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Thursday, September 20, 2018

एक मित्र मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मैं शराब पीता हूं, जुआ खेलता हूं, मांस खाता हूं, मैं सब करता हूं और मैं अनेक दिनों से आपके पास आना चाहता था लेकिन इस डर से नहीं आया कि मैं जाऊंगा और आप कहेंगे, मांस खाना छोड़ो, शराब पीना छोड़ो, जुआ खेलना छोड़ो। तब कुछ हो सकता है। यह मैं छोड़ नहीं सकता इसलिए मैं आता नहीं था। लेकिन कल किसी ने मुझसे कहा कि आप तो कुछ भी छोड़ने को नहीं कहते हैं इसलिए मैं हिम्मत करके आपके पास आ गया। क्या कुछ भी छोड़ने की जरूरत नहीं है और मैं बदल सकता हूं?





मैंने कहा, अगर छोड़ने की कोशिश की तब तो कभी बदल ही नहीं सकोगे। बदल जाओ, तो चीजें छूट सकती हैं। छोड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैंने उनसे कहा, इसकी फिकर छोड़ दो। क्योंकि मेरे लिए यह सवाल नहीं है कि तुम जुआ खेलते हो। मेरे लिए सवाल यह है कि जो आदमी जुआ खेल रहा है वह आदमी जिंदगी में दांव लगाने को आतुर है और दांव लगाने के लिए ठीक जगह उसको उपलब्ध नहीं हो रही, तो वह पैसे पर दांव लगा रहा है। उसे ठीक चैलेंज नहीं मिल रहा है जिंदगी का जहां वह दांव लगा दे। यह आदमी हिम्मतवर आदमी है। जुआ जो नहीं खेलते इस कारण कोई नैतिक नहीं हो जाते, केवल कमजोर भी हो सकते हैं, कायर भी हो सकते हैं। चुनौती, दांव लगाने की हिम्मत न हो, रिस्क न लगा सकते हों, जोखिम न उठा सकते हों, इस तरह के लोग भी हो सकते हैं। और मेरे अपने अनुभव में यही आया है कि जिनको आप समझते हैं ये जुआ नहीं खेलते, वे केवल वे लोग हैं जिनमें दांव लगाने का कोई सामर्थ्य नहीं।


तो मैंने उन मित्र को कहा कि कुछ भी मत छोड़ें; कुछ समझें, छोड़ें नहीं; कुछ समझें, आचरण नहीं अंडरस्टैंडिंग, कोई समझ। जीवन को समझें थोड़ा। वे आते थे उनसे मैं बात करता था। फिर मैंने उनको कहा कि थोड़ी समझ, थोड़े शांत, थोड़े ध्यान में प्रवेश, थोड़े निर्विचार क्षणों को आमंत्रित करें। कभी इतने शांत और शून्य रह जाएं जैसे कुछ भी नहीं है सब मिट गया। मौन हो जाएं। वे प्रयोग करते थे क्योंकि मौन होने में न तो शराब बाधा देती है, न मांस खाना बाधा देता है, न जुआ बाधा देता है, और अगर बाधा देता है तो उतनी ही बाधा देता है जितनी रामायण पढ़ना बाधा देती है, जितना दुकान चलाना बाधा देती है, जितना उपदेश देना बाधा देता है।


ध्यान के लिए जीवन के सब क्रम एक बराबर हैं। कोई क्रम बाधा नहीं देता। उन्होंने कुछ दिन प्रयोग किए, वे छह महीने बाद मुझसे मिलने आए और कहने लगे कि आपने मुझे धोखा दिया। क्योंकि जैसे-जैसे मैं शांत हुआ शराब छूटती चली गई है। मैंने कहा कि मैंने इसमें क्या धोखा दिया, मैंने आपसे कहा था आपको छोड़ना नहीं है, छूट सकती है वह बात दूसरी है, छोड़ना और छूट सकने में फर्क है। आपने छोड़ी हो तो कहें। उन्होंने कहा, मैंने छोड़ी नहीं। लेकिन जैसे-जैसे मन शांत हुआ है--बेहोश होने की वृत्ति, बेहोश होने की आतुरता समाप्त हो गई है। बेहोश होने की आतुरता अशांत मन का हिस्सा है। शांत मन बेहोश नहीं होना चाहता।


