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Thursday, November 26, 2015

भगवन, भारत ने बहोत बड़े शिखर देखेँ , विश्वगुरु हुआ, उस भारत का पतन होता क्यों दिखता है?

स्वाभाविक ही था। अस्वाभाविक कभी होता भी नहीं। जो होता है, स्वाभाविक है। यह अनिवार्य था। यह होकर ही रहता। क्योंकि जब भी कोई जाति, कोई समाज एक अति पर चला जाता है, तो अति से लौटना पड़ेगा दूसरी अति पर। जीवन संतुलन में है, अतियों में नहीं। जीवन मध्य में है और आदमी का मन डोलता है पेंडुलम की भांति। एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। भोगी योगी हो जाते हैं; योगी भोगी हो जाते हैं। और दोनों जीवन से चूक जाते हैं।

जीवन है मध्य में, जहां योग और भोग का मिलन होता है, जहां योग और भोग गले लगते हैं। जो शरीर को ही मानता है, वह आज नहीं कल अध्यात्म की तरफ यात्रा शुरू कर देगा। पश्चिम में अध्यात्म की बड़ी प्रतिष्ठा होती जा रही है रोज। कारण? कारण वही है शाश्वत कारण।

तीन सौ वर्षों से निरंतर पश्चिम पदार्थवादी है। पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। देह सब कुछ है। इन तीन सौ साल की इस धारणा ने एक अति पर पश्चिम को पहुंचा दिया, पदार्थवाद की आखिरी ऊंचाई पर पहुंचा दिया। धन है; वितान है, सुख  सुविधाएं हैं।

लेकिन अति पर जब आदमी जाता है, तो उसकी आत्मा का गला घुटने लगा। शरीर तो सब तरह से संपन्न है, आत्मा विपन्न होने लगी। और कितनी देर तक तुम आत्मा की विपन्नता को झेल पाओगे? आज नहीं कल आत्मा बगावत करेगी और तुम्हें दूसरी दिशा में मुड़ना ही पड़ेगा।

इसलिए अगर पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है, तो तुम यह मत सोचना कि यह पूरब की कोई खूबी है। ऐसा तुम्हारे तथाकथित महात्मा समझते हैं। तुम्हारे राजनेता भी यही बकवास करते रहते हैं। वे सोचते हैं पश्चिम के लोग पूरब की तरफ आ रहे हैं, देखो, हमारी महिमा!

तुम्हारी महिमा का इससे कोई संबंध नहीं है। पश्चिम अगर पूरब की तरफ आ रहा है, तो पदार्थवाद की अति के कारण आ रहा है। एक अति देख ली, वहां कुछ पाया नहीं। वहां शरीर तो ठीक रहा, आत्मा घुट गयी।

और आदमी दोनों का जोड़ है। आदमी दोनों का मिलन है। आदमी न तो शरीर है, न आत्मा है। आदमी, दोनों के बीच जो स्वर पैदा होता है, वही है। दोनों के बीच जो लयबद्धता है, वही है। शरीर और आत्मा का नाच है आदमी। साथ —साथ दोनों नाच रहे हैं। उस नृत्य का नाम आदमी है। और जब नृत्य पूरा होता है, शरीर और आत्मा दोनों संयुक्त होते हैं, तब तृप्ति है।

ऐसा ही पूरब में घटा। आत्मा आत्मा आत्मा। संसार माया है, झूठ है, असत्य है। शरीर है ही नहीं, सपना है। एक अति पैदा कर दी। तो आत्मा की ऊंचाई को तो छुआ, लेकिन शरीर तडुफने लगा, जैसी मछली तड़फती है प्यासी धूप में, रेत पर ऐसी भारत की देह घुटने लगी। उस देह की घुटन का यह परिणाम हुआ, जो आज सामने है।

तो आदमी का संतुलन जब भी टूटेगा, तब विपरीत दिशा की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है।

