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Tuesday, November 10, 2015

प्रमाण

 सदगुरु के पास जब जाओ, तो निष्कर्ष लेकर मत जाना। नहीं तो तुम्हारे निष्कर्ष तुम्हारी आंख पर नि परदे हो जाएंगे। और कोई दो सदगुरु एक से नहीं होते, इसलिए तुम्हारे सब निष्कर्ष व्यर्थ हैं, घातक हैं, अनुमान करने तक में तुम्हारे लिए बाधा बन जाएंगे। तो पहली बात, तुम पूछते हो: कैसे उपलब्ध व्यक्ति की उपलब्धि का अन्य को पता चले? नि उसकी शांति, उसका आनंद, उसकी सौम्यता, उसका प्रसाद, उसकी सुगंध; उसके पास बैठने का रस; उसकी सन्निधि में अचानक घट जाने वाली तुम्हारे भीतर भी शांति की हिलोर; उसकी मौजूदगी में अचानक तुम्हारे मन का कभी कभी मिट जाना, खो जाना; उसके चरणों में सिर रखकर अनुभव में आना कि मैं नहीं हूं, अहंकार का तिरोहित हो ओ जाना; उसके पास उठते बैठते, उसके रंग में रंगते रंगते तुम्हारे भीतर एक अपूर्व नृत्य का जन्म हो जाना; तुम्हारे भीतर भी कोई गीत गुनगुनाने को मचलने लगे, तुम्हारे पैर में भी पुलक और थिरक आ जाए नृत्य की, तुम्हारे भीतर भी कोई बीज फूटने लगे, अंकुरित होने लगे, उसकी मौजूदगी में तुम्हें अनुभव होने लगे थोड़ा थोड़ा कि यह जगत जितना दिखाई पड़ता है इतना ही नहीं है, इससे ज्यादा है, जहां रहस्य की थोड़ी सी गंध मिले। लेकिन यह सब अनुमान होंगे। मैं नहीं कह रहा हूं कि प्रमाण।
 
 इसलिए जोर से मुट्ठी पकड़कर इनको मत कसना, अन्यथा ये मर जाएंगे। ये बहुत सुकोमल फूल हैं। इनको मुट्ठी कसकर नहीं पकड़ा जाता। यह पारे की तरह तरल है। इन्हें जोर से पकड़ोगे, छितर बितर हो जाएंगे। और पारा बिखर जाए तो इकट्ठा करना मुश्किल हो जाता है। यह कोई सीधे सीधे गणित की भाषा में, तर्क की भाषा में पकड़े जाने वाले सत्य नहीं हैं। हां, प्रेम के जाल में जरूर ये मछलियां फंसती हैं। अगर प्रेमपूर्ण ढंग से तुम किसी परमात्मा को उपलब्ध व्यक्ति के पास बैठोगे, तो जरूर तुम्हारा जाल खाली नहीं आएगा, उसके सागर से बहुत हीरे मोती, बहुत अनुभव तुम लेकर लौटोगे। पर फिर दोहरा दूं, यह सिर्फ अनुमान ही रहेगा, जब तक कि स्वयं का अनुभव न हो जाए।

मैं स्कूल में पढ़ता था। एक मुसलमान शिक्षक थे। शायद अब भी जीवित हैं, रहमुद्दीन उनका नाम था, प्यारे आदमी थे। मगर एक बात में बहुत सख्त थे। किसी तरह उनसे कोई बहाने से छुट्टी लेना मुश्किल था। छुट्टी असंभव ही थी, वह बिलकुल दुश्मन ही थे छुट्टी के। न खुद कभी छुट्टी लेते थे, न किसी विद्यार्थी को छुट्टी लेने देते थे। और मुझे आए दिन छुट्टी की जरूरत रहती। तो मैं कभी कहूं कि पेट में दर्द, कभी कहूं कि सिर में दर्द—उन्होंने कहा कि सुनो! मैं बुखार को मानता हूं, मैं सिरदर्द और पेट दर्द को मानता ही नहीं। क्योंकि बुखार हो तो मैं कम से कम तुम्हारा हाथ हाथ में लेकर देख तो सकूं कि है बुखार, अब वह पेट दर्द और सिरदर्द मैं कैसे समझूं कि हो रहा है असली में कि नहीं हो रहा है? मैंने उनसे कहा कि आप जब पूछते ही हैं, तो मैं आपसे पूछता हूं: कभी आपको सिरदर्द हुआ है या नहीं? पेट दर्द कभी हुआ है कि नहीं? उन्होंने कहा कि हुआ है। तो मैंने कहा कि आप क्या प्रमाण दे सकते हैं उसके होने का? आप मानें या न मानें, मुझे सिरदर्द हो रहा है और छुट्टी चाहिए। और प्रमाण क्या हो सकता है सिरदर्द का? कोई हो आपके पास जांच की व्यवस्था तो कर लें।

