें हैं। ऐसे जवान हैं तो जवानी में बूढ़े हैं और ऐसे बूढ़े हैं जो बुढ़ापे में जवान हैं। जवानी और बुढ़ापा शरीर की कम, मन की ज्यादा अवस्थाएं हैं।


सपना यह संसार 

ओशो 

Wednesday, November 18, 2015

भगवत्ता भविष्य में नहीं है.....

 तुम्हारी भगवत्ता वर्तमान में है, यहां और अभी है। ठीक इसी क्षण तुम भगवान हो। हां, तुम्हें इसका बोध नहीं है। तुम सही दिशा में नहीं देख रहे हो, या तुम उससे लयबद्ध नहीं हो। इतनी ही बात है। जैसे कि एक रेडियो कमरे में रखा है। ध्वनितरंगें अभी भी यहां से गुजर रही हैं; लेकिन रेडियो किसी तरंग विशेष से नहीं जुड़ा है। तो ध्वनि अव्यक्त है, अप्रकट है। तुम रेडियो को तरंग विशेष से जोड़ दो और ध्वनि  तरंग प्रकट हो जाएगी। बस लयबद्ध होने की बात है, तालमेल भर बैठाना है। यह लयबद्ध होना ही ध्यान है। और जब तुम लयबद्ध होते हो, अव्यक्त व्यक्त हो जाता है, अप्रकट प्रकट हो जाता है।

लेकिन स्मरण रहे, कामना मत करो। क्योंकि कामना तुम्हें शून्य नहीं होने देगी। और अगर तुम शून्य नहीं हो तो कुछ नहीं होगा, क्योंकि वहां अवकाश ही नहीं है। तो तुम्हारा अव्यक्त स्वभाव व्यक्त नहीं होगा। उसे व्यक्त होने के लिए, अवकाश चाहिए, स्थान चाहिए, शून्यता चाहिए।

तंत्र सूत्र 


ओशो 

ओशो की हत्या का प्रयास

ओशो ने अपनी धारदार विचार शक्ति के द्वारा सारे संसार में फैले सभी तरह के शोषण के धंधों पर तेज चोट की है। स्वाभाविक ही इससे सभी तथाकथित संतों, महंतों, धर्मों व तरह तरह के नामों से शोच्च की दुकानें खोले बैठे लोग नाराज हो गये। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक हर तल पर स्थापित शक्तियां आहत हुईं और ओशो की दुश्मन बनती चली गईं। ऐसे ही किसी संगठन के किसी व्यक्ति को इस बात के लिए तैयार किया कि वह ओशो की हत्या कर दे। उसे इस कृत्य के लिए पूरा प्रशिक्षण दिया गया। तीन माह तक उस व्यक्ति ने तैयारी की कि किस प्रकार वह ओशो को मार सके।

ओशो उन दिनों में सणमुखानंद हॉल, मुंबई में प्रवचन कर रहे थे। जब वह व्यक्ति उस हॉल में पहुंचा तो देखा कि हॉल की सभी कुर्सियां पूरी तरह से भर चुकी हैं। लेकिन स्टेज पर भी कुछ लोग बैठे चुके थे तो वह तरकीब से स्टेज पर चढ़ कर एक तरफ बैठ गया।

अब ओशो को मारना सबसे आसान था। जब ओशो आए…….प्रणाम की मुद्रा है, श्वेत चादर से ऊपर अंगों को ढका है, नीचे श्वेत लुंगी, ओशो की मुस्कुराती छबी… वह व्यक्ति तो बस देखता ही रह गया। उसके हाथ कब प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गये पता ही नहीं चला। कुछ ही देर में ओशो के मुख से मन को मोह लेने वाले वचन फूट चले। वह व्यक्ति तो बेसुध होकर ओशो की वाणी के साथ बहता ही चला गया। उसे यह भी होश नहीं रहा कि वह यहां हत्या करने आया है, उसकी जेब में रिवॉल्वर इसी काम के लिए पड़ी है। जब ओशो ने प्रवचन पूरा किया तो वह व्यक्ति आंखों में अश्रु की धाराएं लिए ओशो के पास पहुंचा, उनके चरणों में रिवॉल्वर रख दी, बताया कि वह उनकी हत्या करने आया था लेकिन उल्टा ओशो ने उसकी पाशविक प्रवृत्ति की हत्या कर दी। वह ओशो से संन्यस्त हुआ।

ओशो का कहा याद आ रहा है, ‘एक बार ऐसा हुआ कि मेरे एक मित्र भारत के एक राज्य के राज्यपाल बन गए, और उन्होंने मुझे अपने राज्य के सभी जेलों में जाने की अनुमति दे दी। और मैं सालों तक वहां जाता रहा, और मैं वहां जाकर आश्चर्यचकित था। जो लोग जेलों में हैं, वे दिल्ली में जो राजनेता हैं उनसे, अमीरों से, तथाकथित धार्मिक संतों से अधिक निर्दोष हैं।’

आँख हो तो यह देखना कितना आसान है कि जिन्हें हम अपराधी कह देते हैं उनके किसी कृत्य मात्र को इतना बडा कर देते हैं कि एक इंसान ही पूरा का पूरा उस छोटे से कृत्य के पीछे छुप जाता है, हम उसे अपराधी का तमगा दे कर एक तरफ डाल देते हैं लेकिन ओशो के आशीर्वाद तो सभी को मिलते हैं, बिना किसी भेद भाव के।


मैं मिटा कि फिर चमत्कार ही चमत्कार है। जब तक मैं है तब तक विषाद ही विषाद है।

यहां जो हो रहा है, ऐसा कहना ठीक नहीं कि मैं कर रहा हूं; मैं नहीं हूं इसलिए हो रहा है। मैं जो बोल रहा हूं मैं नहीं बोल रहा हूं कोई और बोल रहा है। यह जो सतत उपक्रम हो रहा है, इसमें मैं परमात्मा के हाथ में एक सूखे पत्ते की तरह हूं हवाएं जहां उड़ा ले जाएं! अब मेरा न कोई व्यक्तिगत लक्ष्य है, न कोई गंतव्य है। मैं ही नहीं हूं तो क्या लक्ष्य, क्या गंतव्य! परमात्मा पूरब ले जाता तो पूरब और पश्चिम ले जाता तो पश्चिम। आकाश में उठा दे तो ठीक और धूल में गिरा दे तो ठीक। जैसी उसकी मर्जी!

तुम धीरे धीरे मुझे व्यक्ति की तरह देखना बंद ही कर दो। तुम भूल ही जाओ कि यहां कोई है। तुम तो मुझे बांस की पोली पोगरी समझो। कोई बांसुरी का गीत अपना तो नहीं होता! बांसुरी से निकलता होगा। हां, अगर कोई भूल चूक होती हो तो बांसुरी की होगी, मगर गीत बांसुरी का नहीं होता। अगर बेसुरा मैं कर दूं गीत तो वह बेसुरापन मेरे बांस का होगा; लेकिन अगर गीत में कोई माधुर्य हो तो माधुर्य तो सदा उस परमात्मा का है। अगर कोई सत्य हो तो सदा उसका है; अगर कुछ असत्य हो तो जरूर बांस ने जोड़ दिया होगा। बांस के कारण जरूर गीत उतना मुक्त नहीं रह जाता, बांस की संकरी गली से गुजरना पड़ता है, संकरा हो जाता है।

मेरी भूलों के लिए मुझे क्षमा करना। लेकिन मुझसे अगर कोई सत्य तुम्हें मिल जाए, उसके लिए मुझे धन्यवाद मत देना।

मैं तो बस वैसे हूं जैसे सूरज निकले तो रोशनी फैलती है। अब कमल कोई यह थोड़े ही कहेगा कि सूरज आया और उसकी किरणों ने आकर मेरी पंखुड़ियों को खोला।

वह तो सूरज निकला, कमल खुल जाता है। रात होती है, आकाश तारों से भर जाता है। फूल खिलते हैं, गंध उड़ती है। अब वर्षा आने को है, मेघ घिरेंगे, मेघ घिरेंगे, वर्षा भी होगी, प्यासी धरती तृप्त भी होगी। यह सब हो रहा है। बस इसी होने के महाक्रम में मैं भी एक हिस्सा हूं।

और चाहता हूं मेरा प्रत्येक संन्यासी इस महाक्रम में एक हिस्सा हो जाए। उसे भाव ही न रहे अपने होने का, बस परमात्मा के होने का भाव पर्याप्त है, उसके आगे और क्या चाहिए!

