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Friday, February 28, 2020

वर्तमान में जीवन


एक युवक न्यूयार्क की तरफ यात्रा कर रहा था वह जिस ट्रेन में बैठा हुआ था उसके बगल की ही सीट पर एक वृद्धजनजी बैठे हुए थे। उस युवक ने थोड़ी देर बाद उनसे पूछा कि कितना समय हुआ होगा आपकी घड़ी में, आपकी घड़ी में कितना बजा है। उस वृद्ध ने उस युवक को नीचे से ऊपर तक देखा, उसके हाथ के बस्ते और सामान को देख कर लगता था वह किसी इंश्योरेंस कंपनी का एजेंट होगा, किसी बीमा कंपनी का एजेंट होगा। उस वृद्ध ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और फिर कहा महाशय, मैं आपको समय नहीं बता सकूंगा।

युवक हैरान हुआ, उसने पूछा आपके पास घड़ी नहीं है


उस वृद्ध ने कहा, घड़ी तो है लेकिन मैं आपको बताऊंगा कि समय कितना है, फिर बातचीत चल पड़ेगी। आप मुझसे पूछेंगे, आप कहां जा रहे हैं? मैं आपको कहूंगा, मैं न्यूयार्क जा रहा हूं। आप पूछेंगे, वहीं रहते हैं? फिर मजबूरी में मुझे बताना पड़ेगा अपने घर का पता और शायद शिष्टाचार में आपसे कहना पड़े कि आप भी न्यूयार्क चलते हैं कभी मेरे घर आइए। मेरी लड़की जवान है, जरूरी है घर आकर आपका उससे मिलन, मैत्री, परिचय हो जाएगा। आप उससे कहेंगे कहीं घूमने को चलने को, शायद वह जाने को राजी हो। और यह बात अंत में मैं जानता हूं कि आप प्रस्ताव करेंगे कि मैं आपकी युवा लड़की से विवाह करना चाहता हूं। और मैं आपसे निवेदन करता हूं मैं बीमा एजेंट बिलकुल भी पसंद नहीं करता हूं, उनको मैं दामाद नहीं बना सकता हूं।


वह युवक तो हैरान रह गया। उसने कहा, महाशय आप किन सपनों में खोए हुए हैं! मैं केवल पूछता हूं कि समय, कितना बजा है, कितना बजा है आपकी घड़ी में? और आप किन-किन नतीजों पर, किन-किन अनुमानों पर यात्रा कर गए?


हमें हंसी आती है इस वृद्ध आदमी पर लेकिन हम सब भी निरंतर ऐसे ही सपनों में, भविष्य में यात्रा करते रहते हैं। वर्तमान में हम में से कोई भी नहीं जीता है। या तो हम अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हैं जो बीत गया उसकी याद्दाश्तों में या जो नहीं आया उसकी आशाओं में, सपनों में। वर्तमान में कोई भी नहीं जीता है। या तो हम बीते हुए अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हैं या न आए हुए भविष्य की कल्पनाओं में। यही नींद है, यही सपना है। जो वर्तमान में है, वह जागा हुआ होता है। जो अतीत में है, भविष्य में है वह सोया हुआ है।  

नये मनुष्य का धर्म 

ओशो

प्रेम प्रभु को उपलब्ध करने का द्वार है


बहुत पुरानी घटना है एक गुुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समस्त परीक्षाएं उतीर्ण करके वापस लौटते थे। लेकिन उनके गुुरु ने पिछले वर्ष बार-बार कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। उन्होंने बहुत बार पूछा कि वह कौन सी परीक्षा है? गुरु ने कहा, वह परीक्षा बिना बताए ही लिए जाने की है, उसे बताया नहीं जा सकता। और सारी परीक्षाएं तो बता कर ली जा सकती हैं, लेकिन जीवन की एक ऐसी परीक्षा भी है जो बिना बताए ही लेनी पड़ती है। समय पर तुम्हारी परीक्षा हो जाएगी, लेकिन स्मरण रहे, उस परीक्षा को बिना पास किए, बिना उत्तीर्ण हुए तुम उत्तीर्ण नहीं समझे जा सकोगे।

