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Monday, April 16, 2018

आशीर्वाद तभी मिल सकता है, जब अहंकार न हो।


अहंकार है सारी पीड़ाओं का स्रोत, नरक का द्वार। लेकिन तुमने समझ रखा है, कि वही स्वर्ग की कुंजी है। और अहंकार को सिर पर लेकर तुम लाख उपाय करो, सुख की कोई संभावना नहीं है, न शांति का कोई उफाय है, न स्वर्ग का द्वार खुल सकता है। अहंकार के लिए द्वार बंद है, द्वार के कारण नहीं, अहंकार के कारण ही बंद है।

और अहंकार बिलकुल अंधा है। उसे दिखाई भी नहीं पड़ता। और उस अंधेपन में जिसे मिटाना है, उसे तुम बचाते हो। जिसे छोड़ना है, उसे तुम पकड़ते हो। जिसे फेंकना है, उसे तुम सम्हालते हो।

हीरे-मोती तो फेंक देते हो, कूड़ा-करकट बचा लेते हो। जो असार है, उसे तो सम्हाल कर रखते हो, जो सार है उसकी खबर भूल जाती है।


रोज ही यह मुझे अनुभव होता है। क्योंकि रोज ही लोग आते हैं। उनकी पीड़ा है, उनका कष्ट है। और उनका कष्ट वास्तविक है। लेकिन कष्ट मिटता नहीं, पीड़ा जाती नहीं, अशांति खोती नहीं। और जब मैं उनसे बात करता हूं, तो पाता हूं कि वे उसे बचा रहे हैं।


कल रात ही एक महिला आई। पढ़ी-लिखी है, विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है, पी.एच.डी. है, सुसंस्कृत है। उसने मुझे कहा, कि मेरे मन में बड़ी उदासी है। उदासी जाती नहीं। तो मैंने पूछा, डाक्टरों को पूछा? डाक्टर क्या कहते हैं?


उस महिला ने कहा, "डाक्टर! डाक्टर क्या ठीक करेंगे!"जैसे कि बीमारी इतनी विशिष्ट है कि डाक्टरों का क्या वश कि ठीक कर सकें! जिस ढंग से उसने कहा, जिस भाव-भंगिमा से कहा, कि डाक्टर क्या करेंगे; उसमें ऐसा लगा, कि उसकी बीमारी डाक्टरों के लिए एक चुनौती है। और डाक्टर न कर पाएंगे, क्योंकि वह करने न देगी। डाक्टरों और उसके बीच जैसे कोई संघर्ष, कोई प्रतिस्पर्धा चल रही है।


और उसने कहा, कि संतों के यहां भी गई; कुछ हुआ नहीं। अब आपके चरणों में आई हूं।


संतों को भी हरा चुकी है! अब वह मुझको हराने आई है। कहती तो यही है ऊपर से, कि आपके चरणों में आई हूं; लेकिन भीतर भाव यह है, कि एक मौका आप को भी देना उचित है--एक अवसर! चरणों में नहीं आई है, सेवा लेने आई है। उससे मैंने कहा, रुक जाओ दस दिन ध्यान कर लो।
वह संभव नहीं है। अभी तो विश्वविद्यालय खुलने के करीब है।


अगर बीमारी सच में बीमारी है और कष्ट दे रही है, तो आदमी हजार उपाय करेगा उसे दूर करने का। लेकिन यह महिला उसे बचाती मालूम पड़ती है।


मैंने कहा, ध्यान करो। उसने कहा, एक दिन कल करके देखा!


बीमारी को तो जन्मों-जन्मों तक आदमी इकट्ठा करता है।  ध्यान को एक दिन में करके देख लेता है!मैंने उससे कहा, तो ऐसा करो, जब तक न आ सको--जब आ सको तो दस दिन का वक्त निकाल कर आ जाओ, ताकि पूरा ध्यान का शिविर कर सको। जब तक न आ सको तो मैंने जो-जो कहा है, उसे पढ़ जाओ।


उसने कहा, पढ़ने से क्या होगा? आपका आशीर्वाद चाहिए।

जैसे कि आशीर्वाद मांगे जा सकते हैं!

आशीर्वाद मिलते हैं, मांगे नहीं जा सकते। आशीर्वाद पाने की पात्रता चाहिए। मांगने से उनका कोई संबंध नहीं है। तुम जब तैयार होते हो, तब आशीष बरस जाती है, छीनी-झपटी नहीं जा सकती।


लेकिन ऐसा लगता है, महिला जिद करके बैठी है। उसकी उदासी कोई मिटा न सकेगा। और जब तुम ही जिद करके बैठे हो, तो कौन मिटा सकेगा? और असली सवाल मिटाने का नहीं है। उदासी क्यों है? उदासी इसीलिए होगी, कि अहंकार ने बड़ी महत्वाकांक्षा की होगी, वह पूरी नहीं हो पाई है। अहंकार ने बड़ी सफलताएं चाही होंगी वह पूरी न हो पाई, अहंकार ने बड़े आभूषण उपलब्ध करने चाहे होंगे, सजाना चाहा होगा स्वयं को; वह पूरा नहीं हो पाया। वह कभी पूरा नहीं होता।


सुसंस्कृत महिला है, पढ़ी-लिखी है, इसका अर्थ ही यह हुआ, कि महत्वाकांक्षा साधारण स्त्रियों से ज्यादा है। पुरुषों जैसी महत्वाकांक्षा है, पुरुषों जैसा अहंकार है, एक दौड़ है। उसमें सफल नहीं हो पा रही है। कोई कभी सफल नहीं हो पाता।


कहीं भी पहुंच जाओ, अहंकार की भूख तृप्त होती ही नहीं। क्योंकि अहंकार की भूख झूठी है। सच हो, तो तृप्त हो जाए। झूठी भूख को तृप्त करने का कोई उपाय नहीं। जितना करो तृप्त, उतनी बढती चली जाती है। इसलिए उदासी है। अब उदासी अहंकार के कारण है। और आशीर्वाद तब तक नहीं मिल सकता, जब तक अहंकार न मिटे।

 
इसे थोड़ा ठीक से समझ लो। यह गणित सभी के जीवन के काम का है। आशीर्वाद तभी मिल सकता है, जब अहंकार न हो। और मजा यह है, कि अहंकार न हो, तो आशीर्वाद के बिना भी उदासी मिट सकती है। आशीर्वाद की कोई जरूरत भी नहीं है। अहंकार हो, तो आशीर्वाद की जरूरत है, क्योंकि उदासी रहेगी। लेकिन अहंकार के रहते आशीर्वाद नहीं बरस सकता।और अहंकार गलत को बचाए चला जाता है।

कहै कबीर दीवाना 

ओशो

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