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Sunday, July 26, 2015

स्थिर ज्ञान

स्थिर ज्ञान–नॉन–वेवरिंग नॉलिज क्या है? यह एक गहरे से गहरा रहस्य है, इसलिए इसे समझने के लिए हमें मन की जो बनावट है, उसकी गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा।
तो हम शुरू करें मन से। मन में कई प्रकार के विचार होते हैं। प्रत्येक विचार एक कंपन है प्रत्येक विचार एक लहर है। जब कोई भी विचार न हो, तभी मन निश्‍चल होगा। एक भी विचार उठा और आप कंप गए। एक विचार आया और आप स्थिर नहीं रहे। और एक विचार भी केवल एक विचार ही नहीं है, वह एक बड़ी जटिल घटना है। एक अकेला विचार भी कई तरंगों से बनता है। एक शब्द भी अनेक तरंगों से निर्मित होता है। अतः एक शब्द भी तब बनता है, जब मन में अनेक तरंगें उठ रही हों, और एक अकेले विचार में ऐसे कितने ही शब्द होते हैं।
हजारों-हजारों तरंगों से कहीं एक विचार निर्मित होता है। विचार सब से अधिक बाह्य वस्तु है, परन्तु तरंगें उसके भी पहले हैं। उन्हें आप तभी जान पाते हैं, जब तरंगें विचारों में परिवर्तित हो गई होती हैं, क्योंकि आपकी सजगता बहुत स्थूल है। हम तब सजग नहीं होते, जब तरंगें शुद्ध तरंगें हों, और वे विचार बनने की प्रक्रिया में हों। जितने अधिक आप सजग होंगे, उतना ही अधिक आप अनुभव करेंगे कि विचार की बहुत सी परतें होती हैं। विचार अंतिम परत है। विचार के पहले बीज-तरंगें होती हैं, जो कि विचार को पैदा करती हैं, और बीज-तरंगों के पूर्व उनसे भी ज्यादा गहरी जड़ें होती हैं जो कि बीजों को उपजाती हैं।
बीज विचारों की रचना करते हैं। कम से कम तीन परतें बहुत आसानी से दिखलाई पड़ती है किसी भी जागरूक चित्त के लिए। परन्तु हम सीधे जागरूक नहीं हो जाते, अतः हम तभी सजग होते हैं, जब तरंगें सर्वाधिक स्थूल रूप ले सकती हैं–विचार बन जाती है। जहां तक हम जानते हैं, विचार सब से अधिक सूक्ष्म चीज है। किंतु वह है नहीं। विचार, वास्तव में, एक वस्तु बन गया है। जब शुद्ध तरंगें होती हैं, तब आप उन्हें नहीं पहचान सकते कि क्या होने वाला है, कौन सा विचार आप में पैदा होने वाला है। अतः हम तभी जान पाते हैं जब कि तरंगें विचार बन चुकती हैं। एक अकेले विचार का मतलब होता है हजारों-हजारों तरंगें।

कितना हम कंप रहे हैं! हम निरंतर विचारों से घिरे हैं। एक भी क्षण ऐसा नहीं होता जब हमारे भीतर कोई विचार न चल रहा हो। एक विचार के पीछे दूसरा विचार लगातार आता चला जाता है, बिना किसी अंतराल के। इसलिए हम वस्तुतः एक अस्थिर, कांपते हुए विचार-चक्र हैं। सोरेन किकगार्ड ने कहा है कि आदमी सिर्फ एक कंपन है–एक कंपन–और ज्यादा कुछ नहीं। और वह एक तरह से सही है। जहां तक हमारा संबंध है, मनुष्य एक कंपन ही है, पर एक बुद्ध वैसे नहीं हैं, क्योंकि बुद्ध एक आदमी नहीं हैं। यह विचार की प्रक्रिया कंपन की प्रक्रिया है। अतः स्थिर का अर्थ हैः एक निर्विचार मन की स्थिति।

सूत्र कहता है, निश्‍चल जानना। मन की भी बात नहीं की गई। इसलिए मन की तीन परतों को ठीक से समझ लेना चाहिए। प्रथम है चेतन मन, और एक प्रकार के विचार चेतन मन से संबंधित हैं। ये विचार सब से कम महत्वपूर्ण होते हैं। ये विचार प्रतिपल हो रही बाह्य प्रतिक्रियाओं से बनते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं, एक सांप गुजरता है, और आप कूद जाते हैं, सांप एक उत्तेजक विषय बन जाता है और आप प्रतिक्रिया करते हैं।
अतः एक इस तरह का विचार होता हैः एक बाह्य विषय टकराया और एक प्रतिक्रिया बाहरी परिधि पर घट गई। सचमुच आप कुछ सोचते नहीं, आप सिर्फ सक्रिय होते हैं। सांप वहां है और आप कुछ करते हैं। आप सजग होते हैं और आप कर्म करते हैं। आप भीतर प्रवेश नहीं करते और पूछते नहीं कि क्या करना चाहिए।
घर में आग लगी है और आप भागते हैं। यह बाहरी परिधि पर हो रही प्रतिक्रिया है। अतः एक ऐसा विचार जो क्षणानुक्षणिक है, रिफ्रलेक्स टाइप का है। एक बुद्ध भी ऐसे ही प्रतिक्रिया करेंगे। यह नैसर्गिक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यदि आप क्षण-क्षण प्रतिक्रिया करें, तो कुछ भी गलत नहीं है। परन्तु यही एक परत तो नहीं है।
एक दूसरी परत भी है। यह दूसरी परत अर्धचेतन की है। धर्म उसे अतः करण, कॉन्सिएन्स कहते हैं। वास्तव में, यह दूसरी परत समाज द्वारा नि£मत की गई होती है। यह भी आपके भीतर घुस गया समाज ही है। समाज प्रत्येक के भीतर घुस जाता है, क्योंकि जब तक समाज भीतर प्रवेश नहीं करता, वह आपको नियंत्रित नहीं कर सकता।

इसलिए वह आपका एक अंग बन जाता है। आपका लालन-पालन, आपकी शिक्षा, आपके माता-पिता, शिक्षक आदि: ये सब क्या कर रहे हैं, वे एक ही बात कर रहे हैं–वे एक अर्धचेतन मन निर्मित कर रहे हैं। वे सब आपको विचार, ढांचे, आदर्श, मूल्य आदि दे रहे हैं। ये सारे विचार दूसरी परत से संबंधित हैं। वे सहायक हैं, उनकी उपादेयता है, किंतु वे हानिप्रद भी हैं। वे समाज में सुगमता से विचारने के लिए साधन हैं। परन्तु वे बाधाएं भी हैं।
यह दूसरी परत ठीक से ध्यान में रख लेनी चाहिए। यह दूसरी परत भीतर विचार व पक्की धारणाओं आदि से बनती है। इसलिए जब कभी आपका उपरी चेतन मन क्षण-क्षण काम कर रहा हो, तब वह शुद्ध नहीं होता।

ओशो 

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