फिर उनकी सारी परिक्षाएं हो गईं, उन्हें परीक्षाओं में प्रमाणपत्र भी मिल गए, फिर उनके विदा का दिन भी आ गया, दीक्षांत-समारोह भी हो गया और वे विद्यार्थी बार-बार सोचते रहे कि वह अंतिम परीक्षा कब होगी? अब तो अंतिम विदा का दिन भी आ गया। तीन विद्यार्थी जो उस विश्वविद्यालय की, उस गुरुकुल की सारी परिक्षाएं उत्तीर्ण कर चुके थे वे उस सांझ विदा भी हो गए। रास्ते में उन्होंने एक-दो बार सोचा भी, पूछा भी एक-दूसरे से एक परीक्षा शेष रह गई। गुरु बार-बार कहते थे एक परीक्षा लेनी है। लेकिन अब वह परीक्षा कब होगी, अब तो वे गुरुकुल से विदा भी ले चुके?

सूरज ढलने को था, गुरुकुल पीछे छूट गया, घना जंगल आगे था। वे तेजी से जंगल पार कर रहे थे ताकि शीघ्र गांव में पहुंच जाएं। एक झाड़ी के पास से निकलते समय पगडंडी पर दिखाई पड़ा बहुत से कांटे पड़े हैं, एक युवक जो आगे था छलांग लगा कर निकल गया। दूसरा युवक पगडंडी से नीचे उतर कर पार कर गया। लेकिन तीसरा युवक अपने सामान को, अपने ग्रंथों को नीचे रख कर कांटे बीनने लगा। उन दो युवकों ने उससे कहा, पागल हुए हो! समय खोने का मौका नहीं है, रात हुई जाती है, घना जंगल है, रास्ता भटक सकता है अंधेरे में, फिर गांव हमें जल्दी पहुंच जाना चाहिए। यह समय कांटे बीनने का नहीं है।

उस युवक ने कहा, इसीलिए कांटे बीन रहा हूं, क्योंकि सूरज ढला जाता है फिर रात हो जाएगी हमारे पीछे जो भी पथिक आएगा उसे कांटे दिखाई नहीं पड़ सकेंगे। देखते हुए हम कांटों को बिना बीने निकल जाएं और रात होने को है पीछे कोई भी आएगा उसे फिर कांटे दिखाई नहीं पड़ेंगे, इसलिए मैं कांटे बीन लूं। तुम चलो मैं थोड़ा दौड़ कर तुम्हे मिला लूंगा। वह कांटे बीन ही रहा है, वे दोनों युवक चलने को हुए तभी वे तीनों हैरान रह गए पास की झाड़ी से उनका गुरु बाहर निकल आया। उस गुरु ने कहा, जो दो युवक आगे निकल गए हैं वे वापस लौट आएं। वे अंतिम परीक्षा में असफल हो गए हैं। जिसने कांटे बीने हैं वह जा सकता है, वह अंतिम परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया है।

उनके गुरु ने कहा, ज्ञान की परीक्षाएं अंतिम नहीं हैैं अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। और जो प्रेम को उपलब्ध नहीं होता उसका सब ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह के इस उदघाटन में मैं यही प्रार्थना करूंगा कि यह विद्यालय केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं बनेगा बल्कि प्रेम देने का भी क्योंकि प्रेम की परीक्षा में जो उत्तीर्ण नहीं है, उसका सब ज्ञान व्यर्थ है। और जो प्रेम की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है, वह जो प्रेम के ढाई अक्षर भी सीख लेता है वह सारे ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है क्योंकि प्रेम प्रभु को उपलब्ध करने का द्वार है।

नए मनुष्य का धर्म 

ओशो 


Monday, February 24, 2020

दुःख ही दुःख है, सुख के स्‍वप्‍न में भी दर्शन नहीं, फिर भी जाग नहीं आती है, जागरण का कोई अनुभव नहीं होता है।


दुःख ही दु:ख है, ऐसा तुम्हारा अनुभव है, या तुमने किसी की बात सुनकर पकड़ ली? जरा भी सुख नहीं है, ऐसा तुम्हारा अनुभव है, या तुमने बुद्धपुरुषों के वचन कंठस्थ कर लिये? मुझे लगता है, तुमने बुद्धपुरुषों के वचन कंठस्थ कर लिये हैं। क्योंकि .तुम्हारा ही अनुभव हो तो जागरण आना ही चाहिए। अनिवार्य है। अगर पैर में काटा गड़ा है, तो पीड़ा होगी ही। अगर दुःख है ऐसा तुम्हारा अनुभव है, तो जागरण आएगा ही। दुःख जगाता है, दुःख मांजता है, निखारता है। दुःख का मूल्य ही यही है।

