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Sunday, March 29, 2020

सब कुछ दांव पर लगा दने का क्या अर्थ है?



लोग चालबाजियां कर रहे हैं। लोग परमात्मा के साथ भी. . . मौका लगे तो उसकी भी जेब काट लें; मौका लग जाए तो उसको भी लूट लें।

सब दांव पर लगाने का अर्थ होता है : चालबाजियां अब और नहीं। अब तुम सब खोलकर ही रख दो। तुम कह दो : "यह मैं हूं! बुरा-भला जैसा हूं, स्वीकार कर लें। बुराइयां नहीं हैं, ऐसा भी नहीं कहता। भलाइयां भलाइयां हैं, ऐसा दावा भी नहीं करता। यह हूं बुरा-भला, सब का जोड़त्तोड़ हूं। इसे स्वीकार कर लें। अब आपके हाथ में हूं, अब जैसा बनाना चाहें बना लें।'

पूछा है "योग चिन्मय' ने। यह प्रश्न योग चिन्मय का है। योग चिन्मय में ऐसी बेईमानी है। प्रश्न अकारण नहीं उठा है। होशियारी है। करते भी हैं तो . . .अगर मैं कहूंगा तो कुछ करते भी हैं तो उतनी ही दूर तक करते हैं जहां तक उनकी बुद्धि को जंचता है; उससे एक इंच आगे नहीं जाते। होशियारी बरतते हैं। होशियारी बरतो, कोई हर्जा नहीं--मेरा कुछ हर्जा नहीं है; तुम ही चूक जाओगे। तो चूकते चले जा रहे हैं। यहां मेरे पास आनेवाले प्राथमिक लोगों में से हैं और पिछड़ते जा रहे हैं। चूंकि सब दांव पर लगाने की हिम्मत नहीं है। अपनी बुद्धि को बचाकर लगाते हैं। वे कहते हैं: "इत्ता तो हिसाब अपना रखना ही पड़ेगा। कल आप कहने लगो कि गङ्ढे में कूद जाओ तो कैसे कूद जाऊंगा? देख लेता हूं कि ठीक है, नीचे मखमल बिछी है तो कूद जाता हूं। अब गङ्ढे में पत्थर पड़े हों, तब तो मैं रुक जाऊंगा। जब तक मखमल बिछी है, तब तक कूदूंगा; जब गङ्ढे में देखूंगा पत्थर पड़े हैं तो मैं कहूंगा कि अब नहीं कूद सकता।'

. . . तो अपनी होशियारी को लेकर चलोगे--चूक जाओगे। फिर मुझे दोष मत देना। दोष तुम्हारा ही था। अपने को बेशर्त न छोड़ो।

और ऐसे बहुत मित्र हैं। और अगर चूकते हैं तो नाराज होंगे; सोचेंगे कि शायद उन पर मेरी कृपा कम है, शायद मैं पक्षपाती हूं। लेकिन कभी यह न देखेंगे कि क्यों चूक रहे हैं, किस कारण चूक रहे हैं।

मन चालबाज है।

मैंने सुना, एक आदमी ने अखबार में खबर दी : आवश्यकता है एक नौकर की। विज्ञापन पढ़कर एक आदमी नौकरी के लिए आया। नौकरी की आशा से आनेवाले उम्मीदवार ने पूछा कि मुझे वेतन क्या मिलेगा? उस आदमी ने कहा, जिसने विज्ञापन दिया था, कि वेतन कुछ नहीं मिलेगा, केवल खाना मिलेगा। आदमी गरीब था। उसने कहा : "चलो ठीक है, खाना ही सही। और काम? काम क्या होगा?'--नौकर ने पूछा। उन सज्जन ने कहा : "सबेरे-शाम दो वक्त गुरुद्वारा जाकर लंगर में खाना खा आओ और साथ ही हमारे लिए खाना बांधकर लेते आओ।'

आदमी बड़ा बेईमान है! खूब तरकीब निकाली कि लंगर में खाना खा लेना, तुम भी खा लेना, तुम्हारा खाना भी हो गया, खत्म! तुम्हारी नौकरी भी चुक गई और मेरे लिए खाना लेते आना। यह तुम्हारा काम है।. . .तो मुफ्त में सब हो गया।

ऐसे ही लोग आध्यात्म भी बड़ी होशियारी से करना चाहते हैं--मुफ्त में कर लेना चाहते हैं: "कुछ लगे ना, कुछ रेखा न खिंचे, कुछ दांव पर ना लगे! अपने को बचाकर घट जाए घटना। मुफ्त मिल जाए। कोई प्रयास न करना पड़े और कोई कठिनाई न झेलनी पड़े।'

