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Monday, October 3, 2016

आनंद ही ब्रह्म है

आइंस्टीन ने कहा कि यह जगत सीमित नहीं है, यह फैल रहा है। जैसे जब आप श्वास भीतर लेते हैं, तो आपकी छाती फैलती है, ऐसा यह जगत फैलता ही चला जा रहा है। इसके फैलाव का कोई अंत नहीं मालूम होता। बड़ी तीव्र गति से जगत बड़ा होता चला जा रहा है।

मगर भारत में यह धारणा बड़ी प्राचीन है। हमने तो परम—सत्य के लिए ब्रह्म नाम ही दिया है। ब्रह्म का अर्थ है, जो फैलता ही चला जाता है, इनफिनिटली एक्सपेंडिंग। जिसका कहीं अंत नहीं आता, जहां वह रुक जाए, जहां उसका विकास ठहर जाए। और ब्रह्म के स्वभाव को हमने आनंद कहा है। आनंद विस्तीर्ण होती हुई घटना है। आनंद ही ब्रह्म है।

तो जिस दिन तुम्हारे जीवन में आनंद की घटना घटेगी, उस दिन तुम कृपण न रह जाओगे। कृपण तो सिर्फ दुखी लोग होते हैं। इसे थोड़ा समझ लेना, यह सभी अर्थों में सही है।


दुखी आदमी कृपण होता है, वह दे नहीं सकता। वह सभी चीजों को पकड़ लेता है, जकड़ लेता है। सभी चीजों को रोक लेता है छाती के भीतर। वह कुछ भी नहीं छोड़ सकता। जान कर आप चकित होंगे, मनस्विद कहते हैं कि कृपण आदमी गहरी श्वास भी नहीं लेता। क्योंकि गहरी श्वास लेने के लिए गहरी श्वास छोड़नी पड़ती है। छोड़ वह सकता ही नहीं। मनस्विद कहते हैं कि कृपण आदमी अनिवार्य रूप से कब्जियत का शिकार हो जाता है मल भी नहीं त्याग कर सकता, उसे भी रोक लेता है। मनस्विद तो कहते हैं कि कब्जियत हो ही नहीं सकती, अगर किसी न किसी गहरे अर्थों में मन के अचेतन में कृपणता न हो। क्योंकि मल को रोकने का कोई कारण नहीं है। शरीर तो उसे छोड़ता ही है, शरीर का छोड़ना तो स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। लेकिन मन उसे रोकता है।

ध्यान रहे, बहुत से लोग ब्रह्मचर्य में इसीलिए उत्सुक हो जाते हैं कि वे कृपण हैं। उनकी ब्रह्मचर्य की उत्सुकता वास्तविक रूप में कोई परम सत्य की खोज नहीं है। उनकी ब्रह्मचर्य की उत्सुकता वीर्य की शक्ति बाहर न चली जाए, उस कृपणता का हिस्सा है। बहुत थोड़े से लोग ही ब्रह्मचर्य में समझ बूझ कर उत्सुक होते हैं। अधिक लोग तो कृपणता के कारण ही! जो भी है, वह भीतर ही रुका रहे, बाहर कुछ चला न जाए। इसलिए कृपण व्यक्ति प्रेम नहीं कर पाता। आप कंजूस आदमी को प्रेम करते नहीं पा सकते। क्योंकि प्रेम में दान समाविष्ट है। प्रेम स्वयं दान है, वह देना है। और जो दे नहीं सकता, वह प्रेम कैसे करेगा? इसलिए जो भी आदमी कंजूस है, प्रेमी नहीं हो सकता। इससे उलटा भी सही है। जो आदमी प्रेमी है, वह कृपण नहीं हो सकता। क्योंकि प्रेम में अपना हृदय जो दे रहा है, वह अब सब कुछ दे सकेगा। आनंद के साथ कृपणता का कोई भी संबंध नहीं है, दुख के साथ है।


तो जिस दिन तुम्हें सच में ही आनंद की घटना घटेगी, उस दिन तुम दाता हो जाओगे। उस दिन तुम्हारा भिखारीपन गया। उस दिन तुम पहली दफा बांटने में समर्थ हुए। और तुम्हें एक ऐसा स्रोत
मिल गया है, जो बांटने से बढ़ता है, घटता नहीं।

साधना सूत्र 

ओशो 

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