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Monday, November 23, 2015

स्वीकार करो

अस्वीकार करने वाले चित्त के लिए सब कुछ अस्वीकार है। लेकिन अगर तुम अपने अकेलेपन को, अपनी उदासी को, अपने दुख को स्वीकार कर सको तो तुम उसके पार जाने लगे। स्वीकार ही अतिक्रमण है। स्वीकार करके तुमने उदासी के पाव के नीचे से जमीन हटा दी; उदासी अब खड़ी नहीं रह सकती। 
 
इसे प्रयोग करो। जो भी तुम्‍हारी चित्‍तदशा हो उसे स्‍वीकार करो और उस समय की प्रतीक्षा करो जब वह खुद बदले। तुम उसे नहीं बदल रहे हो। तब तुम उस सौंदर्य को अनुभव करोगे जो आता ही तब है जब चित्तदशा अपने आप बदलती है। तुम पाओगे कि यह ऐसा ही है जैसे सूरज सुबह उगता है और सांझ डूबता है, और उसके उगने डूबने का सिलसिला चलता रहता है और उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता।

अगर तुम अपनी चित्तदशा को अपने आप बदलते देख लो तो तुम उसके प्रति तटस्थ रह सकते हो, तुम उससे दूर, मीलों दूर रह सकते हो जैसे कि कहीं दूर यह सब घट रहा है। जैसे सूरज उगता और डूबता है, वैसे ही उदासी आती जाती है, सुख आता जाता है, पर तुम उसमें नहीं हो। दुख सुख अपने आप आते जाते हैं, चित्त दशाएं अपने आप आती जाती हैं।’यदि यह प्रतीति हो कि जीवन एक साइकोड्रामा है तो व्यक्ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है।’


तो वैसा अनुभव करो!

तंत्र सूत्र 

ओशो 

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