इसलिए फिर दोहराता हूं यहां योगी भोगी हो जाते हैं, भोगी योगी हो जाते हैं। दोनों चूक जाते हैं। क्योंकि दोनों रोगी हैं। रोग का मतलब अति। योगी आत्मा की अति .से पीड़ित है। भोगी शरीर की अति से पीड़ित है। दोनों में भेद नहीं है। दोनों अतियों से पीड़ित हैं। एक ने शरीर को घोंट डाला है, एक ने आत्मा को घोंट डाला है। लेकिन दोनों ने जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार नहीं किया है।

मैं तुम्हें वही सिखा रहा हूं कि जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार करो। इनकार मत करना कुछ। तुम देह भी हो; तुम आत्मा भी हो। और तुम दोनों नहीं भी हो। तुम्हें दोनों में रहना है और दोनों में रहकर दोनों के पार भी जाना है। तुम न तो भौतिकवादी बनना, न अध्यात्मवादी बनना। दोनों भूलें बहुत हो चुकीं हैं। जमीन काफी तड़फ चुकी है। तुम अब दोनों का समन्वय साधना, दोनों के बीच संगीत उठाना। दोनों का मिलन बहुत प्यारा है। दोनों के मिलन को मैं धर्म कहता हूं।

ये तीन शब्द समझो. भौतिकवादी नास्तिक। तथाकथित आत्मवादी  आस्तिक। दोनों के मध्य में, जहां न तो तुम आस्तिक हो, न तो नास्तिक, जहां ही और ना का मिलन हो रहा है जैसे दिन और रात मिलते हैं संध्या में, जैसे सुबह रात और दिन मिलते हैँ ऐसे जहां हा और ना का मिलन हो रहा है, जहां तुम नास्तिक भी हो, आस्तिक भी, क्योंकि तुम जानते हो तुम दोनों का जोड़ हो। देह को इनकार करोगे, आज नहीं कल देह बगावत करेगी। आत्मा को इनकार करोगे, आत्मा बगावत करेगी। और बगावत ही पतन का कारण होता है।

प्रश्न सार्थक है। पूरब ने बड़ी ऊंचाइयां पायीं, लेकिन ऊंचाइयां अपंग थीं। जैसे कोई पक्षी एक ही पंख से आकाश में बहुत ऊपर उड़ गया। कितने ऊपर जा सकेगा? और कितनी दूर जा सकेगा एक ही पंख से? शायद थोड़ा तड़फ ले। थोड़ा हवाओं के रुख पर चढ़ जाए। शायद थोड़ी दूर तक अपने को खींच ले। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं होने वाला है। तुम एक पंख देखकर ही कह सकते हो कि यह पक्षी गिरेगा। इसका गिरना अनिवार्य है।

उडान होती है दो पंखों पर। लंगडा आदमी भी चल लेता है। मगर उसका चलना और दो पैर से चलने में बड़ा फर्क है। लंगड़े आदमी का चलना कष्टपूर्ण है। लंगड़ा आदमी मजबूरी में चलता है। और जिसके पास दोनों पैर हैं और स्वस्थ हैं, वह कभी कभी बिना कारण के दौडता है, नाचता है। कहीं जाना नहीं है, तो भी घूमने के लिए निकलता है।

उन दो पैरों के मिलन में जो आनंद है, वह आनंद अपने आप में परिपूर्ण है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। संसार छोड़कर देख लिया गया। जिन्होंने संसार छोड़ा वे बड़ी बुरी तरह गिरे, मुंह के बल गिरे। मैं अपने संन्यासी को संसार ही सब कुछ है, ऐसा भी नहीं कह रहा हूं। जिन्होंने संसार को सब कुछ माना, वे भी बुरी तरह गिरे।

मैं तुमसे कहता हूं. संसार और संन्यास दोनों के बीच एक लयबद्धता बनाओ। घर में रहो, और ऐसे जैसे मंदिर में हो। दुकान पर बैठो, ऐसे जैसे पूजागृह में। बाजार में और ऐसे जैसे हिमालय पर हो। भीड़ में और अकेले। चलो संसार में और संसार का पानी तुम्हें छुए भी नहीं, ऐसे चलो। ऐसे होशपूर्वक चलो। तब स्वास्थ्य पैदा होता है।

परमात्मा ने तुम्हें शरीर और आत्मा दोनों बनाया है। और तुम्हारे महात्मा तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम सिर्फ आत्मा हो! लाख तुम्हारे महात्मा समझाते रहें कि तुम सिर्फ आत्मा हो, कैसे झुठलाओगे इस सत्य को जो परमात्मा ने तुम्हें दिया है कि तुम देह भी हो!

