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Friday, March 24, 2017

सुषुप्ति को देख लेना समाधि है



जीवन के अंत तक गांधी को स्वप्न पीड़ित करते रहे। मगर मैं कहता हूं, वे ईमानदार आदमी थे, तुम्हारे दूसरे साधु-संतों की तरह नहीं कि स्वप्न तो सताते रहे और उन्होंने कभी बाहर उनकी चर्चा न की। उन्होंने तो खुली चर्चा की। उनके शिष्य इससे परेशान थे। शिष्य चाहते थे, इसकी खुली चर्चा मत करो। क्योंकि शिष्यों को चोट लगती कि हमारे गुरु को और ऐसे सपने आते हैं! शिष्यों का जो गुरु के प्रति महात्मा का भाव था वह और शिष्यों के अहंकार को पीड़ा होती कि लोग क्या कहेंगे! वे गांधी को कहते, यह चर्चा खुली मत करो।

गांधी ने अंतिम दिनों में एक युवा स्त्री के साथ नग्न, बिस्तर पर सोना शुरू किया। कई शिष्य तो भाग गए। उनमें से कई अब बड़े गांधीवादी हैं जो भाग गए थे। अब वही ठेकेदार हो गए हैं; अब वे कहते हैं, वही वसीयतदार हैं! वही थे जो भाग गए थे गांधी के खिलाफ और गांधी के विरोध में हो गए थे कि यह क्या गड़बड़ है! ऐसा कहीं सुना, देखा? लेकिन गांधी की पीड़ा को कोई भी न समझा।


गांधी की पीड़ा यह थी। आखिर-आखिर में उनका तंत्र-शास्त्रों से संबंध जुड़ा। जीवन भर उन्होंने ब्रह्मचर्य की व्यर्थ चेष्टा में गंवाया। अंत में उन्हें तंत्र-शास्त्रों का पता चला कि अगर वासना से मुक्त होना हो तो जागना जरूरी है। और जागना हो तो परिस्थिति चाहिए, भागने से कुछ भी न होगा। तो परिस्थिति पैदा करने के लिए एक नग्न युवती के साथ रात सोते थे एक वर्ष तक--ताकि परिस्थिति पूरी रहे और उनके मन में कोई वासना उठे तो वे देख सकें, पहचान सकें। जिंदगी भर दबाया था, अब उघाड़ने के लिए भी बड़ी अथक चेष्टा करनी पड़ी। यह नग्न युवती के साथ सोना, उसे जगाने की अथक चेष्टा थी, जिसको अपने ही हाथों दबाया था।


जीवन भगोड़ेपन से हल नहीं होता, जीवन तो साक्षात्कार करने से हल होता है। जीवन की सभी समस्याओं का साक्षात्कार करना होगा। मत पूछो कि स्वप्न में कामवासना से मुक्त होने के लिए क्या करो। इतना ही जानो कि स्वप्न में जो वासना आ रही है, वह तुम्हारे जागरण में दबाई गई है। जागरण में मत दबाओ, जागरण में जागो और देखो! उघाड़ो!


तुम्हें तकलीफ होगी, क्योंकि तुम्हारे अहंकार को बड़ा बुरा लगेगा कि मैं ब्रह्मचारी, संन्यासी, त्यागी, और कामवासना मेरे भीतर है!


मगर ऐसे झूठे मोह को छोड़ना पड़े, ऐसे झूठे दंभ का कोई सार नहीं। वह तो है ही, तुम देखो या न देखो, इससे भेद न पड़ेगा। देख लो तो शायद मुक्ति भी हो जाए। और यही समझ लेने की बात है कि सिर्फ दर्शन से भी मुक्ति हो जाती है।


तुम एक चेष्टा करो कुछ महीनों के लिए--कुछ भी दबाओ मत; जो भी भीतर आता हो, उसे आंख के पर्दे पर पूरा का पूरा भीतर आ जाने दो। किंचित भी निंदा मत करना, क्योंकि जरा सी भी निंदा दबाने का कारण हो जाती है।