तुम तो मेरे संबंध में ऐसा ही सोचना जैसे पहाड़ से एक झरना गिरता हो, कि पक्षी सुबह गीत गाते हों! तुम मुझे भूल ही जाओ। तुम जितना मेरे व्यक्ति को भूल जाओगे उतने मेरे करीब आ जाओगे। जिस दिन मैं तुम्हें व्यक्ति की तरह दिखाई ही न पडूगा उस दिन तुम बिलकुल मेरे साथ संयुक्त हो जाओगे, एक हो जाओगे।

वही घड़ी गुरु और शिष्य के मिलन की घड़ी है न गुरु गुरु रह जाता, न शिष्य शिष्य रह जाता। एक बचता है, दो खो जाते हैं। और उस दो के खो जाने में अमृत की वर्षा है, आनंद के द्वार खुलते हैं, प्रभु के मंदिर में प्रवेश होता है! और वही मेरा संदेश है।

उत्सव आमारजाति, आनंद आमारगोत्र।

ओशो

Monday, November 16, 2015

सहज होओ, स्वाभाविक होओ, स्वस्फूर्त जीवन जीओ

झेन फकीर बोकोजू के पास एक आदमी ने आकर कहा कि तुम अपने गुरु की बड़ी तारीफ करते हो, तुम्हारे गुरु में खूबी क्या है? मेरा गुरु चमत्कारी है! अब अपनी आंखों देखा चमत्कार तुम्हें बताता हूं। एक दिन गुरु ने मुझसे कहा कि पूर आई नदी में तू उस तरफ चला जा! नाव में बैठकर मैं उस तरफ गया। मुझे एक कोरा कागज दे दिया और कहा कि उस तरफ तू कोरा कागज ऊंचा करके खड़ा हो जाना, और मैं इस किनारे से लिखूंगा अपनी कलम से और तेरे कागज पर अक्षर उभरेंगे। और उभरे! गुरु उस तरफ, कोई आधा मील फासले पर, मैं इस तरफ, गुरु ने लिखा वहां से अपनी कलम से और अक्षर उभरे मेरे कागज पर। ऐसा चमत्कार गुरु ने मुझे दिखाया। तुम्हारे गुरु ने क्या किया, तुम्हारे गुरु का चमत्कार क्या है? बोकोजू ने जो वचन कहा, सोने के अक्षरों में लिख लेने जैसा है, हृदय में खोद लेने जैसा है। बोकोजू ने कहा कि मेरे गुरु का चमत्कार यह है कि वे चमत्कार कर सकते हैं और नहीं करते।

चमत्कार कर सकते हैं और नहीं करते! इतनी उनकी सामर्थ्य है! कठिन सामर्थ्य है। चमत्कार तुम कर सको और न करो! जरासी कला आ जाएगी, दिखाने का मोह आता है, प्रदर्शन का भाव जगता है, क्योंकि अहंकार की पूजा तो तभी होगी जब प्रदर्शन होगा। हाथ से राख निकाल सको, फिर तुमसे न रुका जाएगा। फिर तुम चलोगे तलाश में कि मिलें कोई बुद्धू जो राख देखने को उत्सुक हों, हाथ से राख गिरे और वे चमत्कार मानें। तुम कुछ छोटा कुछ खेल कर पाओ, कुछ मदारीगिरी कर पाओ, तो बस करना शुरू कर दोगे। लोग ऐसे मूढ़ हैं कि व्यर्थ में लेकिन अप्राकृतिक में उनकी उत्सुकता है, सहज स्वाभाविक में नहीं।

बोकोजू ने यह भी कहा कि मेरे गुरु से मैंने पूछा था कि आपके जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है? तो मेरे गुरु ने कहा कि जब मुझे भूख लगती तब मैं भोजन करता और जब मुझे प्यास लगती तब मैं पानी पीता और जब मुझे नींद आ जाती तो मैं सो जाता। इतना ही उत्तर उन्होंने मुझे दिया था और अब मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं है।

मैं भी अपने अनुभव से तुमसे कहता हूं कि सहज और स्वाभाविक होने से बड़ा चमत्कार और कोई नहीं है। मगर वह दुनिया में दिखाई नहीं पड़ता सहज और स्वाभाविक होना। अस्वाभाविक दिखाई पड़ता है, असहज दिखाई पड़ता है। इसलिए जो चीजें जितनी अस्वाभाविक हैं उतनी मूल्यवान हो गईं। उपवास मूल्यवान हो गया, क्योंकि भूख सहज है, स्वाभाविक है। बिना भूख के आदमी जी ही नहीं सकता। बिना भोजन के आदमी जी नहीं सकता। भूख स्वाभाविक है, भोजन अनिवार्य है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। इसीलिए सारी दुनिया में उपवास का महत्व हो गया। क्योंकि उपवास उलटा है। जो आदमी उपवास करे, उसके प्रति तुम्हारे मन में सम्मान पैदा होता है। क्यों? क्योंकि वह प्रकृति के प्रतिकूल जा रहा है। सिर के बल खड़ा हो रहा है। इसलिए उपवासी जगह जगह पूजे जाते हैं। कौन कितना बड़ा उपवासी है उतना बड़ा महात्मा है। कर रहा है केवल शरीर के साथ अत्याचार; कर रहा है केवल आत्महिंसा; सता रहा है अपने को, मार रहा है अपने को, आत्मघाती है, लेकिन पंडित पुरोहितों ने तुम्हें तरकीबें दी हैं। ये ईंटें हैं जिनसे अहंकार की दीवाल मजबूत होती चली जाती है, बड़ी होती चली जाती है।

एक तो भूख, दूसरी कामवासना सहज स्वाभाविक है। क्योंकि उससे ही तो मनुष्य पैदा हुआ है। उसको भी पकड़ लिया पंडित पुरोहितों ने। दबाओ कामवासना को! तो ब्रह्मचर्य का बड़ा मूल्य हो गया। अपनी कामवासना को बिलकुल दबा डालो तो तुम महान पुरुष हो गए। दबी रहेगी भीतर, आग की तरह सुलगेगी भीतर, लेकिन दबा दो गहरे में, अपने अचेतन में। सड़ाएगी तुम्हें वहां से, तुम्हारी आत्मा को गंदा करेगी—जितनी दबी हुई कामवासना आत्मा को गंदा करती है और परमात्मा से दूर करती है व्यक्ति को, उतनी कोई और चीज नहीं। क्योंकि जिसने कामवासना को दबाया है, वह चौबीस घंटे कामवासना ही कामवासना से भरा रहता है। जिसने उपवास किया है, वह चौबीस घंटे भोजन ही भोजन की सोचता है, रात सपने भी भोजन के देखता है।

तुम्हारे साधु संन्यासी दो ही तरह के सपने देखते हैं भोजन के और कामवासना के। या तो सुंदर स्त्रियां उन्हें सताती हैं सपने में…अब किस सुंदर स्त्री को पड़ी है? और यह कोई नई बात नहीं है कि आजकल के कलियुग के साधुओं के संबंध में सच हो, सतयुग के साधुओं के साथ भी यही सच था और भी ज्यादा सच था। अप्सराएं सताती थीं उनको आकाश से उतर उतर कर। किस अप्सरा को पड़ी है! ये रूखे सूखे कंकाल ऋषिमुनि, वर्षों से नहाए नहीं, धोए नहीं, लक्स टायलेट साबुन का नाम नहीं सुना, इनके पास आओ तो बदबू आए, ये पसीने, धूल धवांस से भरे और इतने से इनकी तृप्ती नहीं होती और राख लपेटे, भभूत रमाए; इनके बालों में जितनी जूं हों उतनी किसी के बालों में नहीं…जब पशु पक्षी तक घोंसला बना लेते हैं इनके बालों में तो जूंए इत्यादि की तो गिनती क्या करनी, पिस्सू इत्यादि का तो हिसाब ही क्या लगाना! जब पक्षी में घोंसला बना लेते हों और ये टस से मस नहीं होते, फिर कहना ही क्या! इन पर स्वर्ग की अप्सराएं मोहित हो जाती हैं। इनमें क्या देखकर मोहित होती होंगी? उर्वशी चली, नाचती, सोलह शृंगार करके, ये मुनि महाराज को सताने!

न तो कहीं कोई अप्सराएं हैं, न कहीं कोई अप्सराएं किसी को सताने आती हैं। ये इनके ही अचेतन में दबाए गए भाव हैं। इतने दबा लिए हैं कि अब ये खुली आंख सपना देख सकते हैं। कम दबाओ तो बंद आंख सपना देख सकते हो, ज्यादा दबाओ तो खुली आंख सपना देख सकते हो। ये एक तरह के विभ्रम में पड़ गए हैं। ये संसार की माया तो छोड़ आए हैं, कहते हैं, लेकिन अब इन्होंने अपना माया जाल खड़ा कर लिया है। ये सपना देख रहे हैं इंद्र के सिंहासन पर होने का। और इसलिए ये इस तरह की परिकल्पना कर रहे हैं कि शायद इंद्र ने अपने सिंहासन को डांवाडोल होते देखकर अप्सराओं को भेजा है भ्रष्ट करने।

इन्हीं ऋषि मुनियों ने लिखा है: स्त्री नरक का द्वार है। अनुभव से लिखा होगा। क्योंकि ऋषि मुनि तो अनुभव की बात कहते हैं। गए होंगे नर्क में स्त्री के द्वार से। कैसे इन्होंने जाना कि स्त्री नरक का द्वार है? ऋषि मुनि स्वर्ग जाते हैं, इनको नर्क का अनुभव कैसे हुआ? इन्होंने इसी जिंदगी में नरक देख लिया है। स्त्री को दबाया है तो उसने नरक खड़ा कर दिया है। स्त्री पुरुष को दबाए तो पुरुष नरक का द्वार हो जाएगा।

