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Friday, October 9, 2015

मुखोटे

सुना है मैंने कि फकीर नसरुद्दीन के गांव में उस देश का सम्राट आने वाला था। तो गांव में कोई इतना बुद्धिमान आदमी नहीं था, जितना कि नसरुद्दीन। तो लोगों ने कहा कि तुम्हीं गांव की तरफ से उनसे मिल लेना, क्योंकि दरबारी शिष्टता, सदाचार का हमें कुछ पता नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, मुझे ही कहां पता है! अधिकारियों ने कहा, घबड़ाओ मत, हम राजा को प्रश्न भी समझा देंगे कि वह तुमसे क्या पूछे और तुम्हें जवाब भी समझा देते हैं कि तुम क्या जवाब दो; फिर कोई दिक्कत न रहेगी। नसरुद्दीन ने कहा कि बिलकुल ठीक है।

सब बना हुआ खेल था। राजा को समझा दिया गया था कि गरीब गांव है, बेपढ़े-लिखे लोग हैं। एक नसरुद्दीन भर है, जो थोड़ा-सा लिख-पढ़ लेता है। तो यही सवाल पूछना, क्योंकि इसी के जवाब उसने तैयार कर रखे हैं। और कोई सवाल मत पूछना।

लेकिन बड़ी गड़बड़ हो गई। सम्राट ने पूछा…नसरुद्दीन को सिखाया था कि तेरी उम्र कितनी है? नसरुद्दीन की जितनी उम्र थी, साठ वर्ष, उसने तय कर रखा था। सम्राट को पूछना था कि तू कितने दिन से धर्म के अध्ययन और साधना में लगा है? तो पंद्रह वर्ष, उसने याद कर रखा था। लेकिन सब गड़बड़ हो गया।

सम्राट ने पूछा, तेरी उम्र कितनी है? नसरुद्दीन ने कहा, पंद्रह वर्ष। थोड़ा सम्राट हैरान हुआ। साठ साल का बूढ़ा था, लेकिन पंद्रह वर्ष कह रहा था। फिर उसने पूछा कि और तुम धर्म की साधना में कितने दिन से लगे हो? नसरुद्दीन ने कहा, साठ वर्ष। सम्राट ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो? नसरुद्दीन ने कहा, वही मैं सोच रहा हूं कि आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि मुझे जिस क्रम में समझाया गया था, मालूम होता है कि तुम्हें किसी और क्रम में समझाया गया है। तुम भी रटे-रटाए सवाल पूछ रहे हो, मैं भी रटे-रटाए जवाब दे रहा हूं। बीच का आदमी गड़बड़ कर गया।

बड़ी मुश्किल हो गई। पूरा गांव इकट्ठा था। दरबारी इकट्ठे थे। अब क्या हो? नसरुद्दीन ने कहा, ऐसा करें, तुम यह राजा होने का जरा नकाब उतार लो, और मैं बुद्धिमान होने का नकाब उतार लूं। फिर हम दोनों बैठकर दिल खोलकर बात करें, तो कुछ मजा आए। यह चेहरा तुम जरा अलग कर दो सम्राट होने का, और मैं भी चेहरा अलग कर दूं बुद्धिमान होने का। इसी में सब गड़बड़ हो गई। ये चेहरे दिक्कत दे रहे हैं।

पता नहीं, वह सम्राट समझा या नहीं। नसरुद्दीन तो मजाक कर रहा था। वह सच में ही बुद्धिमान लोगों में से एक था। नसरुद्दीन ने कहा कि अच्छा न हो कि हम आदमी आदमी की तरह बैठकर बात कर लें! ये चेहरे अलग कर दें। सम्राट को बड़ा कठिन पड़ा होगा। सम्राट जैसा चेहरा उतारना बड़ा मुश्किल होता है। सम्राट का चेहरा उतारना तो दूर है, भिखारी को भी अपना चेहरा उतारना मुश्किल होता है; फिक्स्ड हो जाता है सब; बंध जाता है।

अमेरिका में एक बहुत बड़ा अरबपति था, रथचाइल्ड। एक दिन एक भिखारी भीतर घुस गया उसके मकान के और जोर-शोर से शोरगुल करने लगा कि मुझे कुछ मिलना ही चाहिए। बिना लिए मैं जाऊंगा नहीं। जितना दरबानों ने अलग करने की कोशिश की, उतनी उछलकूद मचा दी। आवाज उसकी इतनी थी कि रथचाइल्ड के कमरे तक पहुंच गई। वह निकलकर बाहर आया। उसने उसे पांच डालर भेंट किए और कहा कि सुन, अगर तूने शोरगुल न मचाया होता, तो मैं तुझे बीस डालर देने वाला था।