तुम्हारा महात्मा भी इसको नहीं झुठला पाता। जब भूख लगती है, तब वह नहीं कहता कि मैं देह नहीं हूं। तब चला भिक्षा मांगने! उससे कहो कि संसार माया है, कहां जा रहे हो? वहा है कौन भिक्षा देने वाला? भिक्षा की जरूरत क्या है? आप तो देह हैं ही नहीं। शिवोऽहं आप तो शिव हैं, आप कहां जा रहे हैं? देह है कहां? देह तो सपना है।

अगर महात्मा से यह कहोगे, तब तुम्हें पता चलेगा। महात्मा को भी भिक्षा मांगने जाना पड़ता है। भोजन जुटाना पड़ता है। सर्दी लगती है, तो कंबल ओढ़ना पड़ता है। और सब माया है! शरीर पाया! कंबल माया! गर्मी लगती है. तो पसीना आता है, प्यास लगती है। बीमारी होती है, तो औषधि की जरूरत होती है।

यह महात्मा किस झूठ में जी रहा है जो कहता है कि शरीर माया है? इससे बड़ा और झूठ क्या होगा?

और फिर दूसरी तरफ लोग हैं, जो कहते हैं कि शरीर ही सब कुछ है, आत्मा कुछ भी नहीं है। इनसे जरा पूछो कि जब कोई तुम्हें गाली दे देता है, तो तकलीफ क्यों होती है? पत्थर को गाली दो, पत्थर को कोई तकलीफ नहीं होती है। और जब कोई वीणा पर संगीत छेड़ देता है, तब तुम प्रफुल्लित और मग्न क्यों हो जाते हो? पत्थर तो नहीं होता मग्न और प्रफुल्लित!

तुम्हारे भीतर कुछ होना चाहिए, जो पत्थर में नहीं है, जो प्रफुल्लित होता है, मग्न होता है। सुबह सूरज को देखकर जो आह्लादित होता है। रात आकाश में चांद तारों को देखकर जिसके भीतर एक अपूर्व शाति छा जाती है।

यह कौन है? देह के तो ये लक्षण नहीं हैं। देह को तो पता भी नहीं चलता, कहां चांद, कहां सूरज! कहा सौंदर्य; कहां शाति!

तुम्हारे भीतर एक और आयाम भी है। तुम्हारे भीतर कुछ और भी है।

ऐसा समझो चट्टान है। यह बाहर ही बाहर है। इसके भीतर कुछ भी नहीं है। तुम इसको कितना ही खोदो, इसके भीतर नहीं जा सकोगे। इसके भीतर जैसी चीज है ही नहीं। चट्टान तो बस बाहर ही बाहर है।

फिर चट्टान के बाद गुलाब का फूल है। गुलाब में थोड़ा भीतर कुछ है। पखुडी ही पखुडी नहीं है। पखुडियों से ज्यादा कुछ है। जब तुम चट्टान को देखते हो, तो चट्टान साफ सुथरी है। सीधी साफ है। एकागी है। जब तुम गुलाब के फूल को देखते हो, तो वह इतना एकांगी नहीं है। कुछ और है। जीवन की झलक है। सौंदर्य है। एक सलाम है।

