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Thursday, October 13, 2016

कर्त्ता निर्मित जब होता हो, तब तुम होश से भर जाओ

मैंने सुना है, ऐसा हुआ कि एक आदमी की पत्नी मरी। पत्नी जब जिंदा थी, तब भी पति को सब तरह से बांधे हुई थी। जरा भी हिलने—डुलने का उपाय न था। पति ऐसे ही दब्‍बू था, डरता था; कोई ज्यादा उत्पात खड़ा न हो, तो पत्नी जो कहती, मानता था। पत्नी मरी, तो मरने के पहले उससे कह गई कि ध्यान रखना, कभी दूसरी स्त्री पर विचार भी मत लाना, अन्यथा मैं भूत बनकर तुम्हें सताऊंगी।


डरा हुआ आदमी था। और डरा हुआ खुद ही भूत को पैदा करने में समर्थ हो जाता है, भय भूत बन जाता है। पत्नी मर गई, कुछ दिन तक तो उसने संयम रखा, भय के करण।


और ध्यान रखें, जो संयम भय के कारण है, वह क्या संयम हो सकता है? तुम्हारे अधिक साधु संन्यासी भय के कारण संयम रखे हैं।

वैसे ही उस पति की दशा थी। भय कि कहीं नर्क न जाना पडे, भय कि कहीं दंड न मिले, भय कि कहीं परमात्मा पकड़ न ले, कुछ गलत—गलत करते हुए और पीड़ा न भोगनी पड़े—इससे संयम साधा हुआ है।


भय पर खड़ा हुआ संयम न केवल असत्य है बल्कि बड़ी प्रवंचना है और जो भय से संयम को साधता है, वह वास्तविक संयम को कभी उपलब्ध नहीं होता। कुछ दिन चल सकता है।


कुछ दिन आदमी ने संभाला अपने को, लेकिन कब तक संभालता! फिर मन की वासनाएं कहने लगीं, तू भी क्या पागल है, जीते जी उससे डरा, अब मरकर भी उससे डरता है! और क्या पता, वह प्रेत हुई हो, न हुई हो! और उसके बस में थोड़े ही है प्रेत हो जाना? तो उसने एक स्त्री से प्रेम का खेल शुरू किया।


उस रात घर लौटा कि पत्नी मौजूद थी। वह बिस्तर पर बैठी थी। हाथ पैर कैप गए, घबड़ाकर वहीं गिर पडा।


पत्नी ने कहां, कहां से आ रहे हो, मुझे पता है। यह है नाम उस स्त्री का, ऐसा है उसका घर, क्या क्या तुमने उससे कहां, यह यह तुमने उससे कहां, और अभी भी सावधान हो जाओ, पहला कदम ही तुमने उठाया है।


अब तो पक्का था, न केवल पत्नी प्रेत हो गई है, बल्कि एक—एक शब्द जो उसने उस दूसरी स्त्री से कहां था, वह जो प्रेम की बातें और कविताएं कही थीं वे भी उसने दोहराई। मकान का सब नक्यग़ बताया, स्त्री का ढंग, रूप रंग सब बताया। बात साफ थी कि पत्नी वहां भी मौजूद थी।


बहुत परेशान हो गया और पत्नी रोज सताने लगी। वह एक झेन फकीर के पास गया। नानिन उस फकीर का नाम था। नानिन सुनकर खूब हंसने लगा, उसने कहां कि तू जिस पत्नी से परेशान है, वह तो है ही नहीं। जिनकी पत्नियां नहीं मरी हैं, वे भी परेशान हैं, उन पत्नियों से, जो नहीं हैं। सभी पत्नियां प्रेत हैं, और सभी पति प्रेत हैं। वास्तविकता तो मन देता है। इस जगत में जिस चीज को भी हम मन दे देते हैं, वही वास्तविक हो जाता है; मन हटा लेते हैं, वास्तविकता तिरोहित हो जाती है। लेकिन उस आदमी ने कहां, ज्ञान की बातें न करो। तुम्हें पता नहीं कि किस मुसीबत में हूं घर नहीं लौट सकता, दरवाजे पर खडी मिलती है और ऐसे हाथ—पैर कंप जाते हैं, जिंदा थी तो इतना डर नहीं लगता था कि जिंदा है। और वह मर चुकी है। कुछ तरकीब बताओ। और उसे सब पता है, जाते ही से वह कहेगी, नानिन के पास गये थे? पूछने तरकीब गये थे? मुझसे छुटकारा चाहते हो? मैं जो कहूंगा, वह भी सुन रही है वह, आप जो कहेंगे, वह भी सुन रही है। आप जो तरकीब बतायेंगे, मुसीबत तो यह है कि वह सुन रही होगी, वह तरकीब काम नहीं करेगी। नानिन ने कहां, तरकीब ऐसी बताता हूं कि वह काम करेगी।