अशांत मन अपने को भूलना चाहता है ताकि अशांति भूल जाए। शांत मन अपने को जानना चाहता है ताकि शांति और बढ़ जाए। तो अशांत मन आत्म-विस्मरण चाहता है, सेल्फ फारगेट फुलनेस चाहता है। शांत मन सेल्फ रिमेंबरिंग में प्रविष्ट होता है। स्वयं को जानना चाहता है। और जानना चाहता है। शांत मन जागना चाहता है, अशांत मन सोना चाहता है।


बुनियाद में शराब नहीं है। बुनियाद में शांत या अशांत मन है। मन शांत होगा शराब समाप्त हो जाएगी और मन अशांत होगा दुनिया की कोई सरकारें, दुनिया के कोई धर्मगुरु, दुनिया की कोई शिक्षा शराब को नष्ट नहीं कर सकती। और आज नहीं कल शराबी जिस दिन भी संगठित हो जाएंगे। अब तक बुरे लोग संगठित नहीं हुए हैं इसलिए अच्छे लोग बकवास किए चले जा रहे हैं। जिस दिन बुरे लोग संगठित हो जाएंगे उस दिन आपको पता चलेगा कि आप निन्यानबे लोगों के बीच में आपकी आवाज अभी बुरे लोगों को पता नहीं चला है कि डेमोक्रेसी आ गई है दुनिया में, और यह अच्छे लोगों को हक नहीं है कि एक आदमी कहे कि शराब बंद होनी चाहिए तो बंद करवा दे और निन्यानबे आदमी शराब पीना चाहते हों।


माटी कहे कुम्हार सूं 

ओशो

कई बार मित्रों ने मुझे कहा है, 'अच्छा होता यदि आप और कृष्णमूर्ति मिलते।’



  तो मैंने उनसे कहा, 'कृष्णमूर्ति से पूछो और यदि वह मिलना चाहें तो मैं आ जाऊंगा। लेकिन वहां होगा क्या? हम करेंगे क्या? हम क्या बातचीत करेंगे? हम मौन रहेंगे। तो जरूरत ही क्या है?' लेकिन वे कहते हैं, 'यदि आप दोनों मिलते तो बहुत अच्छा होता। हमारे लिए अच्छा होता। आप जो कहेंगे उसे सुनकर हमें बड़ा सुख होगा।


तो मैं उन्हें एक कहानी कहता हूं। एक बार ऐसा हुआ कि एक मुसलमान फकीर, फरीद, यात्रा कर रहे थे। जब वे दूसरे संत कबीर के गांव के निकट पहुंचे तो फरीद के शिष्यों ने कहा कि यदि वे दोनों मिलें तो बहुत अच्छा होगा। और जब कबीर के शिष्यों को यह पता चला तो उन्होंने भी आग्रह किया कि जब फरीद गुजर रहे हैं तो उन्हें निमंत्रित करना चाहिए। तो कबीर ने कहा, 'ठीक है।फरीद ने भी कहा, 'ठीक है। हम चलेंगे, लेकिन जब मैं कबीर की कुटिया में प्रवेश करूं तो कुछ भी कहना मत, बिलकुल मौन रहना।
दो दिन तक फरीद कबीर की कुटिया में रहे। दो दिन तक वे मौन बैठे रहे। और फिर कबीर गांव की सीमा तक फरीद को विदा करने आए, और मौन में ही वे विदा हुए। जैसे ही वे विदा हुए दोनों के शिष्य पूछने लगे।


कबीर के शिष्यों ने उनसे पूछा, 'यह क्या हुआ? यह भी खूब रही! आप दो दिन तक मौन ही बैठे रहे, एक शब्द भी नहीं बोले, और हम सुनने को इतने उत्सुक थे !' फरीद के शिष्यों ने भी कहा, 'यह क्या हुआ? बड़ा अजीब लगा। हम दो दिन तक देखते ही रहे, देखते ही रहे, इंतजार करते रहे कि इस मिलन से कुछ निकले। लेकिन कुछ हुआ नहीं।