लोग मुझसे पूछते हैं, संसार में परमात्मा ने इतना दुःख क्यों दिया है? मैं उनसे कहता हूं, थोड़ा सोचो, इतना दुःख है फिर भी तुम नहीं जागते, अगर दुःख न होता तब तो फिर कोई आशा ही नहीं थी। इतने दुःख के बावजूद नहीं जागते!

दुःख जगाने का उपाय है। इतनी पीड़ा है फिर भी तुम सोए चले जाते हो। सुख की आशा नहीं टूटती। ऐसा लगता है आज नहीं है सुख, कल होगा। अभी नहीं हुआ, अभी होगा। आज तक हारे, सदा थोडे ही हारते रहेंगे। और मन तो कहे चला जाता है, और, थोड़ा और रुक जाओ, थोड़ा और देख लो, कौन जाने करीब ही आती हो खदान सुख की। अब तक खोदा और कहीं दो चार कुदाली और चलाने की देर थी कि पहुंच जाते खदान पर, थोड़ा और खोद लो। और, और, मन कहे चला जाता है।और' है मंत्र मन का।

भौंहों पर खिंचने दो रतनारे बान

अभी और अभी और।

सुरधन को सरसा ओ आंचल के देश

सपनों को बरसा ओ नभ के परिवेश

संयम से मत बांधो दर्शन के प्राण

अभी चलने दो दौर!

अभी और अभी और।

कनकन को महका ओ माटी के गीत

जीवन को दहका ओं सुमनों के मीत

अधरों को करने दो छक कर मधुपान

कहीं सौरभ के ठौर!

अभी और अभी और।

तनमन को पुकार उगे रागों के छोर

प्रीति कलश ढुलका ओ वंशी के पोर

कुंजों में छिड़ने दो भ्रमरों की तान

धरो स्वर के सिर मौर!

अभी और अभी और!

भौंहों पर खिंचने दो रतनारे बान

अभी और अभी और!

मन कहे चला जाताअभी और, जरा और। एक प्याली और पी लें, एक आलिंगन और कर लें, एक चुंबन और, थोड़ा समय है, कौन जाने जो अब तक नहीं मिला मिल जाए। ऐसे आशा के सहारे आदमी खिंचता चला जाता है।


तुम कहते हो कि जीवन में दुःख है। तुम्हें नहीं दिखायी पड़ा। और तुम कहते हो, यह सुख तो कभी मिला नहीं सपने में भी। माना। किसको मिला! किसी को भी नहीं मिला, लेकिन अभी भी तुम सपना देख रहे हो कि शायद कल मिले। सपने में भी सुख नहीं मिलता, लेकिन सुख का सपना हम देखे चले जाते हैं। जब तुम्हारा सुख का भ्रम टूट जाएगासुख मिल ही नहीं सकता, सुख का कोई संबंध ही नहीं है बाहर के जगत से, सुख मिलता है उन्हें जो भीतर जाते हैं, सुख मिलता है उन्हें जो स्वयं में आते हैं, सुख मिलता है उन्हें जो साक्षी हो जाते हैतो उसी क्षण घटना घट जाएगी।


तुम पूछते हो, जागरण क्यों नहीं आता? क्योंकि तुमने दुःख के वाण को ठीक से छिदने नहीं दिया। तुमने बहुत तरकीबें बना ली हैं दुःख के वाण को झेलने के लिए। कोई आदमी दुखी होता है, वह कहता है, पिछले जन्मों के कर्मों के कारण दुखी हो रहा हूं खूब तरकीब निकाल ली सांत्वना की। पिछले जन्मों के कारण दुःखी हो रहा हूं। अब कुछ किया नहीं जा सकता, बात खतम हो गयी, अब तो होना ही पड़ेगा। तुमने एक तरकीब निकाल ली। कोई आदमी कहता है, इसलिए दुःखी हो रहा हूं कि अभी मेरे पास धन नहीं है, जब होगा तब सुखी हो जाऊंगा। कोई कहता है, अभी इसलिए सुखी नहीं हूं कि सुंदर पत्नी नहीं है, होगी तो हो जाऊंगा। कि बेटा नहीं है, होगा तो सुखी हो जाऊंगा। तुम देखते नहीं कि हजारों लोगों के पास बेटे हैं और वे सुखी नहीं हैं! तुम कैसे भ्रम पालते हो? हजारों लोगं के पास धन है और वे सुखी नहीं और तुम कहते हो, मेरे पास होगा तो मैं हो जाऊंगा। हजारों लोग पद पर हैं और सुखी नहीं, फिर भी तुम देखते नहीं। तुम कहते हो, मैं होऊंगा तो सुखी हो जाऊंगा, हमें हजारों से क्या लेनादेना! मेरा तो होना पक्का है। मैं अपवाद हूं, ऐसी तुम्हारी भ्रांति है।

