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Saturday, October 24, 2015

लोग पूछते हैं : ‘इस संसार से कैसे छूटा जाए?’

संसार उन पर बहुत भारी पड़ रहा है। वे संसार के बोझ के नीचे दबे जा रहे हैं। और वे संसार से बुरी तरह चिपके भी हैं, क्योंकि जब तक तुम संसार से चिपकते नहीं हो तब तक संसार तुम्हें बोझिल नहीं कर सकता। यह बोझ तुम्हारे सिर में है; और उसका कारण तुम हो, बोझ नहीं। तुम इसे ढो रहे हो। और लोग सारा संसार उठाए हैं; और फिर वे दुखी होते हैं। और दुख के इसी अनुभव से विपरीत कामना का उदय होता है, और वे विपरीत के लिए लालायित हो उठते हैं।

पहले वे धन के पीछे भाग रहे थे, अब वे ध्यान के पीछे भाग रहे हैं। पहले वे इस लोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे थे; अब वे परलोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे हैं। लेकिन भाग दौड़ जारी है। और भाग दौड़ ही समस्या है, विषय अप्रासंगिक है। कामना समस्या है; चाह समस्या है। तुम क्या चाहते हो, यह अर्थपूर्ण नहीं है; तुम चाहते हो, यह समस्या है।

और तुम चाह के विषय बदलते रहते हो। आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते हो, और तुम समझते हो कि मैं बदल रहा हूं। और फिर परसों तुम ‘ग’ की चाह करते हो, और तुम सोचते हो कि मैं रूपांतरित हो गया। लेकिन तुम वही हो। तुमने ‘क’ की चाह की, तुमने ‘ख’ की चाह की, तुमने ‘ग’ की चाह की; लेकिन यह क-ख-ग तुम नहीं हो; तुम तो वह हो जो चाहता है, जो कामना करता है। और वह वही का वही रहता है। 

तुम बंधन चाहते हो और फिर उससे निराश हो जाते हो, ऊब जाते हो। और तब तुम मोक्ष की कामना करने लगते हो। लेकिन तुम कामना करना जारी रखते हो। और कामना बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष की कामना नहीं कर सकते। चाह ही बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष नहीं चाह सकते। जब कामना विसर्जित होती है तो मोक्ष है; चाह का छूट जाना ही मोक्ष है।

तंत्र सूत्र 

ओशो 


मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं?

मुझे याद आता है कि मेरे एक मित्र, जो बौद्ध भिक्षु हैं, स्टैलिन के दिनों में सोवियत रूस गए थे। उन्होंने लौटकर मुझे बताया कि वहा जब भी कोई व्यक्ति उनसे हाथ मिलाता था तो तुरंत झिझककर पीछे हट जाता था और कहता था कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं।

उनके हाथ सचमुच सुंदर थे; भिक्षु होकर उन्हें कभी काम नहीं करना पड़ा था। वे फकीर थे, शाही फकीर; उनका श्रम से वास्ता नहीं पड़ा था। उनके हाथ बहुत कोमल, सुंदर और स्त्रैण थे। भारत में जब कोई उनके हाथ छूता तो कहता कि कितने सुंदर हाथ हैं। लेकिन सोवियत रूस में जब कोई उनके हाथ अपने हाथ में लेता तो तुरंत सिकुड़कर पीछे हट जाता, उसकी आंखों में निंदा भर जाती और वह उन्हें कहता कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं। वे वापस आकर मुझसे बोले कि मैंने इतना निंदित महसूस किया कि मेरा मन होता था कि मजदूर हो जाऊं।