वहा पास ही कोई फूलों के बीज नानिन को भेंट कर गया था, उसने एक मुट्ठी भरकर उस आदमी को दे दिये और कहां कि मुट्ठी बांध लो बीजों पर, घर चले जाओ। और सब बातें जो पत्नी बतायेगी, तुम सुनते रहना और उससे पूछना कि कितने बीज हैं, इनकी संख्या बताओ। और अगर संख्या ठीक न बता पाये तो समझ लेना कि सब झूठ है।


आदमी भागा बीज लेकर, तरकीब काम कर गयी, पत्नी ने सब बताया कि नानिन क्या बोला, तूने क्या कहां। नानिन ने कहां कि बीज उठा ले, मुट्ठी में बांध ले और जाकर पूछ पत्नी से कि कितनी संख्या है और अब तू पूछने की तैयारी कर रहा है। डरा तो आदमी, यह बीज की संख्या बता देगी, यह काम होनेवाला नहीं।लेकिन फिर भी उसने कहां, एक आखिरी कोशिश पूछा!

पत्नी तिरोहित हो गयी। हैरान हुआ, लौटकर नानिन से कहां कि तरकीब क्या थी इसमें?

नानिन ने कहां कि तेरा मन जो जानता है, वही वह प्रेत बता सकता है। जो तेरा मन नहीं जानता, तेरा प्रेत नहीं बता सकता, क्योंकि तेरा प्रेत तेरा मन का विस्तार है। अगर तूने गिन लिये होते बीज, तो वह भी प्रेत बता देता। क्योंकि वह तेरा ही 'प्रोजेक्‍शन' है, वह तेरी ही छाया है।

लेकिन हम प्रेत से डर सकते हैं, हम प्रेतों से ही डरे हुए हैं। शिव इस जगत को माया कहते हैं, उसका अर्थ है, यह सारा जगत प्रेत है। यह है नहीं और दिखायी पड़ता है। यह है नहीं और है। और इसमें जितना 'है पन' है, वह तुमने डाला है। पहले तुम इसमें 'है पन' डालते हो, फिर फँस जाते हो, फिर बंध जाते हो। सपने को सच करने की सामर्थ्य तुम्हारी है। तुम खो जाते हो, तुम भूल जाते हो कि तुम हो। भूख लगती है और तुम्हें लगता है कि मुझे भूख लगी, वहीं भ्रांति हो जाती है। भूख शरीर को लगती है, तुम्हें कभी लगी नहीं। और कभी लग भी नहीं सकती। तुम बहुत करीब हो, यह सच है। तुम्हारे और शरीर के बीच जरा—सा भी फासला नहीं है; लेकिन तुम अलग हो। बहुत निकट खडे हो। पुराने शास्त्र कहते हैं, जैसे नीलमणि के पास अगर कोई कांच के टुकडे को रख दे, तो वह काच का टुकड़ा भी नीला दिखाई पड़ने लगता है। वह नीला हुआ नहीं है, लेकिन नीलमणि की छाया उस पर पड़ने लगती है। ऐसे ही तुम पास हो शरीर के, शरीर तुम नहीं हो। शरीर में जो भी घटता है, वह इतने पास घटता है कि तुम्हारे ऊपर उसकी छाया पड़ने लगती है। तुम कहते हो, मुझे भूख लगी और वही भ्रांति हो रही है, वहीं संसार खड़ा हो गया।


भूख लगी शरीर को, और तुमने कहां मुझे भूख लगी। चोट लगी शरीर को और तुमने कहां मुझे चोट लगी। शरीर का हुआ, और तुमने कहां मैं बूढ़ा हुआ। शरीर मरने लगा और तुमने कहां मैं मरा। बस वहीं भ्रांति हो गई।


काश! तुम देख पाओ कि शरीर को भूख लगी और मैं देख रहा हूं जान रहा हूं। काश! तुम समझ पाओ कि शरीर बीमार हुआ, शरीर का हुआ, शरीर मरने के करीब आया, मैं जान रहा हूं मैं देख रहा हूं मैं द्रष्टा हूं। सारा नाटक शरीर पर हो रहा है, शरीर जैसे एक विराट मंच है और उस सारे नाटक के पात्र तुम्हारे मन के ही प्रक्षेप हैं। और तुम खड़े दूरदर्शक—दीर्घा में देख रहे हो।

एक तुम्हारा कर्त्ता—पन है जिससे संसार पैदा होता है, एक तुम्हारा साक्षी—पन है जिससे ब्रह्म के दर्शन होते हैं। निद्रा में तो याद रह ही नहीं जाता, जागते में भी तुम भूल— भूल जाते हो। शरीर को चोट लगती है, तत्‍क्षण तुम भूल ही जाते हो कि शरीर को चोट लगी, मैंने जाना है।

बस इतना ही साधना का सूत्र है कि कर्त्ता निर्मित जब होता हो, तब तुम होश से भर जाओ, कर्त्ता को निर्मित मत होने दो। सब कर्म शरीर पर 'छोड़ दो, सब वासनाएं, सब क्षुधाएं, सब अकाक्षाएं शरीर पर छोड़ दो, अपने पास सिर्फ जानने की क्षमता बचाओ, सिर्फ होश, सिर्फ देखने की कला बचाओ।

नहीं राम बिन ठाव 

ओशो 



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