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Saturday, November 2, 2019

मनुष्य इतना दुखी और उदास क्यों हो गया है?


आज ही हो गया है, ऐसा नहीं। आदमी सदा से दुखी और उदास है। हां, आज दुख और उदास, यह दुख, यह चिंता, यह उदासी समझने की समझ आदमी में ज्यादा आ गई है। है तो सदा से दुखी, लेकिन इतना बोध नहीं था; इसलिए गुजारे रहा, गुजारे जाता रहा। आदमी सदा से दुखी था, लेकिन उसने अपने दुख को छिपाने की बड़ी सुविधाएं खोज ली थीं--पिछले जन्मों के पापों का फल भोग रहा हूं, तो दुख झेलना आसान हो जाता; कि परमात्मा ने भाग्य में जो लिख दिया है वह होकर रहेगा। तो नियति है, अपने किए क्या होगा! इसलिए जो है ठीक है, जैसा है ठीक है। फिर चार दिन की जिंदगी है, गुजार लो।


आज न तो अतीत के जन्मों के सिद्धांत काम आ रहे हैं, न परमात्मा विधि का लेखक रह गया है। लोगों के मन में बहुत संदेह उठे हैं। संदेह शुभ लक्षण है। संदेह का अर्थ है, समझ पैदा हो रही है। विश्वास खंडित हो गए हैं, अच्छा हुआ, क्योंकि विश्वास आदमी को अंधा रखते हैं।

ध्यान रखना, मैं श्रद्धा का पक्षपाती हूं, विश्वास का विरोधी।


विश्वास का अर्थ होता है दूसरों ने तुम्हें जो दे दिया, उधार। और श्रद्धा का अर्थ होता है अपने अनुभव से जिसे पाया। श्रद्धा का अर्थ होता है स्वयं की प्रतीति। और विश्वास का अर्थ होता है दूसरों के द्वारा डाले गए संस्कार। विश्वास एक तरह की मानसिक आदत है; और श्रद्धा, जीवन-सत्य की खोज। विश्वास संदेह के विपरीत है। विश्वासी संदेह को दबा कर बैठा रहता है। और श्रद्धा संदेहों का उपयोग कर लेती है, संदेह की सीढ़ियां बना लेती है। हर संदेह अगर ठीक-ठीक ईमानदारी से जीया जाए तो श्रद्धा तक लाता है। लाएगा ही! संदेह में बीज छिपे हैं श्रद्धा के। 


इसलिए मैं नहीं कहता कि संदेह को दबाना; मैं नहीं कहता कि संदेह की तरफ पीठ करना। मैं तो कहता हूं, संदेह को पूरा-पूरा जीना, निखारना, धार रखना, ताकि तुम्हारी श्रद्धा नपुंसक न हो। तुम्हारी श्रद्धा सारे संदेहों को पार करने के बाद होगी तो फिर कोई संदेह उसे गिरा न सकेगा।


साधारण विश्वासी आदमी बड़ा डरा रहता है कि कोई संदेह न जगा दे; कोई ऐसी बात न हो जाए कि वह थोथा विश्वास जो ऊपर से थोप लिया है, टूट जाए, उखड़ जाए। जैसे कच्चे रंग मुंह पर पोत लिए हों तो वर्षा से डर लगता है।


मैंने सुना है, लखनऊ में एक आदमी रास्ते पर पंखे बेच रहा था। लखनवी लहजे में, बड़ी सुंदर आवाज में जोर-जोर से चिल्ला कर कह रहा था कि ऐसे पंखे न तो कभी बने और न फिर बनेंगे। ये अनूठे पंखे हैं। इन पंखों की खूबियों का कोई अंत नहीं है।


एक रईस ने--गर्मी के दिन थे, पसीना-पसीना हो रहा था--खिड़की खोली और पंखे वाले को भीतर बुलाया और कहा कि बड़ी देर से चिल्ला रहे हो, क्या खूबी है इन पंखों की?


