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Sunday, July 26, 2015

मूर्ति-भंजक

कहते हैं कि मजनूं जब बिलकुल पागल हो गया लैला के लिए, तो उस देश के सम्राट ने उसे बुलवाया। उसे भी दया आने लगी, द्वार-द्वार, गली-गली, कूचे-कूचे वह पागल “लैला-लैला “ चिल्लाता फिरता है! गावभार के हृदय पसीज गये। लोग उसके आसुओ के साथ रोने लगे। सम्राट नेउसु बुलाया और कहा, “तू मत रो। “ उसने अपने महल से बारह सुदरिया बुलवाई और उसने कहा, “इस पूरे देश में भी तू खोजेगा, तो ऐसी सुंदर स्त्रियां तुझे न मिलेंगी। कोई भी तू चुन ले। “
मजनूं ने आंख खोली। आंसू थमे। एक-एक स्त्री को गौर से देखा, फिर आंसू बहने लगे और उसने कहा कि लैला तो नहीं है। सम्राट ने कहा, “पागल! तेरी लैला मैंने देखी है, साधारण- सी स्त्री है। तू नाहक ही बावला हुआ जा रहा है। “
कहते हैं, मजनूं हंसने लगा। उसने कहा, “आप ठीक कहते होंगे, लेकिन लैला को देखना हो तो मजनूं की आंख चाहिए। आपने देखी नहीं। आप देख ही नहीं सकते, क्योंकि देखने का एक ही ढंग है लैला को–वह मजनूं की आंख है। वह आपके पास नहीं है। “
भगवान को देखने का एक ही ढंग है, वह भक्त की आंख है। “
तो कोई अगर मंदिर में पूजा करता हो तो नाहक हंसना मत।
मूर्ति-भंजक होना बहुत आसपन है, क्योंकि उसके लिए कोई संवेदनशील तो नहीं चाहिए। मूर्तियों को तोड़ देनपा बहुत आसान है। क्योंकि उसके लिए कोई हृदय की गहराई तो नहीं चाहिए।
मूर्ति में अमूर्त को देखना बड़ा कठिन है! वह इस जगत की सबसे बड़ी कला है। आकार में निराकार को झांक लेना, शब्द में शुन्‍य को सुन लेना, दृश्य में अदृश्य की पेड़ लेना–उससे बड़ी और कोई कला नहीं है।

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