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Tuesday, May 2, 2017

मरे का मर जाना ही जरूरी है



मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात कहूंगा। 


एक बहुत पुराना गांव था। और उस गांव से भी ज्यादा पुराना एक चर्च था उस गांव में। उस चर्च की सारी दीवालें गिरने के करीब हो गई थीं। न तो कोई उपासक उस चर्च के भीतर प्रार्थना करने जाता था, न कोई कभी उस चर्च के भीतर...चर्च के भीतर जाना तो दूर, उसके पास से निकलने में भी लोग डरते थे। वह चर्च कभी भी गिर सकता था। हवाएं चलती थीं, तो गांव के लोग सोचते थे, आज चर्च गिर जाएगा। आकाश में बादल गरजते थे, तो गांव के लोग बाहर निकल कर देखते थे, चर्च गिर तो नहीं गया! बिजली चमकती थी, तो डर होता था, चर्च गिर जाएगा। ऐसे चर्च में कौन प्रार्थना करने जाता? चर्च बिलकुल मरा हुआ था, लेकिन फिर भी खड़ा हुआ था।

कुछ मरी हुई चीजें भी खड़ी रह जाती हैं। और जब मरी हुई चीजें खड़ी रह जाती हैं, तो अत्यंत खतरनाक हो जाती हैं। मरे का मर जाना ही जरूरी है। मरे का खड़ा रहना बहुत खतरनाक है।


अगर हम सारे मुर्दों को खड़ा कर लें और कब्रों में न गड़ाएं और मरघटों में न जलाएं, तो दुनिया में जीने वाले लोगों की जो कठिनाई होगी, उसकी कल्पना करनी मुश्किल है। अगर सारे मुर्दे जो इस जमीन पर कभी रहे हैं और मर गए, अगर जगह-जगह खड़े कर दिए जाएं, तो जिंदा आदमी उनको देख कर ही पागल हो जाएंगे। उनको गड़ा देना और जला देना जरूरी है। 


मरे का मर जाना ही जरूरी है; लेकिन वह चर्च मर गया था और खड़ा था। फिर चर्च के संरक्षक, कमेटी मिली, ट्रस्टी मिले और उन्होंने कहा, हम क्या करें कि लोग चर्च में आ सकें? क्योंकि ट्रस्टियों का हित इसी में था कि उस मरे चर्च में भी लोग आते ही रहें। उस चर्च से ही उनकी आजीविका चलती थी। चर्च का पादरी घर-घर जाकर समझाता था कि चर्च की तरफ आओ। हालांकि चर्च का पादरी भी चर्च से दूर-दूर ही रहता था, क्योंकि वह कभी भी गिर सकता था। अंततः चर्च की कमेटी मिली। कमेटी भी चर्च के भीतर नहीं मिली, वह भी चर्च से दूर उन्होंने बैठक की; और उन्होंने चार प्रस्ताव स्वीकार किए।


उन्होंने पहला प्रस्ताव स्वीकार किया कि हम बहुत दुख से यह स्वीकार करते हैं कि पुराने चर्च को गिरा दिया जाना चाहिए। और तत्काल दूसरा प्रस्ताव स्वीकार करते हैं कि पुराने चर्च की जगह हम एक नया चर्च बनाएं। और उन्होंने तीसरा प्रस्ताव यह भी किया कि पुराने चर्च की ईंटें ही नये चर्च में लगाएंगे। पुराने चर्च के द्वार-दरवाजे ही नये चर्च में लगाएंगे। पुराने चर्च की नींव पर ही नये चर्च को उठाएंगे। पुराना चर्च जैसा ही नया चर्च होगा। यह भी उन्होंने सर्वसम्मति से स्वीकार किया। 
 
तीन प्रस्ताव पास किए। एक, कि पुराने चर्च को गिरा देना है। दो, कि एक नया चर्च बनाना है। और तीसरा, कि पुराने चर्च की बुनियाद पर ही नये चर्च की नींव रखनी है। पुराने चर्च की ईंटों का ही नये चर्च में उपयोग करना है। पुराने द्वार-दरवाजे ही लगाने हैं। नये चर्च में कोई नई चीज नहीं लगानी है, सब पुराना लगाना है। 

यहां तक भी गनीमत थी। उन्होंने चौथा एक प्रस्ताव और स्वीकार किया, कि जब तक नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराने को गिराना नहीं है। 

वह चर्च अब भी खड़ा होगा और नया चर्च कभी नहीं बनेगा।

इस देश की हालत भी ऐसी ही है। इस देश का मंदिर बहुत पुराना हो गया है। वह इतना पुराना हो गया है कि उसका पीछे का पूरा इतिहास खोजना भी बहुत मुश्किल है। उसकी सब दीवालें सड़ गई हैं। उसकी सब बुनियादें खराब हो गई हैं। उसका सब कुछ अतीत में नष्ट-भ्रष्ट, जरा-जीर्ण हो गया है। और हम उसमें ही रहे चले जा रहे हैं! और इस देश के विचारशील लोग समझाते हैं कि हमारा बड़ा सौभाग्य है, क्योंकि हमारे पास सबसे ज्यादा पुराना समाज है। 

यह दुर्भाग्य है, सौभाग्य नहीं। समाज नया होना चाहिए निरंतर। और जो समाज नये होने की क्षमता खो देता है, उस समाज से रौनक भी चली जाती है, खुशी भी चली जाती है, आनंद भी चला जाता है--जीवन का सब रस चला जाता है। 


हिंदुस्तान की पूरी सामाजिक व्यवस्था, सारा ढांचा इतना पुराना हो गया है कि अब उसके भीतर न तो जीना संभव है, न मरना संभव है। उसके भीतर सिर्फ दुखी होना, पीड़ित होना और परेशान होना संभव है। और इसीलिए हम इतने आदी हो गए हैं दुख के कि दुख को मिटाने की कोई कल्पना भी हम में पैदा नहीं होती। न तो कोई देश इतनी गरीबी झेल सकता है जितनी हम झेलते हैं; न कोई देश इतनी बीमारी झेल सकता है जितनी हम झेलते हैं; न कोई देश इतनी बेईमानी झेल सकता है जितनी हम झेलते हैं। और झेलने का कुल एक कारण है कि हम इतने हजारों वर्षों से यह सब झेल रहे हैं कि हम धीरे-धीरे उसके आदी हो गए हैं। और हमें यह खयाल ही नहीं आता कि इसमें कुछ गलत हो रहा है। यही होता रहा है, यही जीवन है: यह हमारी धारणा हो गई है।

चेत सके तो चेत 

ओशो

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