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Sunday, November 3, 2019

यद्यपि मैं सिख परिवार से आया हूं तो भी पच्चीस वर्षो तक मेरा विश्वास ईसाइयत में रहा। लेकिन आपकी पुस्तकें पढ्ने के बाद मुझे लगा कि यह तो बडी जीवंत बात है और मेरे लिए ईसाइयत का प्रभाव समाप्त हो गया। आप पर पूरा ईमान आ गया है, लेकिन मन अभी भी अशांत है। देर रात तक आपका साहित्य पड़ता हूं तो ही कहीं नींद आती है। कृपाकर मेरा मार्गदर्शन करें।




देखो पच्चीस साल की श्रद्धा इतनी जल्दी टूट गयी तो श्रद्धा न रही होगी। फिर पच्चीस साल की श्रद्धा इतनी जल्दी टूट गयी, तो मुझ पर जो श्रद्धा आ गयी है, उसको टूटने में कितनी देर लगेगी! श्रद्धा तो तुम्हारी है। पच्चीस साल वाली भी न टिकी। और यह श्रद्धा भी तुम्हारी है, यह कितनी देर टिकेगी!
तुम्हारा तर्क मैं समझा, तुम्हारा तर्क शायद यह है कि वह श्रद्धा ईसाइयत पर थी, यह श्रद्धा आप पर है। यह तो फर्क हुआ। लेकिन तुम तो वही के वही हो। ईसा पर श्रद्धा हो, कि बुद्ध पर, कि महावीर पर, इससे अंतर नहीं पड़ता। असली अंतर तो श्रद्धा किसकी है, उसमें रूपांतरण हो तो ही पडता है।
अब तुम सिख परिवार में पैदा हुए तो नानक पर श्रद्धा रही होगी बचपन में। वह गयी, ईसा पर आ गयी। मुझे पढ़ा, वह भी चली गयी। कल कुछ और पढ़ लोगे, कल किसी और को सुन लोगे, यह भी चली जाएगी। तुम्हारी श्रद्धा को परखो। तुम्हारी श्रद्धा श्रद्धा नहीं है।

अब फर्क समझना।


जिसने सच में ही नानक पर श्रद्धा की है, वह मुझे सुनकर नानक पर श्रद्धा नहीं छोड़ता, मुझ पर श्रद्धा आ जाती है और नानक पर श्रद्धा बढ़ जाती है। जिसको सच में ही ईसा पर श्रद्धा रही, वह मुझे सुनकर ईसा पर श्रद्धा नहीं छोड़ता, मुझ पर श्रद्धा आ जाती है, ईसा पर श्रद्धा और गहरी हो जाती है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह कुछ ईसा और नानक के विपरीत तो नहीं। मैं जो कह रहा हूं वह वही है जो उन्होंने कहा है। और निश्चित ही, जीसस ने जो कहा है वह दो हजार साल पुरानी भाषा में कहा है, उससे तुम्हारा तालमेल उतना नहीं बैठ सकता है जितना मुझसे बैठ सकता है, क्योंकि मैं तुम्हारी भाषा में बोल रहा हूं।


नानक ने कहावह पांच सौ साल पुरानी भाषा है। पांच सौ साल लंबा फासला है। नानक में और मुझमें ठीक पांच सौ साल का फासला है। पांच सौ साल छोटा फासला नहीं है। सब भाषा बदल गयी है। सत्य को कहने का ढंग बदल गया है। सत्य को समझने की प्रक्रिया बदल गयी है। लोग बदले, लोगों का मन बदला, वातावरण बदला है। 


इस सारी बदलाहट में, मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह तुम्हारे मन के ज्यादा अनुकूल पड़ेगा, यह स्वाभाविक है। क्योंकि मैं तुम्हारी भाषा बोल रहा हूं। नानक उनकी भाषा में बोले जिनसे बोलते थे। जीसस उनकी भाषा में बोले जिनसे बोलते थे। मैं तुमसे बोल रहा हूं। मैं बीसवीं सदी से बोल रहा हूं। मैं अत्याधुनिक मन से बोल रहा हूं। स्वभावत: तुम्हें मेरी बात ज्यादा ठीक से पकड़ में आ जाएगी।
लेकिन अगर तुम्हें मेरी बात पकड में आ गयी, तो तुम्हें नानक की बात भी पकड़ में आ जाएगी। तुम अहोभाव से भर जाओगे कि नानक पर श्रद्धा तो थी, लेकिन अभी तक ठीकठीक साफसाफ नहीं हुआ था, अब साफ हो गयी बात। महावीर की बात तुम्हें ठीक से पकड में आ जाएगी, बुद्ध की बात ठीक से पकड़ में आ जाएगी। इसीलिए तो बुद्ध, नानक, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट पर बोल रहा हूं। क्योंकि मैं तुम्हारी श्रद्धा खंडित करने को नहीं हूं तुम्हारी श्रद्धा को मजबूत करने को हूं।


अगर मैं कभी किसी के विपरीत बोलता हूं तो सिर्फ इसीलिए कि वे धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, लोगों ने भ्रांति से उन्हें धार्मिक समझा है। तो ही। अगर मैं जानता हूं कि कोई व्यक्ति धार्मिक है तो मैं एक शब्द भी उसके विपरीत नहीं बोलता। ही, अगर किसी अधार्मिक व्यक्ति को किन्हीं भूलभ्रांतियों के कारण धार्मिक समझ लिया गया है तो मैं जरूर कठोरता से खंडन करता हूं। जरूर कठोरता से खंडन करता हूं क्योंकि वह खतरनाक बात है।