नहीं कोई अपवाद है।

जीवन में बाहर से सुख मिला नहीं किसी को, दुःख ही मिला है। बाहर जो भी मिलता है दुःख है। बाहर से जो मिलता है, उसी का नाम दुःख है। और भीतर से जो बहता है, उसी का नाम सुख है।

अष्टावक्र महागीता 

ओशो

Sunday, February 23, 2020

अहंकार


भारत से एक भिक्षु कोई चौदह सौ वर्ष पहले चीन गया, नाम था उसका बोधिधर्म। वह चीन पहुंचा। उसके पहुंचने के पहले उसकी ख्याति चीन पहुंच गई। वह बहुत अदभुत व्यक्ति रहा होगा। चीन का सम्राट उसे लेने चीन की सीमा पर आया। उसने स्वागत किया बोधिधर्म का और एकांत में बोधिधर्म से कहाः भिक्षु, बड़ी प्रशंसा मैंने सुनी है तुम्हारी और बड़े दिन से तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूं कि तुम कब आ जाओ। मेरे जीवन का एक दुख है, उसे मैं मिटाना चाहता हूं। अहंकार मुझे पीड़ा दे रहा है। और सैकड़ों-सैकड़ों धर्मोपदेशकों ने मुझे समझाया है कि अहंकार छोड़ो तो दुख के बाहर हो जाओगे। लेकिन मैं अहंकार कैसे छोडूं? मैंने सब उपाय किए। मैंने उपवास किए, मैंने रूखे-सूखे भोजन किए, मैं गद्दियां छोड़ कर जमीन पर सोया, मैंने शरीर को कृशकाय कर लिया, मैं भूखों मरा, मैंने सब तरह के भोग बंद किए, मैंने सब तरह के अच्छे वस्त्र पहनने बंद कर दिए, सर्दियां और गर्मियां मैंने लंगोटियों पर गुजारीं। लेकिन भीतर मैं पाता हूं कि अहंकार मरता नहीं, वह मौजूद है। धन भी मैंने देख लिया, राज्य भी मैंने देख लिया, त्याग भी मैंने देख लिया, मैं बड़ा परेशान हूं, यह अहंकार तो जाता नहीं, वह तो मौजूद है, वह कहीं छोड़ता नहीं पीछा। अब मैं क्या करूं?


उस बोधिधर्म ने कहाः मेरे मित्र, तुमने जो भी किया, वह व्यर्थ है, क्योंकि तुमने सबसे बुनियादी बात नहीं की। वह बुनियादी बात कल सुबह हम करेंगे, तुम चार बजे आ जाओ, मैं तुम्हारे अहंकार को खत्म ही कर दूंगा।


वह राजा बहुत हैरान हुआ! इतनी आसान है क्या बात, जिसे जीवन भर उसने खत्म करने की कोशिश की है, यह कहता है व्यक्ति कि चार बजे रात आ जाओ, खत्म कर देंगे! खैर देखें। वह राजा उतरने लगा उस मंदिर की सीढ़ियां जहां बोधिधर्म ठहरा था, वह आधी सीढ़ियों पर होगा कि बोधिधर्म ने कहा कि सुनो, एक बात ख्याल रखना, जब आओ तो अकेले मत आ जाना, अहंकार को साथ ले आना।


राजा थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसने कहा कि यह क्या बात हुई कि अहंकार को साथ ले आना! बोधिधर्म ने कहाः इसलिए कहता हूं कि तुम अगर अकेले आ गए, तो मैं हत्या किसकी करूंगा? साथ ले आना अहंकार को, तो उसको खत्म कर दूंगा, एकबारगी में मामला निपट जाएगा, बात खत्म हो जाएगी।


चार बजे वह आया। आते ही से बोधिधर्म ने पूछाः ले आए अहंकार?


