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Thursday, October 12, 2017

भगवान, क्या संतोष रखकर जीना ठीक नहीं है?



देवदास, संतोष और संतोष में बड़ा भेद है। एक तो है संतोष मरे हुए आदमी का, पराजित आदमी का, हारे हुए आदमी का। वह संतोष मालूम होता है लेकिन संतोष है नहीं। भीतर तो लपटें हैं असंतोष की, लेकिन बाहर से टीम-टाम किया, समझा लिया अपने को; जीत तो सके नहीं, हार को भी सहना कठिन मालूम होता है, तो हार को लीप-पोत लिया संतोष की भांति।
 
ईसप की पुरानी कहानी है कि एक लोमड़ी छलांग लगता है--बहुत छलांग लगाती है--अंगूर के गूच्छों को पाने के लिए; फिर नहीं पहुंच पाती, बहुत छोटी पड़ जाती है; हारी-थकी, उदास चित्त वापस लौटती है; पर कम से कम एक आश्वासन है कि किसी ने उसकी हार देखी नहीं; लेकिन तभी खरगोश पास की झाड़ी में छिपा बाहर आता है और कहता है, चाची, क्या हुआ? अंगूरों तक पहुंच न सकी? लोमड़ी ने कहा कि नहीं, पहुंच क्यों न सकूं, मेरी पहुंच के बाहर क्या है, चांदत्तारे तोड़ लाऊं, लेकिन अंगूर खट्टे थे पहुंचने योग्य ही न थे।

एक तो यह संतोष है--जिन अंगूरों तक न पहुंच पाओ, उन्हीं खट्टा मान लेना। खट्टे मान लेने से कम से कम अहंकार को थोड़ी रक्षा मिल जाएगी। पहुंचने योग्य ही थे, तो पहुंच कर करते भी क्या?
मैं इसे संतोष नहीं कहता। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने इसी को संतोष कहा है। यह संतोष का धोखा है, यह मिथ्या आत्मवंचना है, इससे सावधान रहना!

क्योंकि जो इस तरह के संतोष से घिर गया, उसे संतोष की परम अनुभूति कभी भी न हो सकेगी। जो झूठे फूलों से राजी हो जाता है, उसकी बगिया में असली फूल नहीं खिलते हैं। फिर तुम समझाने की कितनी ही चेष्टाएं करो! समझाने में तुम बड़ी कुशलता भी दिखला हो, बड़ी तर्क युक्तता, बड़ी चतुराई।

जब तुम किसी आकांक्षा को ठीक-ठीक समझ लेते हो, जब तुम देख लेते हो उसकी गहराई में और पाते हो कि उसके पूरे होने में भी कुछ पूरा नहीं होगा, पूरी हो जाए तो भी तुम अधूरे रहोगे, मिल जाए यह संपदा तो भी तुम्हारी विपदा कम न होगी, और मिल जाए यह प्यारा तो भी तुम्हारी प्रीति की अभीप्सा पूरी न होगी, जब तुम्हारी दृष्टि ऐसी निखार पर होती है, तुम्हारा अंतर्बोध इतना स्पष्ट होता है, जब तुम्हारे चैतन्य के दर्पण में चीजें साफ-साफ जैसी है वैसी परिलक्षित होती हैं, तब एक और संतोष पैदा होता है। वह संतोष सांत्वना नहीं है, सत्य का साक्षात्कार है। जैसे कोई देख ले कि मैं रेते को निचोड़ कर तेल निकालने की कोशिश कर रहा था। 

एक संतोष है कि निचुड़ा नहीं तेल, तो तुम यह कहने लगे कि मुझे तेल की जरूरत न थी, इसलिए मैंने श्रम छोड़ दिया। और एक संतोष है कि तुमने गौर से देखा, पहचाना, परखा, साक्षी बने और पाया कि रेत में तेल होता ही नहीं, तुम लाख करो उपाय तो भी रेत से तेल निचुड़ेगा नहीं, ऐसी प्रतीति में, ऐसे साक्षात्कार में एक संतोष की वर्षा हो जाती है। 

पहले संतोष में अभीप्सा का दमन है, दूसरे संतोष में अभीप्सा का विसर्जन है। दूसरे संतोष को साधना नहीं होता, समझना होता है। पहले संतोष को साधना होता है। पहले संतोष से आदमी साधु बन जाता है, दूसरे संतोष से आदमी प्रबुद्ध हो जाता है। साधु होने से बचना, बुद्ध होने से कम पर मत रुकना--वही तुम्हारी परम क्षमता है।


दरिया कहे शब्द निरवाना
 ओशो 




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