फिर तुम एक पक्षी को उड़ते देखते हो। इसमें कुछ और ज्यादा है। पक्षी अगर तुम्हारे पास आ जाएगा, तो तुम पाओगे : इसमें कुछ और ज्यादा है। ज्यादा पास आने में डरता है। गुलाब का फूल नहीं डरता। तुम पकड़ने की कोशिश करो, पक्षी उड़ जाता है। गुलाब का फूल नहीं उड़ जाता। पक्षी की आंखें तुम्हारी तरफ देखती हैं, तो तुम जानते हो, इसके भीतर कुछ है, कोई है।

फिर एक मनुष्य है। जब तुम एक मनुष्य को देखते हो, तो तुम जानते हो देह ही सब कुछ नहीं है। भीतर गहराई है। इसकी आंखों में झांको, तो तुम्हें पता चलता है देह ही नहीं है, आत्मा है।

और फिर कभी एक बुद्ध जैसा व्यक्ति है, जिसके भीतर अनंत गहराई है कि तुम झांकते जाओ, झांकते जाओ और पार नहीं है। चट्टान में कुछ भी भीतर नहीं है। बुद्ध में भीतर और भीतर और भीतर। इस भीतर का नाम ही आत्मा है। यह जो भीतर का आयाम है, इसका नाम ही आत्मा है।

जो कहता है. मैं सिर्फ शरीर हूं, वह अपनी गहराई को इनकार कर रहा है। वह परेशानी में पड़ेगा। जो कहता है? मैं सिर्फ आत्मा हूं, वह अपने बाहर को इनकार कर रहा है। यह परेशानी में पडेगा। तुम बाहर  भीतर का मेल हो। और अपूर्व मेल घट रहा है तुम्हारे भीतर।

यही तो रहस्य है इस जगत का कि यहां विरोधाभास मिल जाते हैं; एक दूसरे में डूब जाते हैं। यहां विरोधाभास आलिंगन करते हैं।

भारत नष्ट हुआ, होना ही था। अमरीका भी नष्ट हो रहा है, होना ही है। क्योंकि अब तक मनुष्य समग्र संस्कृति पैदा नहीं कर पाया। अब तक मनुष्य पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं कर पाया ऐसी संस्कृति जहां सब स्वीकार हो। जहां प्रेम भी स्वीकार हो और ध्यान भी स्वीकार हो।

खयाल रखना ध्यान यानी आत्मा, ध्यान यानी भीतर जाने का मार्ग। और प्रेम यानी बाहर जाने का मार्ग। जब तुम प्रेम करते हो, तो किसी से करते हो। और जब ध्यान करते हो, तो सबसे टूट जाते हो, अकेले हो जाते हो। ध्यान यानी एकांत। जब तुम ध्यान में हो, तब तुम आंख बंद कर लेते हो। तुम बाहर को भूल जाते हो। तुम अपनी देह को भी विस्मृत कर देते हो। संसार गया। तुम अपने भीतर जीते हो, भीतर धड़कते हो। चैतन्य में और गहरे उतरते जाते हो।

जब तुम प्रेम में उतरते हो, तो अपने को भूल जाते हो, तब दूसरे पर आंख टिक जाती है। तुम्हारी प्रेयसी या तुम्हारा प्रेमी, तुम्हारा बेटा या तुम्हारी मां, तुम्हारा मित्र, जिससे तुम प्रेम करते हो, वही सब कुछ हो जाता है। सारी आंख उस पर टिक जाती है। तुम अपने को विस्मृत कर देते हो। स्व को भूल जाते हो, पर को याद करते हो प्रेम में। ध्यान में पर को भूल जाते हो, स्व को याद करते हो।

पूरब ने ध्यान की ऊंचाई पायी, प्रेम में चूक गया। प्रेम में चूक गया, तो पतन होना निश्चित था। क्योंकि प्रेम भोजन है, अत्यंत जरूरी, अत्यंत पौष्टिक भोजन है। उसके बिना कोई नहीं जी सकता।

प्रेम ऐसे ही है, जैसे सांस लेना। बाहर से ही लोगे न सांस! और तो कोई उपाय नहीं है। अगर बाहर से सांस लेना बंद कर दोगे, तो शरीर घुट जाएगा। और बाहर से प्रेम आना बंद हो जाएगा और जाना बंद हो जाएगा, तो आत्मा घुट जाएगी। भारत की आत्मा घुट गयी प्रेम के अभाव में।