मालूम है उस भिखमंगे ने क्या कहा? उसने कहा, महानुभाव, अपनी सलाह अपने पास रखिए। आप बैंकर हो, मैं आपको बैंकिंग की सलाह नहीं देता। मैं जन्मजात भिखारी हूं, कृपा करके भिक्षा के संबंध में मुझे कोई सलाह मत दीजिए।

रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि उस दिन मैंने पहली दफा देखा कि भिखारी का भी अपना चेहरा है। वह कहता है, जन्मजात भिखारी हूं! मैं कोई छोटा साधारण भिखारी नहीं हूं ऐसा ऐरा-गैरा, कि अभी-अभी सीख गया हूं। जन्मजात हूं। और तुम बड़े बैंकर हो, मैं तुम्हें सलाह नहीं देता बैंकिंग के बाबत। कृपा करके तुम भी मुझे भीख मांगने के बाबत सलाह मत दो। मैं अपनी कला अच्छी तरह जानता हूं।

रथचाइल्ड ने लिखा है अपनी आत्मकथा में कि उस दिन मैंने उस भिखारी को गौर से देखा और मैंने पाया कि सम्राटों के ही चेहरे नहीं होते; भिखारियों के भी अपने चेहरे हैं।

लेकिन भिखारी भी एक ही चेहरा लेकर नहीं चलता। जब वह अपनी पत्नी के पास पहुंचता है, तो चेहरा बदलता है। जब अपने बेटे के पास जाता है, तो चेहरा बदल लेता है। जब पैसे वाले के पास से निकलता है, तो चेहरा और होता है। जब गरीब के पास से निकलता है, तो चेहरा और होता है। जिससे मिल सकता है, उसके पास चेहरा और होता है। जिससे नहीं मिल सकता है, उसके पास चेहरा और होता है। उसके पास भी एक फ्लेक्सिबल, एक लोचपूर्ण व्यक्तित्व है, जिसमें वह चेहरे अपने बदलता रहता है।

ये चेहरे हमें बदलने इसलिए पड़ते हैं, क्योंकि हमारे भीतर अपना कोई चेहरा नहीं है, कोई ओरिजिनल फेस नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, स्थिर बुद्धि हुई जिसकी, ऐसा व्यक्ति ही मुझे जान पाता है।

परमात्मा के पास झूठे चेहरे लेकर नहीं जाया जा सकता। हां, कोई चाहे तो बिना चेहरे के भला पहुंच जाए; लेकिन झूठे चेहरों के साथ नहीं जा सकता। पर बिना चेहरे के वही जा सकता है, जिसके पास भीतर एक युक्त आत्मा हो। तब शरीर के चेहरों की जरूरत नहीं रह जाती।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि हम सब झूठे चेहरे लगाकर जीते हैं। हमें अच्छी तरह पता है कि हम झूठे चेहरे लगाकर जिंदगी में जीते हैं। और हमारे पास कई चेहरे हैं, हमारे पास एक व्यक्तित्व नहीं, एक आत्मा नहीं।
महावीर ने कहा है, मल्टी-साइकिक, बहुचित्तवान है आदमी। बहुत चित्त हैं उसके भीतर। यह मल्टी-साइकिक शब्द तो अभी जुंग ने विकसित किया, लेकिन महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले जो शब्द उपयोग किया है, वह ठीक यही है। वह शब्द है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त वाला है आदमी।

कृष्ण भी वही कह रहे हैं कि जब वह एक चित्त वाला हो जाए, तभी मुझ तक आ सकता है; उसके पहले मुझे न जान पाएगा।

हम दूसरे को तो धोखा देते हैं, लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि हमें कभी यह खयाल नहीं आता है कि दूसरे भी ऐसे ही चेहरे लगाकर हमें धोखे दे रहे हैं। और हम चेहरों के एक बाजार में हैं, जहां आदमी को खोजना बहुत मुश्किल है। जब हम हाथ बढ़ाते हैं, तो हमारा एक चेहरा हाथ बढ़ाता है; दूसरी तरफ से भी जो हाथ आता है, वह भी एक चेहरे का हाथ है। सिर्फ इमेजेज, प्रतिमाएं मिलती हैं; आदमी नहीं मिलते। मुलाकात अभिनय में होती है; मुलाकात प्राणों की नहीं होती। बातचीत दो यंत्रों में होती है–सधे-सधाए, रटे-रटाए जवाब-सवालों में। भीतर की आत्मा का सहज आविर्भाव नहीं होता। लेकिन हम खुद अपने को धोखा देते-देते इतने धोखे में डूब गए होते हैं कि यह खयाल ही नहीं होता कि दूसरे लोग भी ऐसा ही धोखा दे रहे हैं।

गीता दर्शन 

ओशो

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