और जहां तुम्हारे अहंकार को चोट हो, जहां तुम्हारी बुद्धि को चोट हो--वहीं पीछे हट जाओगे। और वहीं कसौटी है।

इसलिए पलटू ठीक कहते हैं कि कोई मर्द हो तो बढ़े। मर्द ही नहीं--पागल हो, तो हिम्मत करे इतनी।

सब दांव पर लगा देने का अर्थ हैः पागल की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। अंधे की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। पहले दांव पर लगाने के लिए खूब सोच लो, विचार लो। कोई यह नहीं कह रहा है कि सोचो-विचारो मत। खूब सोचो, खूब विचारो, वर्षों बिताओ, चिंतन-मनन करो, सब तरफ से जांच-परख कर लो; लेकिन एक बार जब निर्णय कर लो कि ठीक है, ठीक आदमी के करीब आ गए, यही आदमी है--जब ऐसा लगे कि यही आदमी है तो फिर आगा-पीछा न सोचो। फिर सब चरणों में रख दो। फिर कहो कि ठीक है, अब तुम्हारे साथ चलता हूं : नरक जाओ तो नरक, स्वर्ग जाओ तो स्वर्ग; अब तुम जहां रहोगे वहीं मेरा स्वर्ग है।और तुम जैसे रखोगे वही मेरा स्वर्ग है।

अहंकार दांव पर लगा देने का अर्थ है।

तुम संन्यास भी लेते हो तो तुम अहंकार दांव पर नहीं लगाते।

अजहुँ चेत गँवार 

ओशो

पलटूदास जी कहते हैं : "लगन-महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम', और नक्षत्र-विज्ञान कहता है कि लगन-महूरत से काम बनने की संभावना बढ़ जाती है?


नक्षत्र-विज्ञान सांसारिक मन की ही दौड़ है। ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता है। ज्योतिषियों के पास तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत।


संसारी डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए! और डर का कारण है, क्योंकि सभी तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी है कि और गलत न हो जाए! ऐसे ही तो फंसे हैं, और गलत न हो जाए!


संसारी भयभीत है। भय के कारण सब तरफ सुरक्षा करवाने की कोशिश करता है। और जिससे सुरक्षा हो सकती है, उस एक को भूले हुए है। वही तो पलटू कहते हैं कि जिस एक के सहारे सब ठीक हो जाए, उसकी तो तू याद ही नहीं करता; और सब इंतजाम करता है : लगन-महूरत पूछता है। और एक विश्वास से, एक श्रद्धा से, उस एक को पकड़ लेने से सब सध जाए--लेकिन वह तू नहीं पकड़ता, क्योंकि वह महंगा धंधा है। उस एक को पकड़ने में स्वयं को छोड़ना पड़ता है; सिर काट कर रखना होता है।


इसलिए वह तो तुम नहीं कर सकते। तुम कहते हो : हम दूसरा इंतजाम करेंगे; सिर को भी बचाएंगे और लगन-महूरत पूछ लेंगे; सुरक्षा का और इंतजाम कर लेंगे; और व्यवस्था कर लेंगे; होशियारी से चलेंगे; गणित से चलेंगे; आंख खोलकर चलेंगे; संसार में सुख पाकर रहेंगे।


ज्योतिषी के पास सांसारिक आदमी जाता है। आध्यात्मिक आदमी को ज्योतिषी के पास जाने की क्या जरूरत! आध्यात्मिक व्यक्ति तो ज्योतिर्मय के पास जाएगा, कि ज्योतिषी के पास जाएगा? चांदत्तारों के बनानेवाले के पास जाएगा कि चांदत्तारों की गति का हिसाब रखनेवालों के पास जाएगा?
और फिर आध्यात्मिक व्यक्ति को तो हर घड़ी शुभ है, हर पल शुभ है। क्योंकि हर पल का होना परमात्मा में है; अशुभ तो हो कैसे सकता है! कोई भी महूरत अशुभ तो कैसे हो सकता है! यह समय की धारा उसी के प्राणों से तो प्रवाहित हो रही है। यह गंगा उसी से निकली है; उसी में बह रही है; उसी में जा कर पूर्ण होगी।


आध्यात्मिक व्यक्ति को तो सारा जगत् पवित्र है, सब पल-छिन सब घड़ी-दिन शुभ है। ये तो गैर-आध्यात्मिक की झंझटें हैं। वह सोचता है : कोई भूल-चूक न हो जाए; ठीक समय में निकलूं; ठीक दिन में निकलूं; ठीक दिशा में निकलूं; महूरत पूछ कर निकलूं।


किससे डरे हो? तुमने मित्र को अभी पहचाना ही नहीं; वह सब तरफ छिपा है। तुम कैसा इंतजाम कर रहे हो? और तुम्हारे इंतजाम किए कुछ इंतजाम हो पाएगा?