कहते हैं फरीद ने कहा, 'तुम्हारा मतलब क्या है? दो ज्ञानी बात नहीं कर सकते; दो अज्ञानी बहुत बात कर सकते हैं लेकिन सब व्यर्थ है, बल्कि हानिकारक है। एकमात्र संभावना यह है कि एक ज्ञानी अज्ञानी से बात करे।और कबीर ने कहा, 'जो कोई एक शब्द भी बोलता वह यही सिद्ध करता कि वह अज्ञानी है।
तुम सलाहें मांगे चले जाते हो सहारे खोजते रहते हो। इसे अच्छी तरह से समझ लो कि यदि तुम सहारे के बिना नहीं रह सकते तो अच्छा है कि समझ-बूझ कर कोई सहारा, कोई मार्गदर्शक चुन लो। यदि तुम सोचते हो कि कोई जरूरत नहीं है, कि तुम स्वयं ही पर्याप्त हो, तो कृष्णमूर्ति या किसी ओर से पूछना बंद करो। आना-जाना बंद करो ओर अकेले हो रहो।


ऐसे लोगों को भी घटना घटी है जो अकेले थे। लेकिन यह कभी-कभार ही होता है, करोड़ों में किसी एक व्यक्ति को। वह भी बिना किसी कारण के नहीं। वह व्यक्ति कई जन्मों से खोजता रहा होगा; वह कई सहारे कई गुरु, कई मार्गदर्शक खोज चुका होगा और अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है जहां अकेला हो सकता है। केवल तभी ऐसा होता है। लेकिन जब भी किसी व्यक्ति के साथ ऐसा होता है कि अकेला ही वह परम को उपलब्ध कर लेता है तो वह कहने लगता है कि ऐसा तुम्हें भी हो सकता है। यह स्वाभाविक है।

 
क्योंकि कृष्णामूर्ति को यह अकेले हुआ तो वह कहे चले जाते हैं कि तुम्हें भी हो सकता है। तुम्हें ऐसा नहीं हो सकता! तुम सहारे की खोज में हो और उससे पता चलता है कि तुम यह अकेले नहीं कर सकते। तो अपने से ही धोखा मत खाओ! हो सकता है तुम्हारे अहंकार को अच्छा लगे कि मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है! अहंकार सदा इसी भाषा में सोचता है कि 'मैं अकेला ही पर्याप्त हूं।लेकिन वह अहंकार काम नहीं आएगा। वह तो सबसे बड़ी बाधा बन जाएगा।


तंत्र सूत्र 

ओशो

क्या आप कृपया हमें बताएंगे कि कृष्णमूर्ति विधियों के इतने विरोध में क्यों हैं, जब कि शिव तो बहुत सी विधियों के पक्ष में हैं?





विधियों के विरोध में होना भी एक विधि ही है। केवल कृष्णामूर्ति ही इस विधि का उपयोग नहीं कर रहे हैं, पहले भी कई बार इसका उपयोग किया गया। यह प्राचीनतम विधियों में से एक है इसमें कुछ नया नहीं है।


दो हजार वर्ष पहले बोधिधर्म ने इसका उपयोग किया। चान या झेन बुद्धिज्म के नाम से जिस धर्म को जाना जाता है, उसे वह चीन लेकर गया था। वह एक हिंदू भिक्षु था, भारत से था। वह अ-विधि में विश्वास करता था। झेन अ-विधि पर आधारित है। झेन गुरु कहते हैं कि यदि तुमने कुछ भी किया तो तुम चूक जाओगे, क्योंकि करेगा कौन? तुम! तुम्हीं तो रोग हो और तुमसे कुछ और पैदा नहीं हो सकता। प्रयास कौन करेगा? तुम्हारा मन! और तुम्हारा मन ही नष्ट होना है। और तुम मन की मदद से ही मन को नष्ट नहीं कर सकते। तुम जो भी करोगे, उससे तुम्हारा मन और मजबूत होगा।