रूस से साधु महात्मा विदा हो गए, क्योंकि आदर न रहा। सब साधुता दिखावटी थी, प्रदर्शन की चीज थी। आज रूस में केवल सच्चा संत ही संत हो सकता है। झूठे नकली संतों के लिए वहां कोई गुंजाइश नहीं है। आज तो वहा संत होने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ेगा, क्योंकि सारा समाज विरोध में होगा। भारत में तो जीने का सबसे सुगम ढंग साधु महात्मा होना है, सब लोग आदर देते हैं। यहां तुम झूठे हो सकते हो, क्योंकि उसमें लाभ ही लाभ है।

तो इसे स्मरण रखो। सुबह से ही, जैसे ही तुम आंख खोलते हो, सच्चे और प्रामाणिक होने की चेष्टा करो। ऐसा कुछ भी मत करो जो झूठ और नकली हो। सिर्फ सात दिन के लिए यह स्मरण बना रहे कि कुछ भी झूठ और नकली, कुछ भी अप्रामाणिक नहीं करना है। जो भी गंवाना पड़े, जो भी खोना पड़े, खो जाए; जो भी होना हो, हो जाए; लेकिन सच्चे बने रही। और सात दिन के भीतर तुम्हारे भीतर नए जीवन का उन्मेष अनुभव होने लगेगा। तुम्हारी मृत पर्तें टूटने लगेंगी, और नयी जीवंत धारा प्रवाहित होने लगेगी। तुम पहली बार पुनर्जीवन अनुभव करोगे, फिर से जीवित हो उठोगे।

कृत्य का पोषण करो, ज्ञान का पोषण करो यथार्थ में, स्वप्न में नहीं। जो भी करना चाहो करो, लेकिन ध्यान रखो कि यह काम सच में मैं कर रहा हूं या मेरे द्वारा मेरे मां बाप कर रहे हैं? क्योंकि कब के जा चुके मरे हुए लोग, मृत माता पिता, समाज, पुरानी पीढ़ियां, सब तुम्हारे भीतर अभी भी सक्रिय हैं। उन्होंने तुम्हारे भीतर ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि तुम अब भी उनको ही पूरा करने में लगे हो। तुम्हारे मां बाप अपने मृत मां बाप को पूरा करते रहे और तुम अपने मृत मां बाप को पूरा करने में लगे हो। और आश्चर्य कि कोई भी पूरा नहीं हो रहा है। तुम उसे कैसे पूरा कर सकते हो जो मर चुका? लेकिन मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं।

जब भी तुम कुछ करो तो सदा निरीक्षण करो कि यह मेरे माध्यम से मेरे पिता कर रहे हैं या मैं कर रहा हूं। जब तुम्हें क्रोध आए तो ध्यान दो कि यह मेरा क्रोध है या इसी ढंग से मेरे पिता क्रोध किया करते थे जिसे मैं दोहरा भर रहा हूं।

मैंने देखा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वही सिलसिला चलता रहता है, पुराने ढंग ढांचे दोहरते रहते हैं। अगर तुम विवाह करते हो तो वह विवाह करीब करीब वैसा ही होगा जैसा तुम्हारे मां बाप का था। तुम अपने पिता की भांति व्यवहार करोगे; तुम्हारी पत्नी अपनी मां की भांति व्यवहार करेगी। और दोनों मिलकर वही सब उपद्रव करोगे जो उन्होंने किया था।

जब क्रोध आए तो गौर से देखो कि मैं क्रोध कर रहा हूं या कि कोई दूसरा व्यक्ति क्रोध कर रहा है? जब तुम प्रेम करो तो याद रखो, तुम ही प्रेम कर रहे हो या कोई और? जब तुम कुछ बोलो तो देखो कि मैं बोल रहा हूं या मेरा शिक्षक बोल रहा है? जब तुम कोई भाव भंगिमा बनाओ तो देखो कि यह तुम्हारी भंगिमा है या कोई दूसरा ही वहा है?

