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Sunday, March 19, 2017

प्रभु! तुम्हें रिझाऊं कैसे?






मीरा जैसा नृत्य न आया

कोयल जैसा कंठ न पाया

जम्बू जैसा ध्यान न ध्याया

तेरी महिमा इस जड़ वाणी से

समझाऊं कैसे

प्रभु, तुम्हें रिझाऊं कैसे?


अनेकांत! रिझाने की बात ही नहीं है, परमात्मा तुम पर रीझा ही हुआ है। न रीझा होता तो तुम होते ही नहीं। रीझा है इसलिए तुम हो। तुम्हें बनाया, इसी में उसने घोषणा कर दी है कि तुम पर रीझा है।


जब कोई बांसुरीवादक गीत गाता है तो गाता ही इसीलिए है कि उस गीत पर रीझा है। नहीं तो क्यों उठाएं बांसुरी, क्यों बजाएं बांसुरी। और जब कोई नर्तक पैर में घुंघरू बांध कर नाच उठता है तो साफ है कि रीझा है इस नृत्य को बिना नाचे नहीं रह सकता। परमात्मा तुम्हें नाच रहा है परमात्मा तुम्हें गा रहा है अनेकांत रीझाने का कोई सवाल नहीं है, परमात्मा तुम पर रीझा हुआ है। काश, तुम इस सत्य को समझ पाओ तो तुम्हारे जीवन से इसी क्षण अंधकार टूट जाए! जिस पर परमात्मा रीझा हुआ हो, उसे क्या चाहिए? परमात्मा ने जिसकी आंखों में काजल दिया हो और परमात्मा ने जिसके ओंठों को रंग दिया हो और परमात्मा ने जिसके अंग-अंग गढ़े हों, उसे और क्या चाहिए? जिसके रोएं-रोएं पर परमात्मा का हस्ताक्षर है, उसे और क्या चाहिए? यह सारा जगत् उसके रीझे होने की खबर दे रहा है।


अगर परमात्मा रीझा न हो अस्तित्व पर तो अस्तित्व कभी का समाप्त हो जाए। फिर श्वास कौन ले? फिर नए पत्ते क्यों फूटें? फिर नए बच्चे क्यों पैदा हों? फिर नए तारे क्यों जन्में? तुम यह चिंता छोड़ो कि परमात्मा को कैसे रिझाएं।


और इसलिए भी कहता हूं कि यह चिंता छोड़ो कि परमात्मा को किन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण नहीं रिझाया जाता। तुम क्या सोचते हो, मीरा इस देश की सबसे बड़ी नर्तकी थी, इसलिए रीझा पायी परमात्मा को? जो नृत्य-शास्त्र को जानते हैं उनसे पूछो। वे कहेंगे : बहुत नर्तकियां थीं, मीरा कोई बड़ी नर्तकी है? शायद ठीक-ठीक नाचना आता भी न होगा। ऐसे दीवानों को कहीं ठीक-ठीक नाचना आता है? ऐसे दीवाने कि उनके पैर ठीक-ठीक पड़ रहे हैं, इसका होश कौन रखेगा? तबले की थाप के साथ संगति बैठ रही कि नहीं, मीरा को इसका होश होगा?--जो कहती है, "लोक-लाज खोई', सब लोक-लाज खो कर जो नाची! जिसे अपने वस्त्रों का भी होश नहीं रहता था, उसे छंद, संगीत, मात्रा, ताल, लय इनका स्मरण रहता होगा?


नहीं; मीरा कोई बहुत बड़ी नर्तकी नहीं थी। नर्तकियां तो बहुत रही होंगी। राजाओं के जमाने थे, रजवाड़ों के दिन थे, हर दरबार में नर्तकियां थीं, बड़ी-बड़ी नर्तकियां थीं। सारे देश में नाचनेवालों का एक अलग जगत् था। संगीत की एक प्रतिष्ठा थी। क्या तुम सोचते हो मीरा के पास बड़ा मधुर कंठ था इसलिए परमात्मा को रीझा लिया? इन भूलों में मत पड़ना। परमात्मा रीझता है न तो मीरा के नृत्य के कारण, न गीत के कारण। परमात्मा तो रीझा ही हुआ है। इस सत्य को मीरा ने समझ लिया कि परमात्मा रीझा ही हुआ है; इस सत्य को समझने के कारण नाची, जी-भर कर नाची, आह्लादित हो कर नाची। कंठ फूट पड़ा हजार-हजार गीतों में। यह गीत अनगढ़ है। यह नृत्य भी अनगढ़ है। लेकिन यह भाव कि परमात्मा ने मुझे इस योग्य समझा कि बनाए, धन्यवाद के लिए पर्याप्त है।