उन्होंने पीछे मुझे बुलाया और कहा कि सुनो, तुम्हें छुट्टी लेनी हो, तो मुझे पहले बता दिया कर। यह सिरदर्द और पेट दर्द की बीमारी अगर फैल गई, तो मैं झंझट में पडूंगा! तुम बात तो ठीक कह रहे हो—हालांकि मैं पक्का जानता हूं कि तुम्हें सिर दर्द नहीं है, मगर यह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता तुम्हें छुट्टी चाहिए, यह मैं जानता हूं। मगर यह बीमारी फैलनी नहीं चाहिए। तुम मुझसे चुपचाप पहले ही कह दिया करो, और तुम्हें जब छुट्टी लेनी हो ले लिया करो, मगर यह सिरदर्द और पेट दर्द, यह बात तुम चालबाजी की कर रहे हो! क्योंकि इसमें न कोई प्रमाण हो सकता, न कोई उपाय हो सकता। डाक्टर भी कुछ नहीं कर सकता। डाक्टर के भी पास जाकर कहो कि सिरदर्द हो रहा है, तो वह क्या करे? जांचने का कोई उपाय नहीं।

तुम्हें लेकिन जब सिरदर्द होता है तो पता चलता है या नहीं? तब तुम्हें स्पष्ट पता चलता है कि हो रहा है। दुनिया माने कि न माने, प्रमाण हो कि न हो। ठीक यह अनुभव भी ऐसा ही स्वतः प्रमाण है।

तुम यह पूछते हो, साधक कैसे जाने कि वास्तव में कुछ घट गया है? योगेश, जब घटता है तो कोई उपाय ही नहीं होता नहीं जानने का। जब अंधे को आंख खुलती है और रोशनी दिखाई पड़ती है, तो क्या तुम सोचते हो अंधा पूछेगा कि अंधा कैसे जाने कि अब आंख खुल गई और रोशनी दिखाई पड़ने लगी? जब दिखाई ही पड़ने लगी, तो यह प्रश्न नहीं उठता। यह प्रश्न इसीलिए उठ रहा है कि तुम अनुभव में तो उतरने की फिक्र में कम हो, पहले से ही सब निश्चय कर लेना चाहते हो—कैसे?

यह काल्पनिक प्रश्न है, दार्शनिक प्रश्न है। ऐसे प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं होता। तुम यह पूछ रहे हो कि मेरा जब किसी से प्रेम हो जाएगा तो मैं कैसे जानूंगा कि प्रेम हो गया? जानोगे, बिलकुल बेफिक्र रहो! रोयां—रोयां जानेगा कि प्रेम हो गया। हृदय की धड़कन धड़कन जानेगी कि प्रेम हो गया। और सारी दुनिया कहेगी कि पागल हो गए हो, कुछ नहीं हुआ, कल्पना कर रहे हो, तो भी तुम मानोगे नहीं। क्योंकि कौन अपने प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने दूसरों का प्रमाण मानने जाता है।

दुनिया माने या न माने, जब घटना घटती है तो जानी ही जाती है।

और यह घटना तो इतनी महान है, इतनी विराट है, इतनी अभिभूत कर लेने वाली है बाढ़ की तरह आती है, सब दिशाओं से आती है, रोशनी की बाढ़, और ऐसे भर जाती है तुम्हारे कोने कोने में प्राणों के, सब अंधेरे को निकाल बाहर कर देती है। सब पीड़ा गई, सब दुख गए, सब चिंता गई; अहंकार गया, अहंकार से बंधे हुए सारे संताप, सारे विषाद गए कैसे बच सकोगे जानने से? इतनी बड़ी घटना घटेगी और तुम्हें पता न चलेगा?