जैसे कभी पीछे किसी ने पूछा महर्षि दयानंद के संबंध में, तो मैंने कहा कि नहीं, मैं महर्षि दयानंद के पक्ष में एक शब्द नहीं बोल सकता। मेरे लिए वे वैसे ही महात्मा हैं जैसे महात्मा गांधी। दोनों सामाजिक, राजनैतिक आंदोलनकारी हैं, धर्म बहाना है। लेकिन नानक या कबीर या कृष्ण या जरथुस्त्र या मोहम्मद या ईसा, उन्होंने जो कहा है, वही मैं कह रहा हूं। उससे अन्यथा कहने को कुछ है नहीं। सत्य एक है। जिन्होंने जाना है, उसी एक सत्य को कहा है, भिन्नभिन्न ढंग से कहा होगा, लेकिन एक ही सत्य को कहा है।


वेद कहते हैं, उस एक सत्य को ही ज्ञानियों ने अलगअलग ढंग से कहा है। 


तो पहली तो बात यह है कि तुम अपनी श्रद्धा परखो, तुम्हारी श्रद्धा में कहीं भूलचूक है। नानक पर उठ गयी, ईसा पर जम गयी, मुझ पर जम गयी! मैं तुम्हारी श्रद्धा से खुश नहीं हूं। साधारणत: तुम यही सोच रहे होओगे कि तुम्हारा प्रश्न सुनकर मैं प्रसन्न होऊंगा कि चलो कितना अच्छा हुआ कि एक आदमी जीसस से टूटा और मेरा हुआ। इतनी जल्दी कोई मेरा नहीं हो सकता! जो जीसस का न हुआ, वह मेरा कैसे हो सकेगा? और अगर तुम मेरे हो गए हो, तो तुम्हारे पास आख आएगी जिससे तुम जीसस को पहचान पाओगे और पहली दफे जीसस के हो पाओगे। और वही आख तुम्हें नानक का भी बना देगी।


लेकिन तुमने श्रद्धा का अर्थ, मालूम होता है, कुछ तार्किक निष्पत्तियां मान रखा हैजो बात तुम्हारे तर्क को जंच जाती है। फिर तुम चूकोगे। क्योंकि धर्म तर्क की बात ही नहीं है।


मैं जरूर तर्क का उपयोग करता हूं, मैं तर्क पर सवारी करता हूं। इसलिए कभीकभी तार्किकों को मेरी बात बहुत जंच जाती है। लेकिन वे भ्रांति में न रहें, जल्दी ही उनको चौंका दूंगा। देरअबेर नहीं लगेगी, ज्यादा देर नहीं लगेगी कि मैं कोई ऐसी बात कहूंगा जो कि तर्क के बिलकुल बाहर होगी, विपरीत होगी।


तो तुम्हें मेरी बातें ठीक लग गयी होंगी, क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह तर्कयुक्त है। लेकिन तर्क का मैं उपयोग कर रहा हू साधन की तरह, ले जाना है तर्क के पार। जीसस ने तर्क का उपयोग नहीं किया। जीसस तो कह दिए जो कहना है। मैं तर्क का भी उपयोग कर रहा हूं। क्योंकि यह सदी बिना तर्क की भाषा के और कोई भाषा समझ नहीं सकती। लेकिन ले जाना तो तर्क के पार है। तो जल्दी ही तुम अड़चन में पड़ जाओगे।


इसलिए मैं तुमसे कहता हूं अपनी श्रद्धा पर फिर पुनर्विचार करो। तुम्हारी श्रद्धा भ्रांत रही है, गड़बड़ रही है। तुम्हारी श्रद्धा तर्क पर आधारित रही है। इसीलिए ईसाइयत से तुम प्रभावित हो गए होओगे, क्योंकि ईसाइयत काफी तर्क जुटाती है। ईसा ने तो कुछ तर्क नहीं दिए, लेकिन ईसाइयत काफी तर्क जुटाती है। क्योंकि ईसाइयत तो पश्चिम से आती है, पश्चिम तो तर्क की दुनिया है। तो ईसाइयत को अगर अपने पैर पर खड़े रहना है तो उसे तर्क जुटाने पड़ते हैं। तो ईसाइयत जंच गयी होगी।


लेकिन मेरे वश में पश्चिम का तर्क ही नहीं है, पूरब का तर्क भी है। और मेरे वश में तर्कातीत भी है। इसलिए फिर मेरा तर्क तुम्हें जंच गया होगा। क्योंकि मेरे तर्क में पश्चिम के सारे तर्क में जो जो कुशलता है वह तो है ही, पूरब के तर्क की जो जो मधुरिमा है वह भी है। और तर्कातीत जो अनुभव है, उसका रंग भी है। इसलिए तुम्हें जंच गयी होगी बात।


लेकिन अब मौका आ गया है कि तुम अपनी श्रद्धा को ठीक पहचान लो। और यह अब तक की इस सड़ीगली श्रद्धा को तुम फेंको। इसीलिए अड़चन भी आ रही है।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

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