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Tuesday, October 16, 2018

दुनिया में भलाई अब भी उतनी ही है जितनी पहले थी, लेकिन उसकी कोई खबर नहीं है।


कोई सोचता हो कि अंग्रेजी की शिक्षा के कारण लोग बिगड़ गए हैं, तो गलत सोचता है। जब अंग्रेजी का पता न था तब भी लोग ऐसे थे। कोई सोचता हो कि फिल्मों के कारण लोग बिगड़ गए हैं, तो गलत सोचता है। क्योंकि फिल्में जब न थीं तब भी आदमी ऐसा ही था।


इसलिए मैं कहता हूं कि बीमारी की गहराई और दूरी और लंबाई समझ लेनी जरूरी है। नहीं तो लोग ऐसे उपचार बताते हैं जिनको अगर हम हल भी कर लें, अगर सारे हिंदुस्तान के सिनेमा घर बंद कर दिए जाएं, तो भी आदमी में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि डर है कि आदमी शायद और बुरा हो जाए। डर इसलिए है कि सिनेमा की बुराई को देख कर खुद बुरा करने का मन थोड़ा कम हो जाता है। राहत मिल जाती है।

रास्ते पर अगर दो आदमी लड़ रहे हों तो हम हजार काम छोड़ कर वहां रुक जाते हैं। देख लेते हैं क्या हो रहा है? ऐसे ऊपर से कहते हैं कि भाई लड़ो मत, लेकिन भीतर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि कुछ हो ही जाए। और अगर वे दोनों लड़ने वाले मान लें कि आप सब कहते हैं तो नहीं लड़ते हैं, जाते हैं, तो हम उदास वापस लौटेंगे। लेकिन खून टपक जाए, पत्थर चल जाए, छुरी भुंक जाए, तो हम बहुत बुरा कहते हुए लौटेंगे कि लोग बड़े बुरे हो गए हैं, क्या हो रहा है यह? लेकिन हमारी आंखों में चमक होगी, चेहरे पर खुशी होगी। भीतर ऐसा होगा कि कुछ देखा, कुछ हुआ। वे जो दो आदमी लड़ते हैं उनको लड़ते देख कर हमारी लड़ने की वृत्ति भी थोड़ी निकलती है। इसके तो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।


पहला महायुद्ध जब हुआ तो बड़ी हैरानी हुई दुनिया के विचारशील लोगों को कि युद्ध जब तक चला तब तक दुनिया में चोरियां कम हुईं, हत्याएं कम हुईं, आत्महत्याएं कम हुईं। लोग पागल भी कम हुए। संख्या कम हो गई। बड़ी हैरानी की बात है। चोरों को युद्ध से क्या लेना-देना? और चोरों को अगर लेना-देना भी हो, तो पागल भी क्या देख कर पागल होते हैं? कि अभी युद्ध चल रहा है अभी पागल नहीं होना चाहिए। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ सका। दूसरे महायुद्ध में तो और घबड़ाहट बढ़ गई। क्योंकि दूसरे महायुद्ध में तो एकदम सारी दुनिया में पापों का, अपराधों का, हत्याओं का, आत्महत्याओं का, पागलों का, मानसिक बीमारियों का, सबका अनुपात नीचे गिर गया। तब समझ-सोच करना पड़ा। तब पता चला कि कारण हैं। कारण यह है कि जब सारा समाज सामूहिक रूप से पागल हो गया हो तो प्राइवेट पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। जब सारी दुनिया में इतनी हत्याएं हो रही हैं तो मैं अलग से किसी की हत्या करने जाऊं इससे कोई मतलब नहीं। सुबह अखबार पढ़ लेता हूं और राहत मिल जाती है। रेडियो सुन लेता हूं और राहत मिल जाती है।


सिनेमा बंद कर देने से लोग अच्छे हो जाएंगे, ऐसा अगर साधु-संत समझाते हों, तो उन साधु-संतों को आदमी की बुराई का कुछ भी पता नहीं। और कोई अगर समझाता हो कि अंग्रेजी की शिक्षा से और पश्चिम के संपर्क से आदमी बिगड़ गया है, तो बिलकुल ही गलत समझाता है। सारी शिक्षा हम बंद कर दें और पश्चिम से सारा संबंध तोड़ दें और बैलगाड़ी की दुनिया में वापस लौट जाएं, तो भी अच्छा नहीं हो जाएगा आदमी, क्योंकि रोग बहुत गहरा है।


बैलगाड़ी के दिन थे तब भी आदमी ऐसा ही था। लेकिन कुछ बातों में फर्क पड़ा है। पहला तो फर्क यह पड़ा है, सबसे बड़ा जो फर्क पड़ा है वह यह पड़ा है कि हमें सारी दुनिया की खबरें एक साथ मिलने लगी हैं जो पहले नहीं मिलती थीं। और ध्यान रहे कि हमारा रस बुराई में है तो बुराई की खबरें ही हमें मिल पाती हैं, भलाई की खबरें नहीं मिल पातीं। अगर रास्ते पर मैं किसी को छुरा मार दूं तो भावनगर के अखबार खबर छापेंगे। लेकिन रास्ते पर किसी गिरे को उठा लूं तो भावनगर के अखबारों में कोई खबर नहीं छपेगी।


दुनिया में भलाई अब भी उतनी ही है जितनी पहले थी, लेकिन उसकी कोई खबर नहीं है। क्योंकि भलाई को सुनने को, पढ़ने को कोई उत्सुक नहीं है। वह कभी भी नहीं था। जब भी दो आदमी मिलते हैं तो किसी की बुराई करते हैं। अगर बुराई करने को आदमी न हो तो बातचीत का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। बातचीत ही नहीं हो पाती। दस आदमी मिलते हैं, तो पहले औपचारिक बातें होती हैं, फिर किसी की बुराई शुरू हो जाती है। दूसरे में बुरा खोज लेने से एक रस है, और वह रस यह है कि जब हमें दूसरे में बुराई मिल जाती है तो हमें एक रस तो यह मिलता है कि हमें यह राहत मिल जाती है कि हम हीं बुरे नहीं हैं और लोग भी बुरे हैं। और लोग और भी ज्यादा बुरे हैं। इसलिए हम चारों तरफ बुराई की खोज करते हैं, ताकि हमारी बुराई की जो पीड़ा है, वह जो कांटे की तरह चुभती है वह कम हो जाए। जब हमें ऐसा पता चले कि सभी लोग बीमार हैं तो फिर बीमारी इतनी दुखद नहीं रह जाती।

 
अगर मुझे पता चले कि गांव में सब लोग स्वस्थ हैं। मैं ही अकेला बीमार हूं। तो बीमारी से भी ज्यादा यह बात दुख देती है कि और सारे लोग स्वस्थ हैं। मैं ही सिर्फ बीमार हूं। लेकिन अगर पता चल जाए कि सारे लोग बीमार हैं तो, तो फिर बीमारी का जो दंश है, जो पीड़ा है, वह कम हो जाती है। और अगर यह पता चल जाए कि मुझसे भी ज्यादा बीमार हैं, तब अपनी बीमारी में भी स्वास्थ्य दिखाई पड़ने लगता है। क्योंकि हम कम बीमार हैं।


प्रेम दर्शन 

ओशो

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