तो उस पंखे वाले ने कहा कि इन पंखों की खूबी यह है कि ये कभी टूटते नहीं। ये तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी, बच्चे, बच्चों के बच्चों तक काम आएंगे। ये टूटते ही नहीं।


रईस ने पंखा खरीद लिया। और वह आदमी जा भी नहीं पाया था, रईस ने पंखा एक-दो बार ही किया होगा कि टूट गया। वह तो बड़ा हैरान हुआ। सस्ते से सस्ते पंखे भी कुछ दिन तो चलते हैं। और यह शाश्वत पंखा, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला था, एक ही दो बार हवा करने में टूट गया। बहुत हैरान हुआ! लेकिन वह आदमी जा चुका था। दूसरे दिन की प्रतीक्षा की उसने कि शायद फिर निकले। फिर दोपहर वही आवाज कि अनूठे पंखे! न पहले कभी बने, न फिर कभी बनेंगे!


उसने उस आदमी को बुलाया। और उसने कहा कि तेरी हिम्मत की दाद देनी होगी। यह टूटा हुआ पंखा पड़ा है और तू कहता था अनूठा पंखा! और इस सड़े पंखे के तू मुझसे पांच रुपये लूट ले गया!


और उस पंखे वाले ने आंख भी न झपकी; उसने कहा, तो इसका सिर्फ एक ही अर्थ होता है कि आपको पंखा करना नहीं आता।


उस रईस ने कहा, हद हो गई! और भी देखो, बेशर्मी की भी कोई सीमा है! बेईमानी की भी कोई सीमा है! मुझे पंखा करना नहीं आता? पंखा कैसे किया जाता है?

तो उस आदमी ने कहा कि पंखा करने का ढंग, पंखे को हाथ में रख कर सामने रख लो और सिर को हिलाते रहो। यह पंखा शाश्वत है, मगर ढंग से किया जाए तो। यह कोई ढंग है? हिला दिया होगा, पंखा टूट गया। पंखा हिलना नहीं चाहिए। सिर हिलाओ और पंखे को सामने रखो। हवा भी होगी, पंखा भी रहेगा।


तुम्हारी श्रद्धाएं--जिनको तुम श्रद्धा कहते हो--श्रद्धाएं नहीं हैं, विश्वास हैं। बस ऐसे हैं, जरा में टूट जाएंगे। इसलिए तथाकथित विश्वासी बहुत डरा रहता है कि कोई संदेह न जगा दे। जिसके जीवन में श्रद्धा है वह संदेहों से डरता ही नहीं; वह तो संदेहों को निमंत्रण दे आता है कि आओ! क्योंकि श्रद्धा संदेह से बहुत आगे की बात है। लेकिन संदेहों को पार करके आए होओ तब।

सुदास, तुम पूछते हो: "मनुष्य इतना दुखी, उदास क्यों हो गया है?'

मनुष्य सदा दुखी था, लेकिन सांत्वना करता रहा था। सदा उदास था, लेकिन अपनी उदासी के लिए व्याख्याएं खोजता रहा था। आज पहली दफा व्याख्याएं व्यर्थ हो गई हैं, सांत्वनाएं उखड़ गई हैं। आज पहली दफा आदमी ने पंखे को सामने रख कर सिर हिलाना बंद कर दिया है, पंखा टूट गया है। पंखा हिलाया कि टूट गया। आज मनुष्य सब तरह के संदेहों से घिरा हुआ खड़ा है। सब तरफ अंधेरा मालूम होता है। क्योंकि जिन दीयों पर भरोसा किया था वे दीये नहीं थे, सिर्फ कल्पना के जाल थे। अब मनुष्य को सच्चे दीये की तलाश करनी होगी।

यह शुभ घड़ी है। मैं इससे चिंतित नहीं हूं। मैं इससे आनंदित हूं। और तुमसे भी मैं कहूंगा, सुदास, आनंदित होओ। यह शुभ घड़ी है कि झूठी सांत्वनाएं उखड़ गईं, झूठे सिद्धांत कचरे में गिर गए। आदमी ने पहली दफा आंख खोली है। आदमी ने पहली दफा जीवन को देखने की चेष्टा शुरू की है।

उत्सव आमार जाती आनंद आमार गोत्र 

ओशो

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