कितना तो सोच-सोच कर आदमी विवाह करता है और पाता क्या है ? तुम कभी सोचते भी हो कि सब विवाह इस देश में लगन-महूरत से होते हैं और फिर फल क्या होता है? फिल्मों का फल छोड़ दो। जिंदगी का पूछ रहा हूं। फिल्में तो सब शादी हुई, शहनाई बजी. . . और खत्म हो जाती हैं, वहीं खत्म हो जाती हैं। शहनाई बजते-बजते ही फिल्म खत्म हो जाती है क्योंकि उसके आगे फिल्म को ले जाना खतरे से खाली नहीं है। सब कहानियां यहां समाप्त हो जाती हैं कि राजकुमारी और राजकुमार का विवाह हो गया और फिर वे सुख से रहने लगे। और उसके बाद फिर कोई सुख से रहता दिखाई पड़ता नहीं। असल में उसके बाद ही दुःख शुरू होता है। मगर उसकी बात छेड़ना ठीक भी नहीं है।


इतने लगन-महूरत को देखकर तुम्हारा विवाह सुख लाता है? इतना लगन-महूरत देखकर चलते हो, जिंदगी में कभी रस आता है? इतना सब हिसाब बनाने के बाद भी आती तो हाथ में मौत है, जो सब छीन लेती है; जो तुम्हें नग्न कर जाती है, दीन कर जाती है, दरिद्र कर जाती है। हाथ में क्या आता है इतने सारे आयोजन-होशियारी के बाद, इतने चतुराई के बाद? पलटू कहते हैं कि अपनी चतुराई पकड़े हुए हो, मगर इस चतुराई का परिणाम क्या है? आखिरी हिसाब में तुम्हारे हाथ क्या लगता है?
सिकंदर भी खाली हाथ जाता है। यहां सभी हारते हैं। संसार में हार सुनिश्चित है। चाहे शुरू में कोई जीतता मालूम पड़े और हारता मालूम पड़े-- अलग-अलग ; लेकिन आखिर में सिर्फ हार ही हाथ लगती है।


जीते हुओं के हाथ भी हार लगती है; और हारे हुओं के हाथ हार तो लगती ही है। यहां जो दरिद्र वे तो दरिद्र रह ही जाते है, यहां जो धनी है वे भी तो अंततः दरिद्र  सिद्ध होते हैं। यहां जिनको कोई नहीं जानता था, जिनका कोई नाम नहीं था, कोई प्रसिद्धि नहीं थी, कोई यश नहीं था--वे तो खो ही जाते हैं; लेकिन जिनको खूब जाना जाता था, बड़ी प्रसिद्धि थी--वे भी तो खो जाते हैं। मिट्टी सब को समा लेती है। चिता की लपटों में सभी समाहित हो जाता है। रेखा भी नहीं छूट जाती।

अजहुँ चेत गँवार 

ओशो


बहिर्मुखी व्यक्ति और अंतर्मुखी व्यक्ति


एकांत दो प्रकार का हो सकता है, क्योंकि मनुष्य-जाति दो भागों में बंटी है। एक, जिसको कार्ल गुस्ताव जुंग ने बहिर्मुखी व्यक्ति कहा है, ऐक्स्ट्रोवर्ट और एक, जिसको अंतर्मुखी व्यक्ति कहा है, इंट्रोवर्ट।


दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जिनके लिए आंख खोलकर देखना सहज है; जो अगर परमात्मा के सौंदर्य को देखना चाहेंगे तो इन वृक्षों की हरियाली में दिखाई पड़ेगा, चांदत्तारों में दिखाई पड़ेगा, आकाश में मंडराते शुभ्र बादलों में दिखाई पड़ेगा, सूरज की किरणों में, सागर की लहरों में, हिमालय के उत्तुंग हिमाच्छादित शिखरों में, मनुष्यों की आंखों में, बच्चों की किलकिलाहट में।