पश्चिम ने प्रेम को तो खूब फैलाया है, लेकिन ध्यान का उसे कुछ पता नहीं है। इसलिए प्रेम छिछला है, उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है। उसमें गहराई हो ही नहीं सकती, क्योंकि आदमी स्वीकार ही नहीं करता है कि हमारे भीतर कोई गहराई है। तो प्रेम ऐसे ही है, जैसे और सारे छोटे मोटे काम हैं। एक मनोरंजन है, शरीर का थोड़ा विश्राम, उलझनों से थोड़ा छुटकारा। लेकिन कोई गहराई की संभावना नहीं है, आंतरिकता नहीं है।

दो प्रेमी बस एक दूसरे की शारीरिक जरूरत पूरी कर रहे हैं, आत्मिक कोई जरूरत है ही नहीं। तो जिस दिन शरीर की जरूरतें पूरी हो गयीं या शरीर थक गया, तो एक दूसरे से अलग हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। क्योंकि भीतर तो कोई जोड़ हुआ ही नहीं था। आत्माएं तो कभी मिली नहीं थीं। आत्माएं तो स्वीकृत ही नहीं हैं। तो बस, हड्डी मास मज्जा का मिलन है। गहरा नहीं हो सकता।

पश्चिम ने ध्यान को छोड़ा है, तो प्रेम उथला है। पश्चिम भी गिरेगा, गिर रहा है। गिरना शुरू हो गया है। एक शिखर छू लिया अति का, अब भवन खंडहर हो रहा है। यह अति का परिणाम है।

मैं तुम्हें चाहूंगा कि तुम जानो कि तुम्हारे भीतर ध्यान की क्षमता हो और तुम्हारे भीतर प्रेम की क्षमता हो। ध्यान तुम्हें अपने में ले जाए; प्रेम तुम्हें दूसरे में ले जाए। और जितना ध्यान तुम्हारा अपने भीतर गहरा होगा, उतनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता बढ़ जाएगी, योग्यता बढ़ जाएगी। और जितनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता और योग्यता बढ़ेगी, उतना ही तुम पाओगे तुम्हारा ध्यान में और गहरे जाने का उपाय हो गया। इन दोनों पंखों से उडो, तो परमात्मा दूर नहीं है।

अब तक कोई संस्कृति नहीं बन सकी, दुर्भाग्य से, जो दोनों को स्वीकार करती हो। नहीं बनी, नहीं बनाने का उपाय हुआ, उसका भी कारण है। क्योंकि दोनों को मिलाने के लिए मुझ जैसा पागल आदमी चाहिए!

दोनों विरोधी हैं। दोनों तर्क में बैठते नहीं हैं! एक के साथ तर्क बिलकुल ठीक बैठ जाता है। एक को चुनो तो बात बिलकुल रेखाबद्ध, साफ सुथरी मालूम होती है। दोनों को चुनो, तो दोनों विपरीत हैं, तो फिर व्यवस्था नहीं बनती, दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं होता।

इसलिए मैं कोई दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ जीवन को एक छंद दे रहा हूं दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को एक काव्य दे रहा हूं दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को प्रेम करता हूं सिद्धांतों को नहीं। अगर सिद्धांतों में मेरा रस हो, तो मुझे भी उसी जाल में पड़ना पड़ेगा, जिस जाल में पहले सारे लोग पड़ चुके हैं। क्योंकि सिद्धांत की अपनी एक व्यवस्था है।

