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Saturday, May 26, 2018

आप जो ध्यान सिखाते हैं, वह क्या पतंजलि के राजयोग का है या दूसरा? यदि दूसरा है, तो उसका स्रोत क्या है? तथा पतंजलि चर्चित, उनके द्वारा आयोजित जो ध्यान है, उनके प्रकार से आपका किस प्रकार भिन्न है?




जैसे मैं पतंजलि से भिन्न हूं, ऐसे ही। और जब पतंजलि को किसी और स्रोत की जरूरत नहीं है, तो मुझे भी किसी स्रोत की जरूरत नहीं है। और जब पतंजलि प्रामाणिक हो सकते हैं, तो मेरे प्रामाणिक होने में कोई बाधा नहीं है। और बड़े मजे की बात यह है कि पांच हजार साल पहले हुआ कोई आदमी, उसका प्रमाण दें, इससे तो बेहतर है कि मैं जो मौजूद हूं मैं ही प्रमाण बनूं। मुझसे बात भी हो सकेगी, सवाल भी हो सकेंगे। पतंजलि से बात भी नहीं हो सकेगी, सवाल भी नहीं हो सकेंगे।


जिस ध्यान की मैं बात कर रहा हूं, कहना चाहिए, वह मेरा ही है। लेकिन मेरे का "मैं' से कोई लेना-देना नहीं है। मेरा सिर्फ इस अर्थ में कि मैं किसी दूसरे को प्रमाण बना कर कुछ भी कहूं, तो वह भरोसे की बात नहीं। मेरा इसी अर्थ में कि जो भी मैं कह रहा हूं वह अनुभव है, विचार नहीं है। जो भी मैं कह रहा हूं वह किसी शास्त्र से संगृहीत नहीं है, स्वयं से जाना हुआ है। लेकिन मेरे का अर्थ "मैं' नहीं है। वह भूल निरंतर हो जाती है। क्योंकि जब तक "मैं' है तब तक तो ध्यान का अनुभव नहीं हो सकता। जब तक "मैं' है तब तक ध्यान का अनुभव नहीं हो सकता। इसलिए "मेरा' बड़ा कामचलाऊ शब्द है, और उसे ब्रेकेट्स में रख लेना। यानी उसका वही अर्थ नहीं है, जो मेरी कुर्सी का होता और मेरे मकान का होता। 


मेरे का कुल मतलब इतना है कि जो भी मैं कह रहा हूं वह अनुभव से कह रहा हूं। और अनुभव के लिए किसी पतंजलि के पास जाने की मुझे जरूरत नहीं, क्योंकि किसी पतंजलि को मेरे पास आने की कभी कोई जरूरत नहीं रही। इसलिए न तो किसी शास्त्र में उसका स्रोत है, न किसी व्यक्ति में उसका स्रोत है। 


लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, वह पतंजलि ने नहीं जाना या बुद्ध ने नहीं जाना। उन्होंने जाना होगा। लेकिन जो मैंने जाना है, वह मैं ही जान कर कह रहा हूं, उनके जानने से लिया गया नहीं है। जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, अगर उससे कोई यात्रा करे, तो भी वहीं पहुंच जाएगा जहां पतंजलि ध्यान करके पहुंचे होंगे। पतंजलि को पढ़ कर कोई पहुंचा होगा, उसकी बात नहीं करता हूं। पतंजलि जहां पहुंचे होंगे, वह इस ध्यान से भी वहां पहुंच जाएगा। बुद्ध जहां पहुंचे होंगे, इस ध्यान से भी वहां पहुंच जाएगा। 


इस अर्थ में मेरा भी नहीं है, क्योंकि वह शाश्वत है, सदा है। 


लेकिन धर्म का एक राज है। और वह यह है कि उसे सदा ही, जब भी पाना होता है, तब स्वयं से ही पुनः पाना होता है। धर्म जो है, वह सिर्फ डिसकवरी नहीं है, वह हमेशा रि-डिसकवरी है। विज्ञान में कोई चीज रि-डिसकवर नहीं करनी पड़ती, सिर्फ डिसकवर करनी पड़ती है, वह सिर्फ आविष्कार है। न्यूटन ने कर लिया, अब दूसरे को करने की कोई जरूरत नहीं है। अब हो गया। अब वह सबकी थाती हो गई। अब वह सबकी संपत्ति हो गई। अब जिसको भी आगे काम करना हो, वह न्यूटन से आगे करेगा। अब न्यूटन के ही आविष्कार को पुनः आविष्कृत करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
लेकिन धर्म का मामला यहां विज्ञान से भिन्न है। यहां पतंजलि ने जो खोज लिया, इसको जब भी कोई फिर खोजने जाएगा, तो वह रि-डिसकवरी है। वही खोजेगा जो पतंजलि ने खोजा था, लेकिन पुनः खोजेगा। क्योंकि धर्म में खोज भी, जो चीज हम खोजते हैं, उसका अनिवार्य हिस्सा है। खोजने की जो प्रक्रिया है, वह भी पाने में अनिवार्य हिस्सा है। इसलिए खोजने की प्रक्रिया से पुनः-पुनः प्रत्येक को गुजरना ही पड़ता है। 

जो घर बारे अपना 

ओशो 

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