लेकिन अगर सिर्फ दार्शनिक ढंग से पूछो, पहले से ही पूछो, तो अड़चन है। अभी तुम काल्पनिक रूप से कुछ रहे हो, कैसे साधक जाने कि वास्तव में कुछ घट गया है? जब तक ऐसा प्रश्न उठे, तब तक जानना—अभी नहीं घटा है। जब घटता है तो कोई प्रश्न नहीं उठते। घटना इतनी बड़ी है और इतनी स्वतः सिद्ध है, स्वतः प्रमाण है कि जब घटती है तो कोई शेष नहीं रह जाता। श्रद्धा, पूर्ण श्रद्धा का जन्म होता है।

और यह भी तुम पूछते हो कि कैसे वह स्वनिर्मित कल्पना से भिन्न वास्तविकता को जाने? वहां तो कोई स्व बचता नहीं, न कोई कल्पना बचती है विचार ही नहीं बचते, तो कल्पना कैसे बचेगी; नींद ही टूट गई, तो सपने कैसे बचेंगे स्वयं ही नहीं बचा, एक शून्य रह जाता है। एक गहन सन्नाटा, एक निबिड़ सन्नाटा। और उस सन्नाटे में आनंद का उत्सव है। आनंद का रास। आनंद की लीला।

जब होगा, तब तुम निश्चय ही जान लोगे। इसलिए बजाय इस चिंता में पड़ने के पहले से कि हम कैसे निर्णय करेंगे, खोज में लगो। हो जाए, इसके लिए तैयार होओ। पात्र को निर्मित करो, परमात्मा तो बरसने को प्रतिपल राजी है। ओ

सपना यह संसार

ओशो 

Sunday, November 8, 2015

भगवान, क्या परमात्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है?

मुल्ला नसरुद्दीन नदी के किनारे गया था तैरना सीखने। जो उस्ताद उसे तैरना सिखाने को थे, वह तो एकदम चौंके, क्योंकि मुल्ला जैसे ही तट पर गया नदी के, पत्थर पर पैर फिसल गया काई जमी होगी भड़ाम से गिरा, एक पैर तो पानी में भी पड़ गया, कपड़े भी भींग गए, एकदम उठा और घर की तरफ भागा। उस्ताद ने कहा कि बड़े मियां, कहां जाते हो? मुल्ला ने कहा कि अब जब तक तैरना न सीख लूं, नदी के पास पैर न रखूंगा। यह तो खतरनाक धंधा है! यह तो उसकी दुआ कहो, यह तो उसकी कृपा कहो। अगर जरा और फिसलकर अंदर चला गया होता, तो उस्ताद, तुम तो खड़े थे बाहर, तुम तो देखते ही रहे, हम काम से गए थे! अब तो तैरना सीख लूंगा, तभी पानी के पास फटकूंगा।

अगर अब तैरना कहां सीखोगे? कोई गद्देत्तकिए बिछा कर तैरना सीखा जाता है। और गद्देत्तकिए बिछाकर तुम कितना ही तैरने का अभ्यास कर लो, पानी में काम न आएगा, खयाल रखना। हाथ पैर पटकना सीख लोगे गद्देत्तकिए पर, लेकिन पानी में सब बेकाम हो जाएगा।

नहीं, तैरना सीखने के लिए भी पानी के पास जाना ही पड़ता है। परमात्मा का अस्तित्व कैसे सिद्ध करोगे? तर्क से? विचार से? तो तो तुम उल्टे काम में लग गए। परमात्मा को जाना है लोगों ने निर्विचार से। परमात्मा को जाना है लोगों ने हृदय से। और तुम सिद्ध करने लगे बुद्धि से। नहीं सिद्ध होगा, तो आज नहीं कल तुम कहोगे: है ही नहीं। और एक बार तुम्हारे मन में यह बात गहरी बैठ गई कि है ही नहीं, तो बस अटक गए। तो तुम्हारा विकास अवरुद्ध हुआ।

