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Friday, March 24, 2017

आपने कहा, कामना अनिवार्यतः दुख में ले जाती है। तो क्या पुण्य की कामना, धर्म की कामना, भगवान की कामना भी दुख में ही ले जाएगी?





कामना मात्र दुख में ले जाती है; इससे कुछ भी भेद नहीं पड़ता कि कामना किसकी है। कामना के विषय से कामना का स्वरूप नहीं बदलता। धन चाहो, तो भी चाह वही है; धर्म चाहो, तो भी चाह वही है; चाह का स्वरूप वही है। चाह का अर्थ है कि तुम जहां हो, जैसे हो, वहां तृप्त नहीं--धन चाहिए तो तृप्त होओगे; धर्म चाहिए तो तृप्त होओगे। चाह का अर्थ है: तुम असंतुष्ट हो, अतृप्त हो। चाह, असंतोष से उठी हुई आह है। फिर असंतोष किस बात का है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। असंतोष है; संतोष नहीं है। कामना तुमने किसकी की है, इससे क्या फर्क पड़ता है? कुछ लोग जमीन पर अच्छा मकान बना रहे हैं, कुछ लोग स्वर्ग में अच्छा मकान बना रहे हैं!


मैं एक दिन राह से निकल रहा था, एक महिला मेरे पास आई और उसने मुझे एक पैंफ्लेट दिया। पैंफ्लेट में एक बड़ा सुंदर भवन बना हुआ था--बगीचा, फूल, झरने बह रहे हैं--और ऊपर लिखा है: क्या आपको एक अच्छे बंगले की तलाश है? मैंने सोचा, यह क्या मामला है! उसको उलट कर देखा, तो वह बंगला यहां का नहीं है, वह ईसाई मिशनरियों का प्रचार था। स्वर्ग में--जहां चश्मे बह रहे हैं, फूल लगे हैं, वृक्ष हैं--सुंदर बंगले बने हैं! अंदर लिखा था कि यदि ऐसे भवन आपको स्वर्ग में चाहिए, तो सिवाय जीसस के और कोई मार्ग नहीं। 


तुम स्वर्ग की भी कामना करोगे, तुम ही करोगे न? वह तुम्हारे ही मन का विस्तार होगा; तुम्हारी ही भाषा होगी; तुम्हारे ही रंग होंगे। तुम थोड़ा सोचो एक दिन बैठ कर कि स्वर्ग में तुम क्या-क्या चाहोगे। तुम जरा फेहरिस्त बनाओ। तुम बड़े हैरान होओगे, यह फेहरिस्त यहीं की है। रॉल्स रॉयस कार चाहोगे? क्या करोगे क्या? स्वर्ग में चाहोगे क्या? कौन सी फिल्म अभिनेत्री चाहोगे? ताजमहल चाहोगे वहां? थोड़ा फेहरिस्त बनाओ अपने स्वर्ग की। डरना मत, फाड़ देना; किसी को दिखाना थोड़े ही है, खुद ही बनाना है। लेकिन उससे यह जाहिर हो जाएगा कि तुम चाहोगे क्या।


अगर स्वर्ग देने को परमात्मा राजी हो और कहे कि लो, क्या मांगते हो--तुम क्या मांगोगे? वे मांगें बता देंगी कि तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे संसार का ही विस्तार है। थोड़ा साफ-सुथरा होगा यहां से, थोड़ा परिष्कृत होगा; यहां क्षणभंगुर है, वहां स्थायी होगा। मगर ये सब तो विस्तार के फासले हैं, इनमें कोई फर्क नहीं है। यहां अभिनेत्री थोड़े दिन में बूढ़ी हो जाएगी, वहां कभी न होगी। वहां कहते हैं, सोलह साल के बाद उम्र बढ़ती ही नहीं स्त्रियों की स्वर्ग में! सोलह पर ही रुक गई है! उर्वशी लाखों साल पहले भी सोलह की थी, अभी भी सोलह की है! तुम जब भी जाओगे, तभी सोलह की पाओगे।


इससे कुछ उर्वशी के संबंध में पता नहीं चलता, इससे मनुष्य की कामना का पता चलता है कि वह चाहता है स्त्री सोलह पर रुक जाए।


स्वर्ग में चश्मे बह रहे हैं शराब के! यहां पाबंदी लगाओ, क्या होगा? स्वर्ग में बोतलों में नहीं बिकती, झरने बह रहे हैं! मछलियों की तरह तैरो शराब में, जितना पीना हो पीयो, क्योंकि स्वर्ग में कोई पाबंदी हो सकती है? अगर वहां भी पाबंदी रही--नियम, विधि-विधान रहा और लाइसेंस लेना पड़ा--तो यह भी कोई स्वतंत्रता हुई, यह तो परतंत्रता ही रही। नहीं, वहां कोई पुलिसवाला भी खड़ा नहीं मिलता चौरस्ते पर।