सिद्धांत कहता है : शरीर है, तो आत्मा नहीं हो सकती। क्योंकि तब सिद्धांत के ऊपर शरीर की सीमा आरोपित हो जाती है। तब सिद्धांत कहता है : अगर आत्मा भी हो, तो शरीर जैसी ही होनी चाहिए। कहां है? दिखायी नहीं पड़ती, जैसा शरीर दिखायी पड़ता है। कहां है? शरीर का तो वजन तौला जा सकता है, आत्मा किसी तराजू पर तुलती नहीं। कहां है तुम्हारी आत्मा? हम शरीर को छिन्न भिन्न करके देख डालते हैं, हमें कहीं उसका पता नहीं चलता।

जिसने कहा शरीर है, उसने एक तर्क स्वीकार कर लिया कि जो भी होगा, वह शरीर जैसा होना चाहिए, तो ही हो सकता है। अब आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा बिलकुल भिन्न है, विपरीत है।

जिसने मान लिया कि आत्मा है, वह भी इसी झंझट में पड़ता है। जब आत्मा को मान लिया, कहा. अदृश्य सत्य है, तो फिर दृश्य झूठ हो जाएगा।

तर्क को सुव्यवस्थित करने की ये अनिवार्यताए हैं। अगर अदृश्य सत्य है, असीम सत्य है, तो फिर सीमित का क्या होगा? फिर जो दिखायी पड़ता है, दृश्य है, उसका क्या होगा? जो छुआ जा सकता है, स्पर्श किया जा सकता है, उसका क्या होगा? तुमने अगर अदृश्य को स्वीकार किया, तो दृश्य को इनकार करना ही होगा।

इसलिए तुम यह बात जानकर चौंकोगे कि कार्ल मार्क्स और शंकराचार्य में बहुत भेद नहीं है.। कार्ल मार्क्स कहता है : शरीर है केवल। और शंकराचार्य कहते हैं. आत्मा है केवल! दोनों में कुछ भेद नहीं है। दोनों का तर्क एक ही है कि एक ही हो सकता है। दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों की तर्क—सरणी में जरा भी भेद नहीं है। यद्यपि दोनों एक दृस्रे से विपरीत बात कह रहे हैं, लेकिन मेरे हिसाब से दोनों एक ही स्कूल के हिस्से हैं; एक ही संप्रदाय के हिस्से हैं। क्यों? क्योंकि दोनों ने एक बात स्वीकार कर ली है कि एक ही हो सकता है। और जब एक हो सकता है, तो उससे विपरीत कैसे होगा?

और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन विपरीत पर खड़ा है। जैसे कि राज जब मकान बनाता है, तो दरवाजों में देखा है, ईंटें चुनता है; दोनों तरफ से विपरीत ईंटें लगाता है। विपरीत ईंटों को लगाकर ही दरवाजा बनता है। नहीं तो बन ही नहीं सकता। अगर एक ही दिशा में सब ईंटें लगा दी जाएं, मकान गिरेगा। खडा नहीं रह सकेगा। विपरीत ईंटें एक दूसरे को सम्हाल लेती हैं। एक दूसरे की चुनौती, एक दूसरे का तनाव ही उनकी शक्ति है।

जीवन को तुम सब तरफ से देखो, हर जगह द्वंद्व पाओगे। स्त्री है और पुरुष है। द्वंद्व है। उन दोनों के बीच ही बच्चे का जन्म है। नया जीवन उन्हीं के बीच बहता है। जैसे नदी दो किनारों के बीच बहती है। ऐसे स्त्री पुरुष के किनारों के बीच जीवन की नयी धारा बहती रहती है।

परमात्मा को अकल होती, तो पुरुष ही पुरुष बनाता! अकल होती, तो स्त्रियां ही स्त्रियां बनाता। अगर शंकराचार्य को बनाना पड़े, तो वे एक ही बनाएंगे। मार्क्स को बनाना पड़े, वह भी एक ही बनाएंगे। ये दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों में कुछ भेद नहीं है। एक घोषणा करता है : परमात्मा माया है; संसार सत्य है। एक घोषणा करता है. परमात्मा सत्य है, संसार माया है। मगर तर्क एक ही है।