क्कड़ों पर रीझा परमात्मा। फक्कड़पन चाहिए। भाव कि स्वच्छता, निर्मलता चाहिए। श्रद्धा चाहिए। किसी और गुण का स्वभाव नहीं है कि पी-एच० डी० हो कि डी० लिट० हो कि विश्वविद्यालय की डिग्री हो कि महावीर-चक्र मिला हो कि पद्मश्री कि भारत-रत्न, कुछ इस तरह की बातें हों। इन सब बातों से परमात्मा का कोई संबंध नहीं जुड़ता। परमात्मा तो इन पत्तों पर रीझा है, फूलों पर रीझा है, तितलियों पर रीझा है,  पत्थरों पर रीझा है। तुम पर न रीझेगा? परमात्मा तो रीझा ही हुआ है। तुम जरा हिम्मत जुटाओ। तुम ज़रा आंख खोलो। तुम ज़रा हिम्मत बांधो, साहस बांधो--इस बात को देखने का कि परमात्मा तुम पर रीझा हुआ है और तत्क्षण जोड़ हो जाएगा।
अनेकांत! मत पूछो--

प्रभु! तुझे रिझाऊं कैसे

मीरा जैसा नृत्य न आया. . . 

अच्छा ही है, नहीं तो एक नकली मीरा होती और। और अनेकांत जंचते भी नहीं नकली मीरा की हालत में। ज़रा गड़बड़ ही मालूम होती।

". . . कोयल जैसा कंठ न पाया. . .'


बड़ी कृपा है! आदमी होकर और कोयल जैसा कंठ होता तो अड़चन में पड़ते, जहां जाते वहीं अड़चन में पड़ते। कोयल का कंठ कोयल को ही ठीक है।


". . . जम्बू जैसा ध्यान न ध्याया 


तेरी महिमा इस जड़ वाणी से समझाऊं कैसे . . . '


तुम्हारा भाव समझ में आ रहा है। वाणी जड़ है और उस चैतन्य को नहीं समझा पाती। मगर वाणी ही तो नहीं है, मौन भी तो है तुम्हारे पास है! तुम मौन को गुनगुनाने दो, तुम मौन के नाद को उठने दो। और अगर तुमने मीरा का सोचा तो नकल हो जाएगी। महावीर का सोचा तो नकल हो जाएगी। मुहम्मद की सोची तो नकल हो जाएगी।


और इस दुनिया में नकल से बड़ी अड़चन हो गई है, सारे नकली लोग भरे हुए हैं। सारे जैन मुनि हैं, वे महावीर होने की कोशिश कर रहे हैं। अगर महावीर हो भी गए तो भी परमात्मा के द्वार पर इन्हें प्रवेश नहीं मिलेगा, क्योंकि एक महावीर काफी है। इतनी भीड़ क्या करेंगे महावीरों की लेकर? और ये सब नकली होंगे और ये सब थोथे होंगे, ऊपर-ऊपर होंगे। क्योंकि असली तो कभी भी किसी दूसरे की नकल नहीं होता। 


परमात्मा ने तुम्हें इतना गौरव दिया है, इतनी गरिमा दी है; तुम्हें एक आत्मा दी है--और तुम अनुकरण करोगे! आत्मा का अर्थ क्या होता है आत्मा का अर्थ होता है : जिसका अनुकरण नहीं किया जा सकता। वह विशिष्ट रूप से तुम्हारी है और बस तुम्हारी है; और किसी की न कभी थी और किसी की कभी होगी भी नहीं। तुम अद्वितीय हो, यही तो तुम्हारी आत्मा है। अगर तुम महावीर जैसे चलने लगे, उठने लगे, बैठने लगे तो सब थोथा हो जाएगा, सब झूठा हो जाएगा। और झूठ तो औपचारिक रहता है।

प्रेम रंग रस ओढ़ चदरिया 

ओशो

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