स्वर्ग तुम्हारे ही सपनों का जाल है। तुम भगवान को भी चाहते हो--किसलिए? दुख के कारण? पीड़ा के कारण? अशांति के कारण? तो उसी कारण तो लोग धन को भी चाहते हैं; और उसी कारण तो लोग यश को भी चाहते हैं; और उसी कारण तो लोग पद को भी चाहते हैं। तो परमात्मा तुम्हारा समझो परम-पद हुआ। ऐसा तो कहते भी हैं तुम्हारे साधु-संन्यासी कि परमात्मा यानी परम-पद।


साधु-संन्यासियों की भाषा थोड़ी तुम समझो, तो तुम बड़े हैरान होओगे। उनकी भाषा का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण करना जरूरी है। वे कहते हैं, इस धन में क्या रखा है--आज छिन जाएगा, कल छिन जाएगा। अरे, उस धन को खोजो जो कभी न छिनेगा। लेकिन खोजो धन को ही।

तो यह तो बड़े मजे की बात हुई। जो इस धन को खोज रहे हैं, जो छिन जाएगा--ये भोगी, ये भ्रष्ट, ये पापी, ये नरक में पड़ेंगे; क्योंकि ये क्षणभंगुर धन को खोज रहे हैं। और जो शाश्वत धन को खोज रहे हैं--ये पुण्यात्मा, ये महात्मा! इन दोनों में फर्क क्या है?


इतना ही फर्क समझ में आता है कि क्षणभंगुर को खोजने वाला थोड़ा कम चालाक, शाश्वत को खोजने वाला ज्यादा होशियार, कुशल; ज्यादा बेईमान। जैसे छोटे बच्चे कंकड़-पत्थर बीन रहे हैं, तुम उनसे कहते हो--छोड़ो भी नासमझो, क्या कंकड़-पत्थर बीन रहे हो! अरे, अगर बीनना ही हो तो हीरे-जवाहरात। ये क्या कंकड़-पत्थर बीन रहे हो! तुम इतना ही बता रहे हो कि तुम जरा ज्यादा चालाक, तुम जरा सांसारिक हिसाब-किताब में ज्यादा होशियार हो गए हो; यह बच्चा अभी भोला-भाला है।


तुम जिनको सांसारिक कहते हो, उनको मैं देखता हूं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों से ज्यादा भोले-भाले हैं। बस इतना ही फर्क है। तुम्हारे साधु-संन्यासी ज्यादा बेईमान, ज्यादा चालाक। शाश्वत, अमृत, अनंत की खोज चल रही है। कामना? कामना वही है।

जो मैं कह रहा हूं, वह बड़ी भिन्न बात है; जो शंकर कह रहे हैं, वह बड़ी भिन्न बात है; जो बुद्ध कह रहे हैं, वह बड़ी भिन्न बात है। वे तुमसे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम सत्य की कामना करो, कि तुम परमात्मा की कामना करो। वे यह कह रहे हैं कि जब सब कामना छूट जाती है तो परमात्मा मिलता है।

यह बड़ी अलग बात है। जब सब कामना छूट जाती है तो परमात्मा मिलता है। इसलिए परमात्मा को पाने की कामना तो की ही नहीं जा सकती, क्योंकि तब तो वही बाधा हो जाएगी। जब सब कामना--बेशर्त रूप से सब कामना छूट जाती है--जब कामना नहीं रह जाती मन में, जब काम नहीं रह जाता, तब जो शेष बचता है वही राम है। इसलिए राम को कोई चाह नहीं सकता। चाह छोड़ सकता है, राम को पा सकता है, लेकिन राम को चाह नहीं सकता। चाहा कि भूल हो गई। 


सौदागरी नहीं, ये इबादत खुदा की है
ऐ बेखबर, जजा की तमन्ना भी छोड़ दे


यह कोई सौदा नहीं है, यह कोई सौदागरी नहीं है, इबादत खुदा की है। ऐ बेखबर, ऐ बेहोश आदमी, जजा की तमन्ना भी छोड़ दे। इसके प्रतिकार में कुछ मिलेगा, यह आशा छोड़ दे। क्योंकि इसके प्रतिकार में कुछ मिले, प्रत्युत्तर में कुछ मिले, जजा की तमन्ना रहे, तो कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि फिर तो तू परमात्मा को समझ ही न पाया। 


कामना छूट जाने का परिणाम है परमात्मा। कामना छोड़ने से मिलता नहीं, मिल जाता है। इसलिए तुम पाने के लिए भी अगर इस तरह सब कामना छोड़ो...तुम यह भी कर सकते हो कि अच्छा, परमात्मा की भी कामना छोड़ देंगे; अगर इसी तरह मिलता है, तो यह कामना भी छोड़ देंगे, मगर पाकर रहेंगे। तो तुम्हें न मिलेगा; तो तुम चूक जाओगे। तुम समझे ही नहीं बात। तुम इसे आधार नहीं बना सकते दावे का; तुम दावेदार नहीं हो सकते। यह कोई सौदागरी नहीं है, इबादत है खुदा की।


भज गोविन्दम मूढ़मते 

ओशो 

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