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Saturday, February 13, 2016

बांटने में पीड़ा होती है

हम अपने मन को हजार ढंग से समझाते हैं, रेशनलाइज करते हैं, तर्क जुटाते हैं। एक भिखमंगा सड़क पर भीख मांग रहा हो तो आप यह नहीं कहते कि मैं नहीं देना चाहता हूं; आप यह कहते हैं कि देने से भिखमंगापन बढ़ेगा। आप यह देखने को कभी राजी नहीं होते कि यह मेरे देने का डर। वह भी ठीक होगा, शायद आपका तर्क सही ही हो कि आप देंगे तो भिखमंगापन बढ़ेगा। लेकिन उसके कारण आप नहीं दे रहे हैं, यह बात गलत है। आप देना नहीं चाहते हैं।


बांटने में पीड़ा होती है, कुछ भी बांटने में पीड़ा होती है। इकट्ठा करने में सुख मिलता है। तो जो भी आपके पास आ जाता है बांटने के लिए कि बांटो कुछ मुझसे, उससे आपको पीड़ा होती है, उससे आप बचना चाहते हैं। पात्र और अपात्र, सही और गलत हमारा कृपण मन ही सोचता है। जब सच में ही देने योग्य हमारे पास कुछ होता है तो फिर न कोई पात्र रह जाता, न कोई अपात्र रह जाता।

 
अभी अगर आप कभी देते भी हैं तो प्रयोजन से देते हैं। उसके पीछे कोई शर्त होती है। चाहे प्रकट, चाहे अप्रकट; चाहे कहते हों, न कहते हों; लेकिन देने के पीछे शर्त होती है और देने के पीछे सौदा होता है। देते हैं, पूरी तरह नहीं देते। और देते हैं तो यह भाव रखते हैं कि जिसको दिया है वह अनुगृहीत अनुभव करे, वह धन्यवाद तो दे, और सदा भार से ग्रस्त रहे, दबे, झुके। और आशा मन में बनी रहती है कि कभी प्रत्युत्तर भी दे। यह देना न हुआ, यह सौदा ही हुआ। जब आप कुछ चाह रहे हैं तो आप दे नहीं रहे हैं। दान के पीछे अगर अप्रकट मांग छिपी है तो दान दिया नहीं जा रहा है, इनवेस्टमेंट है; आप एक नया धंधा खोल रहे हैं।


जब कोई प्रेम से, या ज्ञान से, या आनंद से भर जाता है तो देता है। इसलिए नहीं कि आपको जरूरत है, बल्कि इसलिए कि उसके पास ज्यादा है और उसके प्राण बोझिल हैं। और तब देता है तो आप अनुगृहीत नहीं होते, वह खुद ही अनुगृहीत होता है कि आपने लिया। आप इनकार भी कर सकते थे। इसलिए प्रेम सदा अनुगृहीत होता है कि कोई मिल गया जिसने मुझे उलीचने में सहायता दी, जिसने मुझे हलका होने में सहायता दी, जिसने मेरा बोझ कम किया, जिसने मुझे बांटा, जो राजी हुआ मुझे लेने को। अनुग्रह, देने वाला अनुभव करता है।

ताओ उपनिषद 

ओशो 

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