Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Friday, May 5, 2017

संन्यास के बिना भगवत्ता को पाना असंभव है या संन्यास सिर्फ सत्य का द्वार है? कृपया समझाएं।




हर्ष कुमार,

क्या खाक समझाऊं? और समझाऊं भी तो क्या तुम समझोगे? तुम्हारा प्रश्न ही ऐसी नासमझी का है। क्या तुम सोचते हो भगवत्ता और सत्य दो चीजें हैं? जरा अपने प्रश्न पर पुनः विचार करो।

पूछते हो,"संन्यास के बिना भगवत्ता को पाना असंभव है या संन्यास सिर्फ सत्य का द्वार है? सत्य का द्वार कहो या भगवत्ता कहो, एक ही बात है। सत्य और भगवत्ता एक ही है। तुम्हारी नजर में ऐसा लग रहा है कि भगवत्ता कोई बहुत और बात है, बहुत ऊंची--और संन्यास तो केवल सत्य का द्वार है! सत्य के बाद भी कुछ बच रहता है? सत्य में भगवत्ता समा गयी। और तुम ऐसे पूछ रहे हो कि सिर्फ द्वार ही हो तो फिर बिना संन्यास के चल जाएगा। मगर बिना द्वार के प्रवेश कैसे करोगे?


पूछते हो,"या सिर्फ द्वार ही है?' तो तुम्हारा क्या दीवाल से घुसने का इरादा है? नाम से तो तुम सरदार नहीं मालूम होते--हर्ष कुमार। मगर हो सकता है पंजाब में रहते हो और संग साथ का असर पड़ गया हो।


मैंने सुना है, चंड़ीगढ़ विश्वविध्यालय में भाषा प्रतियोगिता हो रही थी। प्रतियोगिता का विषय था कि ऐसी कौन सी भाषा है जो कम शब्दों में अधिक बात प्रगट करती हो? उदाहरण के लिए एक वाक्य चुना गया--क्या मैं अंदर आ सकता हूं? प्रतियोगिता में हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और पंजाबी और गुजराती अध्यापकों ने भाग लिया। 

अंग्रेजी वाले ने कहा सबसे पहले, "मे आइ कम इन सर?'

हिंदी वाला बोला, "श्रीमान, में अंदर आऊं?'

मराठी बोला, "मी आत येऊ का?'

गुजराती बोला, "हूं अंदर आवी शकुं छूं?'

सबसे बाद में वाह गुरु जी का खालसा करते हुए सरदार बिचित्तरसिंह उठे और हाथ ऊपर उठा कर, कृपाण निकाल कर दरवाजे को धक्का देकर बोले, "वड़ां?' वड़ां अर्थात घुसूं? और कृपाण हाथ में देख कर स्वाभावतः ...जो निरीक्षक बैठे थे उठ कर खड़े हो गये कि आइए-आइए! अरे विराजिए-विराजिए! ऐसे सरदार बिचित्तरसिंह जीत गये। पूछा उनने--"घुसूं?' मगर हाथ में कृपाण! 


तुम तो बिचित्तरसिंह से भी आगे निकले जा रहे हो, तुम क्या दीवाल से घुसने का इरादा रखते हो? दरवाजे से ही जाना होगा। और दरवाजा मिल गया तो सब मिल गया, बचा क्या? और दरवाजा खुल गया तो सब खुल गया, बचा क्या?


संन्यास द्वार है--सत्य का कहो या भगवत्ता का। संन्यास का अर्थ क्या है? इतना ही कि तुम जीवन को समाधि के रंग में रंग लो। वसंत आ जाए। ये गैरिक वस्त्र वसंत का रंग है। यह वसंत के फूलों का रंग है। यह बहार का रंग है। तुम्हारी जिंदगी खिजां है,इसमें वसंत चाहिए, मधुमास चाहिए।


संन्यास का अर्थ कुछ त्यागना नहीं है, छोड़ना नहीं है, भागना नहीं है--जागना है। और सोए सोए भोगा, अब जाग कर भोगो--बस इतना ही फर्क है। शेष सब वैसा ही रहेगा, कुछ बदलेगा नहीं। बाहर जैसा है वैसा ही चलेगा; शायद और भी सुंदर चले, क्योंकि नींद में तो कुछ भूल-चूक होती ही रहती है, जाग कर भूल चूक भी असंभव हो जाएगी। और जो होशपूर्वक जीता है, उसके आनंद का अंत नहीं है।

ज्यूँ मछली बिन नीर 

ओशो 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts