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Tuesday, May 2, 2017

सरलता





मनुष्य की सभ्यता जितनी विकसित हुई है, मनुष्य उतना ही जटिल, कठोर और कठिन होता गया है। सिम्पलीसिटी, सरलता जैसी कोई भी चीज उसके भीतर नहीं रह गयी है। उसका मन अत्यंत कठोर और धीरे— धीरे पत्थर की भांति, पाषाण की भांति सख्त होता गया है। और जितना हृदय पत्थर की भांति कठोर हो जायेगा, उतनी ही कठिन है बात; उतना ही जीवन में कुछ जानना कठिन है, मुश्किल है। 


सरल मन चाहिए। कैसे होगा सरल मन? सरल मन की जो पहली ईंट है, जो पहले आधार है, जो पहली बुनियाद है, वह कहां से रखनी होगी? आमतौर से तो जीवन में हम जैसे—जैसे उस बड़ी होती है, कठोर ही होते चले जाते हैं। और यही तो वजह  है... तुमने सुना होगा बूढ़े को भी यह कहते हुए कि बचपन के दिन बहुत सुखद थे। बचपन बहुत आनंद से भरा था। बचपन बहुत आनंदपूर्ण था। तुम्हें भी लगता होगा। अभी यों तो तुम्हारी उस ज्यादा नहीं है, लेकिन तुम्हें भी लगता होगा कि जो दिन बीत गये बचपन के, वे बहुत आनंदपूर्ण थे। और धीरे— धीरे उतना आनंद नहीं है। क्यों? यह तुमने सुना तो होगा, लेकिन विचार नहीं किया होगा कि बचपन के दिन इतने आनंदपूर्ण क्यों होते हैं?  


बचपन के दिन इसलिए आनंदपूर्ण हैं कि बचपन के दिन सरलता के दिन हैं। हृदय होता है सरल, इसलिए चारों तरफ आनंद का अनुभव होता है। फिर जैसे जैसे उस बढ़ती है, हृदय होने लगता है कठिन और कठोर। फिर आनंद क्षीण होने लगता है। दुनिया तो वही है: बूढ़ों के लिए भी वही है, बच्चों के लिए भी वही है। लेकिन बच्चों के लिए चारों तरफ आनंद की वर्षा मालूम होती है। मौज ही मौज मालूम होती है। सौंदर्य ही सौंदर्य मालूम होता है। छोटी छोटी चीज में अदभुत दर्शन होते हैं। छोटे छोटे कंकड़ पत्थर को भी बच्चा बीन लेता है और हीरे जवाहरातों की तरह आनंदित होता है। क्या कारण है? कारण है, भीतर हृदय सरल है जहां हृदय सरल है, वहां कंकड़ पत्थर भी हीरे मोती हो जाते हैं। और जहां हृदय कठोर है, वहां हीरे मोती के ढेर लगे रहें, तो कंकड़ पत्थरों से ज्यादा नहीं होते। 


जहां हृदय सरल है, वहां छोटे से फूल में अपूर्व सौंदर्य के दर्शन होते हैं। जहां हृदय कठिन है, वहां फूलों का ढेर भी लगा रहे, तो उनका कहीं भी दर्शन नहीं होता। जहां हृदय सरल है; छोटे से झरने के किनारे भी बैठकर अदभुत सौंदर्य का बोध होता है। और जहां हृदय कठिन है, वहां कोई कश्मीर जाये, या स्विटजरलैंड जाये, या और सौंदर्य के स्थानों पर जाये, तो वहां भी उसे कोई सौंदर्य का बोध नहीं होता है। वहां भी उसे कोई आनंद की अनुभूति नहीं होती। 


लेकिन के लोग यह तो कहते हैं कि बचपन के दिन सुखद थे, लेकिन यह विचार नहीं करते कि क्यों सुखद थे? अगर इस बात पर विचार करें, तो पता चलेगा, हृदय सरल था, इसलिए जीवन में सुख था। तो अगर बुढ़ापे  में भी हृदय सरल हो, तो जीवन में बचपन से भी ज्यादा सुख होगा। होना भी यही चाहिए। यह तो बडी उल्टी बात है कि बचपन के दिन सुखद हों और वह सुख धीरे धीरे कम होता जाये, यह तो उल्टी बात हुई। जीवन में सुख का विकास होना चाहिए। जितना सुख बचपन में था, बुढ़ापे  में उससे हजार गुना ज्यादा होना चाहिए, क्योंकि इतना जीवन का अनुभव, इतना विकास, इतनी समझ का बढ़ जाना, सुख का भी बढ़ ना होना चाहिए।


लेकिन होती बात उल्टी है। बूढा आदमी दुखी होता है। और बच्चा सुखी होता है। इसका अर्थ है कि जीवन की गति हमारी कुछ गलत है। हम जीवन को ठीक से व्यवस्था नहीं देते। अन्यथा वृद्ध व्यक्ति को जितना आनंद होगा, उतना बच्चे को क्या हो सकता है? यह तो पतन हुआ। बचपन में सुख हुआ और बुढ़ापे में दुख हुआ, यह तो पतन हुआ। हमारा जीवन नीचे गिरता गया; बजाय बढ़ने के, जीवन नीचे गिरा! बजाय ऊंचा होने के, हम पीछे गए। यह तो उल्टी बात है। अगर ठीक ठीक मनुष्य का विकास हो, तो बुढ़ापे  के अंतिम दिन सर्वाधिक आनंद के दिन होंगे होने चाहिए। और अगर न हों, तो जानना चाहिए कि हम गलत ढंग से जीये। हमारा जीवन गलत ढंग का हुआ।


अगर किसी स्कूल में ऐसा हो कि पहली कक्षा में जो विद्यार्थी आयें, वे तो ज्यादा समझदार हों और वे कालेज छोड्कर निकलें, तो कम समझदार हो जायें! तो उस कालेज को हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, यह तो पागलखाना है! होना तो यह चाहिए कि पहली कक्षा में जो विद्यार्थी आयें, बच्चे आयें, तो समझ बहुत कम हो। जब वे कालेज को छोडे, स्कूल को छोडे, तो उनकी समझ और बढ़ जानी चाहिए। जीवन में जो बच्चे आते हैं, वे ज्यादा सुखी मालूम होते हैं और जो के जीवन को छोडते हैं, वे ज्यादा दुखी हो जाते हैं। तो यह तो बहुत उल्टी बात हो गयी। इस उल्टी बात में हमारे हाथ में गलती होगी, कुछ कसूर होगा। 

सबसे बडा कसूर है, सरलता को हम खो देते हैं, कमाते नहीं। सरलता कमानी चाहिए, सरलता बढ़नी चाहिए, गहरी होनी चाहिए, विस्तीर्ण होनी चाहिए। जितना हृदय सरल होता चला जायेगा, उतना ही ज्यादा जीवन में—इसी जीवन में, सुख की संभावना बढ़ जायेगी। कैसे चित्त सरल होगा, मन कैसे सरल होगा, और कैसे कठिन हो जाता है—इन दो बातों पर विचार करना जरूरी है।

चल हंसा उस देश 

ओशो

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