तो झेन कहता है कि कोई विधि नहीं है, कोई उपाय नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है और कोई गुरु नहीं हो सकता। लेकिन सौंदर्य यह है कि झेन ने महानतम गुरु पैदा किए हैं, और झेन गुरुओं ने संसार के सवोंत्तम शास्त्र लिखे हैं और झेन के माध्यम से हजारों-हजारों लोग निर्वाण को उपलब्ध हुए हैं; लेकिन वे कहते हैं कि कोई विधि नहीं है।


तो यह समझने जैसा है कि अ-विधि वास्तव में बुनियादी विधियों में से एक है। 'नकार' पर बल है ताकि तुम्हारे मन का निषेध हो जाए। मन के दो दृष्टिकोण हो सकते हैं, ही या न। यही दो संभावनाएं हैं, दो विकल्प हैं जैसे कि सब चीजों में होते हैं।' रुपए है और 'ही' पुरुष। तो तुम चाहो तो न की विधि प्रयोग में ला सकते हो, या ही की विधि प्रयोग में ला सकते हो। यदि तुम हा की विधि अपनाओ तो कई विधियां होंगी; लेकिन तुम्हें हा कहना होगा और हा कई हो सकते हैं। यदि तुम न को अपनाओ तो कई विधियां नहीं हैं, बस एक ही विधि है क्योंकि बहुत न नहीं हो सकते।

इस बात को देखो : संसार में इतने धर्म हैं, इतने तरह के आस्तिक हैं। अभी कम से कम तीन सौ धर्म हैं। तो आस्तिकता के तीन सौ मंदिर, चर्च और शास्त्र हैं। लेकिन नास्तिकता केवल एक ही तरह की है दो नास्तिकताएं नहीं हो सकतीं। नास्तिकों का कोई संप्रदाय नहीं है। जब तुम कहते हो कि कोई परमात्मा नहीं है तो बात समाप्त हो गई। तुम दो न में भेद नहीं कर सकते। लेकिन जब तुम कहते हो 'ही परमात्मा है', तो भेद की संभावना है। क्योंकि मेरी ही मेरा अपना परमात्मा पैदा करेगी और तुम्हारी हा तुम्हारा परमात्मा पैदा करेगी। तुम्हारी हा जीसस के लिए हो सकती है, मेरी ही कृष्ण के लिए हो सकती है; लेकिन जब तुम न कहते हो तो सभी न एक जैसी होती हैं।


यही कारण है कि पृथ्वी पर नास्तिकता के कोई संप्रदाय नहीं हैं। नास्तिक एक जैसे हैं। उनका कोई शास्त्र नहीं है उनका कोई चर्च नहीं है। जब उनका कोई विधायक दृष्टिकोण ही नहीं है तो असहमत होने के लिए कुछ बचता ही नहीं, एक साधारण सी न ही पर्याप्त है। ऐसा ही विधियों के साथ है : न की केवल एक विधि है हा की एक सौ बारह हैं या और भी बहुत सी संभव हैं। तुम नई-नई विधियां पैदा कर सकते हो।



किसी ने कहा है कि मैं जो विधि सिखाता हूं सक्रिय ध्यान, वह इन एक सौ बारह विधियों में नहीं है। वह इनमें नहीं है क्योंकि वह एक नया मिश्रण है, लेकिन जो कुछ भी उसमें है वह इन एक सौ बारह विधियों में है। कोई भाग किसी विधि में है, कोई भाग किसी दूसरी विधि में है। ये एक सौ बारह बुनियादी विधियां हैं। उनसे तुम हजारों विधियां बना ले सकते हो। उसका कोई अंत नहीं है। कितने ही जोड़ संभव है।



लेकिन जो कहते हैं कि कोई विधि नहीं है, उनकी बस एक ही विधि हो सकती है। निषेध से तुम कुछ बहुत अधिक पैदा नहीं कर सकते। तो बोधिधर्म लिंची, बोकोजू कृष्णमूर्ति की केवल एक ही विधि है। असल में कृष्णमूर्ति ठीक झेन गुरुओं की श्रृंखला में ही आते हैं। वह झेन बोल रहे हैं। उसमें कुछ भी नया नहीं है। लेकिन झेन सदा नया दिखाई पड़ता है। और कारण यह है कि झेन शास्त्रों में विश्वास नहीं करता, परंपरा में विश्वास नहीं करता, विधियों में विश्वास नहीं करता।


