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Monday, April 16, 2018

अगर प्रभु द्वार पर खड़ा हो और कहे कि मैं मिलने को राजी हूं तुम क्या देने को राजी हो?


कभी अपने मन में पूछना, तब तुम क्या दे दोगे निकालकर? तुम्हारे हाथ डरेंगे, खीसे में न जाएंगे।

रवींद्रनाथ की एक बड़ी प्रसिद्ध कविता है। एक भिखारी, जैसा रोज भिक्षा मांगने जाता था वैसा ही भिक्षा मांगने निकला। पूर्णिमा का दिन है, धर्म का कोई दिन है और उसे बड़ी आशा है। और जैसे भिखारी जब भिक्षा मंगाने जाते हैं तो घर से थोड़ा सा अपनी झोली में डाल कर निकलते हैंस्वाभाविक है, जरूरी है। झोली में कुछ पड़ा हो तो लोग दे देते हैं, नहीं तो देते भी नहीं। झोली में पड़ा हो तो उनको जरा संकोच आता है कि दूसरों ने दे दिया है तो हम भी दे दें। जरा बदनामी का भी तो डर लगता है। मंदिर में पुजारी तक जब आरती के बाद पैसे के लिए थाली फिराता है तो उसमें कुछ पैसे डाल रखता है। क्योंकि अगर थाली खाली हो तो तुम्हारी हिम्मत बिलकुल टूट जाएगी; तुम एक पैसा भी न डाल पाओगे। तुम कहोगे : किसी ने भी नहीं डाला तो हमीं कोई बुद्ध हैं! अगर और भी बुद्ध बन चुके हैं, कुछ पैसे पड़े हैं, तो फिर तुम्हें ऐसा लगता है कि अब न डालें तो जरा कंजूसी मालूम होगी। तो एकाध पैसा तुम डाल देते हो। वह भी खोटे पैसे लेकर लोग मंदिर आते हैं। छोटी से छोटी चीज़ मांगते हैं। 


निकला था थोड़े से पैसे डाल कर थोड़े चने के दाने, थोड़े गेहूं थोड़े चावल और राह पर आया है कि देखा, राजा का रथ आ रहा है धूल उड़ाता। सुबह सूरज निकला है और उसका स्वर्णरथ चमक रहा है। वह तो बड़ा गदगद हो गया। उसने कहा, ऐसा कभी सौभाग्य न मिला था, क्योंकि राजा के महल में तो कभी प्रवेश ही नही मिलता था, भिक्षा मांगने का सवाल ही न था। आज राजा राह पर मिल गया है तो खडा हो जाऊंगा बीच में झोली फैला कर, धन्यभाग हैं मेरे! कुछ न कुछ आज मिलने को है। 


रथ आया, रुका भी। रुका तो भिखारी घबड़ाया भी। कभी राजा के साथ' साक्षात्कार भी न हुआ था। और राजा नीचे उतरा भी। उतरा तो भिखारी बिलकुल ही कंप गया। और इसके पहले कि भिखारी होश जुटा पाता, अपनी झोली फैला पाता, राजा ने अपनी झोली उसके सामने फैला दी। और उसने कहा : ' क्षमा करो, ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर मैं भिक्षा मांगू तो राज्य बच सकता है, अन्यथा राज्य पर बड़ा संकट आ रहा है। और ज्योतिषियों ने कहा है, आज सुबह मैं रथ पर निकलूं और जो आदमी पहले मिले, उससे भिक्षा मांग लूं। क्षमा करो, माना कि तुम भिखारी हो और तुम्हें देने में बड़ी कठिनाई होगी, लेकिन अब कोई उपाय नहीं है, राज्य को बचाने का सवाल है। कुछ न कुछ दे दो, इनकार मत कर देना।


तो भिखारी बड़ा घबड़ाया। कभी उसने दिया तो था ही नहीं, मांगा ही मांगा था। देने की कोई आदत ही न थी, याद ही न आती थी कि कभी उसने कुछ दिया हो। 
 