उसने कहाः आप भी कैसी बातें करते हैं! अहंकार कोई वस्तु तो है नहीं कि मैं ले आता।


बोधिधर्म ने कहाः चलो एक बात तय हो गई कि अहंकार कोई वस्तु नहीं है। फिर क्या है अहंकार?
उस राजा ने कहाः अहंकार तो एक भाव है, एक चित्त की दशा है।


उसने कहाः चलो दूसरी बात मान लेता हूं कि अहंकार भाव है। अब आंख बंद करके बैठ जाओ और खोजो कि वह भाव कहां है? और तुम्हें मिल जाए तो मुझे बता देना, वहीं मैं उसकी हत्या कर दूंगा।
उस अंधेरी रात में, चार बजे सुबह, वह राजा आंख बंद करके बैठ गया और खोजने लगा अपने भीतर कि अहंकार कहां है? और बोधिधर्म सामने डंडा लिए बैठा हुआ था, वह डंडा हमेशा अपने हाथ में रखता था। और उसने कहाः तुम्हें मिल जाए, तो मुझे बस बता भर देना कि पकड़ लिया, मैं उसकी हत्या कर दूंगा। वह सामने बैठा है और राजा को बीच-बीच में डंडे से धक्के देते जाता है कि देखो, ख्याल से खोजो, कोई जगह चूक न जाए, कोई कोना बिना जाना न रह जाए, सारे मन को खोज डालो कि कहां है अहंकार और पकड़ लो उसे वहां कि यहां है, यह है। और तुम जैसे ही कह सकोगे कि यह है, मैं उसकी हत्या कर दूंगा।


आधी घड़ी बीती, घड़ी बीती, वह जो राजा बैठा था, उसके चेहरे पर बड़ा तनाव, खोज रहा है। लेकिन धीरे-धीरे चेहरे का तनाव शिथिल होता गया, उसके चेहरे के स्नायु तंतु शिथिल होते गए, उसका चेहरा एकदम शांत होता गया। घंटा बीता, दो घंटा बीता, वह खोज रहा है। लेकिन अब, अब उसकी आंखों के आस-पास कोई बड़ी शांति इकट्ठी होने लगी। उसके ओंठों के आस-पास कोई मुस्कुराहट घनी होने लगी। वह खोज रहा है, और सुबह होने लगी और सूरज निकलने लगा और सूरज का प्रकाश आने लगा और उसके चेहरे पर सूरज की रोशनी पड़ने लगी। वह कोई दूसरा आदमी हो गया। और बोधिधर्म ने उसे हिलाया और कहाः मित्र, कब तक खोजते रहोगे?


उसने आंख खोली, उसने बोधिधर्म के पैर पड़े और कहाः मैं जाता हूं। जिसकी हत्या के लिए मैं आया था, वह है ही नहीं। मैंने आज तक खोजा नहीं, इसलिए वह था; आज मैंने खोजा, तो पाया कि वह नहीं है।


बोधिधर्म ने कहाः वैसा ही है यह, जैसे किसी घर में अंधेरा हो और किसी आदमी को हम कहें कि जाओ दीया ले जाओ और खोजो कि कहां है? दीया लेकर वह भीतर जाए, तो अंधेरा नहीं मिलेगा। अंधेरा होता है, क्योंकि दीया नहीं होता। और दीया लेकर भीतर कोई जाता है, तो पाता है, अंधेरा नहीं है। ऐसे ही जब कोई सम्यकरूपेण मन के भीतर होशपूर्वक दीया लेकर जाता है--विचार का, विवेक का, प्रज्ञा का दीया लेकर खोजता है भीतर, तो पाता है, वहां कोई अहंकार नहीं है। जब तक नहीं जाता खोजने, तब तक अहंकार है। हमारी अनुपस्थिति अहंकार है, जैसे ही हम भीतर उपस्थित होते हैं खोजने को, वहां कोई अहंकार नहीं है।

अपने माहिं टटोल 

ओशो 

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