समझो कि एक कामवासना का विचार आया और तुमने कहा--बुरा है, पाप है। दमन शुरू हो गया। तुमने नहीं भी कहा बुरा है, पाप है; तुमने ऐसे देखा कि मजबूरी में देख रहे हो कि न देखते तो अच्छा था। तुमने भगवान से कहा, भगवान, यह क्या दिखला रहा है! बस दमन शुरू हो गया। निर्णय तुमने लिया--अच्छा कहा, बुरा कहा; शिकायत की, पश्चात्ताप किया, अपराध का भाव अनुभव किया--किसी तरह का मूल्यांकन किया और दमन शुरू हो गया।


तुम ऐसे ही देखो, जैसे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे तुम वृक्ष में लगे फूलों को देखते हो, या आकाश में उड़ते बादलों को देखते हो, या राह से चलते लोगों को देखते हो; कोई प्रयोजन नहीं है, चुपचाप देखते हो; जैसे तुम्हारा कुछ लेन-देन नहीं है--निष्पक्ष, दूर खड़े, साक्षी-भाव से--तब वृत्तियां अपने पूरे रूप में उभरती हैं।


घबड़ा मत जाना, क्योंकि जन्मों-जन्मों दबाया है। जब वे पूरे रूप में उभरेंगी तो तुम्हें ऐसा लगेगा--क्या मैं पागल हुआ जा रहा हूं? यह क्या हो रहा है? क्या सब मेरा नीति-धर्म नष्ट हो जाएगा? क्या मेरा सब चरित्र टूट जाएगा, खंडित हो जाएगा? क्या मैंने इतनी मुश्किल से, कठिनाई से अपनी जो प्रतिष्ठा बनाई है, वह सब धूल-धूसरित हो जाएगी?


घबड़ाना मत। यही साहस है। इसी साहस को मैं तपश्चर्या कहता हूं। धूप में खड़े होने में कोई साहस नहीं है, नग्न बर्फ में खड़े होने में भी कोई साहस नहीं है। सब शरीर की कसरतें हैं, थोड़े अभ्यास से आ जाती हैं। बड़े से बड़ा साहस--मैं भीतर जैसा हूं, वैसा ही देख लेने में है। और उसी से रूपांतरण हो जाता है, उसी से क्रांति घट जाती है।

तुम जरा देखो। यहां तुम देखना शुरू करोगे, अचानक तुम पाओगे कि स्वप्न के रास्ते खाली होने लगे। क्योंकि जो-जो तुम जागने में देख लोगे, फिर तुम्हारी आत्मा को स्वप्न में दिखाने का कोई प्रयोजन न रहा। जो तुमने ही देख लिया, उसे दिखाने की क्या जरूरत रही? स्वप्न खाली हो जाएंगे।


और काश, तुम्हारी रात स्वप्नों से खाली हो जाए, तो समाधि हो जाएगी। पतंजलि ने कहा है, सुषुप्ति और समाधि में जरा सा ही भेद है--बड़ा जरा सा भेद है--वह भेद इतना ही है कि सुषुप्ति मूर्च्छित है और समाधि जाग्रत है। जब सब स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं...


अभी तुमने खयाल किया--सुबह तुम उठ कर याद कर सकते हो, कोई स्वप्न आया; यह भी याद कर सकते हो कि रात, पूरी रात सपनों ही सपनों से भरी रही। तो तुम्हारे भीतर कोई होश तो है--जो सपने देखता है; जो सपनों को पहचानता है; जो सपनों की याद रखता है। अब तुम ऐसा सोचो कि सब सपने खो गए, तब तुम्हारा यह होश जो सपनों में अटक जाता था, सपनों को देखता था, अब समाधि को देखेगा। क्योंकि सपने तो रहे नहीं, रास्ते पर राहगीर तो रहे नहीं, सुनसान रास्ता रह गया; अब सुनसान रास्ता दिखाई पड़ेगा। सुबह जब तुम उठोगे, तो तुम कहोगे--सुषुप्ति देखी, स्वप्न नहीं देखा। 


भज गोविन्दम मूढ़मते 

ओशो 

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