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Tuesday, March 21, 2017

मैं कौन हूं, मैं क्या हूं, मैं कहां से हूं, मैं कहां के लिए हूं?





पहला प्रश्न जो प्रत्येक को अपने से पूछ लेना चाहिए, वह यह कि "क्या मैं अपने को जानता हूं?' मैं कौन हूं, मैं क्या हूं, मैं कहां से हूं, मैं कहां के लिए हूं?

लेकिन किसी बात का कोई उत्तर नहीं है! न ज्ञात है कि मैं कौन हूं, न ज्ञात है कि मैं क्या हूं, न ज्ञात है कि मैं कहां से हूं, न ज्ञात है कि मैं कहां के लिए जा रहा हूं।  इन चार बुनियादी प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है, लेकिन हम स्वीकार कर लिए हैं कि हम अपने को जानते हैं!


शॉपेनहार--एक सुबह, कोई तीन बजे होंगे, एक छोटे-से बगीचे में गया हुआ था।  रात थी।  अभी अंधेरा था।  बगीचे का माली हैरान हुआ कि इतनी रात गये कौन आ गया है।  उसने अपनी लालटेन उठायी, अपना भाला उठाया और वह गया बगीचे के भीतर ।  शॉपेनहार वहां टहलता है वृक्षों के पास और कुछ अपने से ही बातें कर रहा है!


उस माली को शक हुआ कि जरूर कोई पागल घुस आया है, अकेला अपने से बातें कर रहा है! उसने दूर से ही खड़े होकर आवाज दी और पूछा कि "कौन हो, कहां से आये हो, किसलिए आये हो, क्या चाहते हो?'


शॉपेनहार जोर से हंसने लगा और उसने कहा, "तुम ऐसे कठिन प्रश्न पूछते हो, जिनका उत्तर आज तक कोई आदमी नहीं दे पाया।  पूछते हो, कौन हो? जिंदगी भर हो गया मुझे पूछते-पूछते, अब तक मुझे उत्तर नहीं मिला कि कौन हूं! पूछते हो कहां से आये हो? आज तक कोई आदमी नहीं बता सका कि कहां से आया है! मैं भी असमर्थ हूं।  पूछते हो, किसलिए आये हो? उसका भी मुझे पता नहीं कि किसलिए आया हूं!'

निश्चित ही उस माली ने समझा होगा कि पागल ही है यह आदमी, जिसे इतना भी पता नहीं।  लेकिन माली पागल था या वह आदमी, जिसे पता नहीं था।  कौन था पागल?


अगर आपको पता है या आपको भ्रम है कि आपको पता है तो आप पागल हो सकते हैं।  लेकिन अगर आपको पता नहीं है तो यह मनुष्य की स्थिति है, यह हयुमन सिचुएशन है कि आदमी को पता नहीं है।  इसमें पागलपन का कोई सवाल नहीं है।


लेकिन कहीं हम पागल न मालूम पड़ने लगें, इसलिए हमने कुछ व्यवस्था कर ली है।  कुछ अपने को पहचानने और जानने का आयोजन कर लिया है।  हमने कुछ उपाय कर लिये हैं, जिससे हमें ऐसा लगे कि हम अपने को जानते हैं।  हमने अपने नाम रख लिए है, अपनी जाति बना ली है, अपना धर्म बना लिया है, अपना देश बना लिया है!


हमें इंगित किया जा सके कि कौन है यह आदमी--तो हमारा नाम है, हमारी जाति है, हमारा धर्म है, हमारा देश है; हमारे मां-बाप हैं, उनके नाम हैं; हमारी वंश परंपराएं हैं! और हमने कुछ इंतजाम कर लिया है, जिस भांति यह पहचाना जा सके कि मैं कौन हूं।  और हमारी सारी व्यवस्था झूठी है, हमारी सारी व्यवस्था कल्पित और सपने जैसी है।  क्या है नाम किसी का? क्या है किसी की जाति? क्या है किसी का धर्म? कौन-सा है देश, किसका?


लेकिन हमने जमीन पर भी झूठी रेखाएं खींच रखी हैं--भारत की और चीन की, और रूस की और अमरीका की! झूठी रेखाएं, जो जमीन पर कहीं भी नहीं है, लेकिन ताकि हम कह सकें कि मैं यहां से हूं!


और हमने आदमी के आसपास भी झूठे नाम और लेबल चिपका रखे हैं।  कोई राम है, कोई कृष्ण है, कोई कोई है! वे नाम भी बिलकुल झूठे हैं।  आदमी कोई नाम लेकर पैदा नहीं होता है।


और हमने जातियों के नाम भी चिपका रखे हैं! वे नाम भी बिलकुल झूठे हैं।  आदमी किसी जाति में पैदा नहीं होता।  सब जातियां आदमी के ऊपर थोपी जाती हैं।


और हमने मां-बाप के नाम भी अपने साथ जोड़ रखे हैं! न उनका कोई नाम था, न उनके मां-बाप का कोई नाम था, न उनके मां-बाप का कोई नाम था।


लेकिन हमने एक छोटा-सा कोना बना लिया है ज्ञान का, और ऐसा भ्रम पैदा कर लिया है कि हम अपने को जानते हैं।  इसी भ्रम में हम जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं।


साधक को यह भ्रम तोड़ देना चाहिए, यह कोना उजाड़ देना चाहिए।  उसे जान लेना चाहिए ठीक-ठीक कि मेरा कोई नाम नहीं है, मेरी कोई जाति नहीं है।  मेरा कोई देश नहीं है; मेरा परिचय नहीं, मैं बिलकुल अज्ञात हूं।  जैसे ये हवाओं के झोंके अज्ञात हैं, जैसे ये वृक्ष अज्ञात हैं, जैसे ये आकाश के चांदत्तारे अज्ञात हैं, जैसे यह सागर का पानी अनाम और अपरिचित और अज्ञात है, वैसे ही आदमियों के जीवन की लहरें भी अज्ञात हैं, अनजानी हैं, अपरिचित हैं। 


नेति नेति (सत्य की खोज)

ओशो

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