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Friday, March 10, 2017

अवधूत की परमदशा

एक जन्म मिलता है मां से, फिर उस जन्म के साथ आई हुई निर्दोंषता कोमलता, पवित्रता सब खो जाती है: समाज की भीड़ में, ऊहापोह में, संसार के जंजाल में। बेईमानी सीखनी पड़ती है, धोखा-घड़ी सीखनी पड़ती है, अविश्वास सीखना पड़ता है। तो जिस श्रद्धा को लेकर मनुष्य पैदा होता है, वह धूमिल हो जाती है। फिर उस धूमिल दर्पण में परमात्मा की छबि नहीं बनती। और हजार-हजार विचारों की तरंगें--छबि बिखर-बिखर जाती है। जैसे कभी तरंगें उठी झील में चांद का प्रतिबिंब बनता है; तो बन नहीं पाता; लहरों में टूट जाता है; बिखर जाता है। पूरी झील पर चांदी फैल जाती है। लेकिन चांद कहां है, कैसा है यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है।


झील चाहिए शांत, झील चाहिए निर्मल, तो चांद का मुखड़ा दिखाई पड़ता है। ऐसा ही जब चित्त की झील निर्मल होती है, तो परमात्मा का रूप दिखाई पड़ता है।


परमात्मा को जाने के लिए शास्त्र की जानकारी नहीं। शब्द से मुक्ति चाहिए। और परमात्मा को जानने के लिए बहुत गणित और तर्क नहीं--निर्दोष मन चाहिए; फिर से एक जन्म चाहिए।


सारा योग, सारी भक्ति, सारे ध्यान इतना ही करते हैं कि जो गंदगी और जो कचरा समाज तुम पर जमा देते हैं, उसे हटा देते हैं। उनका प्रयोग नकारात्मक है।


योग या भक्ति तुम्हें कुछ देते नहीं, समाज ने जो दे दिया है, उसे छीन लेते हैं। तुम फिर वैसे के वैसे हो जाते हो, जैसा तुम्हें होना था।


तो निश्चित ही अवधूत की परमदशा में न तो कुछ पुण्य बचता है, न कोई पाप बचा है। अवधूत की परमदशा में तो फिर से बालपन लौटा। और यह बालपन गहरा है--पहले बालपन से ज्यादा गहरा है। क्योंकि पहला बालपन अगर बहुत गहरा होता, तो नष्ट न हो सकता था। नष्ट हो गया। संसार के झंझावात ने झेल सका। कच्चा था; अप्रौढ़ था। सरल तो था, लेकिन बुनियाद बहुत मजबूत न थी उस सरलता की। जरा से हवा के झोंके आये और झील कंप गई। जरा मुसीबतें आई और चित्त उद्विग्न हो गया। वृक्ष तो था, लेकिन जड़ें नहीं थी बहुत गहरी, तो जरा-जरा से हवा के झोंके उसे उखाड़ गये।


दूसरा जो बचपन है, वह ज्यादा गहरा होगा, क्योंकि स्वयं उपलब्ध किया हुआ होगा; जागरूक होगा। दूसरा जो बचपन है, उसी को हमने इस देश में द्विज कहा है--दूसरा जन्म।


दुनिया में दो तरह के लोग हैं, और यह बंटवारा बहुत महत्वपूर्ण है। एक तो वे, जो एक ही बार जन्मते हैं; उनको ही पारिभाषिक अर्थों में शूद्र कहा जाता है--जो एक ही बार जन्में हैं; जिन्होंने पहले बचपन को ही सब मान लिया और समाप्त हो गये और जिन्होंने दुबारा जन्म लेने की कोई चेष्टा न की।

जो दुबारा जन्म लेता है – द्विज --टवाइस--वही ब्राह्मण है; वही ब्रह्म को पाने का हकदार है।


कन थोड़े कांकर घने (संत मलूकदास)

ओशो 

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