जीवन को देखो जरा। यहां सब द्वंद्व पर खड़ा है। जन्म और मृत्यु साथ साथ हैं। जुड़े हैं। उलटे हैं और जुड़े हैं! रात और दिन साथ साथ हैं। गर्मी और सर्दी साथ साथ हैं। उलटे हैं और जुड़े हैं! यहां तुम जहां भी जीवन को खोजोगे, वहीं तुम पाओगे. द्वंद्व मौजूद है। जीवन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है।

मैं जीवन का पक्षपाती हूं। जीवन जैसा है, वैसा तुम्हें खोलकर कह देता हूं। मुझे कोई जीवन पर सिद्धांत नहीं थोपना है। सिद्धांत हो, तो आदमी हमेशा ही सिद्धांत का पक्षपाती होता है। उसके सिद्धांत के अनुकूल जो पड़ता है, वह चुन लेता है, जो अनुकूल नहीं पड़ता, वह छोड़ देता है।

मेरा कोई सिद्धांत नहीं है। मेरी आंख कोरी है। मैं कुछ तय करके नहीं चला हूं कि ऐसा होना चाहिए। मेरे पास कोई तर्क नही है, कोई तराजू नहीं है। जीवन जैसा है, वैसा का वैसा तुमसे कह रहा हूं। और जीवन विरोधाभासी है, इसलिए मैं विरोधाभासी हूं। इसलिए मेरे वक्तव्य सब विरोधाभासी हैं। मैंने जीवन को झलकाया है। मैंने दर्पण का काम किया है।

अब तक समग्र संस्कृति पैदा नहीं हो सकी, क्योंकि दार्शनिकों के हाथ से संस्कृतियां पैदा हुई हैं। संस्कृति पैदा होनी चाहिए कवियों के द्वारा; और तब उनमें एक समग्रता होगी। सिद्धांतवादी कभी समग्र नहीं हो सकते।

इसलिए मैं समस्त सिद्धांतों के त्याग का पक्षपाती हूं। छोड़ो सिद्धांतों को, जीवन को देखो। और जैसा जीवन है, वैसा जीवन है, इसको अंगीकार करो। इसी अंगीकार में गति है, विकास है। और इसी अंगीकार में तुम्हारे भीतर परम घटेगा। और वह परम दरिद्र नहीं होगा, दीन नहीं होगा।

शंकराचार्य का परम दरिद्र है। उसमें पदार्थ को झेलने की क्षमता नहीं है। वह पदार्थ को इनकार करता है। मार्क्स का परम भी गरीब है, दीन है, दरिद्र है। उसमें आत्मा को स्थान नहीं है। मेरा परम, परम समृद्ध है। मैं इसीलिए उसे ईश्वर कहता हूं। ईश्वर से मेरा मतलब है ऐश्वर्यवान। परम समृद्ध है। सब द्वंद्वों का मेल है।

ईश्वर इकतारा नहीं है; जैसा कि तुम्हारे साधु संन्यासी इकतारा लिए घूमते हैं! उसका कारण है, इकतारा रखने का। एक की खबर देने के लिए एक तार रखते हैं। ईश्वर बहुतात है। उसके बहुत तार हैं। बड़े रंग, बड़े रूप हैं। ईश्वर सतरंगा है, इंद्रधनुषी है। तुम अपने स्थली आग्रहों को अगर न थोपो, तो तुम्हें जीवन में इतने रंग दिखायी पड़ेंगे! इतनी विविधता है जीवन में कि जिसका हिसाब नहीं। और इस विविधता में ही ऐश्वर्य है। इस विविधता में ही ईश्वर छिपा है।

अगर ईश्वर इकतारा हो, तो उबाने वाला होगा। ऊब पैदा करेगा। रस चुकता ही कहां है जीवन का! कभी नहीं चुकता। ऊब कभी पैदा होती ही नहीं जीवन से। जिसको हो जाती है, उसने कुछ इकतारा ले रखा होगा। जिसने खुली आंखें रखीं और जीवन के सतरंगे रूप देखे; सब रूप देखे शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा, प्रीतिकर  अप्रीतिकर सब अंगीकार किया, मधुशाला से लेकर मंदिर तक जिसे सब स्वीकार है, ऐसा व्यक्ति ईश्वर के इंद्रधनुष को देखने में समर्थ हो पाता है। शराबी से लेकर साधु तक जिसे सब स्वीकार है।

