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Tuesday, March 28, 2017

भीतर से बाहर



धार्मिक उसे भीतर से शुरू करता है और फिर बाहर की तरफ जाता है। और भीतर जिसने उसे छू लिया, वह तरंग पर सवार हो गया, उसने लहर पकड़ ली; उसके हाथ में नाव आ गई। अब कोई जल्दी भी नहीं है। वह दूसरा किनारा न भी मिले, तो भी कुछ खोता नहीं है। वह दूसरा किनारा कभी भी मिल जाएगा, अनंत में कभी भी मिल जाएगा, तो भी कोई प्रयोजन नहीं है। कोई डर भी नहीं है उसके खोने का। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। लेकिन आप ठीक नाव पर सवार हो गए।
जिसने अंतस में पहचान लिया, उसकी यात्रा कभी भी मंजिल पर पहुंचे या न पहुंचे, मंजिल पर पहुंच गई। वह बीच नदी में डूबकर मर जाए, तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। अब उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अब नदी का मध्य भी उसके लिए किनारा है।


धार्मिक व्यक्ति भीतर से बाहर की तरफ फैलता है। और जीवन का सभी विस्तार भीतर से बाहर की तरफ है। आप एक पत्थर फेंकते हैं पानी में; छोटी—सी लहर उठती है पत्थर के किनारे, फिर फैलना शुरू होती है। भीतर से उठी लहर पत्थर के पास, फिर दूर की तरफ जाती है। आपने कभी इससे उलटा देखा कि लहर किनारों की तरफ पैदा होती हो और फिर सिकुड़कर भीतर की तरफ आती हो!


एक बीज को आप बो देते हैं। फिर वह फैलना शुरू हो जाता है, फिर वह फैलता जाता है, फिर एक विराट वृक्ष पैदा होता है। और उस विराट वृक्ष में एक बीज की जगह करोड़ों बीज लगते हैं। फिर वे बीज भी गिरते हैं। फिर फूटते हैं, फिर फैलते हैं।


हमेशा जीवन की गति बाहर से भीतर की तरफ नहीं है। जीवन की गति भीतर से बाहर की तरफ है। यहां बूंद सागर बनती देखी जाती है, यहां बीज वृक्ष बनते देखा जाता है। धर्म इस सूत्र को पहचानता है। और आपके भीतर जहां लहर उठ रही है हृदय की, वहीं से पहचानने की जरूरत है। और वहीं से जो पहचानेगा, वही पहचान पाएगा।


लेकिन जैसा मैंने कहा कि हम नियमित रूप से बंधी—बधाई भूलें दोहराते हैं। आदमी बड़ा अमौलिक है। हम भूल तक ओरिजिनल नहीं करते, वह भी हम पुरानी पिटी—पिटाई करते हैं।


मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उस पर नाराज थी। बात ज्यादा बढ़ गई और पत्नी ने चाबियों का गुच्छा फेंका और कहा कि मैं जाती हूं। अब बहुत हो गया और सहने के बाहर है। मैं अपनी मां के घर जाती हूं और कभी लौटकर न आऊंगी।


नसरुद्दीन ने गौर से पत्नी को देखा और कहा कि अब जा ही रही हो, तो एक खुशखबरी सुनती जाओ। कल ही तुम्हारी मां तुम्हारे पिता से लड़कर अपनी मां के घर चली गई है। और जहां तक मैं समझता हूं वहां वह अपनी मां को शायद ही पाए।


एक वर्तुल है भूलों का। वह एक सा चलता जाता है। एक बंधी हुई लकीर है, जिसमें हम घूमते चले जाते हैं। हर पीढ़ी वही भूल करती है, हर आदमी वही भूल करता है, हर जन्म में वही भूल करता है। भूलें बड़ी सीमित हैं।


धर्म की खोज की दृष्टि से यह बुनियादी भूल है कि हम बाहर से भीतर की तरफ चलना शुरू करते हैं। क्योंकि यह जीवन के विपरीत प्रवाह है, इसमें सफलता कभी भी मिल नहीं सकती। सफलता उसी को मिल सकती है, जो जीवन के ठीक प्रवाह को समझता है और भीतर से बाहर की तरफ जाता है।

गीता दर्शन 

ओशो 

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