बहिर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा खुली आंख से दिखेगा। अंतर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा बंद आंख से दिखेगा, अपने भीतर। वहां भी रोशनी है। वहां भी कुछ कम चांदत्तारे नहीं हैं। कबीर ने कहा है हजार-हजार सूरज। भीतर भी हैं! इतने ही चांदत्तारे, जितने बाहर हैं। इतनी ही हरियाली, जितनी बाहर है। इतना ही विराट भीतर भी मौजूद है, जितना बाहर है।


बाहर और भीतर संतुलित हैं, समान अनुपात में हैं। भूलकर यह मत सोचना कि तुम्हारी छोटी-सी देह, इसमें इतना विराट कैसे समाएगा; यह विराट तो बहुत बड़ा है, बाहर विराट है, भीतर तो छोटा होगा! भूलकर ऐसा मत सोचना। तुमने अभी भीतर जाना नहीं। भीतर भी इतना ही विराट है--भीतर, और भीतर, और भीतर! उसका भी कोई अंत नहीं है। जैसे बाहर चलते जाओ, चलते जाओ, कभी सीमा न आएगी विश्व की--ऐसे ही भीतर डूबते जाओ, डूबते जाओ, डूबते जाओ, कभी सीमा नहीं आती अपनी भी। यह जगत्‌ सभी दिशाओं में अनंत है। इसलिए हम परमात्मा को अनंत कहते हैं; असीम कहते हैं, अनादि कहते हैं । सभी दिशाओं में!


महावीर ने ठीक शब्द उपयोग किया है। महावीर ने अस्तित्व को "अनंतानंत' कहा है। अकेले महावीर ने--और सब ने अनंत कहा है। लेकिन महावीर ने कहा, अनंतता भी अनंत प्रकार की है; एक प्रकार की नहीं है; एक ही दिशा में नहीं है; एक ही आयाम में नहीं है--बहुत आयाम में अनंत है, अनंतानंत! इधर भी अनंत है, उधर भी अनंत है! नीचे की तरफ जाओ तो भी अनंत है, ऊपर की तरफ जाओ तो भी अनंत! भीतर जाओ, बाहर जाओ--जहां जाओ वहां अनंत है। यह अनंता एकांगी नहीं है, बहु रूपों में है। अनंत प्रकार से अनंत है--यह मतलब हुआ अनंतानंत का।


तो तुम्हारे भीतर भी उतना ही विराट बैठा है। अब या तो आंख खोलो--और देखो; या आंख बंद करो--और देखो! देखना तो दोनों हालत में पड़ेगा। द्रष्टा तो बनना ही पड़ेगा। चेतना तो पड़ेगा ही। चैतन्य को जगाना तो पड़ेगा। सोए-सोए काम न चलेगा।


बहुत लोग हैं जो आंख खोलकर सोए हुए हैं। और बहुत लोग हैं जो आंख बंद करके सो जाते हैं। सो जाने से काम न चलेगा; फिर तो आंख बंद है कि खुली है, बराबर है; तुम तो हो ही नहीं, देखनेवाला तो है ही नहीं--तो न बाहर देखोगे न भीतर देखोगे। यह आंख बीच में है। पलक खुल जाए तो बाहर का विराट; पलक झप जाए तो भीतर का विराट।


बहिर्मुखी का अर्थ है, जिसे परमात्मा बाहर से आएगा। अंतर्मुखी का अर्थ जिसे परमात्मा भीतर से आएगा। अंतर्मुखी ध्यानी होगा; बहिर्मुखी, भक्त। इसलिए अंतर्मुखी परमात्मा की बात ही नहीं करेगा। परमात्मा की कोई बात ही नहीं; परमात्मा तो "पर' हो गया। अंतर्मुखी तो आत्मा की बात करेगा। इसलिए महावीर ने, बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की। वे परम अंतर्मुखी व्यक्ति हैं। और मीरां, चैतन्य, इन्होंने परमात्मा की बात की। ये परम बहिर्मुखी व्यक्ति हैं। अनुभव तो एक का ही है क्योंकि बाहर और भीतर जो है वह दो नहीं है; वह एक ही है। मगर तुम कहां पहुंचोगे? बाहर से पहुंचोगे या भीतर से, इससे फर्क पड़ जाता है।


इधर से कान पकड़ोगे या उधर से, इतना ही फर्क है। कान तो वही हाथ में आएगा। आता तो परमात्मा ही हाथ में है। जब भी कुछ हाथ में आता है, परमात्मा ही हाथ में आता है। और तो कुछ है ही नहीं हाथ में आने को। जिस हाथ में आता है वह हाथ भी परमात्मा है। परमात्मा ही परमात्मा के हाथ में आता है।

अजहुँ चेत गँवार 

ओशो


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