क्योंकि हैं तो सब उसी के रूप। वह जो शराबी जा रहा है लड़खड़ाता हुआ, वह भी उसी का रूप है। और वह जो साधु बैठा है वृक्ष के शांत, मौन, एकांत में, वह भी उसी का रूप है। महावीर भी उसी के रूप हैं, और मजनू में भी वही छिपा है।

इतनी विराट दृष्टि हो, तो समग्र संस्कृति पैदा हो सकती है।

इसीलिए तो यहां जो एकांगी संस्कृति के लोग हैं, वे आ जाते हैं, उनको बड़ी अड़चन होती है। कभी कभी कोई कम्युनिस्ट आ जाता है। वह मुझसे कहता है और तो सब बात ठीक है, लेकिन आप अगर आत्मा, ईश्वर की बात न करें.। और सब बात ठीक है। ये उत्सव, ये नृत्य, ये सब ठीक हैं; मगर ईश्वर, परमात्मा को क्यों बीच में लाते हैं? अगर ये आप बीच में न लाएं, तो हम भी आ सकते हैं।

पुराने ढब का साधु संन्यासी भी कभी कभी आ जाता है। वह कहता है और सब तो ठीक है, आप ईश्वर आत्मा की जो बात करते हैं, वह बिलकुल जमती है। मगर यह नृत्य गान, यह प्रेम की हवा, यह माहांल; ये युवक युवतियां हाथ में हाथ डाले हुए चलते हुए, नाचते हुए, यह जरा जंचता नहीं! अगर यह आप बंद करवा दें, तो हम सब आपके शिष्य होने को तैयार हैं।

ये एकागी लोग हैं। इनमें से दोनों का मुझसे कोई संबंध नहीं बन सकता। यह जो प्रयास यहां हो रहा है, आज तुम्हें इसकी गरिमा समझ में नहीं आएगी। हजारों साल लग जाते हैं किसी बात को समझने के लिए।

यह जो प्रयोग यहां चल रहा है, अगर यह सफल हुआ, जिसकी संभावना बहुत कम है, क्योंकि वे एकागी लोग काफी शक्तिशाली हैं। उनकी भीड़ है। और सदियां उनके पीछे खड़ी हैं। अगर यह प्रयोग सफल हुआ, तो हजारों साल लगेंगे, तब कहीं तुम्हें दिखायी पड़ेगा कि क्या मैं कर रहा था! जब यह पूरा भवन खडा होगा.। अभी तो नींव भी नहीं भरी गयी है। मुझे दिखायी पड़ता है पूरा भवन कि अगर बन जाएगा, तो कैसा होगा। तुम्हें तो सिर्फ इतना ही दिख पाता है कि कुछ गड्डे खोदे जा रहे हैं; कुछ नींवें भरी जा रही हैं; कुछ ईंटें लायी जा रही हैं। तुम्हें कुछ और दिखायी नहीं पड़ता। हजारों साल लगते हैं।

लेकिन समय आ गया है।

विक्टर बहे का एक प्रसिद्ध वचन है. जब किसी विचार के लिए समय आ जाता है, तो दुनिया की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। समय की बात है। 

वसंत आ गया है इस फूल के खिलने का। दुनिया थक गयी है प्रयोग कर करके एकांगी। और हर बार एकांगी प्रयोग असफल हुआ है। अब हमें बहुरंगी प्रयोग कर लेना चाहिए। अब हम ऐसा संन्यासी पैदा करें, जो संसारी हो। और ऐसा संसारी पैदा करें, जो संन्यासी हो।

अब हम ऐसे ध्यानी पैदा करें, जो प्रेम कर सकें। और ऐसे प्रेमी पैदा करें, जो ध्यान कर सकें।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

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