गलत प्रश्न न पूछो! पूछो कि क्या मैं हूं? पूछो कि कैसे मैं जानूं कि मैं कौन हूं? परमात्मा को छोड़ो! परमात्मा से लेना देना क्या है? पहले पानी की बूंद तो पहचान लो, फिर सागर को पहचान लेना। अभी बूंद से भी पहचान नहीं और सागर के संबंध में प्रश्न उठाए। वे प्रश्न व्यर्थ हैं। उनके उत्तर सिर्फ नासमझ देने वाले मिलेंगे। हां, किताबों में इस तरह के प्रमाण दिए हुए हैं, बड़े बड़े प्रमाण दिए हुए हैं, बड़े पंडित, शास्त्री प्रमाण देते हैं ईश्वर के होने का। और उनके प्रमाण सब बचकाने, दो कौड़ी के! क्योंकि प्रमाण कोई दिया ही नहीं जा सकता।

क्या प्रमाण हैं उनके?

इस तरह के प्रमाण कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। बिना कुम्हार के घड़ा कैसे बनेगा? इसी तरह परमात्मा ने जगत को बनाया, वह कुम्भकार है कुम्हार है।…कर दिया शूद्र उसको भी!…अब जरा कोई इन बुद्धिमानों से पूछे कि अगर घड़े को बनाने के लिए कुम्हार की जरूरत है, तो कुम्हार को बनाने के लिए भी तो किसी की जरूरत है! वह कहते हैं, हां, परमात्मा ने कुम्हार को बनाया। फिर तुम्हारी दलील का क्या होगा? परमात्मा ने संसार बनाया, फिर परमात्मा को किसने बनाया?

यही तो बुद्ध ने पूछा, महावीर ने पूछा और पंडितों की बोलती बंद हो गई। पंडित तो नाराज हो गए। इसको वह अतिप्रश्न कहते हैं। तुम पूछे कि संसार किसने बनाया, तो सम्यक प्रश्न। और कोई पूछे कि भई, जब बिना बनाए कोई चीज बनती ही नहीं, तो परमात्मा को किसने बनाया? तो अतिप्रश्न। तो जबान काट ली जाएगी। यह न्याय हुआ? तुम्हारा ही तर्क जरा आगे खींचा गया।

और फिर इसका अंत कहां होगा? अगर तुम कहो कि हां, परमात्मा को फिर और किसी बड़े परमात्मा ने बनाया, और उसको फिर किसी और बड़े परमात्मा ने बनाया, तो इसका अंत कहां होगा? यह तो अंतहीन शृंखला हो जाएगी, व्यर्थ शृंखला हो जाएगी। नहीं, ऐसे प्रमाणों से कुछ सिद्ध नहीं होता। ऐसे प्रमाणों से सिर्फ प्रमाण देने वालों की नासमझी, बुद्धिहीनता, असंवेदनशीलता सिद्ध होती है और कुछ भी सिद्ध नहीं होता। परमात्मा सिद्ध नहीं होता, सिर्फ प्रमाण देने वालों का बुद्धूपन सिद्ध होता है।

बुद्ध परमात्मा का प्रमाण नहीं देते। बुद्ध परमात्मा का प्रमाण बनते हैं।

भेद को समझ लेना। बुद्ध प्रमाण बनते हैं परमात्मा का, बुद्ध प्रमाण होते हैं परमात्मा का। मैं तुमसे कहूंगा, तुम भी प्रमाण बनो। तुम भी प्रमाण बन सकते हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर भी बुद्धत्व छिपा पड़ा है। झरने को तोड़ने की जरूरत है। जरा चट्टान हटाओ विचारों की और फूटने दो भाव का झरना! नाचो, गाओ जीवन के उत्सव को अनुभव करो! और तुम्हें पता चल जाएगा कि परमात्मा है। जिस दिन तुम जानोगे कि जीवन एक रास है; एक महोत्सव है, राग से, रंग से भरा; एक इंद्रधनुष है, सतरंगा; एक संगीत है, अदभुत स्वरों से पूर्ण, उस दिन परमात्मा का प्रमाण मिल गया। हालांकि तुम वह प्रमाण किसी और को भी न दे सकोगे। गूंगे का गुड़ हो जाता है वह अनुभव।

मगर धन्य हैं वे, जिन्हें कुछ ऐसा अनुभव मिल जाता है जिसे वह कह नहीं पाते। इस जगत में सर्वाधिक धन्य वे ही हैं, जिन्हें गूंगे का गुड़ मिल जाता है।

सपना यह संसार 

ओशो 

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