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Sunday, October 18, 2015

कर्म का सिद्धांत

अगर आप एक विचार को बहुत बार दोहराते रहे हैं, तो उसकी एक तंद्रा आपके आस पास निर्मित हो जाती है, वह सम्मोहन है। और बुरा आदमी अपने को सम्मोहित किए रहता है भले विचारों से, हर्ष को उपलब्ध होऊंगा, दान करूंगा……।

सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जब मरा, तो उसने वसीयत लिखी। जब वह वसीयत लिखवा रहा था, उसने कहा कि इतना मेरी पत्नी को, इतना मेरे बेटे को, इतना मेरी बेटी को। संपत्ति का विभाजन किया कि आधा मेरी पत्नी को, फिर आधे का आधा मेरे बेटे को, फिर उसके आधे का आधा लड़की को…..। यह सब बांटकर और उसने कहा कि अब जो भी बचे, वह गरीबों को।

वह जो वकील लिख रहा था, उसने कहा कि बचता तो अब इसमें कुछ भी नहीं है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि बचने का सवाल ही नहीं है, वह तो मुझे पता है। है तो मेरे पास कुछ भी नहीं, इसीलिए तो कह रहा हूं आधा मेरी पत्नी को, संख्या नहीं लिखवा रहा हूं। है तो कुछ भी नहीं। मिलनो तो पत्नी को भी कुछ नहीं है, बेटे को भी, लेकिन मरते वक्त अच्छे खयाल…। और फिर जो बच जाए वह गरीबों को! और कहा है धर्मशास्त्रों में कि अच्छे खयालों से जो मरता है, वह अच्छे लोक को उपलब्ध होता है। यह तो अच्छे खयाल की बात है।

बुरा आदमी निरंतर अच्छे खयाल सोचता रहता है। और एक तंद्रा निर्मित करता है अपने आस पास। बार बार पुनरुक्त करने से सुझाव भीतर बैठ जाते हैं। वह सोचता है, हर्ष को प्राप्त होऊंगा, दान दूंगा, यज्ञ करूंगा। लेकिन यह सब भविष्य, करूंगा। करता नहीं। करता इनके विपरीत है, छीनता है।

अगर आप चोरी करने जा रहे हों, और चोरी करते वक्त आप सोचें कि हर्ज क्या है, अमीर से छीन रहा हूं गरीब को बांट दूंगा, दान करूंगा। तो चोरी का पाप और जो दंश है, वह मिट जाता है। फिर आपको लगता है कि आप एक काम, एक धार्मिक काम ही कर रहे हैं। अमीर से छीन रहे हैं, गरीब को देंगे।

छीन आप अभी रहे हैं, देने की बात कल्पना में है। वह देना कभी होने वाला नहीं है। क्योंकि छीनने वाला चित्त देगा कैसे? वह मौका लगेगा तो गरीब से भी छीन लेगा। सोचेगा, और भी गरीब हैं इससे ज्यादा, उनको दूंगा। और आखिर में वह पाएगा, अपने से ज्यादा गरीब कोई भी नहीं है। इसलिए जितना छीन लिया, उसे अपने काम में ले आना चाहिए।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने पड़ोसी के घर में गया, और उसने कहा कि क्या आप कुछ विचार करेंगे! एक की विधवा, जो दस साल से मकान में रह रही है और दस साल से किराया नहीं चुका पाई है। और किराया चुकाने का कोई उपाय भी नहीं है। आज उसे उसका मकान मालिक मकान के बाहर निकाल रहा है। कुछ सहायता करें। तो जिससे उसने सहायता मागी थी, सोचकर कि यह बूढ़ा आदमी बेचारा उस वृद्धा की सहायता के लिए आया है, उसने कहा, जो भी आप कहें, मैं सहायता करूंगा। कुछ रुपए उसने दिए। और उसने कहा, मित्रों को भी कहूंगा। लेकिन आप कौन हैं उस वृद्धा के? बड़े दयालु मालूम पड़ते हैं।

नसरुद्दीन ने कहा, मैं! मैं मकान मालिक हूं। दस साल से वृद्धा बिना किराया दिए रह रही है।

वह सोच रहा है कि वृद्धा की सहायता करने चला है!

