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Monday, February 15, 2016

शिव कहते है कि संसार माया है

तंत्र और पाश्‍चात्‍य सम्मोहन के दृष्‍टिकोण से यही अंतर है। सम्‍मोहनविद सोचते है कि वे कल्‍पना के द्वारा कुछ पैदा कर रहे हे। पर तंत्र का मानना है कि कल्‍पना के द्वारा तुम कुछ पैदा नहीं करते। तुम तो बस उस चीज के साथ लयवद्ध हो जाते हाँ जो पहले से ही है। क्‍योंकि कल्‍पना से तुम जो भी पैदा कर सकते हाँ वह स्‍थाई नहीं हो सकता: यदि कोई चीज वास्‍तविक नहीं है तो वह झूठी है, नकली है, तुम एक भ्रम निर्मित कर रहे हो।


तो शांति के भ्रम में पड़ने से तो वास्‍तविक रूप से परेशान होना बेहतर हे। क्‍योंकि वह कोई विकास नहीं है। बस तुमने अपने को उसमें भुला दिया है। देर अबेर तुम्‍हें उससे बाहर निकलना होगा। क्‍योंकि जल्‍दी ही वास्‍तविकता भ्रम को तोड़ देगी। सच्‍चाई भ्रमों को नष्‍ट करेगी ही। केवल उच्‍चतर वास्‍तविकता को नष्‍ट नहीं किया जा सकता। उच्‍चतर वास्तविकता उस यथार्थ को नष्‍ट कर देगी जो कि परिधि पर है।


इसीलिए शिव तथा दूसरे कई बुद्ध पुरूष कहते है कि संसार माया है। ऐसा नहीं है कि संसार माया है। लेकिन उन्‍हें एक उच्‍चतर वास्‍तविकता का बोध हो गया है। उस ऊँचाई से संसार स्‍वप्‍नवत प्रतीत होता है। वह शिखर इतनी दूर है, इतनी दूर है कि यह संसार वास्‍तविक नहीं लग सकता।


तो सड़क पर आता हुआ शोर ऐसे लगेगा जैसे तुम अपना सपना देख रहे हो, वह वास्तविकता नहीं है। वह कुछ नहीं कर सकता बस आता है और गूजर जाता है। और तुम अस्‍पर्शित रह जाते हो। और जब तुम वास्‍तविक से अस्‍पर्शित रह जाओ तो तुम्‍हें कैसे लगेगा। कि यह वास्तविक है, वास्तविकता तुम्‍हें केवल तभी महसूस होती है जब वह तुममें गहरी प्रवेश कर जाए। जितनी गहरी वह प्रविष्‍ट होगी उतनी ही वास्‍तविक लगेगी।

 शिव कहते है: पुरा संसार मिथ्‍या है। वह ऐसे बिंदु पर पहुंच गए होंगे जहां से दूरी इतनी बढ़ जाती है कि संसार में जो भी हो रहा है। सपना सा ही प्रतीत होता हे। उसकी प्रतीति होती है। लेकिन उसके साथ कोई वास्‍तविकता की प्रतीति नहीं होती। क्‍योंकि वह भीतर प्रवेश नहीं कर पाती। प्रवेश ही वास्तविकता का अनुपात है। यदि मैं तुम्‍हें पत्‍थर मारू और तुम्‍हें चोट लगे तो उसकी चोट तुम्‍हारे भीतर प्रवेश करती है। और चोट का प्रवेश करना ही पत्‍थर को वास्‍तविक बनाता है। यदि मैं एक पत्‍थर फेंकूं और वह तुम्‍हें छुए, पर चोट भीतर प्रवेश न करे। तो गहरे में कही तुम्‍हें अपने पर पत्‍थर गिरने की आवाज सुनाई देगी। पर उससे कोई व्‍यवधान पैदा नहीं होगा। तुम्‍हें वह झूठ लगेगी। मिथ्‍या लगेगी। माया लगेगी।


लेकिन तुम परिधि से इतने करीब हो कि यदि मैं तुम्‍हें पत्‍थर मारू तो तुम्‍हें चोट लगेगी। अगर मैं बुद्ध पर पत्‍थर फेंकूं तो उनके शरीर को भी उतनी ही चोट लगेगी जितनी तुम्‍हारे शरीर को लगेगी। लेकिन बुद्ध परिधि पर नहीं है। केंद्र में स्‍थित है। और दूरी इतनी अधिक है कि उन्‍हें पत्‍थर की आवाज तो सुनाई देगी पर चोट नहीं लगेगी। अंतस अस्‍पर्शित रह जाएगा। उस पर खरोंच भी न आएगी। इस निर्विचार अंतस को लगेगा कि जैसे सपने में कुछ फेंका गया। यह माया है। तो बुद्ध कहते है, किसी चीज में कोई सार नहीं है। सब कुछ असार है। संसार असार है। यह बही बात है जैसे शिव कहते है कि संसार माया है।


इसे करके देखो। जब भी तुम्‍हें अनुभव होगा कि तुम्‍हारी दोनों कांखों के बीच, तुम्‍हारे ह्रदय के केंद्र पर शांति व्‍याप्‍त हो रही है तो संसार तुम्‍हें भ्रामक प्रतीत होगा। यह इस बात का संकेत है कि तुम ध्‍यान में प्रवेश कर गए जब संसार माया लगने लगे। ऐसा सोचो मत कि संसार माया है। ऐसा सोचने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्‍हें ऐसा महसूस होगा। अचानक तुम्‍हारे मन में आएगा, संसार को क्‍या हो गया है? अचानक संसार स्‍वप्‍नवत हो गया है। एक स्‍वप्‍न की तरह से सारहीन हो गया है। बस इतना ही वास्तविक प्रतीत होता है। जैसे पर्दे पर फिल्‍म। भले ही थ्री-डायमेंशनल हो, पर ऐसा लगता है जैसे कोई प्रक्षेपण हो। हालांकि संसार प्रक्षेपण नहीं है। संसार वास्‍तव में माया नहीं है। नहीं,संसार तो वास्‍तविक है, लेकिन तुम दूरी पैदा कर लेते हो। और दूरी बढ़ती ही जाती है। और दूरी बढ़ रही है। या नहीं, यह तुम इस बात से पता लगा सकते हो कि संसार अब तुम्‍हें कैसा लगता है।

विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो 

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