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Tuesday, May 2, 2017

अकारण जीने की कला का सूत्र क्या है?





कारण से जीयो या अकारण जीयो, हर हालत में तुम अकारण ही जीते हो। कारण भला तुम खोज लो, कारण है नहीं। कारण तुम्हारा ही आरोपण है। इसे समझने की कोशिश करो।

जीवन कहीं जा नहीं रहा है, जीवन है। जीवन का कोई भविष्य नही है, बस वर्तमान है। वर्तमान ही एकमात्र अस्तित्व का ढंग है।

तुम जन्मे, क्या कारण है? पूछोगे, उलझोगे। पूछोगे तो कोई न कोई प्रश्न का उत्तर देने वाला भी मिल जाएगा; कोई न मिलेगा तो तुम खुद ही अपने मन को कोई उत्तर देकर समझा लोगे। ऐसे ही तो सारे दर्शनशास्त्र निर्मित हुए हैं। आदमी ने पूछा—उत्तर देने वाला कोई भी नहीं है—आदमी ने ही पूछा, आदमी ने ही उत्तर दे लिए। फिर प्रश्नों की पीड़ा से बचने के लिए उत्तरों को सम्हालकर रख लिया, संजोकर रख लिया, मंजूषाएं बना लीं—वेद बने, कुरान—बाइबिल बनी। आदमी की बेचैनी समझ में आती है। उसे लगता है, क्यों? कारण होना चाहिए!

पर तुम जो भी कारण खोजते हो, तुम्हारा प्रश्न उस कारण पर भी उतना ही लागू होता है। तुम कहते हो, परमात्मा ने जन्म दिया। पर क्यों? परमात्मा को भी क्या सूझी; क्या अर्थ है? न देता तो हर्ज क्या था 'प्रश्न मिटा नहीं, प्रश्न वहीं का वहीं है, एक कदम पीछे हट गया। परमात्मा क्यों है 'क्या उत्तर दोगे; तुम्हारे सब उत्तर वर्तुलाकार होंगे। तुम कहोगे, परमात्मा इसलिए है कि सृष्टि का पालन करे। और सृष्टि इसलिए है कि परमात्मा बनाए!

इन उत्तरों से तुम किसे धोखा दे रहे हो? जैसे अंधेरी रात में, अंधेरी गली में आदमी गुनगुनाने लगता है गीत। गीत गुनगुनाने से कुछ भय मिटता नहीं, लेकिन अपनी ही आवाज सुनकर ऐसा लगता है, कोई साथ है। लोग सीटी बजाने लगते हैं। सीटी बजाने से किसी का साथ नहीं हो जाता। लेकिन अकेलेपन का भय दब जाता है।

मरघट से कभी गुजरे हो अंधेरी रात में. नास्तिक भी मंत्र गुनगुनाने लगता है। कोई मंत्र भूत—प्रेतों से रक्षा नहीं करते। पहली तो बात भूत—प्रेत हैं नहीं, जिनसे रक्षा करनी हो। भूत—प्रेत तुम गढ़ते हो, फिर मंत्रों से रक्षा करते, हो। पहले बीमारी खड़ी करते हो, फिर औषधि खोजते हो। फिर एक औषधि काम न करे तो दूसरी औषधि खोजते हो। यही तो दर्शनशास्त्र की सारी भ्रमणा है, विडंबना है।

तुम सोचते हो, प्रश्न बन गया तो उत्तर होना ही चाहिए। आदमी प्रश्न बना लेता है, तो सोचता है, कहीं न कहीं उत्तर भी होगा, जब प्रश्न है तो उत्तर भी होगा। प्रश्न तो तुम कोई भी बना सकते हो। तुम पूछ सकते हो, हरे रंग की गंध क्या है। प्रश्न में कोई भूल—चूक नहीं है। भाषा ठीक है। कोई तर्कशास्त्री नहीं कह सकता कि प्रश्न में कुछ गलती है। हरे रंग की गंध क्या है

हरे रंग से गंध का क्या लेना—देना! मगर तुमने एक प्रश्न बना लिया, अब तुम उत्तर की तलाश पर चल पड़े। छोटे बच्चों को देखो। छोटे बच्चे जो प्रश्न पूछते हैं, वही बड़े—बूढ़े भी पूछते हैं। सिर्फ प्रश्नों का संयोजन बदल जाता है। छोटे बच्चे पूछते हैं, वृक्ष हरे क्यों हैं? क्या करोगे!
 
डी एच लारेन्स घूमता था बगीचे में—एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति। छोटा बच्चा साथ था, उसने पूछा कि मुझे यह बताओ, वृक्ष हरे क्यों हैं? डी एच लारेन्स ने उस बच्चे की तरफ देखा, वृक्षों की तरफ देखा, अपनी तरफ देखा, और बोला, हरे हैं, क्योंकि हरे हैं। वह बच्चा राजी हो गया। उत्तर मिल गया। पर यह कोई उत्तर हुआ

पहले तुम प्रश्न बनाकर सोचते हो, बन गया प्रश्न तो उत्तर होना चाहिए। फिर प्रश्न काटता है, बेचैन करता है। प्रश्न खुजली पैदा करता है। जब तक खुजला न लो, चैन नहीं मिलता। फिर कोई उत्तर चाहिए। तो कहीं न कहीं तुम किसी न किसी उत्तर पर राजी हो जाओगे।
 
सभी लोग किन्हीं उत्तरों पर राजी हो गए हैं—कोई हिंदू कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई बौद्ध। इससे तुम यह मत समझना कि इन्हें उत्तर मिल गए हैं; इससे सिर्फ इतना पता चलता है कि थक गए हैं अपनी बेचैनी से, अन्यथा प्रश्न वहीं के वहीं खड़े हैं। प्रश्न तो दर्शनशास्त्र एक भी हल नहीं कर पाया।

तुम अकारण हो। तुम्हारा जन्म क्यों हुआ? कोई उत्तर नहीं है। अकारण होने को स्वीकार करने में अड़चन क्या है; कहीं तो स्वीकार करना ही पड़ेगा, तो यहीं स्वीकार कर लेने में क्या अड़चन है न ईश्वर को तो सभी धर्म कहते हैं, अकारण। उसका कोई कारण नहीं है। तो जो बात ईश्वर के लिए तुम स्वीकार कर लेते हो और तुम्हारे तर्क को कोई अड़चन नहीं आती, वही बात अपने को स्वीकार कर लेने में कहां कठिनाई हो रही है?

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

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