यह जो हमारा चित्त है, यह बड़े प्रवंचक नुस्खे जानता है और उनके उपयोग करता है। और बहुत दिन उपयोग करने पर आपको उनका पता भी चलना बंद हो जाता है।

वे अनेक प्रकार से अमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय भोगों में अत्यंत आसक्त हुए अपवित्र नरक में गिरते हैं।

नरक से कुछ अर्थ नहीं है कि कहीं कोई पाताल में छिपा हुआ कोई पीड़ागृह है, जहां उनको गिरा दिया जाता है। ये केवल प्रतीक हैं। ऐसी भावनाओं में जीने वाला व्यक्ति नरक में गिर ही गया। वह नरक में जीता ही है। उसके भीतर प्रतिपल आग जलती रहती है विषाद की, दुख की, पीड़ा की। उसका संताप गहन है। क्योंकि जिसने कभी सुख न बांटा हो, उसे सुख नहीं मिल सकता। और जिसने सदा दुख ही बांटा हो, उसे दुख ही घनीभूत होकर मिलता है। वह दुख उस पर बरसता रहता है। उस दुख की वर्षा ही नरक है।

जो हम देते हैं, वह हमारे पास अनतगुना होकर लौट आता है। फिर हम सुख दें तो, हम दुख दें तो। हम वही अर्जित कर लेते हैं, जो हम बांटते हैं।

ऐसा व्यक्ति, जो दुख देता है और सुख देने की केवल कल्पना करता है, वह दुख पाता है और सुख की केवल आशा कर सकता है। उसे सुख मिल नहीं सकता। हमारे वास्तविक कृत्य ही हमारे जीवन में परिणाम लाते हैं, वे हमारी निष्पत्तिया हैं। जो हम करते हैं, वही हमारी निष्पत्ति बनता है।

अगर आप दुख पा रहे हैं, तो आप निरंतर ऐसा ही सोचते हैं कि लोग बहुत बुरे हैं, इसलिए दुख दे रहे हैं। आप दुख इसलिए पा रहे हैं कि दुख आपने बांटा है आज, पीछे, कल और पीछे कल। आप वही पा रहे हैं, जो आपने बांटा है।
बुद्ध को किसी पागल आदमी ने मारने की, हत्या करने की कोशिश की, एक पागल हाथी उनके ऊपर छोड़ा। एक पहाड़ के नीचे बैठकर ध्यान करते थे, तो चट्टान ऊपर से सरकाई।

बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध को कहा कि यह आदमी महान दुष्ट है। बुद्ध ने कहा, ऐसा मत कहो। मैंने उसे कभी कोई दुख दिया होगा, वही दुख मुझ पर वापस लौट रहा है। और मैं इस खाते को बंद कर देना चाहता हूं। इसलिए उसे चट्टान गिराने दो; उसे पागल हाथी छोड़ने दो, और मैं कोई प्रतिक्रिया न करूं, मैं कुछ भी न कहूं इस संबंध में अब, अब इस चीज को आगे बढ़ाना नहीं है। क्योंकि इतना भी मैं कहूं कि वह दुष्ट है, तो फिर मैं उसे दुख देने का उपाय कर रहा हूं। यह बात भी उसको चोट पहुंचाएगी कि दुष्ट है, ऐसा मैंने कहा। यह बात भी उसको काटा बनेगी, फिर इसका प्रतिफल होगा। तो वह जो कर रहा है, वह मैंने कुछ किया होगा, उसका प्रतिफल है। और इस खाते को मैं यहीं समाप्त कर देना चाहता हूं। यह किताब अब बंद कर देनी है। उसे कर लेने दो। और मैं अब कुछ भी न करूंगा, कोई भी प्रतिक्रिया, ताकि आगे के लिए कोई भी लेन देन निर्मित न हो।

जब भी हमें दुख मिलता है, हम् सोचते हैं, लोग हमें दुख दे रहे हैं। वह हमारी भ्रांति है। कोई आपको क्यों दुख देने चला? किसी को क्या प्रयोजन है? किसको फुरसत है? लोगों को अपना जीवन जीना है कि आपको दुख देने का उपाय करना है?

नहीं, कहीं कोई आपने निर्मिति की है; कहीं कोई प्रतिध्वनि आपने फेंकी थी, वह आज वापस लौट रही है। उसे इस भाति जो चुपचाप स्वीकार कर लेता है, उसके दुखों के जो अतीत के बोझ हैं, वे कट जाते हैं और नए बोझ निर्मित नहीं होते।

और अगर कभी आपको कोई सुख मिलता है, तो भी आप जानना कि आपने कोई सुख बांटा होगा, जाने या अनजाने, उसका प्रतिफल है।

अगर हम अपने सुखों और दुखों को अपने ही कर्मों का प्रतिफल समझ लें, तो कर्म का सिद्धात हमारी समझ में आ गया। 

कर्म का सिद्धांत बस सार में इतना ही है कि मुझे वही मिलता है, जो मैंने किया है। मैं वही फसल काटता हूं जो मैंने बोई है; अन्यथा कुछ भी हो नहीं सकता।


ऐसी चित्त की दशा बनती चली जाए, तो आप धीरे धीरे आसुरी संपदा से मुक्त होकर दैवी संपदा में प्रवेश कर जाएंगे। इससे विपरीत अपने को आप आदत बनाते रहें, तो आसुरी संपदा में धीरे धीरे थिर हो जाएंगे। ऐसे थिर हो गए लोग, कृष्ण कहते हैं, महानरक में गिर जाते हैं।

गीता दर्शन 

ओशो 

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