मैंने सुना है…आगे की कहानी है…हेमामालिनी मरी। वैतरणी नदी पर पहुंची। चित्रगुप्त महाराज खड़े हैं प्रतीक्षा में। कहा: बिटिया, तख्ती लगी है, ठीक से पढ़ लो! बड़ी तख्ती लगी थी, जिस पर दो हड्डियों का क्रास बना और ऊपर एक आदमी की खोपड़ी और अंग्रेजी में लिखा: डेंजर और हिंदी में लिखा: खतरा। सावधान! जैसा स्प्रिट की बोतलों पर लिखा रहता है। या जहां बिजली का बहुत वोल्टेज होता है वहां लिखा रहता है। नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है कि वैतरणी पार करते समय एक बात ध्यान रहे: उनके लिए जिनके मन में कामवासना न उठे, वैतरणी छिछली है। घुटनों से ज्यादा पानी नहीं। लेकिन जैसे ही कामवासना उठी कि वैतरणी गहरी हो जाती है। एकदम डुबकी खा जाता आदमी! और डुबकी खाई कि गए नरक! तो कहा: बिटिया, ठीक से पढ़ ले! अनेक डूब गए हैं। हेमामालिनी ने कहा: आप फिक्र न करो। हेमामालिनी चली वैतरणी पार करने। आधी वैतरणी पार हो गई, तब अचानक धड़ाम की आवाज आई; पीछे लौटकर देखा, चित्रगुप्त महाराज डुबकी खा रहे हैं! उसने पूछा: अरे बापू, क्या हुआ? चित्रगुप्त महाराज ने कहा: ठीक रहा है शास्त्रों में कि स्त्री नरक का द्वार है। मार गए डुबकी, चले गए नरक!

जितना दबाओगे उतना उभरने की संभावना है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। और दमन अहंकार को परिपुष्ट करने की सबसे बड़ी प्रक्रिया है। सहज होओ, स्वाभाविक होओ, स्वस्फूर्त जीवन जीओ। प्रकृति के अनुकूल, सब अर्थों में। अपने की जबर्दस्ती सता कर स्वर्ग न ले जा सकोगे। परमात्मा आत्म हिंसकों को सम्मान नहीं दे सकता। कम से कम परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया है उसका सम्मान करो। उस जीवन में ही तो परमात्मा छिपा है।

सपना यह संसार 


ओशो 
ओशो 


महा आस्तिकता

एकनाथ के संबंध में भी मैंने कहानी सुनी है। गांव में एक आदमी था जो बड़ा नास्तिक। आस्तिकों को झकझोर डाला था उसने। आखिर आस्तिक परेशान हो गए, उन्होंने कहा, अगर तुम्हें कोई आदमी समझा सकता है तो बस एकनाथ। और कोई तुम्हें नहीं समझा सकता। उसने कहा, कहां हैं एकनाथ? तो उन्होंने कहा, वे दूसरे गांव में नदी के किनारे एक मंदिर में रहते हैं। तुम चले जाओ वहीं। वह आदमी सुबह ही सुबह…ब्रह्ममुहूर्त में पहुंच गया, सोच कर कि साधु से मिल लेना ब्रह्ममुहूर्त में ही ठीक होगा! फिर निकल पड़ें भिक्षा मांगने या और कहीं चले जाएं!

तो पांच बजे ही पहुंच गया। पांच बजे से बैठा है मंदिर के दरवाजे पर। दरवाजा खुला है और एकनाथ सोए हैं। जरा उजाला हुआ तो वह बहुत हैरान हुआ; जो देखा उस पर आंखों को भरोसा न आया; आंखें पोंछीं, धोयीं पानी से, फिर फिर देखा, जो देखा उस पर भरोसा नहीं आता था, नास्तिक हो कर भी नहीं आता था। सोचने लगा कि यह तो महा नास्तिक मालूम होता है। वह शंकरजी की पिंडी पर पैर टेके सो रहे थे। कम से कम नानक तो पैर किए थे सिर्फ, कोई काबा पर पैर टेक नहीं दिए थे, सिर्फ उस दिशा में पैर किए थे, एकनाथ और एक कदम आगे बढ़ गए!…नानक की कहानी सुनी होगी, सोचा वही क्या करना, जरा और आगे! शंकरजी की पिंडी पर पैर टेके हैं और मस्त पड़े है; पैरों को तकिया दिया हुआ है शंकरजी की पिंडी का!

वह नास्तिक की छाती दहल गई। उसने कहा, मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को मानता भी नहीं, लेकिन अगर मुझसे कोई कहे कि शंकरजी की पिंडी को पैर लगाओ, तो मैं भी लगाऊंगा नहीं; हो न हो, कौन जाने; फिर पीछे झंझट हो मरने के बाद, कहे कि क्यों, अब बोलो! हालांकि मैं मानता हूं कि ईश्वर नहीं है। मगर यह मान्यता मान्यता ही है।

 अनुमान अनुमान है, तर्क तर्क है, पता नहीं हो ही! कौन देख आया! मरकर लौटकर किसी ने कहा तो नहीं कि नहीं है! न किसीने कहा है, न किसी ने कहा, नहीं है, दोनों संभावनाएं खुली हैं, विकल्प खुले हैं। कौन जाने? पचास पचास प्रतिशत का मामला! फिफ्टी फिफ्टी! हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। मगर यह आदमी तो हद है! यह सौ प्रतिशत माने बैठा है कि नहीं है। यह तो तकिया लगाए हुए है। इससे क्या हल होगा?

मन में तो हुआ कि लौट जाऊं, इससे क्या हल पूछना है, यह और मुझे बिगाड़ेगा। मगर अब इतनी दूर आ गया था तो सोचा कि जरा बात तो कर लूं, आदमी वैसे जानदार मालूम पड़ता है! और जिस मस्ती से सो रहा है! छह बज गए, सात बज गए, आठ बज गए…कहा, हद हो गई, यह कैसा साधु! साधु को तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। यह तो साधुओं और तामसियों का ढंग है कि पड़े हैं, सो रहे हैं आठ आठ, नौ नौ बजे तक। यह आदमी बिलकुल नास्तिक है।

नौ बजे एकनाथ उठे। उस आदमी ने कहा, महाराज, पूछने तो बहुत कुछ आया था, लेकिन अब कुछ और ही पूछने के लिए सवाल उठ गए हैं मन में। पहले तो यह कि साधु को ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। तो एकनाथ ने कहा, तुम क्या समझ रहे हो मैं ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठा? अरे, साधु जब उठे तब ब्रह्ममुहूर्त। और कौन तय करेगा ब्रह्ममुहूर्त? कोई ठेका लिया है किसी ने? कोई सील मुहर लगी है? ब्रह्ममुहूर्त का क्या अर्थ है? ब्रह्म को जानने वाला जब उठे। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण, ब्रह्म को जानने वाला जब उठे तब ब्रह्ममुहूर्त। अज्ञानियों के जगने से ब्रह्ममुहूर्त हो सकता है! सारी दुनिया के अज्ञानी उठ आएं पांच बजे तो भी कुछ नहीं होता। एकनाथ ने कहा, जब मैं उठूं, तब समझना ब्रह्ममुहूर्त। 

वह आदमी बोला कि बात तो जंचती है? मगर दूसरी बात! चलो यह भी ठीक कि जब साधु उठे तब ब्रह्ममुहूर्त; शंकरजी की पिंडी पर पैर क्यों टेके पड़े हो? शर्म नहीं आती, संकोच नहीं लगता? आस्तिक हो या नास्तिक? एकनाथ ने कहा कि यह सवाल जरा झंझट का है! मैं खुद ही पूछ रहा हूं भगवान से आज कई साल हो गए कि बता, कहां पैर रखूं? तू बता, कहां पैर रखूं? जहां पैर रखूं वहीं तू है। आखिर कहीं तो पैर रखूं! कोई अपने सिर पर तो पैर रख न लूं। तेरे ही सिर पर पड़ेंगे। तो उसने ही मुझसे कहा कि तू झंझट न कर, पिंडी पर पैर रख ले यहां मैं कम से कम हूं। पंडित पुरोहितों के कारण यहां मैं रह ही नहीं पाता। तब से मैं पिंडी पर ही पैर रखने लगा, मैं भी क्या करूं? जब वही कहे तो आज्ञा माननी पड़ेगी।

एकनाथ जिस अपूर्व प्रेम से भरकर यह बात कह रहे हैं, तो शंकर की पिंडी पर भी पैर रखने का अधिकार है। लेकिन इसका कारण देख रहे हो। महा आस्तिकता इसका कारण है। झुके आस्तिक, तो भक्ति, प्रतिमा को जला डाले, तो आराधना। सवाल भीतर का है। सवाल बाहर का नहीं है। अपने हृदय को ही टटोलते रहो, वही है दिशासूचक यंत्र।

सपना यह संसार 

ओशो 

Sunday, November 15, 2015

बुद्धि सबसे बड़ी जालसाज है

मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ सिनेमा देखने गया हुआ था। सिनेमा में सभी बोर हो रहे थे। पिक्चर जो थी, वह उनकी समझ के बाहर थी। मुल्ला नसरुद्दीन से कुछ ही आगे एक गंजा व्यक्ति बैठा हुआ था। मुल्ला के मित्र ने मुल्ला से कहा, मुल्ला, पिक्चर तो बोर कर रही है; कुछ करो कि मनोरंजन हो। यदि तुम उस गंजे व्यक्ति के सिर पर एक चपत रसीद कर दो तो मैं तुम्हें दस रुपए दूंगा। लेकिन एक शर्त है कि वह व्यक्ति नाराज न हो, क्रोधित न हो। मुल्ला बोला, अरे, यह कौन सी बात है, अभी लो! फिल्म का इंटरवल हुआ, मुल्ला उठा और पीछे से जाकर उसने गंजे आदमी की चांद पर एक चपत रसीद की और बोला: अरे चंदूलाल, तुम यहां बैठे हो! हम तुम्हें देखने तुम्हारे घर गए थे। वह व्यक्ति बोला: माफ कीजिए, भाई साहब, मैं चंदूलाल नहीं। आपको शायद गलतफहमी हुई है, मेरा नाम नटवरलाल है। मुल्ला ने कहा, ओह, क्षमा करिए, भाई साहब, मुझे धोखा हो गया। और उसके बाद मुल्ला गर्व से छाती फुलाए मित्र के पास आया और बोला कि चलो, निकालो दस रुपए!

मित्र ने दस रुपए दिए और बोला, मुल्ला, अब की बार बीस रुपए दूंगा यदि तुम इस गंजे आदमी की चांद पर एक चपत और लगा दो। मुल्ला बोला, अभी लो, यह कौनसा बड़ा काम है! मुल्ला गया और जाकर फिर उसकी चांद पर एक चपत रसीद की और बोला: अबे साले, चंदूलाल, मुझे ही बेवकूफ बना रहे हो! मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं। तेरी यह नाटक करने की आदत जाएगी या नहीं? वह व्यक्ति फिर बोला, भाई साहब, माफ करिए, मैं चंदूलाल नहीं, नटवरलाल हूं। मैं किसी चंदूलाल को जानता भी नहीं! मुल्ला ने पुनः उससे क्षमा मांगी और वापस आकर मित्र से बीस रुपए वसूल किए।

मित्र ने बीस रुपए देते हुए कहा, मुल्ला, यदि एक चपत तुम और लगा सको उस गंजे को तो ये पचास रुपए तुम्हारे! मगर शर्त वही है कि वह न नाराज हो और न क्रोधित ही हो। मुल्ला ने कहा, चिंता मत करो, होने दो पिक्चर समाप्त, चलो बाहर, अभी लगाए देता हूं एक चपत और।

पिक्चर समाप्त हुई, सब बाहर आए, मुल्ला ने जाकर और भी जोर से उस व्यक्ति की गंजी खोपड़ी पर एक चपत रसीद की और बोला, अबे साले चंदूलाल के बच्चे, तुम साले यहां हो और तुम्हारे धोखे में भीतर हाल में मैंने बेचारे नटवरलाल को दो चपतें रसीद कर दीं! उस व्यक्ति ने रुआंसे स्वर में, बिलकुल मरी हुई आवाज में उत्तर दिया, भाई साहब, आप क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं; मैं चंदूलाल नहीं, नटवरलाल हूं।

बुद्धि बहुत चालाक है। रास्ते खोज सकती है। ऐसे रास्ते, जिनकी तुम कल्पना भी न कर सको। और बुद्धि ने बहुत रास्ते खोजे हैं। बुद्धि ने आदमी को बहुत भटकाया है। बुद्धि हर जगह से रास्ता निकाल लेती है, तरकीब निकाल लेती है। मैं पाखंड विरोधी हूं, तुम्हारी बुद्धि ने उसमें से रास्ता निकाल लिया, मुझसे ही बचने का। तुम्हारी बुद्धि ने उसमें से रास्ता निकाल लिया अपने अहंकार को बचाने का, तुम्हारी बुद्धि ने उसमें से रास्ता निकाल लिया दूसरों की निंदा करने का। मैंने जो कहा, वह तो तुम समझे ही नहीं, तुमने जो समझना था वह समझ लिया। और शायद तुम सोचते होओगे कि तुम मेरे असली संन्यासी! क्योंकि मेरी बात का कैसा अनुसरण कर रहे हो! जरा भी पाखंड नहीं! और पाखंड शब्द का भी अर्थ तुमने बदल लिया।

पाखंड का अर्थ होता है: द्वंद्व, भीतर द्वैत। बाहर कुछ, भीतर कुछ। लेकिन बाहर—भीतर अगर जुगलबंदी है, फिर कैसा पाखंड! फिर तो कोई कारण नहीं पाखंड का।

जरा सावधान रहना अपनी बुद्धिमानी से। इस दुनिया में सबसे ज्यादा सावधान होने की जरूरत है अपनी बुद्धिमानी से। क्योंकि सबसे बड़े धोखे वहीं पैदा होते हैं। सबसे बड़ी चालबाजियां वहीं पैदा होती हैं।

एक एकांत प्रिय साधु अपनी पत्नी के साथ जंगल में एक छोटासा झोपड़ा बनाकर सुख से रहा करते थे। लेकिन अक्सर ऐसा होता था कि जंगल में आने जाने वाले लोग कभी रास्ता भटक जाते या लौटते में उन्हें शाम हो जाती तो वे साधु की झोपड़ी देखकर वहां शरण मांगते। साधु इससे बहुत परेशान था। एक दिन शाम का समय था, साधु अपनी पत्नी के साथ शाम का मजा ले रहा था, तभी उसने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन चला आ रहा है। वह पुराना परिचित है, यदि शरण मांगेगा तो मना किया भी नहीं जा सकता था। अतः साधु की पत्नी ने एक उपाय सुझाया कि हम दोनों कमरे में बंद हो जाएं और ऐसा अभिनय करें कि जैसे बहुत झगड़ा चल रहा है। संभवतः मुल्ला यह देखकर कि ये लोग झगड़ रहे हैं, अब इनसे क्या शरण मांगना, ऐसा सोचकर स्वयं ही चला जाएगा।

उन लोगों ने ऐसा ही किया। कमरे के दरवाजे बंद कर साधु ने गाली बकना शुरू कर दिया और एक डंडे से तकिया पीटना शुरू कर दिया। वे अभिनय में तो कुशल थे ही बड़े पुराने साधु थे! पत्नी ने जोर जोर से रोना और बचाओ, बचाओ, मत मारो, ऐसा चिल्लाना शुरू कर दिया। ऐसा वे लोग करीब आधा घंटा तक करते रहे। जब नसरुद्दीन के चले जाने का उन्हें भरोसा हो गया, तब वे निकल कर बाहर आए और आंगन में पड़ी खाट पर बैठ गए, साधु ने हंसते हुए कहा, साला, भाग गा! देखा मैंने कैसा मारा? पत्नी ने भी मुस्करा कर कहा, और देखा, मैं भी कैसी रोई! तभी खाट के नीचे से सिर निकलकर मुल्ला नसरुद्दीन बोला, और देखा, मैं भी कैसा भागा!

तुम जरा सावधान रहना। तुम जरा होशियार रहना। इस दुनिया में और कोई बड़ा लुटेरा नहीं है जो तुम्हें लूट ले, इस दुनिया में और कोई बड़ा जालसाज नहीं है जो तुम्हें धोखा दे दे, तुम्हारी बुद्धि सबसे बड़ी जालसाज है। और इस कुशलता से देती है धोखे और ऐसी सादगी से देती है धोखे कि स्मरण भी नहीं आता कि धोखा हो रहा है।

प्रेम कभी पाखंड नहीं है। तर्क सदा पाखंड है। प्रेम कभी भी अंधा नहीं है। तर्क सदा अंधा है। प्रेम कभी भी पागल नहीं है। तर्क विक्षिप्तता की ही एक प्रक्रिया है।

सपना यह संसार 

ओशो

एक मित्र ने पूछा है, कि आप पाखंड का विरोध करते हैं लेकिन यहां लोग आपकी कुर्सी के सामने सिर झुका रहे हैं! सरासर पाखंड हो रहा है! तो फिर इस पाखंड में और मंदिर की प्रतिमा के सामने झुकने में क्या भेद है?