तो जब भी न उठता है तो वह ताजा और नया होता है।ही' परंपरा में शास्त्रों में, गुरुओं में विश्वास करता है। जब भी 'हा' होगा उसकी एक लंबी, आरंभहीन परंपरा होगी। जिन्होंने भी ही कहा है, कृष्ण हों कि महावीर, वे कहे चले जाते हैं कि वे कुछ नया नहीं कह रहे। महावीर कहते हैं, 'मुझसे पहले तेईस तीर्थंकरों ने यही सिखाया है।और कृष्ण कहते हैं 'मुझसे पहले एक ऋषि ने दूसरे ऋषि को संदेश दिया, दूसरे ऋषि ने तीसरे को दिया, और यह चलता चला आ रहा है। मैं कुछ भी नया नहीं कह रहा।


'
हा' सदा पुराना होगा, शाश्वत होगा।' सदा नया लगेगा, जैसे अचानक अस्तित्व में आ गया हो।' की कोई पारंपरिक जड़ें नहीं हो सकतीं। वह बिना जड़ों के है। इसीलिए कृष्णमूर्ति नए लगते हैं। नए वह हैं नहीं।


तंत्र सूत्र 

ओशो

Tuesday, September 18, 2018

अगर बड़ा नेता होना हो, तो युद्ध बहुत जरूरी है....


 शांति के समय में बड़े नेता पैदा नहीं होते। बड़े नेता के पैदा होने के लिए संघर्ष जरूरी है, युद्ध जरूरी है, हिंसा जरूरी है, हत्या जरूरी है। जितनी हत्या होगी, जितनी हिंसा होगी, उतना बड़ा नेता प्रकट होगा। शांति के समय में बड़ा नेता प्रकट नहीं होता। अगर शांति स्थाई चल जाए, तो नेता एकदम फेड आउट हो जाएंगे, विदा हो जाएंगे, उनको कोई पूछेगा ही नहीं। उनकी जरूरत ही तभी है।

रास्ते पर, चैराहे पर एक पुलिसवाला खड़ा है। वह पुलिसवाला इसलिए खड़ा है कि कहीं चोर है। अदालत में एक मजिस्ट्रेट बैठा है, वह इसलिए बैठा है कि कहीं चोर है। अगर चोर विदा हो जाएं, तो चोरों के विदा होते ही अचानक चैरस्ते का पुलिसवाला भी विदा हो जायेगा। चोरों के विदा होते ही मजिस्ट्रेट विदा हो जायेगा। इसलिए मजिस्ट्रेट ऊपर से चोरों को सजा दे रहा है, भीतर से भगवान से प्रार्थना करता है कि रोज आते रहना। स्वाभविक है। उसका धंधा तो चोरों पर है। उसकी जिंदगी चोरों पर है।

राजनीतिज्ञ ऊपर से कहता है कि शांति चाहिए। कबूतर उड़ाता है, शांति के कबूतर! लेकिन भीतर से युद्ध की कामना करता है। युद्ध चाहिए। युद्ध न हो, तो राजनीतिक नेता की कोई जगह नहीं है। युद्ध न हो, तो राजनीति की ही कोई जगह नहीं है। असल में युद्ध से ही राजनीति पैदा होती है। फिर अगर बड़ा युद्ध न चलता हो तो छोटा युद्ध चलाना पड़ता है। अगर मुल्क के बाहर कोई लड़ाई न हो, तो मुल्क के भीतर लड़ाई चलानी पड़ती है। अगर मुल्क के भीतर भी न हो, तो एक ही पार्टी को दो हिस्सों में तोड़कर लड़ाई चलानी पड़ती है!