यह कठिन होगा; लेकिन यही साधना है, यही आध्यात्मिक साधना है। और सारे खोटे को विदा करो। थोड़े समय के लिए तुम्हें सुस्ती पकड़ेगी, उदासी घेरेगी, क्योंकि तुम्हारे झूठ गिर जाएंगे और सत्य को आने में और प्रतिष्ठित होने में थोड़ा समय लगेगा। अंतराल का एक समय होगा; उस समय को भी आने दो। भयभीत मत होओ, आतंकित मत होओ। देर अबेर तुम्हारे मुखौटे गिर जाएंगे, तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व विलीन हो जाएगा, और उसकी जगह तुम्हारा असली चेहरा, तुम्हारा प्रामाणिक व्यक्तित्व अस्तित्व में आएगा, प्रकट होगा। और उसी प्रामाणिक व्यक्तित्व से तुम ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हो।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

स्व विकास का सूत्र

सदा ही जानने की कोशिश इस ढंग से करो कि वह सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष हो। कोई विश्वास मत पकड़ो, विश्वास तुम्हें भटका देगा। अपने पर भरोसा करो, श्रद्धा करो। और अगर तुम अपने पर ही श्रद्धा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे पर कैसे श्रद्धा कर सकते हो?

सारिपुत्र बुद्ध के पास आया और उसने कहा : ‘मैं आपमें विश्वास करने के लिए आया हूं मैं आ गया हूं। मुझे आप में श्रद्धा हो, इसमें मेरी सहायता करें।’ बुद्ध ने कहा : ‘अगर तुम्हें स्वयं में श्रद्धा नहीं है तो मुझमें श्रद्धा कैसे करोगे? मुझे भूल जाओ। पहले स्वयं में श्रद्धा करो; तो ही तुम्हें किसी दूसरे में श्रद्धा होगी।’

यह स्मरण रहे, अगर तुम्हें स्वयं में ही श्रद्धा नहीं है तो किसी में भी श्रद्धा नहीं हो सकती। पहली श्रद्धा सदा अपने में होती है; तो ही वह प्रवाहित हो सकती है, बह सकती है, तो ही वह दूसरों तक पहुंच सकती है। लेकिन अगर तुम कुछ जानते ही नहीं हो तो अपने में श्रद्धा कैसे करोगे? अगर तुम्हें कोई अनुभव ही नहीं है तो स्वयं में श्रद्धा कैसे होगी? अपने में श्रद्धा करो। और मत सोचो कि हम परमात्मा को ही दूसरों की आंखों से देखते हैं; साधारण अनुभवों में भी यही होता है। कोशिश करो कि साधारण अनुभव भी तुम्हारे अपने अनुभव हों। वे तुम्हारे विकास में सहयोगी होंगे; वे तुम्हें प्रौढ़ बनाएंगे, वे तुम्हें परिपक्वता देंगे।’’

बड़ी अजीब बात है कि तुम दूसरों की आंख से देखते हो, तुम दूसरों की जिंदगी से जीते हो। तुम गुलाब को सुंदर कहते हो। क्या यह सच में ही तुम्हारा भाव है या तुमने दूसरों से सुन रखा है कि गुलाब सुंदर होता है? क्या यह तुम्हारा जानना है? क्या तुमने जाना है? तुम कहते हो कि चांदनी अच्छी है, सुंदर है। क्या यह तुम्हारा जानना है? या कवि इसके गीत गाते रहे हैं और तुम बस उन्हें दुहरा रहे हो?

अगर तुम तोते जैसे दुहरा रहे हो तो तुम अपना जीवन प्रामाणिक रूप से नहीं जी सकते। जब भी तुम कुछ कहो, जब भी तुम कुछ करो, तो पहले अपने भीतर जांच कर लो कि क्या यह मेरा अपना जानना है? मेरा अपना अनुभव है? उस सबको बाहर फेंक दो जो तुम्हारा नहीं है; वह कचरा है। और सिर्फ उसको ही मूल्य दो, पोषण दो, जो तुम्हारा है। उसके द्वारा ही तुम्हारा विकास होगा।

 तंत्र सूत्र 

ओशो 

 

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