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Wednesday, May 16, 2018

संत सदियों से गाते रहे हैं--गीत शाश्वत के, सनातन के। यह गंगा अखंड बहती रही है। मैं सोचकर ही चमत्कृत हो उठता हूं। इतनी सृजनात्मकता का स्रोत कहां है?


संत सदियों से नहीं गाते रहे हैं, संतों से सदियों से एक ही गाता रहा है। संत नहीं, परमात्मा ही गाता रहा है। जब तक संत गाए तब तक कवि, जिस दिन संत से परमात्मा गाए उस दिन ऋषि। जब तक संत स्वयं अपना बोल बोले, अपना सोच-विचार, अपने अनुमान, अपना तर्कजाल, अपना सिद्धांत, अपना शास्त्र; जब तक संत की बुद्धि बीच में हो तब तक संत संत नहीं है। चाहे कितने ही मधुर उसके वचन हों, चाहे कितनी ही मधुसिक्त उसकी वाणी हो, पौरुषेय है, मनुष्य की ही है; पार से नहीं आयी है इसलिए मुक्तिदायी नहीं हो सकती है। जब संत केवल वाहक होता है, केवल बांस की पोली पोंगरी होता है परमात्मा के ओंठ पर रखी हुई। तुम्हें तो सुनाई पड़ते हैं गीत बांसुरी से ही आते हुए, मगर गीत परमात्मा के होते हैं। 


जब संत स्वयं नहीं बोल रहा होता, स्वयं शून्य हो गया होता है और परमात्मा को बोलने देता है तब वेद का जन्म होता है, उपनिषद का जन्म होता है, गीता का, कुरान का जन्म होता है, बाइबिल का जन्म होता है; तब बड़े अद्भुत गीत उतरते हैं। मगर संत के उन पर हस्ताक्षर नहीं होते, उन पर हस्ताक्षर परमात्मा के होते हैं।


तो पहली बातः संत तो बहुत हुए लेकिन गायक एक है। बांसुरियां बहुत लेकिन बांसुरीवादक एक है।
दूसरी बातः वे जो गीत शाश्वत के और सनातन के हैं, मनुष्य गा भी नहीं सकता। मनुष्य तो क्षणभंगुर है। क्षणभंगुरता में कैसे शाश्वत का गीत उठेगा? मनुष्य तो मिटे तो ही शाश्वत का गीत बन सकता है। मनुष्य भूल ही जाए कि मैं हूं। उस विस्मृति में ही शाश्वत समय में झलकता है।


भक्त वही है जो भगवान की भक्ति में मस्त हो जाए ऐसा कि भूल जाए, जैसे शराबी भूल जाए; भूल जाए सारा संसार। न और की सुध रहे न अपनी सुध रहे। ऐसे मस्ती की अवस्था में शाश्वत और सनातन निश्चित गाता है, जरूर उतर आता है।


तुमने पूछा, चमत्कृत होता हूं यह देखकर। यह गंगा, अखंड गंगा बहती ही रही है। क्योंकि यह परमात्मा की गंगा है, बहती ही रहेगी। भौतिक गंगा तो कभी सूख भी सकती है लेकिन यह स्वर्गीय गंगा है, यह नहीं सूखेगी। जब तक वृक्षों में फूल लगेंगे, आकाश में तारे होंगे, पक्षी पंख फैलाएंगे और उड़ेंगे तब तक जब तक मनुष्य है और मनुष्य के भीतर अनंत को पाने की अभीप्सा जगती रहेगी और जब तक प्रार्थना उठती रहेगी तब तक कहीं न कहीं, किसी कोने में पृथ्वी के किसी हिस्से में तीर्थ बनता रहेगा, काबा निर्मित होता रहेगा। कोई गाएगा शाश्वत को, सनातन को। परमात्मा अखंड है इसलिए उसकी गंगा अखंड है और हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे बावजूद भी कभी-कभी कोई कंठ परमात्मा को हमारे भीतर गुंजा देते हैं, हमारे बीच गुंजा देते हैं।

प्रेम रंग रस ओढ़ चदरिया
 
ओशो

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