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Monday, February 15, 2016

परावृत्ति

पहली बात, जीवन दुख है, यह कोई धारणा नहीं है, ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसा जीवन है। बुद्ध कहते हैं, जैसा जीवन है उसे वैसा जान लो। जानते ही दो बातें घटेंगी। एक, तब जीवन से तुम्हारी कोई अपेक्षा न रह जाएगी। कभी कितना ही दुख होगा फिर, तो भी तुम जानोगे होना ही था। एक स्वीकार होगा। एक सहज स्वीकार होगा। उस सहज स्वीकार में विपन्नता खड़ी नहीं होती, हो नहीं सकती। अगर पत्थर पत्थर है, तो क्या विपन्नता है! मिट्टी मिट्टी है, तो क्या विपन्नता है! लेकिन मिट्टी को तुम तिजोड़ी में सम्हालकर रखे रहे और एक दिन खोला और पाया मिट्टी है, और अब तक सोचते थे सोना है, तो विपन्नता है। विपन्नता का अर्थ है, जैसा सोचा था वैसा न पाया। कुछ का कुछ हो गया। जहां प्रेम सोचा था, वहां घृणा पायी, जहा मित्रता सोची थी, वहां शत्रुता मिली, जहा धन सोचा था, वहा धोखा था।


तो पहली तो बात, तुम धोखे से मुक्त हो गए, अगर तुमने जीवन को दुख की तरह देख लिया, जैसा कि जीवन है। जो धोखे से मुक्त हो गया, उसके जीवन में बड़ी शांति आ जाती है।

दूसरी बात, जो श्रम जीवन के धोखे में तुम लगाते, वह श्रम तुम्हारे पास बच रहा। अगर जीवन दुख है, तो बाहर जाने की तो कोई. अर्थवत्ता नहीं है। अब जीवन ऊर्जा का क्या करोगे? जो तुम्हारे पास जीवन ऊर्जा है, अब भीतर जा सकती है, बाहर तो दुख है। अगर यह सिद्ध हो जाए तुम्हारे सामने कि बाहर दुख है, तो अब जाओगे कहां? अब दिल्लियां जाने से तो कुछ सार न रहा। अब धन के पीछे पागल होने में तो कोई प्रयोजन न रहा। अब किसी मृग मरीचिका के पीछे दौड़ने का तो कोई कारण न रहा। यह जीवन ऊर्जा तुम्हारी मुक्त हो गयी सारी आकांक्षाओं से। सारी व्यर्थ की दौड़ी से मुक्त हो गयी जीवन ऊर्जा भीतर जाने लगेगी।


क्योंकि ऊर्जा का एक नियम है कि ऊर्जा तो जाएगी ही। ऊर्जा का नियम है कि ऊर्जा गत्यात्मक है। अगर बाहर न जाएगी तो भीतर जाएगी। ऊर्जा चलेगी। ऊर्जा में गति है। ऊर्जा बहेगी। जीवन दुख है ऐसा जानते ही बाहर जाने के सब द्वार तत्क्षण बंद हो गए। अब इस ऊर्जा का क्या होगा? यह भीतर की तरफ मुड़ेगी, यह अंतस्तल की तरफ चलेगी, यह अपने ही केंद्र की तलाश में लग जाएगी बाहर तो कुछ पाने को नहीं है, भीतर खोजो।


इस क्रांति का नाम ही धर्म है। इस रूपांतरण की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है, जिसको बुद्ध ने कहा है परावृत्ति, जब ऊर्जा खड़ी रह जाती है, बाहर जाने को जगह न रही। तुम द्वार पर खड़े हो, बाहर जाने को तैयार खड़े थे। बाहर जाने में कोई अर्थ न रहा, अब क्या करोगे? लौटकर अपने घर में विश्राम न करोगे?


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

 

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