मस्तिष्क का प्रश्न है। अगर कोई मंदिर की प्रतिमा में भी इतने ही भाव से झुक रहा है जितने भाव से यहां, तो वहां भी पाखंड नहीं है। पाखंड प्रतिमा के सामने झुकने में नहीं है, पाखंड तो तब है जब कि सिर्फ मस्तिष्क झुक रहा है और हृदय में कोई अनुभव नहीं हो रहा है। पत्थर की भी पूजा प्रेमपूर्ण हो तो पत्थर परमात्मा है। और परमात्मा की भी पूजा पत्थर की तरह हो तो सब पाखंड है।

लेकिन जिसने पूछा है, सोचा है कि बहुत बुद्धिमानी का प्रश्न पूछ रहा है। जिसने पूछा है, उसको खयाल है कि उसने ऐसा सवाल पूछा है जिसका जवाब नहीं हो सकता। मैं निश्चित पाखंड का विरोधी हूं। पाखंड का अर्थ तुम समझते हो? पाखंड का अर्थ होता है, जहां हृदय न हो, जहां हृदय का तालमेल न हो, जहां हृदय की जुगलबंदी न बंधी हो, वहां झुकना। क्योंकि मां ने कहा, पिता ने कहा, परिवार ने कहा, तो झुक गए मंदिर में, मस्जिद में। तुमने जाना? अगर तुम अपने जानने से झुके होओ, अगर तुम्हारा प्रेम ही तुम्हें झुकाया है, तो कौन कहता है यह पाखंड है? जरा भी पाखंड नहीं।

झेन फकीर इक्कू एक मंदिर में ठहरा। रात है सर्द। इतनी सर्द, इतनी ठंड पड़ रही है कि बाहर बर्फ गिर रही है। गरीब फकीर के पास एक ही कंबल है, वह उसकी सर्दी को नहीं मिटा पा रहा है। वह उठा कि मंदिर में कुछ लकड़ी तलाश लाए। और लकड़ी तो न मिली लेकिन बुद्ध की प्रतिमाएं थीं, वे लकड़ी की थीं। कई प्रतिमाएं थीं, तो वह एक प्रतिमा उठा लाया, आग जला ली। मंदिर में जली आग, लकड़ी की चट चटाक, अचानक रोशनी का होना, पुजारी जग गया। भागा हुआ अया। आगबबूला हो गया। आंखों पर भरोसा न आया कि एक फकीर, जिसको लोग सिद्धपुरुष समझते हैं, वह भगवान की प्रतिमा जला रहा है! इससे बड़ी और नास्तिकता और बड़ा कुफ्र क्या होगा? उसने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? होश में हो कि पागल हो? भगवान की प्रतिमा जला रहे हो! इक्कू हंसा, उसने पास में ही पड़े अपने संडे को उठाया, प्रतिमा तो जल गई थी, बस अब राख ही रह गई थी, उस राख में डंडे को डालकर टटोला। पुजारी पूछने लगा अब क्या खोज रहे हो? सब राख हो चुका। इक्कू ने कहा, भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं। पुजारी ने सिर से हाथ मार लिया। उसने कहा, तुम निश्चित पागल हो। अरे, लकड़ी की मूर्ति में कहां की अस्थियां! इक्कू ने कहा, यही तो मैं कहूं। रात अभी बहुत बाकी, बर्फ जोर से पड़ रही है और मंदिर में तुम्हारे मूर्तियां बहुत हैं, एक दो और उठा लो! और मैं ही क्यों तापूं, तुम भी ठिठुर रहे हो, तुम भी तापो। जब अस्थियां नहीं हैं, तो कैसा भगवान!

ऐसे आदमी को मंदिर में टिकने देना खतरनाक था। क्योंकि पुजारी आखिर सोएगा। यह और मूर्तियां जला दे! बहुमूल्य चंदन की मूर्तियां हैं। इक्कू को धक्के मार कर उसने बाहर निकाल दिया। इक्कू ने बहुत कहा कि बर्फ पड़ रही है, और भगवान को बाहर निकाल रहे हो! लकड़ी की मूर्तियां बचा रहे हो और मुझे जीवित बुद्ध को बाहर निकाल रहे हो! लेकिन उसने बिलकुल नहीं सुना, उसने कहा तुम पागल हो। तुम और बुद्ध! धक्के देकर दरवाजा बंद कर लिया।

सुबह जब उसने दरवाजा खोला मंदिर का तो देखा कि इक्कू बाहर बैठा है और जो मील का पत्थर है उस पर फूल चढ़ा कर आराधना में झुका है और उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे हैं। पुजारी ने जाकर हिलाया और कहा कि तुम मुझे और परेशान न करो; तुम मुझे और उलझाओ मत, ऊहापोह में मत डालो! रात मंदिर में भगवान की मूर्ति जलाई, अब सुबह राह के किनारे लगे मील के पत्थर पर फूल चढ़ा कर आराधना कर रहे हो! इक्कू ने कहा, जहां आराधना है, वहां आराध्य है। पत्थर को भी प्रेम से देखो तो परमात्मा है और परमात्मा को भी सिर्फ बुद्धि से देखते रहो, तो परमात्मा नहीं। रात जो मैंने मूर्ति जलाई, अपनी सर्दी मिटाने को न जलाई थी, तुम्हारा पाखंड जलाने को जलाई थी। तुम्हें याद दिलाना चाहता था कि तुम यह पूजा व्यर्थ ही कर रहे हो, क्योंकि तुमने खुद ही कहा कि अरे पागल, लकड़ी में अस्थियां कहां? अगर तुमने यह आराधना सच में की होती तो ऐसा वचन तुमने न निकल सकता था। भीतर तो तुम जानते हो कि लकड़ी ही है, ऊपर मानते हो कि भगवान है।

पाखंड का अर्थ होता है: भीतर कुछ, बाहर कुछ। जिन मित्र ने पूछा है, उन्हें पाखंड शब्द का भी अर्थ नहीं मालूम। पाखंड का अर्थ होता है: भीतर एक, बाहर दूसरी बात, ठीक उलटी बात। लेकिन अगर बाहर भीतर एकरस हो, जुगलबंदी बंधी हो, फिर कैसा पाखंड!

तो अगर कोई प्रीति से पत्थर के सामने झुके प्रीति कसौटी है तो पत्थर भगवान है। क्योंकि जहां झुक जाओ तुम, वहां भगवान है। तुम्हारा समर्पण भगवान है। लेकिन कोई ऐसे ही औपचारिकता से, सामाजिक व्यवहार से, और लोग झुकते हैं इसलिए झुकना चाहिए, औरों को झुकते देखकर झुकता हो, संस्कारवश झुकता हो, तो पाखंड है। पाखंड का निर्णय झुकने से नहीं होगा, पाखंड का निर्णय भीतर हृदय के अंतरतम में होगा।

उन मित्र ने पूछा है कि कल मैंने कुछ संन्यासियों को गाते सुना: जय रजनीश हरे; यह तो महा भयंकर पाखंड हो रहा है!!

तुम कैसे निर्णय करोगे! अगर यह उनके हृदय की पुकार है तो पाखंड नहीं। और अगर वे केवल एक औपचारिकता अदा कर रहे हैं तो जरूर पाखंड है। मगर तुम कैसे तय करोगे? तुम कौन हो निर्णायक? तुम अपने ही हृदय का निर्णय ले लो तो बहुत। तुम दूसरे के हृदयों का निर्णय न लो! तुम्हें अभी अपने हृदय का पता नहीं, औरों का तो क्या पता होगा? और यहां जो बात चल रही है, जो सत्संग चल रहा है, वह अनिर्वचनीय का है। नहीं कहा जा सके जो, उसको कहने की चेष्टा चल रही है। तुम जैसा व्यक्ति, जो अभी बुद्धि के क्षुद्र जाल में उलझा हो, उसका यहां काम नहीं है। तुम यहां आए भी, व्यर्थ आए! जिन मित्र ने पूछा है, वे संन्यासी भी हैं। तुम्हारा संन्यास भी व्यर्थ। तुम्हारा संन्यास पाखंड!

अब तुम समझो पाखंड का अर्थ।

तुम्हारा संन्यास पाखंड। क्योंकि अगर तुम्हारे भीतर पूजा का भाव नहीं, अगर तुम्हारे भीतर आराधना नहीं जगी, तो तुमने बस कपड़े रंग लिए, माल पहन ली, यह पाखंड। भीतर रंग जाए और बाहर रंगे, जुगलबंदी हो, फिर पाखंड नहीं। तुमने तो सोचा होगा कि मैं करूंगा खंडन उन सबका जो इस तरह का पाखंड कर रहे हैं। तुमने कभी सोचा भी न होगा कि मैं तुमसे यह कहूंगा कि तुम पाखंडी हो। मुझसे प्रश्न पूछते समय थोड़े सोच—समझ कर पूछा करो। तुम निपट पाखंडी हो! तुम्हारा संन्यास झूठ, मिथ्या! तुम झुके ही नहीं हो। तुम्हारा कोई समर्पण नहीं है। तुम मैं जो कह रहा हूं समझ ही न पाओगे, क्योंकि शब्द पकड़ोगे तुम। शब्द की तुमने पकड़े हैं। पूछा है कि आप पाखंड का इतना विरोध करते हैं और यहां आपके संन्यासी पाखंड कर रहे हैं; इसको आप रोकते क्यों नहीं? मैं पाखंड का विरोध करता हूं। तुमसे कहूंगा कि संन्यास छोड़ दो। मैं पाखंड का विरोधी हूं। तुम्हारे हृदय में अभी लहर नहीं आई, तरंग नहीं आई, अभी तुमने मेरे मौन को नहीं सुना, अभी मेरे शून्य से तुम नहीं जुड़े; अभी तुम्हारे भीतर अनाहत का नाद नहीं हुआ।