बड़ा नेता लड़ाई में पैदा होता है। छोटे नेता शांति में जीते हैं। छोटे नेता कभी बड़े नहीं हो सकते हैं, अगर लड़ाई चलनी चाहिए। लड़ाई चलनी ही चाहिए किन्हीं भी तालों पर। हजार-हजार तलों पर लड़ाई चलनी चाहिए। लड़ाई नेता को बड़ा करती है। जनता को आतुर करती है, जनता की आंखों को उठाती है, नेता को देखने के लिए। इसलिए नेता निरंतर नई लड़ाई की चेष्टा में संलग्न है।

 
और मजा यह है कि रोज मंच पर खड़े होकर कहता है कि शांति चाहिए, एकदम चाहिए। मनुष्य इकट्ठे हों, सब एक हों। इधर मंच पर यह कहेगा। मंच के पीछे सारे उपाय करेगा, जिनसे मनुष्य एक न हो पाये, जिनसे आदमी कभी इकट्ठा न हो पाये, जिनसे पृथ्वी कभी इकट्ठी न हो पाये। इसकी पीछे कोशिश चलेगी, लेकिन यह हम समझ सकते हैं।


एक डाक्टर है, वह मरीज का इलाज करता है और मरीज की तरफ, सब तरफ से कोशिश करता है कि मरीज ठीक हो जाये। डाक्टर मरीज हो ठीक करने के लिए है। लेकिन पता है कि जब महामारी फैलती है, प्लेग फैलती है, या जब फ्लू फैलता है, तो डाक्टर आपस में कहते हैं कि सीजन चल रह है!डाक्टरों का सीजन तो तभी आता है, ऋतु तभी आती है धंधे की, जब फ्लू फैले, प्लेग फैले, मलेरिया फैले, लोग बड़े पैमाने पर बीमार हों! इधर डाक्टर इलाज कर रहा है मरीज का, उधर प्रार्थना कर रहा है कि बीमारी कैसे बढ़े! और पैसे वाले बीमार का ठीक हो जाना इसलिए बहुत मुश्किल हो जाता है। गरीब बीमार को ज्यादा देर बीमार रखने में डाक्टर का कोई हित नहीं है। पैसे वाले बीमार का ठीक हो जाना मुश्किल हो जाता है। अक्सर तो पैसे वाले बीमार ही बने रहते हैं। क्योंकि जितनी देर पैसे वाला बीमार रहे, उतने ही हित में है डाक्टर के। अब ऊपर से डाक्टर दिखता है बीमारी से लड़ रहा है, और भीतर से वह बीमारी के लिए प्रार्थना कर रहा है।


इसलिए ऊपर मंचों पर जो चेहरे दिखाई पड़ते हैं, वे मंच के पीछे वही नहीं हैं, यह ध्यान में रखना जरूरी है। मंच पर चेहरे बिल्कुल बनावटी हैं। मंच पर वे कुछ और कहते हैं, और सौ में निन्यानबे मौके यह हैं कि मंच पर वे जो भी कहते हैं, ठीक उससे उल्टा मंच की पीछे करते होंगे। जो भी शांति की बातें चलती हैं, उनके पीछे युद्ध का इंतजाम चलता है। इसलिए बड़े आश्चर्य की बात है कि दुनिया के सारे युद्ध शांति के लिए होते हैं! सब युद्ध शांति के लिए होते हैं। वे कहते हैं, हम इसलिए लड़ रहे हैं, ताकि दुनियां में शांति हो सके! लड़ना जरूरी है; शांति की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है। हिटलर भी शांति की रक्षा के लिए लड़ते हैं और चर्चिल भी। रूजवेल्ट भी और स्टैलिन भी शांति के लिए लड़ते हैं। हिंदुस्तान भी और पाकिस्तान भी, सभी शांति के लिए लड़ते हैं।


लेकिन राजनीतिज्ञ की जिंदगी अशांति पर निर्भर है। इसलिए राजनीतिज्ञ शांति चाह नहीं सकता। और अगर दुनिया को शांति चाहनी हो, तो राजनीतिज्ञ को विदा देना जरूरी होगा। वह हट जाना चाहिए, उसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज उसी की जगह है। वही सब कुछ है। उसे हम सारी ताकत दे रहे हैं। और वह हमारी अशांति का बुनियादी आधार है। हम उसको ही भोजन खिला रहे हैं। हम उसका ही सम्मान कर रहे हैं और फूलमालाएं पहना रहे हैं। क्योंकि वह शांति की बातें करता है। लेकिन शांति की बातों का शांति से कोई भी संबध नहीं है।

पंथ प्रेम को बड़ो कठिन 

ओशो

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