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Saturday, October 10, 2015

फल की इच्छा वाला पुरुष


फल की इच्छा वाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धृति राजसी है। फल की इच्छा वाला पुरुष.।

वह धर्म भी करता है, प्रार्थना भी, पूजा भी, तो भी फल की इच्छा से करता है। यश करता है, दान करता है, वह भी फल की आकांक्षा से करता है। वह सब करता है, लेकिन आकांक्षा फल की होती है, समझते हुए, जानते हुए कि फल की आकांक्षा से कोई कभी सुख को उपलब्ध नहीं होता।

फल की आकांक्षा दुख में ले जाती है। फल की आकांक्षा विषाद में ले जाती है। क्योंकि एक तो सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम्हारी आकांक्षा कभी पूरी नहीं होती, इसलिए दुख होता है। और अगर कभी पूरी भी हो जाए, तो सुख नहीं होता, क्योंकि जैसे ही पूरी होती है, फल की आकांक्षा आगे बढ़ जाती है। वह क्षितिज की भांति है। उसे तुम कभी छू नहीं पाते। वह सदा दूर ही दूर रहती है। तुम कभी पहुंच नहीं पाते, उपलब्ध नहीं हो पाते।

कितना ही धन हो, दरिद्रता नहीं मिटती। कितना ही बड़ा पद हो, और पद की आकांक्षा नहीं मिटती। कितनी ही जीवन में सुखसुविधा हो, और सुखसुविधा की दौड़ समाप्त नहीं होती। और अनुपात हमेशा वही रहता है।

एक भिखमंगा है। उसके पास एक पैसा है। वह दस पैसे की कामना करता है। एक करोड़पति है। उसके पास एक करोड़ रुपया है। वह दस करोड़ की आकांक्षा करता है। दोनों का अनुपात बराबर है। दोनों का दुख बराबर है। एक जिसके पास है, वह दस की आकांक्षा कर रहा है। नौ की कमी खल रही है। भिखमंगा भी उतने ही दुख में मर रहा है, जितना कि करोड़पति मर रहा है।

भिखमंगा मरे, समझ में आता है। करोड़पति क्यों दुख में मरा जा रहा है गुर अनुपात वही है। लोगों के पास धन बढ़ जाता है, लेकिन दरिद्रता नहीं मिटती, दीनता नहीं मिटती। 

फलाकांक्षा दुख देती है। सब फलाकांक्षाएं अंततः विषाद में ले जाती हैं, हाथ में कुछ आता नहीं, हाथ खाली रह जाता है; तो भी राजसी व्यक्ति पकड़े रहता है।

और हे पार्थ, ध्यानयोग के द्वारा अव्यभिचारिणी धृति अर्थात धारणा से मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्विकी है।

जहां अव्यभिचारिणी ध्यान या धृति पैदा हो जाए..।

जब तुम शांत बैठते हो, तब भी मन का व्यभिचार चलता रहता है। तुम शांत बैठे हो, मन हजार यात्राएं करता है। तुम चुप बैठना चाहते हो, मन बोले ही चला जाता है। तुम रुकना चाहते हो, मन रुकता नहीं। यह मन का व्यभिचार है, यह बलात्कार है। और तुम मन के बलात्कार को सहे चले जाते हो। न केवल सहे जाते हो, सहयोग दिए जाते हो।

इस सहयोग को हटा लो। एकदम से बलात्कार न रुक जाएगा मन का। यह व्यभिचार बड़ा पुराना है, जन्मों जन्मों का है। इसकी बड़ी गहरी गांठें हैं। नदी की धार बन गई है। पानी बहाओगे, वहीं से बहेगा। लेकिन टूट जाता है। टूट जाती हैं धारें पुरानी और एक ऐसी घड़ी भी आ जाती है कि कुंआरी चेतना पैदा होती है।

मन व्यभिचारिणी स्थिति है। कितने विचार! कितना व्यभिचार! मन एक बाजार की तरह है, एक पागलखाना, जहां कितनी आवाजें एक साथ गंज रही हैं! कृष्ण कहते हैं, ध्यानयोग के द्वारा जो अव्यभिचारिणी धृति को उपलब्ध हो जाता है।

ऐसी धारणा जो शुद्ध है, कुंआरी है, जिसमें विचार का व्यभिचार नहीं है, निर्विचार है। और जो निर्विचार है, वही निर्विकार है। और जहां विचार की तरंग नहीं उठती, वहीं कुंआरापन है। वहां शुद्धतम चैतन्य की अवस्था है।
ऐसी धारणा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करती है, लेकिन व्यभिचारित नहीं होती। ऐसी धृति मन को चलाती है, मन द्वारा नहीं चलती। ऐसी धृति हाथ, पैर, इंद्रियों को चलाती है, इंद्रियों के द्वारा चलती नहीं। इंद्रियां मालिक नहीं रह जातीं। ऐसी कुंआरी धृति मालिक हो जाती है। यही स्वामित्व है।

इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहे हैं। वह सत्व की दशा है। वह संन्यासी की मंजिल है, कि वह स्वामित्व को उपलब्ध हो जाए; वह कुंआरी धारणा को उपलब्ध हो जाए। इसलिए ध्यान पर इतना जोर है। गैर ध्यान की अवस्था संसार है। ध्यान संन्यास है।

गीता दर्शन 

ओशो 

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