सपना यह संसार 

ओशो 

प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं

मस्तिष्क का काम है रहस्य को रहस्य न रहने दे, उसे सुस्पष्ट परिभाषा में बांध ले। मगर कुछ चीजें हैं जो परिभाषा में बंधती नहीं। प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, परिभाषा छोटी पड़ जाती है। व्याख्या में समाता नहीं। बड़े बड़े हार गए, सदियां बीत गईं, प्रेम के संबंध में कितनी बातें कही गईं और प्रेम के संबंध में एक भी बात कही नहीं जा सकी है। जो कहा गया, सब ओछा पड़ा। जो कहा गया, सब थोथा सिद्ध हुआ। प्रेम इतना बड़ा है, इतना विराट है कि यह आकाश भी छोटा है।

 प्रेम के आकाश से यह आकाश छोटा है। ऐसे कितने ही आकाश उसमें समा जाएं। महावीर ने इस आकाश को अनंत कहा है, और आत्मा के आकाश को अनंतानंत। अगर अनंत को अनंत से गुणा कर दें। असंभव बात। क्योंकि अनंत का अर्थ ही हो गया कि उसकी कोई सीमा नहीं, अब उसका गुणा कैसे करोगे? कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन महावीर ने कहा, अगर यह हो सके कि अनंत को हम अनंत से गुणा कर सकें, तो अनंतानंत, तो हमारे भीतर के आकाश की थोड़ीसी रूपरेखा स्पष्ट होगी।

लेकिन मन हर चीज को समझ कर, जान कर स्पष्ट कर लेना चाहता है। क्यों? मस्तिष्क की यह आकांक्षा क्यों है? यह इसलिए कि जो स्पष्ट हो जाता है, मस्तिष्क उसका मालिक हो जाता है। जो राज राज नहीं रह जाते, मस्तिष्क उनका उपयोग करने लगता है साधन की तरह। लेकिन कुछ राज हैं जो राज ही हैं और राज ही रहेंगे। मस्तिष्क उन पर कभी मालकियत नहीं कर सकता और उनका कभी साधन की तरह उपयोग नहीं हो सकता। वे परम साध्य हैं। सभी साधन उनके लिए हैं। प्रेम जिस तरफ इशारा करता है, वह इशारा परमात्मा की तरफ है। प्रेम का तीर जिस तरफ चलता है, वह परमात्मा है।

 प्रेम का लक्ष्य सदा परमात्मा है। इसलिए तुम जिससे भी प्रेम करो उसमें तुम्हें परमात्मा की झलक अनुभूत होने लगेगी। इसीलिए तो प्रेमियों को लोग पागल कहते हैं। मजनू को लोग पागल कहते हैं; क्योंकि उसे लैला परमात्मा मालूम होती है। शीरीं को लोग पागल कहते हैं, क्योंकि फरहाद उसे परमात्मा मालूम होता है। पागल न कहें तो क्या कहें?? एक साधारणसी स्त्री, एक साधारणसा पुरुष परमात्मा कैसे? लेकिन उन्हें प्रेम के रहस्य का कुछ अनुभव नहीं है। प्रेम की जहां भी छाया पड़ती है, वहीं परमात्मा का आविष्कार हो जाता है। प्रेम भरी आंख से फूल को देखोगे तो फूल परमात्मा है। और प्रेम भरी आंख से कांटे को देखोगे तो कांटा भी परमात्मा है। प्रेम की आंख जहां पड़ी, वहीं परमात्मा उघड़ आता है।

सपना यह संसार 

ओशो 

जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना

जब भी कोई परमात्मा को अनुभव करेगा, तो पहली घटना तो यह घटेगी कि चारों तरफ लोग इनकार करने लगेंगे कि इस आदमी ने पाया-वाया नहीं है। यह सब बातचीत है। अब कहां कलियुग में कोई पा सकता है? वे हो गयीं सतयुग की बातें। वे हजार तरह के छिद्रान्वेषण करेंगे। वे हजार तरह के उपाय निकालेंगे कि सिद्ध कर दें कि इसने कुछ पाया नहीं।

अगर वे असफल हुए–जो कि वे असफल होंगे–अगर पाया है, तो कोई सिद्ध करने का उपाय नहीं। न आचरण से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न व्यवहार से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न कपड़े-लत्तों से, न खाने-पीने से, फिर कोई चीज से तुम सिद्ध नहीं कर सकते कि नहीं पाया। जिसने पा लिया है, उसकी रोशनी सब तरफ से दिखाई पड़ेगी।

तब क्या करोगे? तब दूसरा उपाय है कि तुम्हारे बीच जो सचमुच सर्वाधिक अहंकार और स्पर्धा से भरे लोग हैं, वे घोषणा करेंगे कि हमने भी पा लिया है। अहंकार पहले तो इनकार करेगा, कि तुम कैसे पा सकते हो मुझ से पहले, जब मैं मौजूद हूं? जब देखेगा कि कोई उपाय असिद्ध करने का नहीं है, तो अहंकार दूसरी घोषणा करेगा कि मैंने भी पा लिया है।

तो नानक कहते हैं कि क्षुद्र लोग भी–सब से बड़ी क्षुद्रता अहंकार है, और कोई क्षुद्रता नहीं है–कीड़ों की तरह क्षुद्र लोग भी स्पर्धा से भर जाते हैं। और तब वे झूठी डींगें हांकने लगते हैं।

तो दुनिया में अगर एक सदगुरु होता है, तो कम से कम निन्यान्नबे असदगुरु होते हैं। इसी अनुपात में घटना घटती है। और मजा यह है कि असदगुरु तुम्हें ज्यादा आसानी से आकर्षित कर सकता है, बजाय सदगुरु के। क्योंकि असदगुरु तुम्हारी ही भाषा बोलता है। और असदगुरु तुम्हें भलीभांति पहचानता है। और वही सब करता है जो तुम चाहते हो, जो तुम्हारी भीतरी मनोकांक्षा है। अगर तुम चाहते हो कि हाथ से राख प्रकट हो, तो राख प्रकट करवा देता है। अगर तुम चाहते हो कि ताबीज हाथ में आ जाए आकाश से, तो ताबीज ला देता है।

यही धंधा तुम मदारी का सड़क पर देखते हो, लेकिन जरा भी प्रभावित नहीं होते हो। यही धंधा जब कोई साधु-संत करता है, तब तुम दीवाने हो जाते हो। कि बस, मिल गया सदगुरु! तुम जो चाहते हो; तुम चाहते हो कि बीमारी मिट जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो बेटा पैदा हो जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो मुकदमा जीत जाएं, तो आशीर्वाद देता है। तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करता है। इसलिए तुम असदगुरु के पास लाखों की संख्या में इकट्ठे हो जाओगे। क्योंकि वह तुम्हारी ही जिंदगी का हिस्सा है।

सदगुरु को पहचानना तुम्हें मुश्किल है। क्योंकि उसकी पहचान का तो मतलब ही है, जीवन में रूपांतरण! तुम बदलो। असदगुरु तुम्हें कुछ देगा। सदगुरु तो तुमसे सब छीन लेगा। असदगुरु तो तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करेगा।

और मजा यह है जिंदगी का–और गणित बड़ा महत्वपूर्ण है–अगर तुम भी बैठ जाओ धूनी रमा कर, और जो भी आएं सब को आशीर्वाद देते जाओ, तो कम से कम पचास प्रतिशत आशीर्वाद तो सही होंगे ही। यह तो सीधा गणित है। इसमें कुछ करने जाने की जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ आशीर्वाद देते जाओ। जो भी मुकदमे वाला आए, कहो कि जीतोगे। पचास प्रतिशत तो जीतेंगे ही। वे तुम्हारे बिना आशीर्वाद के भी जीतते। लेकिन अब तुम्हारी तरफ ध्यान रखेंगे कि तुम्हारे आशीर्वाद के कारण जीते हैं। जो पचास हार जाएंगे, वे किसी दूसरे बाबा को, किसी दूसरे गुरु को खोजेंगे। क्योंकि यह उनके काम का नहीं है। लेकिन जो पचास जीत जाएंगे, वे तुम्हारे पास आते रहेंगे। और इन पचास की जो भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होगी, जब नया कोई ग्राहक आएगा, तो यह सारी भीड़ उसको प्रभावित करेगी। कि इतने लोगों की घटनाएं घट चुकी हैं–कोई मुकदमा जीत गया, किसी की खोयी पत्नी मिल गयी, किसी का प्रेम सफल हुआ, किसी की बीमारी चली गयी, किसी का बच्चा बच गया, किसी का कुछ हुआ। इनकी भीड़ तुम पाओगे। क्योंकि जो हार गए हैं, वे तो कहीं और जा चुके हैं। वे तो वहां रुकेंगे जहां जीतेंगे। वे भी किसी के पास कभी न कभी रुक जाएंगे। संयोग कहीं न कहीं घटेगा। कहीं न कहीं उनकी भी वासना पूरी होगी, वहां रुकेंगे।

तुम वासना से गुरु को पहचानते हो। तब तुम भटकोगे। क्योंकि गुरु का वासना से क्या लेना-देना है? गुरु तुम्हारी वासनाएं पूरी करने को नहीं है, तुम्हें जगाने को है। और जगाने का मतलब है, तुम्हारी वासनाएं जितनी टूट जाएं उतना बेहतर। उसकी उत्सुकता तुम्हारी बीमारी, तुम्हारी अदालत, तुम्हारी पत्नी और बच्चों में नहीं है। उसकी उत्सुकता तुम में और तुम्हारे परमात्मा में है। और वह रास्ता वासना का नहीं है, वह रास्ता तो निर्वासना का है। वह तुम्हें इसलिए आकर्षित कर भी नहीं पाएगा।

इसलिए अक्सर तुम भीड़ पाओगे। जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना। क्योंकि भीड़ अक्सर गलत जगह होती है। सही जगह तो तुम बहुत थोड़े लोगों को पाओगे। क्योंकि थोड़े लोगों को भी होना वहां मुश्किल है। वहां तुम चुने हुओं को पाओगे कि जिनकी आकांक्षा परमात्मा की है। वहां तुम भीड़ न पाओगे। क्योंकि भीड़ तो वासनाग्रस्त लोगों की है।

नानक कहते हैं, फिर झूठे लोग झूठी डींगें हांकने लगते हैं।

और मजा यह है कि उनकी डींगें भी सिद्ध होती मालूम पड़ती हैं। क्योंकि जीवन का ढंग ऐसा है। पचास प्रतिशत तो सभी सही हो जाएंगे। और जो गलत सिद्ध होते हैं, वे कहीं और चले जाते हैं। उन्हें तुम पाओगे न। जो साईं बाबा के पास गलत हुआ, वह किसी और साईं बाबा के पास होगा। जो सही हुआ, वह वहां रुकेगा। वही तुम को मिलेगा। वह खबर देगा कि मेरा यह हो गया है। मुझे यह लाभ हुआ, मुझे यह लाभ हुआ। उनकी भीड़ बढ़ती जाएगी। एक भीतरी गणित से चीजें फैलने लगती हैं। और जब तुम देखोगे हजारों लोगों को लाभ हुआ है…और तुम भी वासना के ही प्रेरित वहां तक आए हो। तुम भी श्रद्धा करते हो। और बहुत बार तुम्हारी श्रद्धा के कारण भी परिणाम होते हैं। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ बीमारियों में से सत्तर बीमारियां मानसिक हैं। अगर तुम्हें पूरा भरोसा आ जाए कि ठीक हो जाएंगे, तो ठीक हो जाती हैं।

बहुत से अस्पतालों में प्रयोग किए गए हैं। वैज्ञानिक उस प्रयोग को प्लस्बो कहते हैं, झूठी दवा। तो अगर एक ही बीमारी के दस मरीज हों, तो पांच को असली दवा देते हैं, पांच को सिर्फ पानी देते हैं। और मजा यह है कि तीन दवा वालों में से भी ठीक हो जाते हैं, तीन पानी पीने वालों में से भी ठीक हो जाते हैं। करो क्या? इसलिए तो इतनी पैथी चलती हैं दुनिया में। एलोपैथी है, आयुर्वेदिक है, हकीमी है, नैचरोपैथी है। हजार चीजें चलती हैं। और सभी से लोगों को लाभ होता है; नहीं तो चलेंगी कैसे?

ऐसा लगता है, दवा से आदमी कम ठीक होते हैं, श्रद्धा से ज्यादा ठीक होते हैं। वही दवा छोटा डाक्टर तुम्हें दे, जिस पर तुम्हें भरोसा नहीं, अभी-अभी मेडिकल कालेज से आया है, काम न करेगी। अगर तुम्हारा ही बेटा हो मेडिकल कालेज से लौटा, तो बिलकुल काम न करेगी। क्योंकि बाप बेटे पर कभी भरोसा कर सकता है? वही दवा बड़ा डाक्टर दे, और बड़ा डाक्टर यानी बड़ी फीस ले। जितनी ज्यादा फीस ले, उतना भरोसा आता है, क्योंकि उतना बड़ा डाक्टर है। ठीक होना ही पड़ेगा अब। अब इसके आगे जाने का कोई उपाय नहीं। आधा इलाज तो डाक्टर पर भरोसे से होता है। जिस डाक्टर पर तुम्हें भरोसा है, उस डाक्टर का इलाज काम करता है। जिस पर भरोसा नहीं, काम नहीं करता।

इसलिए डाक्टर अपने आफिस में अपने सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। बीमारों के लिए वह भी दवा है। जितने ज्यादा सर्टिफिकेट–लंदन से कोई सर्टिफिकेट है तो बात ही और! सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। उनको देख कर मरीज की काफी बीमारी तो ठीक हो जाती है।
 
तुमने कभी खयाल किया है कि जब डाक्टर तुम्हें परीक्षण करता है, तभी तुम्हारी आधी बीमारी ठीक हो जाती है। परीक्षण करते-करते। अभी उसने कोई दवा नहीं दी। नाड़ी देखी, स्टेथोस्कोप लगाया, ब्लडप्रेशर लिया, अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे कि काफी तो तुम ठीक ही हो गए। दर्द कम है, बुखार उतर रहा है।

भीड़ भरोसा दिलाती है। भरोसे से परिणाम होते हैं। और बीच में जो झूठा आदमी बैठा है, वह मुफ्त लाभ ले रहा है। तुम अपने ही मन के खेल में पड़े हो।

एक ओंकार सतनाम 

ओशो 

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस....

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस।
लखु लखु गेड़ा अखिअहि एक नामु जगदीस।।

यदि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से भी बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा।

तब तुम थकोगे, उसके पहले न थकोगे। तुमने अभी जपा ही क्या है? तुमने अभी ध्यान ही कितना किया है? तुमने अभी पुकारा ही क्या है? तुम चिल्लाए ही कहां? तुमने पूरी ताकत ही नहीं लगायी है। अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो तो तुम जितनी तेजी से बाहर भागते हो, इतनी तेजी से भी तुम परमात्मा की तरफ नहीं भागे हो। कि तुम्हारी पत्नी मर जाए तो जैसे जार-जार हो कर तुम रोते हो, ऐसा तुम उसके वियोग के लिए अभी तक नहीं रोए। कि तुम्हारा बच्चा भटक जाए तो तुम जैसे पागल हो कर बेतहाशा खोजने निकल पड़ते हो, ऐसी तुमने अभी तक उसकी खोज नहीं की। तुम्हारी खोज कुनकुनी है। अभी तुम उबले नहीं।

नानक उस उबलने की बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा।

रोआं-रोआं उसी के नाम से भर जाए। और रोआं-रोआं उसी की प्यास अनुभव करे। और रोएं-रोएं में एक ही पुकार गूंजने लगे कि तुझे पाना है। और जीवन में सब व्यर्थ हो जाए। बस, एक परमात्मा की सार्थकता बचे। और सब गौण हो जाए। और सब छोड़ने को तुम तैयार हो जाओ। एक उसको पाना ही लक्ष्य बचे, तब तुम एकाग्र होओगे।

स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, लाख जीभ से बीस लाख हो जाएं। और फिर एक-एक जीभ लाखों बार उसका ही नाम जपे। स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं, जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है। अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

इक्कीस शब्द आता है सांख्यों की गणना से। क्योंकि सांख्य कहते हैं, दो तरह से इक्कीस हो सकते हैं। सांख्यों की गणना बड़ी कीमती है। सांख्य शब्द का अर्थ भी होता है, गणना, संख्या। उसी से सांख्य बना है। क्योंकि उन्होंने पहली गणना की है मनुष्य के अस्तित्व की, इसलिए उस दर्शन का नाम ही सांख्य हो गया।

सांख्य कहते हैं कि पांच महाभूत उस एक से पैदा होते हैं। ये जो पृथ्वी, जल, आकाश…ये पांच महाभूत उससे पैदा होते हैं। लेकिन ये महाभूत तो स्थूल हैं। इन महाभूतों को बनाने वाली पांच तन्मात्राएं हैं, जो सूक्ष्म हैं। जो आंख से दिखाई नहीं पड़तीं। वैज्ञानिक भी राजी हैं कि तुम्हें जो दीवाल दिखाई पड़ती है, यह तो तुम्हें दिखाई पड़ती है। यह तो स्थूल रूप है। जैसी दीवाल है–तन्मात्रा–वह तो तुमने कभी देखी नहीं। वह तो वैज्ञानिक को थोड़ी सी उसकी झलक मिलती है। क्योंकि यह दीवाल तुम्हें तो थिर मालूम होती है, यह थिर नहीं है। यहां बड़ी गति है, और बड़ा जीवन है। एक-एक कण प्रकाश की गति से घूम रहा है। लेकिन गति इतनी ज्यादा है कि तुम उसे पकड़ नहीं पाते। वह इतनी सूक्ष्म है और इतनी तीव्र है…।

प्रकाश की किरण चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रकाश की गति है। प्रकाश की गति से दीवाल के अतिसूक्ष्म कण– इलेक्ट्रान–घूम रहे हैं। उनकी गति इतनी तीव्र है कि तुम देख नहीं पाते। इसलिए दीवाल थिर मालूम पड़ती है। लेकिन दीवाल महान सक्रियता से गुजर रही है। हर चीज, पत्थर भी सक्रिय है और जीवंत है। और बड़ा कारोबार चल रहा है। इसलिए तो यह दीवाल एक दिन गिर जाएगी और खंडहर होगी। क्योंकि अगर यह बिलकुल थिर होती तो खंडहर कैसे होती? अगर कोई चीज बिलकुल थिर हो, तो नष्ट ही नहीं हो सकती। क्योंकि क्रिया न चल रही हो, तो भीतर संघर्षण नहीं होगा। संघर्षण नहीं होगा तो विनाश कैसे होगा?