तुम जरा उसका संकट देखो। ऐसे ही संकट में तुम पड़ जाओगे, परमात्मा अगर झोली फैला कर सामने खड़ा हो जाए। तुमने भी मांगा ही मांगा है। प्रार्थना जो भी तुमने की हैं अब तक, सब मांगों से भरी थीं। तुमने देने के लिए कभी प्रार्थना की? तुम कभी प्रभु के द्वार पर गए कि प्रभु, मैं अपने को देना चाहता हूं तू ले ले, कृपा करना और मुझे स्वीकार कर ले! तुम कुछ देने गए? तुम सदा मांगने गए। तुम भिखमंगे की तरह गए।


वह भिखमंगा बहुत घबड़ा गया। इंकार भी न कर सका क्योंकि राज्य पर संकट है और राजा अगर नाराज हो जाए...। तो उसने झोली में हाथ डाला। हाथ डालता है, मुट्ठी भरके दे सकता था, लेकिन मुट्ठी भरने की आदत ही न थी। मजबूरी में एक चावल का दाना निकाल कर उसने डाला। डालना कुछ था, डालना पड़ रहा थाराजा सामने खड़ा था। एक चावल का दाना!


बात आईगई हो गई। राजा ने झोली बंद की, बैठा रथ पर और चला गया। धूल उड़ती रह गई। तब उसे होश आया कि अरे, मैं तो मांगना ही भूल गया; यह तो उलटा ही हो गया! बड़ा दुखी! दिन भर में खूब भीख मिली, क्योंकि जो देता है वह खूब पाता भी है। हालांकि उसने बहुत कुछ न दिया था, मगर फिर भी दिया तो था ही। भिखमंगे के लिए उतना ही बहुत था। उस दिन खूब भीख मिली; लेकिन भी वह उदास था। एक दाना तो कम था। लाख मिल जाए, इससे क्या फर्क पड़ता है, एक दाना तो कम ही रहेगा! और यह भी कैसा दुर्भाग्य का क्षण कि राजा के साथ मुलाकात हुई तो मलने की जगह उलटा देना पड़ा। बड़ी पीड़ा थी। बड़े बोझ से भरा था। झोला बहुत भर गया था उसका, लेकिन वह खुशी न थी। वह घर लौटा। पत्नी दौड़ी। ऐसा झोला कभी भर कर न आया था। पत्नी बड़ी खुश हो गई। और उसने कहा : 'धन्यभाग, आज बहुत कुछ मिला है।उसने कहा : 'छोड़ पागल, तुझे पता नहीं आज क्या गंवाया है! यह कुछ भी नहीं है। एक तो अपने पास का एक दाना गया और इतना ही नहीं, जो मिलना था वह तो मिल ही न पाया। राजा के साथ मिलन हो गया और कुछ माग न पाया। आज जैसा दुर्भाग्य का क्षण मेरे जीवन में कभी था ही नहीं।


बड़ी उदासी से उसने झोली उलटाई और तब वह छाती पीट कर रोने लगा, क्योंकि उस झोली में उसने देखा कि एक चावल का दाना सोने का हो गया था। तब वह छाती पीट कर रोने लगा कि मैंने सब क्यों न दे दिया, तो सब सोने का हो जाता।


देने से सोने का होता है। मांगने से तो सोना भी मिट्टी हो जाता है। देने से मिट्टी भी सोना हो जाती है। इसलिए तो शास्त्र दान की इतनी महिमा गाते हैं। अगर प्यास है तो देने की तैयारी करो; और छोटीमोटी चीजें देने से न चलेगा, स्वयं को देना पड़ेगा। क्योंकि छोटीमोटी चीजें तो मौत तुमसे छीन लेगी, उनको देकर तुम कोई परमात्मा पर आभार नहीं कर रहे हो। जो मौत तुमसे न छीन सकेगी वही देने की तैयारी हो तो परमात्मा अभी मिल जाए, इसी क्षण मिल जाए। वह द्वार पर खड़ा है, दस्तक भी दे रहा है; लेकिन तुम डरते हो कि कहीं कोई भिखमंगा न खड़ा हो! तुम अपने बेटे को भेज देते हो कि कह दो कि पिता जी बाहर गए हैं।


तुम कहते हो कि प्यास है। मैं मान नहीं सकता। क्योंकि जिसको भी कभी प्यास पैदा हुई, परमात्मा प्यास के पीछेपीछे चला आया है।


अष्टावक्र महागीता 


ओशो

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