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Sunday, October 18, 2015

कुछ सूत्र समझ लें....

पहला सूत्र है वर्तमान में जीना, लिविंग इन दि प्रेजेंट। अतीत और भविष्य के चिंतन की यांत्रिक धारा में इन दिनों न बहे। उसके कारण वर्तमान का जीवित क्षण, लिविंग मोमेंट व्यर्थ ही निकल जाता है जब कि केवल वही वास्तविक है। न अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की। एक स्मृति में है, एक कल्पना में। वास्तविक और जीवित क्षण केवल वर्तमान है। सत्य को यदि जाना जा सकता है तो केवल वर्तमान में होकर ही जाना जा सकता है। साधना के इन दिनों में स्मरणपूर्वक अतीत और भविष्य से अपने को मुक्त रखें। समझें कि वे हैं ही नहीं। जो क्षण पास है-जिसमें आप हैं, बस वही है। उसमें और उसे परिपूर्णता से जी लेना है।

दूसरा सूत्र है सहजता से जीना। मनुष्य का सारा व्यवहार कृत्रिम और औपचारिक है। एक मिथ्या आवरण हम अपने पर सदा ओढ़े रहते हैं। और इस आवरण के कारण हमें अपनी वास्तविकता धीरे- धीरे विस्मृत ही हो जाती है। इस झूठी खाल को निकाल कर अलग रख देना है। नाटक करने नहीं, स्वयं को जानने और देखने हम यहां एकत्रित हुए हैं। नाटक के बाद नाटक के पात्र जैसे अपनी नाटकीय वेशभूषा को उतार कर रख देते हैं, ऐसे ही आप भी इन दिनों में अपने मिथ्या चेहरों को उतार कर रख दें। वह जो आप में मौलिक है और सहज है- उसे प्रकट होने दें और उसमें जीएं। सरल और सहज जीवन में ही साधना विकसित होती है।

 तीसरा सूत्र है अकेले जीना। साधना का जीवन अत्यंत अकेलेपन में, एकाकीपन में जन्म पाता है। पर मनुष्य साधारणत: कभी भी अकेला नहीं होता है। वह सदा दूसरों से घिरा रहता है और बाहर भीड़ में न हो तो भीतर भीड़ में होता है। इस भीड़ को विसर्जित कर देना है। भीतर भीड़ को इकट्ठी न होने दें और बाहर भी ऐसे जीएं कि जैसे इस शिविर में आप अकेले ही हैं। किसी दूसरे से कोई संबंध नहीं रखना है।

संबंधों में हम उसे भूल गए हैं जो कि हम स्वयं हैं। आप किसी के मित्र हैं या कि शत्रु हैं, पिता हैं या कि पुत्र हैं, पति हैं या कि पत्नी है-ये संबंध आपको इतने घेरे हुए हैं कि आप स्वयं को अपनी निजता में नहीं जान पाते हैं। क्या आपने कभी कल्पना की है कि आप अपने संबंध से भिन्न कौन हैं? क्या आपने अपने आप को अपने संबंधों के वस्त्रों से भिन्न करके भी कभी देखा है? सब संबंधों, रिलेशनशिप्स से अपने को ऋण कर लें। समझें कि आप अपने मां-बाप के पुत्र नहीं हैं, अपनी पत्नी के पति नहीं हैं, अपने बच्चों के पिता नहीं हैं, मित्रों के मित्र नहीं हैं, शत्रुओं के शत्रु नहीं हैं और तब जो शेष बच रहता है, जानें कि वही आपका वास्तविक होना है। वह शेष सत्ता ही अपने आप में आप, यू-इन योरसेल्फ हैं। उसमें ही हमें इन दिनों जीना है।

साधनापथ 

ओशो 

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