इसलिए वैज्ञानिक सोचते हैं कि अगर किसी आदमी को बचाना हो लंबी उम्र तक, तो उसको शून्य डिग्री से नीचे ठंडा कर के बर्फ में रख देना चाहिए। तो फिर उसको अनंतकाल तक बचाया जा सकता है। क्योंकि गति कम हो जाती है। इसलिए तो हम फल को फ्रिज में रखते हैं। वह ठंडा रहता है, तो देर तक सड़ता नहीं। क्योंकि जितनी ठंडक होती है, उतनी गति क्षीण हो जाती है। इसलिए तो ठंडे मुल्कों के लोग ज्यादा उम्र पाते हैं, गर्म मुल्कों के लोगों की बजाय। क्योंकि जितनी गर्मी होती है, उतनी गति होती है। जितनी गति होती है, उतनी जल्दी क्षीणता हो जाती है। इसलिए तो तुम गर्मी में बेचैनी अनुभव करते हो। ठंड में अच्छा लगता है। सर्दी के दिनों में स्वस्थ मालूम पड़ते हो, गर्मी के दिनों में थोड़ा अस्वास्थ्य पकड़ने लगता है।

यह दीवाल परम-गति में लीन है। इसलिए गिरेगी। क्योंकि इसके भीतर संघर्षण हो रहा है। और संघर्षण होते-होते शक्ति क्षीण होगी। यह बिखर जाएगी, खंडहर हो जाएगा।

सांख्य कहते हैं कि पांच तन्मात्राएं हैं। वे सूक्ष्म रूप हैं। और उन पांच तन्मात्राओं के पांच महाभूत हैं, जो उनका स्थूल रूप हैं–दस। फिर पांच ज्ञानेंद्रियां हैं जो सूक्ष्म रूप हैं, और पांच कर्मेंद्रियां हैं जो स्थूल रूप हैं। आंख तुम्हारी कर्मेंद्रिय है, और देखने की क्षमता तुम्हारी सूक्ष्मेंद्रिय है। देखने की क्षमता न हो, तो आंख खो जाएगी, आंख रहे तो भी! कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम आंख होते हुए अंधे हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारा ध्यान कहीं और चला गया। और जब ध्यान कहीं और चला गया तो देखने की क्षमता कहीं और चली गयी। कान है, वह स्थूल इंद्रिय है–कर्मेंद्रिय, सुनने की क्षमता सूक्ष्म इंद्रिय है।

इसलिए तो नानक बार-बार कहते हैं, कि सुनिए। तो वे तुम्हारे इस कान के लिए नहीं कह रहे हैं। क्योंकि यह कान तो सुन ही रहा है। यह कान तो बंद ही नहीं होता। आंख तो कम से कम झपकती है, कान तो झपकता भी नहीं। तो क्या बार-बार कहना, सुनिए! वे भीतर की सूक्ष्म इंद्रिय को इशारा कर रहे हैं। जब वे कहते हैं सुनिए, तो वे यह कह रहे हैं कि कान के पास आ जाओ, इधर-उधर मत भटकना। नहीं तो कान तो सुन लेगा, तुम सुनने से वंचित रह जाओगे।

तो पांच सूक्ष्म इंद्रियां हैं, जिनका नाम ज्ञानेंद्रियां। और पांच स्थूल इंद्रियां हैं, जिनका नाम कर्मेंद्रियां। ऐसे बीस।
नानक कहते हैं कि जो अपना सब कुछ दांव पर लगा देगा, वह इक्कीस हो जाता है। वह इक्कीसवां परमात्मा है। और अगर तुमने दांव पर न लगाया और उसे न खोजा, तो भी तुम इक्कीस हो जाते हो, वह तुम्हारा अहंकार है।

इसलिए इक्कीस होने के दो ढंग हैं। बीस तो स्थिति है; इक्कीस होने के दो ढंग हैं। या तो तुम परमात्मा को पा लो अर्थात असली आत्मा को पा लो, अपने स्वरूप को पा लो, तो इक्कीस हो जाओगे। और या फिर एक झूठे स्वरूप की कल्पना कर लो कि मैं यह हूं। धनी हूं, ज्ञानी हूं, शक्तिशाली हूं, त्यागी हूं, राजा हूं, कुछ अकड़ बना लो। तो भी इक्कीस हो जाओगे। लेकिन यह इक्कीसवां झूठ है।

तो या तो बीस में एक झूठ जोड़ दो; बीस+झूठ। या बीस में सत्य जोड़ दो; बीस+सत्य। तुम इक्कीस हो जाओगे। हम सब भी इक्कीस हैं और नानक भी इक्कीस हैं। इससे ज्यादा तो कोई हो नहीं सकता। मगर हम झूठ को जोड़े हुए हैं। हमने बिना खोजे जोड़ लिया है। यह बड़े मजे की बात है।

तुमने कभी अपने को खोजा नहीं और तुम्हें खयाल है कि तुम अपने को जानते हो। इससे बड़ा झूठ जगत में दूसरा नहीं है। तुमने न कभी अपने को खोजा और न झलक पायी अपनी कभी। फिर भी तुम कहते हो, मैं हूं। और तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि तुम कौन हो? तुम्हें उतना ही पता है कि जितना दर्पण बताता है। दर्पण क्या खाक बताएगा? दर्पण में तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो, तुम्हारी चमड़ी का बाहरी हिस्सा दिखाई पड़ता है। दर्पण में तो तुम्हारे वस्त्र दिखाई पड़ते हैं, देह दिखाई पड़ती है, तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो। तुम्हारी आत्मा दर्पण में थोड़े ही झलकती है। तुम्हारा स्वरूप थोड़े ही दर्र्पण में झलकता है। दर्पण जितना बताता है, उसको तुम समझते हो, मैं हूं।

और इस मैं को तुम इक्कीस माने हुए हो। यही दुख है। यही नर्क है। अगर तुमने इक्कीसवां झूठ जोड़ लिया, तो तुम दुख में पड़ोगे ही। बीस तो वही रहेंगे, यह इक्कीसवां झूठ रहेगा, इसलिए तुम नर्क में पड़ जाओगे। बीस तो जो हैं, तब भी वही रहेंगे। अगर यह इक्कीसवां सच हो जाए, तो सच होते ही तुम परम मुक्ति को अनुभव करोगे। क्योंकि उन बीस के कारण उपद्रव नहीं है। वह तो जीवन की व्यवस्था है। यह इक्कीसवां उपद्रव है। अगर झूठ है तो पीड़ा लाएगा।

इसलिए अहंकार जितना दुख देता है, और कोई चीज दुख नहीं देती। अहंकार के अतिरिक्त दुख का कोई सूत्र ही नहीं है। जितना दुख चाहिए हो उतना अहंकार बढ़ाओ। जितना अहंकार बढ़ाओगे, नर्क तुम्हारी मुट्ठी में होगा। जब चाहो, पैदा कर लो।

जितना आनंद चाहिए हो, उतना अहंकार घटाओ। जिस दिन अहंकार बिलकुल न होगा, स्वर्ग तुम्हारी मुट्ठी में होगा। तुम्हारी छाया बन जाएगा। तुम जहां जाओगे, वहां स्वर्ग होगा। फिर तुम्हें नर्क नहीं भेजा जा सकता। अगर तुम्हें नर्क में भी पटक दिया जाए तो तुम पाओगे कि वहां भी स्वर्ग है। क्योंकि जिसके पास अहंकार नहीं, उसे सब जगह स्वर्ग है। और जिसके पास अहंकार है, उसे कोई जबर्दस्ती स्वर्ग में भी डाल दे, तो वहां भी दुख ही पाएगा। क्योंकि दुख का संबंध या सुख का संबंध स्थितियों से नहीं है। वह भीतर का इक्कीस सच है या झूठ…!
नानक कहते हैं कि जिसने सब दांव पर लगा दिया–स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं–दांव पर लगाना। लगाते जाना। ऐसी घड़ी आ जाए कि कुछ बचे ही न दांव पर लगाने को, सब लगा दिया…।

जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है, अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त करता है। आकाश की, उच्च पद की चर्चा सुन कर, कीट के समान क्षुद्र लोगों को भी स्पर्धा हो जाती है।

एक ओंकार सतनाम 

 
ओशो 

 

Popular Posts